सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

20 अक्तूबर 2009


तेरी मेरी उसकी बात - 5



संसद से चलकर जूतियां........


पिछले चालीस वर्षों में
कई बार हुआ है
यह सब-
संसद में चलकर जूतियां-
जब-
सचिवालय में घुसकर
कार्यालय में टूटी थीं
तो ताली पीटी थी
- लोगों ने।
कुछ ने यह समझा
कि - शायद
खेल शुरू होगा अब
और कुछ ने – कि
खेल ख़त्म हो गया
था अब।

और मैं जिसने कि
- तय किया था
यह सफ़र -
दफ़्तर से सचिवालय
और फिर-
संसद तक का।

और लौटा था
कुछ शॉर्ट कट से
- इस सड़क तक
- लोगों के हजूम में
पिछली बार भी
जब -
संसद से चलकर
जूतियां.......


मुस्करा दिया था
या कि ठहाका लगाकर
- हंसा भी था –
उन सब की नज़र बचा कर
शायद इसलिए कि
रंग में भंग पड़ता देख
पूछ न बैठें-
भई, यह क्या ?

पर मैं सहम गया था -
फ़िर अचानक-
सोचकर- यह जो भी जानता था
उन्हीं की चमड़ी से खिंचीं
यही जूतियां- जब बरसेंगी
इन सब के सिरों पर
और बनेंगी-
फांसी का फंदा-
तो फ़िर - एक बार
- एक और व्यक्ति- मुझसा-
पहुंचेगा- उसी राह से
- कार्यालय, सचिवालय
- और संसद तक
तो पीटेंगे लोग
तालियां !
पीटेंगे लोग
तालियां !



- के. प्रमोद

18 अक्तूबर 2009

तेरी मेरी उसकी बात (4)

इस कॉलम में इमरोज़ साहब, के. प्रमोद जी, श्रीमती आशा रानी शर्मा के बाद इस बार के अतिथि रचनाकार हैं- श्री श्याम नारायण सिंह।

1) पागल

हर एक पागल के पीछे एक दर्द भरी दास्तां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

सुना, एक वफ़ा के साथ बेवफ़ाई किसी ने की

वादा किया, फ़िर गैर से सगाई किसी ने की

इस सोच और फ़िक्र ने उसे घायल बना दिया

ज़िक्र किया इसका, तो जहां ने उसे पागल बना दिया ।

दुनिया के इस दस्तूर से हर बंदा परेशां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

पागल है, जाने दो, यह सदां थी फैली हुई

दूसरे रोज़ पाया गया, लाश उसकी थी फेंकी हुई

हाथ में एक ख़त था, कहानी उसकी थी लिखी हुई

पागल हुआ, कैसे हुआ, काग़ज़ पे हर इबारत थी उभरी हुई।

किसी ने न ग़ौर किया, मिट गया इक नौजवां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

कोई पागल है, धनमान लुटने से

कोई पागल है यार, अपने मेहमान छूटने से

पर वह पागल हुआ, इज़्जत बहन की लुटने से।

आघात वह सह न सका, पागल बना और कहाँ है ?

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

मैं भी पागल हूँ, सुनो पागल तुम भी हो।

वक़्त है नर्तकी, पाँवों के उसकी पायल तुम भी हो,

टूटते हो, जोड़ लेती है, बजने फ़िर लगते हो

घुंघरू की आवाज़ में ही सही, पर यही कहते हो –

बचा नहीं है कोई, पागल हर इंसां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

2) मधुमास

तेरी झील सी गहरी आँखों में इक प्यास हमने देखी है।

सपने में, फूल सा चेहरा तेरा उदास हमने देखा है।

तेरी अल्हड़ हरकतों ने इस दिल में जगह पाई है ।

गुस्से में भींचना ओंठ तेरा सच, अदा यह मुझे बहुत भाई है।

तुम न आना चाहो पास मेरे यह तो मर्ज़ी है तेरी।

पर, तेरी यादों का साया यहीं आस-पास हमने देखा है।

मुड़-मुड़ कर देखना और धीरे से मुस्कराना तेरा ।

कैसे बचें इन बेरहम नज़रों से हर अंदाज़ है क़ातिलाना तेरा।

तेरी चुलबुली सी चहक से खिल उठता है यह उपवन।

क्योंकि तेरे आने से यहाँ आते मधुमास हमने देखा है।

क्यों तूने किसी का दिल तोड़ने की कसम खाई है ?

क्यों तू आ नहीं सकती जब तेरी याद चली आई है।

कौन कहता है कि तू रोज़ इस महफ़िल से चली जाती है ।

तेरे नहीं रहने पर भी यहाँ रहने का अहसास हमने देखा है।

- श्याम नारायण सिंह, कुसुंडा, धनबाद (झारखंड) ।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा 'अंशु'

मेरे भईया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन ..........

'भ्रातृ द्वितीया यानी भाई दूज के अवसर पर सभी भाई-बहनों को हार्दिक शुभ कामनाएं !'


यह त्योहार पूरे देश में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यूं अखिल भारतीय स्तर पर रक्षा बंधन और भाई दूज के त्योहार का एक सा महत्व है परंतु बंगाली संस्कृति में भाई दूज ज़्यादा महत्वपूर्ण है। राखी की तुलना में यह त्योहार ज़्यादा पारंपरिक तौर पर मनाया जाता है।

इस दिन भाई बहन एक दूसरे के पास अवश्य पहुंचते हैं। बचपन से देखती आई हूँ कि मेरे मामा मध्य प्रदेश में रहते हैं तो हर बार माँ वहां नहीं जा पाती है, तो डाक या कोरियर से टीका या राखी भेज दी जाती है, साथ में मुंह मीठे के लिए चीनी की पुड़िया भी ताकि शगुन के तौर पर वे टीका लगा लें या राखी बांध लें। आज कल तो सभी की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं, चाह कर भी इन्सान मजबूरन कई बार नहीं जा पाता।

आज मेरा एफ. एम. रेनबो पर लाईव टॉक शो था। भाई दूज पर ही केन्द्रित था। मसलन आज आप किस तरह सेलिब्रेट करने वाले हैं और जब आपने अपनी पहली कमाई से बहना को उपहार दिया था तो क्या दिया था और कैसी अनुभूति हुई थी आपको, वगैरह, वगैरह। शो में मेरे पहले फोन कॉलर आए मंटू टेलर। आते ही उन्होंने मुझसे कहा कि दीदी मुझे टीका लगाईए। मैंने उनसे बकायदा सर को रूमाल से ढकने का अनुरोध किया, फिर उन्हें टीका लगाया और लड्डू तथा बर्फी से मुँह मीठा करवाया। बेचारे मंटु साहब इतने भावुक हो गए कि बस इतना ही बताया कि दीदी मेरी बहन आगरा मे रहती है, आज के दिन नहीं आ सकी। फिर भावुकता वश उनके शब्द उनका साथ न दे पाए, तथा ‘इससे ज़्यादा और नहीं बोल पा रहा हूँ’ कहकर माफ़ी मांगते हुए उन्होंने लाईन छोड़ दी। और वो कहते हैं न कि ‘जीने के बहाने लाखों हैं, जीना तुझको आया ही नहीं, कोई भी तेरा हो सकता है, तूने किसी को अपनाया ही नहीं’, की तर्ज़ पर मेरे सभी कॉलर फ्रेंडस् सुमित, लाडला मोल्ला, राम बालक दास, हफ़ीज़ उल्ला लस्कर वगैरह ने मुझसे ऑन एयर टीका लगवाया। मैंने उन्हें शुभकामनाएं दीं और उन्होंने भी मुझे दुआओं के तोहफे दिए। राम बालक ने कहा कि मेरा भी कुछ देने का फर्ज़ बनता है तो दीदी जब आप आकाशवाणी से बाहर निकलेंगी न, मेन गेट पर एक फोर व्हीलर खड़ा होगा गुलदस्तों से लदा, वह आपके लिए ही होगा।

हफ़ीज़उल्ला ने कहा कि हमारे यहां तो भाई दूज नहीं मनाई जाती है, लेकिन प्रोग्राम के माध्यम से सुनकर बहुत अच्छा लग रहा है। मैंने उन्हें बताया कि आजकल त्योहार किसी कम्युनिटि विशेष के न रहकर सबके हो गए हैं। सभी द्वारा मनाए जाते हैं। और, अगर कोई परंपरा अच्छाई के लिए हो तो उसे दूसरे धर्म वालों को भी अपना लेना चाहिए। हफ़ीज़ को मैंने बादशाह हुमायूं के राखी बांधे जाने का प्रसंग याद दिलाया।

इतने सालों में इतनी बार राखी और भाई दूज पर प्रोग्राम किए हैं, इस बार, पहली बार श्रोताओं ने ऑन एयर टीके का अनुरोध किया। अच्छा लगा। मंटु टेलर तो भावुक हो गए। भावुकता तो मुझमें भी बहुत है लेकिन ऑन एयर इस पर काबू रहता है, यह ईश्वर की कृपा है। वर्ना मैं बात-बात पर भावुक हो जाती हूँ। ऐसे ही 1998 में मैंने ‘बचपन’ पर एक प्रोग्राम किया था कि चलिए आपको बचपन के गलियारे में ले चलें। टीन एजर बच्चों विप्लव चक्रवर्ती तथा मीता के साथ-साथ उनकी माँ शुक्ला चक्रवर्ती भी रेगुलर क़ॉलर थीं। वे मेरे उस प्रोग्राम में आईं और बचपन की काफ़ी बातें उन्होंने शेयर की। पिता को याद करते हुए तो वे ऑन एयर फफक-फफक कर रो ही पड़ीं। उधर घर पर प्रोग्राम सुन रहीं मेरी कलीग गीता दी को टेंशन हो रही थी कि अभी नीलम का स्वर भीग जाएगा, ऑन एयर रो पड़ेगी अपने पिता को याद कर। अगले दिन ऑफिस आकर उन्होंने मुझे बताया कि मुझे बहुत डर लगा रहा था कि तुम रो पड़ोगी, क्योंकि पांच-छह महीने पहले ही मेरे पिता जी का अप्रत्याशित निधन हुआ था । लाईव परफॉर्म करते हुए ईश्वर की कृपा से उसे वक्त अपने पिता की बात बिलकुल ज़ेहन में नहीं आई, वर्ना मैं इमोशनल हो जाती और प्रोग्राम का कबाड़ा हो जाता। तो आज भी मंटु जी के साथ भावुक होते-होते मैंने ख़ुद पर नियंत्रण रखा।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा ‘अंशु’

कौन है वो ?

मुझे लगता है कि मुझे छोड़कर हर दूसरा व्यक्ति कविता लिखता है। मैंने कभी लिखने की कोशिश ही नहीं की। मेरा मानना है हर काम हर किसी के बस की बात नहीं। हाँ, यह अलग बात है कि दूसरों की कविताओं का संपादन मैं बढ़िया कर लेती हूँ। कई साल पहले अचानक भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के पुस्तकालय में एक पाठक से मुलाक़ात हुई। वे बांग्ला भाषी थे और हिन्दी में कविताएं लिखा करते थे। उन्होंने कहा कि मैं हिन्दी में कविताएं लिखने की कोशिश करता हूँ, आप पढ़कर अपेक्षित सुधार कर दिया करें। वे मेरे दफ्तर में आकर अपनी कविताएं दिखा जाया करते। फिर अचानक उनका आना बंद हो गया। पता नहीं वे आजकल शहर में हैं भी या नहीं और मुझे भी ठीक से उनका नाम याद नहीं। और वह आज की तरह फोन और मौबाईल का ज़माना तो था नहीं। दूसरों की कविताएं पढ़ते वक्त लगता है कि अरे यह बात तो मैं भी कह सकती थी। पर जनाब, मैंने कभी ज़हमत ही नहीं उठाई क्योंकि मुझे लगता है कि यह मेरे बस का काम नहीं। हाँ, यह अलग बात हैं कि छोटा भाई चंदन स्वप्निल जब कॉलेज में था तो ऑन द स्पॉट कविता लेखन के लिए उसे कई बार पुरस्कार मिला। जब पहली बार मिला तो उसने पिता जी को बताया। पिता जी ने विश्वास नहीं किया और कहा तूने कैसे कविता लिख ली, ज़रूर दीदी की दो-चार पंक्तियां मार ली होंगी। उसने कहा, दीदी भला कब से कविता लिखने लगी। चूँकि मेरे आलेख अखबारों में छपा करते थे तो पिता की धारणा बन गई थी कि शायद मैं कविता भी लिखती होऊंगी। उसके बाद उसने अपनी डायरी में कई कविताएं लिख रखीं थीं, परंतु सार्वजनिक रूप से उसकी कविता पहली बार 9 मई 1998 को कोलकाता विश्वमित्र के समकालीन हिन्दी कविता कॉलम में प्रकाशित हुई। किसी मित्र ने उस दिन अखबार लाकर घर पर दिखाया। उसी दिन पिताजी का निधन हुआ था और हम शमशान से आवश्यक रस्में पूरी करके लौटे थे। अपनी कविता देखते ही भाई ने कहा, 'अब पिताजी को दिखाता मैं, जो मुझे कहा करते थे कि दीदी की लाईनें चुरा ली होंगी। कविता कहीं छपी भी तो उनके निधन के बाद, मुझे इस बात का सदा अफ़सोस रहेगा।'

ख़ैर 1994-96 तक मैंने नौकरी करते हुए एम. ए . की पढ़ाई की। परीक्षा के कुछ दिनों पहले ऑफ़िस से छुट्टी लेकर घर पर पढ़ा करती। रात को नींद दबोचने लगती लेकिन पढ़ना ज़रूरी होता था। तो, थर्मस में चाय डाल कर रख लेती लेकिन नींद तंग करने पर तुली रहती। ऐसे में ही एक दिन नींद को दूर भगाने के क्रम में ज़बरदस्ती जगने की कोशिश में कुछ तुकबंदी सी की थी। वही मेरी पहली कविता थी और उन्हीं दिनों एक छोटी सी कविता और लिखी थी। वह कविता पता नहीं कहां पड़ी होगी। बस कुल मिलाकर यही दो कविताएं लिखी थीं। फ़िर कभी कोशिश नहीं की। अब अचानक पहली तुकबंदी हाथ लग गई जो कुछ इस प्रकार थी -

कौन है वो ?

बिन बुलाए मेहमान की भांति आ जाती है
हौले-हौले से आकर थप-थपा जाती है ।
बुजुर्ग परेशां हैं उसके न आने से
तो छात्र परेशां हैं उसके यूं आ जाने से ।
कभी पलक झपकते ही आ जाती है
तो कभी फुर्र से उड़ जाती है ।
गर पूछते हो कौन सी शै है वो ?
तो सुनिए जनाब !
मीठी-मीठी सलोनी सी 'नींद' है वो।
 ( 1994)


- नीलम शर्मा 'अंशु'

17 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली !

अंधेरे से प्रकाश की तरफ अग्रसर करने वाले ज्योति व प्रकाश

पर्व दीपावली की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं।

आपके जीवन में सुख, शांति व समृद्धि की बौछार करे यह


त्योहार।


- नीलम शर्मा ' अंशु '

03 अक्तूबर 2009

तेरी मेरी उसकी बात - (3)


इस कॉलम में इस बार एक दम ताज़ा और नई कलम से निकली रचना को हम शामिल कर रहे हैं। कहते हैं जिजीविषा हो तो कुछ भी असंभव नहीं। प्रस्तुत है लगभग एक पखवाड़े के बाद 70 बसंत पूरे करने जा रहीं, श्रीमती आशा रानी शर्मा की हाल ही में लिखी ये रचना। साहित्य और पढ़ने में रुझान रखने वाली श्रीमती शर्मा के हृदय से भी लेखन की कोंपल फूट पड़ी है। तो लीजिए हाज़िर है उनके द्वारा लिखित पह पहली रचना –

‘भूली बिसरी गलियां ’।

मिसेज़ शर्मा घर से जब चलने लगीं, तो बच्चों ने कहा, मम्मी आप मुरैना घूमने जा रही हैं, तो इस बार मथुरा, वृंदावन, गोकुल, यमुना जी सबके दर्शन कर आईएगा। पिछली बार जब आप गई थीं तो गर्मी का मौसम होने के कारण आप सभी जगहों पर नहीं जा पाई थीं। अब तो मौसम अच्छा है, न अधिक सर्दी है न गर्मी। यह सुनकर मिसेज़ शर्मा के मन को अति प्रसन्नता हुई। अमृतसर से मुरैना के लिए ए. सी. कोच में रिजर्वेशन पहले ही करवा रखी थी, परंतु सीट कन्फर्म नहीं हुई थी। यात्रा से एक दिन पहले ही अचानक घुटने में मोच आ गई जिस कारण चलने-फिरने, उठने-बैठने में भी भारी कष्ट हो रहा था। ऐसे में रात को पता चला कि सीट कन्फर्म हो गई है, फ़िर तो घुटने की तकलीफ़ होने पर भी वे अगली सुबह ट्रेन में सवार हो गईं कि चलो इसी बहाने बांके बिहारी के दर्शन होंगे। अमृतसर से जब मुरैना भईया के घर पहुँचीं तो वहाँ घुटने की तकलीफ़ और बढ़ गई। ख़ैर वहाँ डॉक्टर से चेक अप करवाया और टेस्ट वगैरह करवाए तो मालूम हुआ कि घुटने की माँसपेशियां ही फट गई हैं। अब ठीक होने में वक्त लगेगा, बेड रेस्ट करना होगा। ऐसे में तीर्थ यात्रा तो होने से रही। फ़िर देखते ही देखते अमृतसर लौटने की तारीख़ भी क़रीब आती गई। कहीं और जा पाने की शारीरिक स्थिति में वे थी नहीं। वहाँ जाकर भी पास ही विजयपुर में छोटे भाई से मिलने नहीं जा सकीं। सोचा उसे यहीं मुरैना बुला लूं। फोन किया तो भाई ने आने में असमर्थता जताई । उसकी बेटी भी बीमार थी और उसके अपने भी घुटनों में तकलीफ़ थी। उनको बुरा लगा कि देखो भाई ने आने से मना कर दिया और शायद भाई को बुरा लगा होगा कि इतनी दूर पंजाब से एक भाई के पास आकर वे दूसरे भाई के घर नहीं आ सकती क्या ? फ़िर अचानक दो दिन बाद उसे हार्ट अटैक होने की ख़बर आई। सुन कर किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था। सब आपस में काना-फूसी कर रहे थे परंतु मिसेज़ शर्मा को कोई कुछ बता नहीं रहा था। जब ख़बर की पुष्टि हो गई तो उन्हें भी बता दिया गया। वे बड़े भाई- भाभियों के साथ जब छोटे भाई के घर पहुँचीं तो भाई को देख उन्हें लगा मानो सो रहा है। उसकी मुस्कराहट से ऐसा लग रहा था मानो अभी उठ बैठेगा। पाँच बच्चों का बाप होते हुए भी, आख़िरी समय में कोई भी पास न था। दो बेटे नौकरियों के सिलसिले में पड़ोसी प्रांतों में थे। एक बिटिया ससुराल में थी। और छोटा बेटा, छोटी बिटिया को डॉक्टरी चेक अप के लिए ग्वालियर लेकर गया हुआ था। भाई को ऐसी हालत में देख मिसेज़ शर्मा की नज़रों के सामने फ्लैशबैक की तरह फ़िल्म सी चलने लगी। पाँच भाईयों में से एक-एक कर बड़े तीन भाई और बड़ी बहन तो पहले ही चल बसे थे, यह सबसे छोटा, जिसे गोद में खिलाया वह भी पहले ही चलता बना। पंजाब के एक छोटे से गांव में जन्मा वह जब छोटा था तो सभी उसे प्यार से काका कह कर पुकारते थे। वह पिता के पास दुकान पर जा बैठता और लोगों की बातें सुना करता। यह वह समय था जब अंग्रेजों की कूटनीति से हिन्दू और मुसलमानों का आपस में झगड़ा-फ़साद हो रहा था। कहाँ तो हिन्दू -मुस्लिम कितने प्यार से रहा करते थे और अब एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए थे। तिस पर सिक्ख जत्थे लेकर आ जाते कि यदि हिन्दुओं ने मुसलमानों की सहायता की तो तलवार से काट दिए जाएंगे, जिस कारण हिन्दू भी मदद करने में असमर्थ थे। जब तब वे जत्था लेकर आ जाते थे, तब काका दुकान से दौड़ कर घर भाग जाता था। रास्ते में आते-आते हल्ला करता आता, लोगो दरवाज़ा बंद कर लो जत्था आ गया है। उसका शोर सुनकर लोग दरवाज़े बंद कर लेते थे और वह अपने घर आकर दरवाज़ा बंद कर माँ की गोद में बैठ कर रोने लगता कि माँ हम सब यहाँ बैठे हैं, मेरा भाजी (सबसे बड़ा भईया) कहाँ है, वह कब आएगा। यह सुनकर सारे घर वाले भी रोने लगते क्योंकि उस घर का बड़ा बेटा यानी काके का भाजी काश्मीर की सरहद पर युद्ध में गया हुआ था(जिस समय देश विभाजन हो रहा था)। बहुत दिनों तक काके के भाजी का पत्र नहीं आया, जिस कारण घर वाले परेशान और दुखी रहते थे। माँ तो पागलों जैसी हो गई थी, पिता बेटे की कुशलता जानने के लिए मिलिट्री कमांडर को कभी पत्र तो कभी तार भेजते। जवाब न आने पर सभी निराश हो जाते। ऐसी स्थिति में घर में
कभी-कभी खाना नहीं बनता था, और यदि बन जाता तो कोई ठीक से खाता भी नहीं था। रात को सब लोग गली बाज़ारों में पहरा देते थे। हर घर से एक आदमी पहरे के लिए जाता था, घर के आसपास सब तरफ मुसलमानों के घर थे, जिस कारण हर समय भय लगा रहता कि कहीं कोई आग न लगा दे। रात को गली मुहल्ले की औरतें भी अपने घर की छत पर घूम-घूम कर पहरा देती थीं, ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगातीं – ‘जागते रहो, भई जागते रहो।’

आख़िर एक दिन देश का बंटवारा हो गया। सारे मुसलमान परिवारों को गाँवों और शहरों से निकाल दिया गया। जो जहां-जहां जाना चाहते थे वहां उन्हें भेज दिया गया और पाकिस्तान से हिन्दू परिवार भारत में आ गए। एक दिन काका खुशी से उछलता-कूदता दौड़ा-दौड़ा घर आया कि मेरे भाजी की चिट्ठी आई है। वह काश्मीर की लड़ाई जीत कर वापस घर आ रहा है। जिस दिन भाजी युद्ध जीत कर घर आया पूरे गांव वालों की खुशी का ठिकाना नहीं था। सबने भाजी का स्वागत किया और गले में फूलों के हार डाले। भाजी की जीत और सही सलामत घर लौटने पर बधाई देने आने वालों का घर पर तांता लग गया। उस समय भाजी की दादी और माँ ने परातें भर-भर की सक्कर(गुड़ की) बांटी और खुशियां मनाईं। तब काका भाजी की गोद में बैठकर प्रसन्नता से उछलने लगा। सब भाई बहनों ने एक साथ आनन्द मनाया। सभी भाजी से काश्मीर के किस्से सुनते और रोमांचित हो उठते। काका जो सब का प्यारा और दुलारा था, आज परलोक की यात्रा पर निकल गया। मिसेज़ शर्मा की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे क्योंकि वह तो तीर्थ यात्रा की सोच लेकर निकली थी और भाई यह कैसी यात्रा पर निकल गया ? पंजाब में जन्मा, पला-बढ़ा और एम. पी. में अधिकारी के पद से रिटायर हो वहीं की शमशान भूमि की तरफ बढ़ गया, जो अब कभी वहाँ से वापस नहीं आएगा, कभी मिलने नहीं आएगा। कभी नहीं।


प्रस्तुति – नीलम शर्मा ‘अंशु’
05-10-2009 रात्रि 12.36


‘त्योहारों का बदलता स्वरूप’
आजकल त्योहारों की बयार चल रही है, अभी-अभी हमने ईद और दुर्गापूजा/दशहरे के त्योहार मनाए और आज तो बंगाल के घरों में कोजागरी लक्ष्मी पूजा भी है।

समय के साथ-साथ जीवन के सभी पहलुओं में बदलाव आया है। बदलाव वक़्त की ज़रूरत भी है। वर्ना आप अपने समय से पीछे छूट जाएंगे, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आप हर बदलाव को स्वीकार कर लें, बदलाव सही और अच्छे के लिए हो तो ठीक है। रही बात त्योहारों के बदलते स्वरूप की, तो हम हिन्दुस्तान वालों को तो बस Celebration का बहाना चाहिए। और बंगाल में तो कहा भी जाता है कि बारो मासे तेरो पार्बन यानी बारह महीनों में तेरह त्योहार। भारत तो कृषि प्रधान देश माना जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है। यहाँ के अधिकतर त्योहार कृषि और ऋतुओं विशेष पर आधारित है।

पहले त्योहारों के साथ आस्था और परंपरा जुड़ी होती थीं। त्योहार हमारी संस्कृति का आईना होते हैं। आज इनका भी व्यवसायीकरण हो गया है। पहले ये त्योहार परस्पर मेल-मिलाप का ज़रिया हुआ करते थे और आज ये विशुद्घ आस्था का वास्ता न रहकर व्यवसायिक समीकरणों को सुदृढ़ करने का रास्ता बन गए हैं। त्योहारों के पीछे की वास्तविक सोच बदल गई है।

आज त्योहारों के साथ प्रतियोगिता भी जुड़ गई है। त्योहारों पर तोहफ़े यानी उपहार दिए जाने की हमारी हिंदुस्तानी संस्कृति की काफ़ी पुरानी परंपरा रही है। पहले खुले दिल से तोहफ़े दिए जाते थे, उपहारों के पीछे छुपी भावना देखी जाती थी, आज क्वालिटी और ब्रांड देखे जाते हैं। यानी दिखावे की भावना प्रबल हो गई है। सामने वाले ने जिस स्तर का तोहफ़ा दिया है हमें भी उसी के अनुरूप देना है। व्यवसायिक फ़ायदे/स्वार्थ या तेज़ी से बदलते समीकरणों के मद्देनज़र हम पाँच-छह कि.मी. या उससे भी ज़्यादा दूरी वाले व्यक्ति से मिलने या बधाई दने पहुंच जाएंगे और अपने पड़ोसियों को भले ही नॉक न करें।

पहले घर की गृहणियां कई-कई दिन पहले से ही मिष्टान्न और पकवान बनाने की तैयारियों में बड़ी लगन और स्नेह से लगी रहती थीं। बड़ी और अनुभवी बुजुर्ग महिलाएं मार्गदर्शन किया करती थीं। आजकल एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, फलस्वरूप वरिष्ठ पीढ़ी परिवार का हिस्सा नहीं रही। उनका मार्गदर्शन नहीं मिल पाता।

आज तरह-तरह के मिष्टान्न और पकवान बाज़ार में सहज ही उपलब्ध हैं। और आज महिलाएं घर और बाहर दोनों मोर्चों पर दोहरी जिम्मेदारियां निभा रही हैं। ऐसे में व्यस्तता के चलते सोचा जाता है कि जब रेडीमेड मिष्टान्न और पकवान सहज ही उपलब्ध हैं तो फ़िर समय की बचत का ध्यान रखते हुए उस ज़हमत से बचा जाए।

पहले त्योहारों के वक़्त रिश्तेदारों को चिट्ठियों के माध्यम से शुभकामनाएं भेजी जाती थीं, फिर बधाईपत्रों/ग्रीटिंग कार्डों का ज़माना आया। फिर Ph ने उसकी जगह ली और आज सूचना और प्रौद्योगिकी के युग में इसकी जगह ईमेल/SMS ने ले ली है।

पहले दीपावली के मौके पर सरसों के तेल के दीये जलाने की परंपरा थी, फिर मोमबत्तियां आ गईं और आज Sylish साज सज्जा वाले मोमबत्तीनुमा आकर्षक दीये भी मिलते हैं। और रौशनी के लिए अब तो बिजली की आकर्षक लड़ियां भी मिल रही है, जिनकी अपनी ही शान है और पूरा मुहल्ला रौशनी से नहा उठता है। महानगरीय सभ्यता में पारंपरिक दीये पीछे छूटते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि कुछ घरों में अभी भी मिट्टी के दीये जलाए जाने की परंपरा है और लक्ष्मी जी की प्रतिमा के समक्ष रात भर सरसों के तेल का दीय जलता रहता है।

पहले हमारे घरों की महिलाएं दीवाली और अहोई अष्टमी पर बड़ी मेहनत से दीवार पर चित्र बनाया करती थीं और आज ये चित्र भी कैलेंडर के रूप में बने-बनाए पांच-दस रुपए में उपलब्ध हैं।


पहले क्या होता था कि जिस प्रदेश या अंचल विशेष के त्योहार होते थे, वहीं मनाए जाते थे। अब भारत के Global Vill बन जाने के कारण हर त्योहार देश के हर हिस्से में, हर Culture के लोगों द्वारा परस्पर भाईचारे से मिल जुल कर मनाया जाता है, चाहे ईद हो या दशहरा, दीपावली, बैसाखी, पोंगल, लोहड़ी, या फ़िर करवाचौथ हो। क्योंकि हर त्योहार का संदेश तो एक ही है, उसके मूल में छुपी भावना एक है, तभी तो कभी शायर मुहम्मद इक़बाल ने कहा था – मज़हब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना।
हिन्दी हैं हम, वतन है हिंन्दोस्तां हमारा।


आज TV Serials और फ़िल्मों के माध्यम से भी त्योहारों के फ़लक का विस्तार हुआ है। भारत में विविध मज़हबों और संस्कृति के लोग हैं। उन्हें टी. वी. धारावाहिकों द्वारा एक-दूसरे की संस्कृति को विस्तार से जानने का मौक़ा मिलता है। जिस दिन जो त्योहार पड़ता है, उस दिन प्रसारित होने वाली कड़ी में विशेष रूप से उन त्योहारों को भी कहानी के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है।

भारतीय फिल्मों में भी बड़े पैमाने पर त्योहारों को शामिल किया जा रहा है। पहले भी होली, दीवाली, दशहरे पर कई फिल्में बनती रही हैं और ख़ास तौर से त्योहारों के इन मौकों पर रिलीज भी की जाती रही हैं। आज फिल्मों में त्योहारों को बड़े भव्य तरीके से पेश किया जाता है। कहानी में सिचुयेशन बना ली जाती है। पहले कितने गैर हिन्दी भाषी(बंगाल वाले) लोग करवाचौथ के बारे जानते थे। आज करवाचौथ घर-घर पहुंच गया है। इसके साथ ही छठ, गणगौर, जन्माष्टमी, नवरात्र पूजन, गणपति पूजन भी बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

पहले की तुलना में आज परिवारों की तरफ से बच्चों को त्योहारों पर घूमने-फिरने की ज़्यादा आज़ादी है। आज वे सारी-सारी रात अपने-अपने सर्कल में अपने-अपने तरीके से Celebration को एन्जॉय करते हैं, पहले Parents का कठोर अनुशासन होता था, इतने बजे के बाद हर हाल में घर लौट आना है और बच्चे भी आज्ञापालन करते हुए उसमे सीमाबद्ध रहते थे।

आज उस आज़ादी के साथ-साथ उच्श्रृंखलता भी बढ़ी है, चाहे वह Celebration के तरीकों की हो या Dress Sense की । लोग नहीं सोचते कि हम क्या पहन कर निकल रहे हैं(ख़ास तौर से लड़कियां)। ज़ाहिर है जब हम तैयार होकर घर निकलते हैं तो निश्चित रूप से आईने में खुद को तो निहारते ही हैं। फिर भी लोग कैसे ऐसी पोशाकें पहन घर से बाहर क़दम रखते हैं। पहले पोशाकें बदन ढकने के लिए पहनी जाती थीं और आज बदन दिखाने के लिए। पहनने वाले की तुलना में देखने वाला शरमा जाए। अभिभावक भी पता नहीं कैसे इसकी अनुमति देते हैं।
Public Places में लोग उच्श्रृंखलता का प्रदर्शन करते हैं, पहले लोग दूसरों का लिहाज़ करते थे। आज इसकी कमी दिखती है। वर्ना सार्जेट बापी सेन जैसे दिलेर लोग क्यों ज़िंदगी से हाथ धो बैठे ?
आज त्योहारों का दायरा बढ़ा है। व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग अपनों से मिलने और उनके संग वक़्त गुज़ारने के लिए बहाना ढूँढते हैं और इसी क्रम में वेस्टर्न संस्कृति पर आधारित मदर्स डे, फादर्स डे, ग्रैंड पेरेंटस् डे, सीनियर सिटिजंस डे, वर्ल्ड म्युज़िक डे जैसे आयोजनों का चलन शुरू हुआ।

एक और बदलाव का उल्लेख करना चाहूंगी। पंजाब प्रदेश का एक त्योहार है ‘लोहड़ी’ । 13 जनवरी को मनाया जाता है। पहले क्या होता था कि परिवार में पुत्र की पैदाईश या पुत्र की शादी वाले घरों में बड़े धूमधाम से यह त्योहार भव्यता से मनाया जाता था। पूरे गांव या मुहल्ले में लोहड़ी बांटी जाती थी। यानी पुत्र संतान के साथ इसका जुड़ाव था। लेकिन तीन साल पहले मैंने वहां के लोकल अख़बारों में देखा कि अब कन्या संतान की पैदाईश पर भी यह त्योहार बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। जहां कन्याओं की भ्रूण हत्याओं जैसे कृत को अंज़ाम दिया जाता था, वहां यह एक सुखद बदलाव है, ।


भारतीय संस्कृति के त्योहारों के अनुसार देवी पूजा, शक्ति पूजा, कुमारी पूजन, दुर्गा पूजा, लक्ष्मी – सरस्वति पूजा की जाती है। महिला को शक्ति का स्वरूप माना जाता है वहीं दूसरी ओर आज उसी शक्ति स्वरुपा नारी से पैदा होने का हक़ छीना जाने लगा है। पहले के ज़माने में पुत्र की अभिलाषा में कन्या संतानों की क़तार लग जाती थी आज तो कन्याओं के जन्म पर ही प्रश्न लग गया है।

महानगरों की तुलना में छोटे शहरों, कस्बो, गांवो में अभी भी आस्था और परंपराएं बची हुई हैं। मैं अगर अपनी बात करूं तो मेरी पैदाईश और बचपन उत्तरी बंगाल के अलीपुरद्वार जक्शन में गुज़रा। बीस बरसों से कलकत्ते में हूँ, मुझे नहीं लगता कि कलकत्ते आने से पहले कभी हमारे परिवार ने विश्वकर्मा पूजा या सरस्वति पूजा की शाम घर पर बैठकर गुज़ारी हो, वहां लोग सपरिवार ये पूजाएं देखने भी अलग-अलग पंडालों में जाया करते थे। इसका भी अपना ही मज़ा होता था। इंतज़ार रहता कि कब पिता डयूटी से फ़ारिग हो घर लौटेंगे और शाम को पूरे परिवार को पूजा घुमाने ले जाएंगे। इस चीज़ को मैं बड़ी शिद्दत से यहां कोलकाता में मिस करती हूं। पता ही नहीं चलता दफ़्तर में डयूटी करते हुए विश्वकर्मा पूजा कैसे बीत जाती है। इतना ही नहीं, पिता जिस कन्सट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे, कंपनी के बड़े से ट्रक हम सभी बच्चों को भरकर कूचबिहार में रास मेला घुमाने ले जाया जाता था। कोलकाता आने पर शुरू-शुरू के आठ-दस सालों तक तो मैं दुर्गा पूजा में वहीं जाना पसंद करती थी क्योंकि वहाँ अलग-अलग पंडालों में कोई न कोई परिचित परिवार या दोस्त-मित्र मिल जाते थे। बहुत मज़ा आता था। और महानगरों की आपाधापी में परिचित परिवारों या दोस्तों से आकस्मिक मुलाक़ात की बात तो भूल जाईए, परिवार का सदस्य भीड़ में बिछुड़ जाए तो उसे ढूंढने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

कुल मिलाकर पहले की तुलना में आज आर्थिक संपन्नता भी बढ़ी है, साथ-साथ मंहगाई भी बढ़ी हैं। त्योहारों के Celebration के तरीक़े, अंदाज़ भी बदले हैं। जोश भी बढ़ता जा रहा है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि भारत जो कि कृषि प्रधान देश कहा जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है वहीं एक तरफ़ बड़ी भव्यता से बड़े पैमाने पर त्योहारों का आयोजन किया जाता है दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो दाने-दाने को मोहताज हैं। बदलाव वहीं तक स्वीकार्य हों, जो सुखद, सही और बेहतरी के लिए हों, चाहें वे किसी क्षेत्र में क्यों न हो ?
नीलम शर्मा ‘अंशु’ /03-10-2009

30 सितंबर 2009

तेरी मेरी उसकी बात - 2


इस कॉलम में शायर और कवि इमरोज़ के बाद प्रस्तुत है, श्री के. प्रमोद जी की कविताएं जो कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर, विशेष परंतु प्रासांगिक हैं आज के संदर्भ में :-


(1)

बापू के बंदर

तीन बंदर,
तीन बातें
बापू की -


मिटने दो सिंदूर,
टूटने दो चूड़ियां,
- बस बुरा मत देखो।


चलने दो गोली,
होने दो चीत्कार,
बच्चों के सीत्कार,
- बस बुरा मत सुनो ।

तुम्हें क्या ?
कोई कुछ कहे
कहीं मरे - कोई मारे
चुप - एक चुप
सौ सुख
बुरा मत कहो
बापू ने कहा था ।

तुम्हें जीना है न ?
चुप्पी साध लो
आँखें मूंद
लो
रुई डाल लो

कानों में ।

होने दो
जो होता है
तुम्हें क्या
मत सुनो
मत देखो
मत कहो ।


(2)

सत्यम्

वह झूठ
जो हम रोज़ सुनते हैं
बोलते हैं
फ़िर भी स्वीकारते हैं।



शिवम्

उपरोक्त
सत्य
जो हम
स्वीकारते हैं।


सुंदरम्

स्वीकारना
वह सब
नतमस्तक हो
सब जानते हुए
अनजान बन।

o संक्षिप्त परिचय

हिन्दी विकास परिषद, चंडीगढ़ के संस्थापक एवं साहित्य संपादक रहे।
कई वर्षों तक साइक्लोस्टाइल पत्रिका 'विकास' का संपादन।
कविताएं यत्र-तत्र प्रकाशित।
संप्रति - बैंक अधिकारी।

प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु '/02-10-2009





Hindi writer transliterates Batalvi to Bengali script .


Varinder Walia


Born in Alipurduar Jn. (North Bengal), daughter of Punjabi parents, Hindi writer Neelam Sharma Anshu has transliterated Shiv Kumar Batalvi, hailed as one of the great Punjabi poets of all times, to Bangla script for the first time.
The project was assigned to Anshu by the Punjab Language Department. The work of Batalvi in Bangla script will be published shortly. She says it needs more energy to translate/transliterate literature than do creative writing.
Anshu has translated a number of noted Punjabi, Urdu, Bengali writers and poets into Hindi. However, it is for the first time that she has transliterated Punjabi songs and poems of Batalvi into Bengali script. She admits that it was difficult to transliterate Batalvi, who is considered a mystical master of words, to any language, especially Bengali.
The versatile Hindi writer has also translated a poetry book of Assamese language.
Talking to The Tribune, Anshu said the hobby of translation and transliteration developed while working in the Directorate of Supplies and Disposals, Commerce Ministry. As a part of her job she has to do lot of translation work for the benefit of non-Bengali consumers who have settled in West Bengal.
She owes her versatility in languages due to the stay of her father late Tarsem Lal Sharma in a number of places while working with a Railway Construction Company. However, despite staying outside Punjab, she did not forget to promote Punjabi, a language of her ancestors. Anshu said she had studied in BLM Girls College (Nawanshahr) and her stay in Punjab was only for six years, but it was too short a period to have a complete command on the language . “She, however, did a lot of labour to excel in Punjabi language. She gives full credit to the then Editor of Punjabi Tribune who had published her article after making a number of corrections. “I can’t forget the great gesture of the Editor of Punjabi Tribune which encouraged me to do more service to the language of my ancestors,” she said with great humility.
She said with her latest venture, Bengali-speaking readers would be able to read transcendental agony of great Punjabi poet Batalvi. She said the translation work was quite different from transliteration. However, she took care of the spellings and proper pronunciation while transliterating Batalvi .
Earlier, she had translated “Phoolon Ka Saath,” a novel by Kartar Singh Duggal , “Suron Ke Saudagar,” written by India-based Canadian writer Iqbal Mahal, “Pavitar Paapi,” a famous novel by Nanak Singh, and “Lal Batti,” authored by Baldev Singh. From Bengali to Hindi, she has translated “Kabuliwale Ki Bengali Biwi,” autobiographical novel by Sushmita Bandopadhyay, which was declared best-seller of Hindi since Kolkata Book Fair, 2002 . The Hindi feature film, “Escape from Taliban,” was also made on the basis of the Hindi translation. She has also translated “Ek Akshar Bhi Jhootha Nahin” and “Sattayies Din Title Ke,” written by Bandopadhyay and Subrato Das, respectively.



She has also translated Urdu play “Dahkate Angaray” & London-based Hindi writer Tejendra Sharma to Punjabi. Some of the writings translated from various languages to Punjabi are also in the press.



साभार - Tribune News Service Amritsar, February 25 , 2008

तुम जीयो हज़ारों साल !......




सितंबर और अक्तूबर माह में जन्मी भारतीय फ़िल्म जगत की हस्तियों को जो हमारे बीच मौजूद हैं, हम एक साथ मुबारकबाद और जो बिछ़ुड़ चुकी हैं, उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहेंगे -
सितंबर :
2 - अभिनेत्री साधना, 4 - ऋषि कपूर 6 - अभिनेता-निर्माता राकेश रोशन,
8 - पार्शव गायिका आशा भोंसले,
9 - अभिनेता तथा सिंग इज़ किंग यानी अक्षय कुमार,
13 - परदेस गर्ल महिमा चौधरी, 14 - आमिर ख़ान,
18 - शबाना आज़मी, 20 - निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट,
21 - क़रीना, 22 - पार्शव गायक कुमार शानू,
23 - प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा वाले प्रेम चोपड़ा, तनूजा तथा राज बब्बर,
26 - सदाबहार हीरो तथा रोमांसिग विद लाइफ में मशगूल देव आनंद,
27 - लव स्टोरीज़ के सफल निर्माता-निर्देशक जिनका दिल बोले हड़िप्पा यानी यश चोपड़ा,
28 - पापा ऋषि और मम्मा नीतू सिंह के सांवरिया साहबज़ादे रणवीर कपूर।
अक्तूबर :
2 - आशा पारेख, 3-निर्माता-निर्देशक जे.पी.दत्ता, 8-फ़रहा
10- बिंदास रेखा, 11- बिग महानायक अमिताभ बच्चन,
12-निदा फ़ाज़ली, 16 - बगिया की बागबां हेमा जी, 17 - सिम्मी ग्रेवाल,
18- पंजाबी फ़िल्म चन्न परदेसी में ज़मींदार जी! मेरी चवान्नी की रट लगाए रखने
वाले ओम पुरी साहब,
19- ढाई किलो का हाथ जब किसी पर उठता है न, तो वह बस उठ जाता है वाले
सन्नी भा जी,
21- याहू ! कोई मुझे जंगली कहे! कहने वाले शम्मी कपूर,
26- रवीना, शब्बीर कुमार, अनुराधा पौडवाल
इन सभी कलाकारों से हमारी ढेर सारी बधाईयां तथा यही दुआ करते हुए कहेंगे -
'तुम जीयो हज़ारों साल ! '
श्रद्धांजलि : (जन्मदिन पर याद करते हुए) -
सितंबर :
7 - निर्माता- निर्देशक महबूब खान,
21- मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ, 30- निर्देशक ऋषिकेष मुखर्जी
अक्तूबर :
1 - गीतकार मजरूह/सचिन देव बर्मन,
13 - अशोक/गायक-क़व्वाल नुसरत फ़तेह आली ख़ाँ,
27- दीनानाथ मधोक
श्रद्धांजलि : (पुण्यतिथि पर याद करते हुए) :
सितंबर :
3-मुकरी, 23- गीतकार राजिंन्द्र कृष्ण,
27-चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाए हम दोनों, कहने वाले महेन्द्र कपूर,
अक्तूबर :
10 - चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो तुम वाले गुरुदत्त,
25- गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी,
27-राजकुमारों और शहज़ादों के पर्याय प्रदीप कुमार ।
- नीलम शर्मा 'अंशु'

29 सितंबर 2009

रूठ कर हमसे जो तुम यूं चले जाओगे,
सच कहते हैं कि तुम बहुत याद आओगे! - (1)
( 29 सितंबर जन्मदिन पर विशेष)

उसे पढ़ने-लिखने का शौक़ क़तई नहीं था। सातवीं क्लास तक आते-आते वह कई स्कूल बदल चुका था, लगभग 14 स्कूल। जनाब! पढ़ाई के नाम पर जीरो और शैतानियों में हीरो था। शैतानियों के लिए सज़ा भी मिलती थी, जम कर धुलाई भी होती। कहते हैं उनके घर जो मेहमान एक बार आता, वह दुबारा आने का नाम न लेता या यूं कहें कि तौबा कर लेता क्योंकि पहली बार आने पर ही उसके पैसे चोरी हो जाते थे। चोरी करना उस बच्चे का शौक था। जो मज़ा चुराने में था, भला वह मांगने में कहाँ था ? (और मांगने पर कौन सा हर चीज़ मिल ही जाती है।) तभी तो कालांतर में उसने यह कहा कि बाप बड़ा न मईया, द होल थिंग इज़ दैट कि सबस बड़ा रुपैय्या।

शरारतों का आलम यह था कि स्कूल जाते वक़्त पड़ोस की एक लड़की उससे कहा करती थी – ‘बड़ी होकर मैं तुझसे शादी करूंगी।’ चिढ़कर इस बच्चे ने एक दिन गुलेल से पत्थर दे मारा, और साहब! फ़िर क्या था, उस लड़की का कान ही ग़ायब हो गया। आप सोचिए ज़रा एक लड़की का कान ही न रहे तो क्या हालत होगी ? आप उत्सुक होंगे इस बच्चे का नाम या परिचय जानने को। जी हाँ, तो वह बच्चा था....... ग्लैमरस, मायाबी और स्वप्निल फिल्मी दुनिया का हास्य कलाकार यानी महमूद ।

महमूद साहब ने बचपन में लोकल ट्रेन में पारले की पिपरमेंट गोलियां भी बेचीं। आठ साल की उम्र में एक्टिंग का काम भी मिला। बॉम्बे टॉकीज़ की क़िस्मत, फ़िल्मस्तान की शिकारी, सोना-चाँदी आदि फ़िल्मों में काम किया। मगर एक्टिंग का शौक कभी नही रहा। शौक था, कार ड्राइविंग का। और इस तरह महमूद ड्राइवर बन गए। ज्ञान मुखर्जी, गोपाल सिंह नेपाली, गीतकार भरत व्यास, पी. एल. संतोषी की गाड़ियां चलाईं।

देवानंद साहब मधुबाला को लेकर फ़िल्म बना रहे थे, नादान। संतोषी जी के दफ़्तर के पास शूटिंग चल रही थी। सीन में एक बस कंडक्टर का कैरेक्टर था। मधुबाला जी के साथ जूनियर आर्टिस्ट नर्वस हो गया। फ़िल्म के निर्देशक को मालूम था कि महमूद दूसरों की अच्छी नकल कर लेते हैं। उन्होंने संतोषी जी के दफ़्तर से महमूद को बुलवा भेजा। बतौर ड्राइवर उन्हें पचहत्तर रुपए पगार मिलती थी। महमूद से कहा गया कि तीन-चार दिन की शूटिंग है, सौ रुपए रोज़ाना मिलेंगे। महमूद को अचरज हुआ कि चार महीनों की तनख्वाह चार दिनों में! महमूद के बॉस संतोषी जी ने काम करने की अनुमति दे दी। महमूद ने फर्स्ट क्लास सीन दिया। अब हुआ ये कि कहाँ तो मधुबाला के साथ जूनियर आर्टिस्ट नर्वस हो रहा था और अब महमूद का शॉट देख मधुबाला नर्वस हो गईं।


तो धीरे-धीरे अधिक आमदनी वाली एक्टिंग महमूद को भा गई। एक दिन महमूद अपने दोस्त किशोर कुमार के पास गए और बोले, मुझे एक्टिंग करनी है। तो किशोर कुमार साहब में कहा कि एक नाई कभी नहीं चाहेगा कि दूसरा नाई उसके बगल में दुकान खोल ले। तुम डायरेक्शन, कैमरा, म्युज़िक जिसमें कहो, मैं हेल्प करूंगा परंतु एक्टिंग में नहीं। तो महमूद ने पलट कर जवाब दिया, देखना मैं एक दिना इतना नाम कमाऊंगा और तुझे अपनी फ़िल्म में लूंगा। और, महमूद साहब ने यह कर भी दिखाया। उनके द्वारा प्रोड्यूस की गई सब फ़िल्मों में किशोर कुमार रहे।

धीरे-धीरे महमूद को काम मिलने लगा जॉनी वॉकर की बदौलत उन्हें ‘सी.आई.डी’ में अच्छा रोल मिला। राजकपूर के साथ ‘परवरिश’ में काम किया। इस फ़िल्म का एक गीत ‘मामा-मामा’ सुपरहिट हुआ। फ़िर फ़िल्मस्तान की फ़िल्म ‘अभिमान’ जिसके निर्देशक महेश कौल थे, ने जुबली मनाई।

फ़िल्म ‘छोटी बहन’ से महमूद को पहली बार हीरो बनने का मौक़ा मिला। फ़िर शबनम, क़ैदी नं. 911, रोड नं. 303, फर्स्ट लव जैसी15-20 फ़िल्मों में हीरो की भूमिका निभाई। एल.वी. प्रसाद की फ़िल्म ससुराल से महमूद कॉमेडियन बने।

एक ज़माना ऐसा भी था जब महमूद के बिना फ़िल्म नहीं बनती थी। उन दिनों शुभा खोटे, धुमल और महमूद की तिकड़ी काफ़ी हिट हुई थती। एक मज़ेदार बात यह कि..... महमूद शिवजी के भक्त थे। जिस फ़िल्म में उनका नाम महेश होता था, वह सुपरहिट होती थी।

महमूद के पिता मुमताज़ अली भी स्टार रहे हैं तथा उनकी बहन मीनू भी फ़िल्मों में काम करती रहीं हैं।
अभिनय के साथ-साथ महमूद साहब ने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भी क़दम रखा। पहली फ़िल्म बनाई छोटे नवाब। इस फ़िल्म में उन्होंने संगीतकार आर. डी. बर्मन को ब्रेक दिया। इस फ़िल्म में आर. डी. ने अभिनय भी किया था।

1953 में मीना कुमारी जी की बहन मधु से महमूद साहब की शादी हुई लेकिन यह शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। फ़िल्म भूत बंगला की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात एक अमेरिकन युवती से ट्रेसी से हुई। ट्रेसी उनकी जीवनसंगिनी बनी। लेकिन कालांतर में वे भी अमेरिका लौट गईं।

उनका मानना था कि इन्सान को ज़िंदगी में इतनी जद्दो-ज़हद करनी पड़ती है कि उसे दो फुट ज़मीन भी नसीब नहीं हो पाती। इसलिए उनकी ख़्वाहिश थी कि मृत्यु के बाद उनके शरीर को दफ़नाने की बजाय जला कर अंत्येष्टि की जाए। वे इस धरती की माटी में मिल जाना चाहते थे।

29 सितंबर 1932 को जन्में महमूद अली की प्रमुख, मशहूर फ़िल्में रहीं – भूत बंगला, पड़ोसन, गुमनाम, बॉम्बे टू गोया और प्यार किए जा उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म थी – दुश्मन दुनिया के। फ़िल्मों से अवकाश के बाद उनका अधिकतर समय बंगलौर में गुज़रता था। उन्होंने मंद बुद्धि बच्चों के लिए स्कूल तथा अस्पताल भी बनवाया। 23 जुलाई 2004 की सुबह लंबी बीमारी के बाद अमेरिका में उनका निधन हो गया।

28 सितंबर 2009

तुम जीयो हज़ारों साल - (1)

आज ही के दिन यानी 28 सितंबर 1929 को म. प्र. के इन्दौर में दीनानाथ मंगेशकर के घर प्रथम संतान के रूप में एक कन्या का जन्म हुआ। उस नन्हीं सी, कोमल सी कली का नाम रखा गया हेमा। बाद में उसे पिता के एक नाटक ‘भानबंधन’ की एक पात्र लतिका से लिया गया नाम लता दिया गया और वह हेमा से लता कहलाई। बचपन में पिता ने उसे एक नाम और दिया था – टाटा बाबा । हम बात कर रहे हैं स्वर कोकिला, सुर साम्राज्ञी कालजयी लता जी की। जी हाँ, आज वे जीवन के 80 वसंत पार कर 81वें में क़दम रख रही हैं।

विख्यात गायक और अभिनेता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर के घर जन्मीं लता को संगीत और अभिनय की प्रतिभा/विरासत में मिली। अपनी कड़ी मेहनत से लता ने संगीत की दुनिया में कल्पनातीत ऊँचाईयों को छुआ ।


एक सुबह दीनानाथ जी को संगीत की कक्षा बीच में ही छोड़ थोड़ी देर के लिए किसी काम से जाना पड़ा। शिष्य लगातार गा रहा था। पाँच-छह बरस की नन्हीं लता पास ही खेल रही थी। एक-दो बार शिष्य ने ग़लत गाया तो लता खेलना बंद कर उसे समझाने लगी कि वह कहाँ ग़लती कर रहा था । इसी बीच पिता लौट आए। वे पीछे खड़े होकर बेटी का गायन सुनने लगे। लता के शुद्ध गायन ने उन्हें चौंका दिया। और,फि़र क्या था अगले ही दिन से उन्होंने लता को संगीत की तालीम देनी शुरू कर दी। भोर होते ही लता जग जाती और तानपुरा लेकर अभ्यास करती। जब वे सात वर्ष की थीं, तब पिता सपरिवार अलग-अलग स्थानों पर घूम-घूम कर ‘सोभद्र’ नामक नाटक का मंचन कर रहे थे। उन दिनों वे ‘मनमाहू’ में थे। नाटक में नारद की भूमिका करने वाला कलाकार मंचन के ठीक पहले बीमार हो गया। नाटक की घोषणा हो चुकी थी। अत: उसे टाला नहीं जा सकता था। बड़ा गंभीर संकट था। ऐसे में लता ने परेशान पिता से कहा – ‘परेशान मत हों बाबा, मैं नारद की भूमिका करूंगी और मैं विश्वास दिलाती हूँ कि दर्शकों को मेरा काम पसंद आएगा, आख़िरकार मैं आपकी बेटी हूँ।’
बेटी ने जिस विश्वास से कहा उसे देखते हुए पिता को गंभीरता से विचार करना पड़ा। परंतु समस्या यह थी कि नाटक में अर्जुन की भूमिका निभा रहे दीनानाथ 36 वर्ष के थे और नारद सिर्फ़ 7 वर्ष का। हालात ये थे कि या तो स्थिति को स्वीकारा जाए या नाटक का प्रदर्शन रद्द किया जाए। अंतत: पर्दा उठते ही एक मंजे हुए कलाकार की जगह बच्चे को देख दर्शकों में खुशी की लहर दौड़ गई। नन्हें नारद के होंठ हिले, दृश्य के अनुसार शब्द, लय, राग ने दर्शकों को विस्मित कर दिया। मंत्रमुग्ध से बैठे दर्शक कलाकारों की उम्र के फ़र्क को भूल गए। और उस रात जब लता घर लौटी तो माँ ने काला टीका लगा दिया ताकि बुरी नज़र न लग जाए।

13 साल की उम्र में पिता के निधन ने एकाएक नन्हीं सी लता को बड़ा बना दिया। पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण पिता के देहांत के बाद पारिवारिक ज़िम्मेदारियां लता पर आ पड़ीं। मजबूरन एक्टिंग की ओर रुख करना पड़ा। हालाँकि पिता कभी अभिनय के पक्ष में नहीं रहे जबकि उनकी अपनी फ़िल्म और ड्रामा कंपनी थी।

अपने जीवन काल में वे केवल एक दिन स्कूल गईं। वह भी छोटी बहन आशा को गोद में लिए स्कूल पहुँची तो डाँट पड़ी और कहा गया कि इसे घर पर छोड़ कर आओ। लता ने सोचा जहां मेरी बहन के लिए जगह नहीं वहां मैं भी नहीं जाऊँगी। भले ही किसी विद्यालय से उन्होंने विधिवत् शिक्षा न ली हो लेकिन अनेक विश्व विद्यालयों ने उन्हें मानद डी. लिट की उपाधियों से नवाज़ा है।
1942 में फ़िल्म ‘पहली मंगलागौर’ से बतौर बाल-कलाकार लता मंगेशकर ने अपने करियर की शुरुआत की। इस फ़िल्म में उन्होंने अभिनय के साथ-साथ गीत भी गाए। वैसे उन्होंने अपने करियर का पहला गीत 1942 में ही मराठी फ़िल्म ‘किटी हासल’ में गाया लेकिन उसे फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया।

हिन्दी में लता जी ने पहली बार पार्श्व गायन किया 1947 में फ़िल्म ‘आपकी सेवा’ में । संगीत था दत्ता डावजेकर का। गीत के बोल थे –
‘ लागूं, कर जोरी रे, श्याम मोसो न खेलो होरी।’

अभिनय - मराठी के साथ-साथ हिन्दी में बड़ी माँ(1945), जीवनयात्रा/सुभद्रा(1946), मंदिर(1948) , छत्रपति शिवाजी (1952) आदि फ़िल्मों में अभिनय भी किया।

संगीत निर्देशन - अभिनय और पार्श्व गायन के अलावा लता जी ने ‘आनंदघन’ नाम से मराठी में 1950 में राम राम पाहुणे, 1963 में मोहित्यांची मंजुला, 1964 में मराठा तितुका मेलवावा, 1965 में साधी माणसं, 1969 में तांबड़ी माता आदि पाँच फ़िल्मों का संगीत सृजन भी किया।
फ़िल्म निर्माण1953 में मराठी में बादल, हिन्दी में झांझर ( सी. रामचन्द्र के साथ), 1955 में मराठी में कांचनगंगा तथा 1990 में हिन्दी में ‘लेकिन’ जैसी फ़िल्मों का निर्माण भी किया।
पसंदलता का पसंदीदा रंग है सफ़ेद। वे हीरों की बेहद शौकीन हैं। उनका पसंदीदा त्योहार है दीवाली, मौसम में शरद ऋतु, शहरों में मुंबई और न्यूयॉर्क, खेलों में क्रिकेट, फुटबॉल और टेनिस प्रिय हैं। फोटोग्राफी, व्यंजन बनाने, आइसक्रीम, अचार और साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने की वे बेहद शौकीन हैं। भूपाली, मालकौंस, गोरख, कल्याण, यमन, भीम पलासी उनकी प्रिय राग-रागिनियां हैं।
मान-सम्मान
1958 में फ़िल्म मधुमति (आ जा रे परदेसी), 1962 में फ़िल्म बीस साल बाद (कहीं दीप जले कहीं दिल) 1965 में फ़िल्म खानदान (तुम्हीं मेरे मंदिर)
1969 में फ़िल्म जीने की राह (आप मुझे अच्छे लगने लगे) आदि गीतों के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

राष्ट्रीय सम्मान – 1969 में पद्मभूषण, 1989 में दादा साहब फालके सम्मान, 2001 में भारत रत्न से सम्मानित।
लता मंगेशकर एक मात्र ऐसी शख्सीयत हैं जिनके जीवनकाल में म. प्. सरकार मे 1984 से सुगम संगीत का अलंकरण पुरस्कार देना शुरू किया और 1992 से महाराष्ट्र सरकार ने लता मंगेशकर सम्मान देना शुरू किया।

वह शख्सीयत नहीं है जो हर सदी या दो सदियों में हुआ करती है। यह बड़े भाग्य की बात है कि हमारी हस्ती उनके साथ बनी हुई है। 12 सुरों पर उसका नियंत्रण मुग्ध कर देने वाला रहा है। मेरी बहन है इस, नाते तारीफ़ नहीं कर रहा हूँ मैं। परंतु नहीं, महाभारत में एक ही कृष्ण हुए हैं। उसी तरह भारत में सिर्फ़ एक ही लता हुई हैं। कहते हैं भाई हृदयनाथ मंगेशकर।

० सदियों में पैदा होने वाली आवाज़ और गुज़री सदी की बिलाशक श्रेष्ठतम आवाज़ है जिससे ये सदी भी धन्य हुई है। पड़ोसी राष्ट्र के मेरे एक मित्र कहते हैं कि हमारे मुल्क़ में वह सब है जो भारत में आप लोगों के पास है, बस नहीं हैं तो सिर्फ़ ताजमहल और लता मंगेशकर। - अमिताभ बच्चन।
० बकौल जगजीत सिंह – बीसवीं शताब्दी में सिर्फ़ तीन चीज़ें याद की जाएंगी – लता मंगेशकर का जन्म, मनुष्य का चंद्रमा की धरती पर क़दम रखना और बर्लिन की दीवार टूटना।
० बहन आशा भोंसले के अनुसार – जब बड़ी गाती है तो लगता है कि मंदिर की घंटियां बज उठी हों। मैं तो बचपन से उस के साथ रही हूँ। क्या कहूँ स्वर्ग से अपदस्थ अप्सरा है जिसे शापवश स्वर्ग से धरती पर फेंक दिया गया है लेकिन शाप देते हुए देवगण शायद उसकी दिव्य आवाज़ छीनना भूल गए हैं। और रास्ता भटक वह ग़लती से हमारे बीच आ गई है। उसकी आवाज़ की मिठास, उसके उच्चारण, फ़िर चाहे किसी भी भाषा में गा रही हो सुनते ही बनते हैं।
० जिस तरह फूल की खुशबू का कोई रंग नहीं होता, वह महज़ खुशबू होती है, जिस तरह बहते हुए पानी के झरने या ठंडी हवाओं का कोई घर, देश नहीं होता, जिस तरह उभरते हुए सूरज की किरणों या मासूम बच्चे की मुस्कराहट का कोई भेदभाव नहीं होता वैसे ही लता मंगेशकर की आवाज़ कुदरत की तहलीक का करिश्मा है। कहते हैं दिलीप कुमार।
० बकौल जावेद अख़्तर, पृथ्वी पर एक सूर्य है, एक चंद्रमा और एक लता।
० अगर ताजमहल दुनिया का सातवां आश्चर्य है तो लता आठवां। कहना है उस्ताद अमज़द अली ख़ाँ का ।

० लता जी के गाए गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ को बहुत शोहरत मिली लेकिन उसके गीतकार को लोग भूल से गए हैं। इस गीत को लता के नाम से जाना जाता है लेकिन गीतकार पंडित प्रदीप का कोई ज़िक्र भी नहीं करता। कहा यह भी जाता है कि इसे पहले आशा भोंसले गाने वाली थीं , फ़िर बाद में दोनों बहनों द्वारा गाया जाना तय हुआ लेकिन यह बाद में लता जी की झोली में चला गया। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि देश विभाजन के परिणामस्वरूप नूरजहाँ अगर पाकिस्तान न चली गई होंतीं तो शायद लता मंगेशकर का सफ़र इतना आसां नहीं होता। याद कीजिए उनके शुरुआती दौर के गीतों का अंदाज़ वैसा ही था।
कुंदन लाल सहगल लता के प्रिय गायक थे। वे बचपन में पिता से कहा करती थीं कि बड़ी होकर मैं सहगल से ही शादी करूंगी तो जवाब में पिता कहते कि जब तुम बड़ी होगी तब तक सहगल बूढ़े हो जाएंगे। तो लता कहती मैं फिर भी उन्हीं से शादी करूंगी। लता ने जब पहली बार अपने पारिश्रमिक से रेडियो खरीदा तो घर पर लाकर इसे पहली बार ऑन करते ही सहगल साहब के देहांत का समाचार सुनने को मिला और उसके बाद उन्होंने उस रेडियो को घर पर नहीं रखा, अपने किसी रिश्तेदार को दे दिया।

कहते हैं लता जब बहुत छोटी थीं तो उन्हें भयंकर चेचक निकला था। चेचक इतना ज़बरदस्त थी कि मुँह, गले, पेट सब जगह दाने से हो गए। महीनों तक उन्हें रुई के फाहे से दूध पिलाया गया। पत्तों पर लिटाया गया। बचने का कोई उम्मीद नहीं थी परंतु उन्होंने मौत को भी
चकमा दे दिया। कहते हैं चेचक के बाद उनकी आवाज़ बदलकर सुरीली हो गई थी।
तो ऐसे में हम आज के दिन उनके दीर्घायु होने की कामना करते हुए यही कहेंगें कि तुम जीओ हज़ारों साल ...... और इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि
‘सरगम की फ़िज़ाओं में चली है तू
तबले की थाप पे हर सू चली है तू
वीणा की झंकार है तेरी बोली में
तभी तो स्वर कोकिला कही गई है तू ।’

न भूतो न भविष्यति, स्वर्ग की अपदस्थ अप्सरा, राष्ट्र की आवाज़, कोकिल कंठी, स्वर किन्नरी, गंधर्व स्वर, संगीत साम्राज्ञी, जीवंत किंवदंती, उन्हें चाहे ऐसी कितनी ही उपमाएं, अलंकरण, संबोधन या उपाधियां दी जाएं, सत्य यही है कि वे लता मंगेशकर हैं।


- नीलम शर्मा ‘अंशु’

26 सितंबर 2009


तो ऐसे में कंजकें कहाँ से आएंगी.........?



26 सितंबर, पूरे देश भर में हर्ष व उल्लास सहित माँ दुर्गा के नवरात्र मनाए जा रहे हैं। हाँ, तरीका अलग-अलग हो सकता है लेकिन इसके पीछे छुपी आस्था की डोर एक है। आज माँ दुर्गा की अष्टमी के मौके़ पर धूम दिखी। उत्तर भारत में तो अष्टमी और नवमी के दिन कंजकों की पूजा की जाती है। उससे पहले उपवास रखे जाते हैं। जागरण होते हैं। बंगाल में इन दिनों दुर्गा पूजा की धूम है। माँ दुर्गा इन दिनों मायके आती हैं और बड़ी धूम-धाम से माँ का स्वागत किया जाता है मायके में आगमन पर और उसी धूम-धाम से दशमी के बाद माँ ससुराल विदा भी किया जाता है। विदा करने के पश्चात् औरतें आपस में सिंदूर खेला खेलती हैं। और इसके बाद शुरू होता है परस्पर बधाईयां देने का तांता यानी शुभो बिजोया। बंगाल में तो जिस तरह दुर्गा पूजा बंगाली समाज का अभिन्न अंग बन गई है उसे देख कर हैरानी नहीं होती क्योंकि जिस जज़्बे से वे माँ की पूजा करते हैं वही जज़्बा उनके घरों में भी बेटियों के प्रति देखने को मिलता है। आजकल तो एक ही संतान का चलन हैं। आम बंगाली परिवारों में एक ही बेटी देखने को मिलती है, उसे ही वे हर तरह की उच्च शिक्षा दिला कर अच्छा इन्सान बनाने की जी तोड़ कोशिश करते हैं। उन्हें देखकर क़तई नहीं लगता कि उन्हें फिक्र है कि बेटा नहीं है तो आगे वंश कैसे चलेगा ? आजकल तो हर घर में एक ही कन्या संतान देखने को मिलती है। सलाम है इन परिवारों के जज़्बे को। आज के ज़माने में कन्या संतान और पुत्र दोनों के करियर पर एक जैसा ही खर्च आता है।
और उधर उत्तर भारत में अष्टमी तथा नवमी के दिन कन्याओं की खूब पूछ होती है। कंजकों की पूजा की जाती है, चरण स्पर्श कर आशीष ली जाती है। बेचारी कन्याएं थाली उठाए एक घर से दूसरे घर जाते थक जाती हैं। बचपन में मुझे भी इस दौर से ग़ुज़रना पड़ा है, जी नहीं चाहता, फिर भी जाना ही है। इन अंचलों में वैसे कन्या की पैदाईश पर चेहरे लटक जाते हैं। पहले के ज़माने में पुत्र संतान की आकांक्षा में कन्याओं की क़तार लग जाती थी। और आज के आधुनिक दौर में तो पैदाईश पर ही अंकुश लग गया है, पैदा होने से पूर्व ही परीक्षण कर कन्या भ्रूण की हत्या कर दी जाती है। तो फिर ऐसे में कंजकें कहाँ से मिलेंगी ?
मैं परिवार में अपनी पीढ़ी में एक ही बेटी हूं। दो भाईयों की एक बहन। छोटा भाई मुझसे ग्यारह बरस छोटा है। वह कहा भी करता था, माँ आपका परिवार तो एक बेटे और एक बेटी से पूरा हो गया था फिर मेरे जन्म की ज़हमत क्यों उठाई ? मुझे अच्छी तरह से याद है कि मुझे बचपन में कभी लड़के या लड़की के फ़र्क का अहसास परिवार में नहीं हुआ। लेकिन बचपन में बड़ी इच्छा होती थी कि मुझे भी कोई दीदी कहने वाला हो(ये अलग बात है कि सर्विस में आने के बाद इस संबोधन की कोई कमी नहीं रही)। लिहाज़ा माँ के साथ मंदिर जाती तो भगवान से एक भाई की मन्नत मांगती ( भाई ही क्यों, बहन की क्यों नहीं, अब समझ में नहीं आता) । भाई की पैदाईश पर माँ को मन्नत के बारे में बताया तो फिर मंदिर में जाकर मन्नत की सामग्री भी चढ़ाई(अलीपुर द्वार जंशन के शिव बाड़ी में जाया करते थे हम) । मन्नत उन दिनों की अपनी हैसियत यानी जेब खर्च के अनुरूप ही थी - एक केला और पाँच पैसे। भगवान शिव भोले भंडारी हैं ही भोले, इतने में ही मान गए। बड़े होने के बाद भाई कहा करता कि भगवान भी कितना लालची है, तुम्हारी बात पर राज़ी हो गया।
तो बात हो रही थी कन्या भ्रूण हत्या की। सिंतबर 2006 समाचार पत्रों में पंजाब के पटियाला जिले का पत्तड़ां गांव काफ़ी चर्चा में रहा था। वहां के एक प्राइवेट नर्सिंग होम के पिछवाड़े में बनाए गए दो कुओं से 9, 10 अगस्त 2006 को लगभग तीन सौ कन्या भ्रूण नष्ट किए पाए गए। यानी इतनी तरक्की के बावजूद देश के कुछ हिस्सों में बेटियों को अभी भी अभिशाप समझा जाता है कि उनकी पैदाईश पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया जाता है। पंजाब में ये जुमला तो अक्सर सुना करते थे कि कुड़ियां तां भार हुंदीयां ने। लोग तो यह भी कहा करते कि पढ़ा लिख कर क्या करना है कल को तो पराए घर ही भेजनी है। मुझे याद है पंजाब के हमारे पुश्तैनी गांव में एक वृद्धा जिसे मेरी मां ताई कहा करती थीं, ने पूछा था कि बिटिया किस क्लास में है। माँ ने कहा था चौदहवीं में(बी.ए.) क्योंकि वे लोग बी.ए. के लिए चौदहवीं और एम.ए. के लिए सोलहवीं कहा करते थे। तो उसने कहा था, क्या करोगे इतना पढ़ा कर, कल को तो बेगाने घर ही देनी है। मुझे याद है जब भी कॉलेज में हमारा रिजल्ट निकलता तो माँ प्रशाद ज़रूर बांटा करती। ( बहुत ज़्यादा इंटेलीजेंट नहीं भी थी तो पढ़ाई में बुरी भी नहीं थी। हाँ इतना ज़रूर था कि जिन स्कूलों और कॉलेज में पढ़ाई की, टीचरों पर इम्प्रेशन रहा। टीचरों को इतने स्टुडेंटस् में भी नीलम शर्मा का नाम याद रहता था। इक्नॉमिक्स कभी भी पसंदीदा विषय नहीं रहा, मर मर कर पढ़ा। क्लास में पढ़ाने के बाद मैडम किसी और से सवाल पूछे न पूछे मेरी बारी ज़रूर आती, चाहे नाम से आए या रोल नंबर से। जवाब देने के लिए हाथ उठाओ तो मैडम कभी नहीं पूछती थीं और हाथ नीचा रहे तो बारी ज़रूर आनी है। यह तो मुझे समझ आ गया था। )
2006 के सितंबर 8 को आजतक चैनल पर एक न्यूज़ ब्रॉडकास्ट हुई थी। राजस्थान के जैसलमेर जिले के देवड़ा गांव में जसवंत नामक युवती की शादी हुई। शादी होना भला कौन सा बड़ी बात है ? लेकिन दोस्तो, जसवंत की शादी होना सचमुच बड़ी बात थी क्योंकि उस गाँव में 110 वर्षों बाद होने वाली किसी लड़की की यह पहली शादी थी। एक सौ दस वर्षों बाद उस गाँव में बारात आई। दरअसल उस गाँव के लोग किसी ज़माने में आर्थिक रूप से संपन्न न होने के कारण बेटियों की शादी का खर्च उठाने में ख़ुद को असमर्थ पाते थे। परिणामस्वरूप बेटी को पैदा होते ही मार दिया जाता था। जसवंत के माता-पिता ने सूझ-बूझ से काम लिया और पैदा होते ही उसके नाना-नानी उसे अपने साथ ननिहाल ले गए। बचपन में जब भी वह माँ-बाप से मिलने आती तो लड़के के वेश में उसे लाया जाता। तो इस तरह उसे बचा कर रखा गया और उसकी शादी संपन्न हुई।
हालांकि लोग सजग हो रहे हैं फिर भी यह जागृति का ग्राफ़ बहुत धीमी रफ़्तार से चल रहा है। हमारे घर जब हमारी भतीजी कुहु ने जन्म लिया तो चंडीगढ़ के पी.जी. हॉस्पिटल में डिलीवरी के दौरान महिलाएं बड़ी उत्सुकता से उसकी माँ को पूछती थीं कि क्या बेटी होने पर तुम्हारे ससुराल वाले खुश हैं। उन्होंने कुछ नहीं कहा तुम्हें ?
तो, नवरात्र उत्सव पर कंजकों को बहुत-बहुत बधाई, चलिए इन दिनों तो उनकी जम कर पूछ होती है।
- नीलम शर्मा 'अंशु '

19 सितंबर 2009

आयकर विभाग में हिन्दी पखवाड़े/हिन्दी दिवस का आयोजन

श्री गौतम चौधरी, मुख्य आयकर आयुक्त, की अध्यक्षता में आयकर विभाग में दिनांक 03 सितंबर से 16 सितंबर तक हिन्दी पखवाड़े एवं हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया गया। मुख्य अतिथि, कवि-लेखक-चिंतक-समीक्षक एवं भारतीय भाषा परिषद के निदेशक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इस मौके पर बोलते हुए कहा कि ‘भारत के लोगों की संपर्क भाषा है हिन्दी। भाषाएं, अपने बोलने वालों के बल पर ज़िंदा रहती हैं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व छह सौ सालों तक फारसी हिंदुस्तान की राजभाषा थी। आज फारसी का नामोनिशान तक नहीं है। पूरे देश में मुश्किल से सौ-दो सौ से कम ही छात्र होंगे फारसी के।’ पखवाड़े के दौरान निबंध लेखन, वाद-विवाद, टिप्पण-आलेखन आदि विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया एवं विजेता प्रतिभागियों को क्रमश: रुपए 5,000, 3000/-, 2000/- 1,000/- के नकद पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया।
आधिक से अधिक सरकारी काम-काज हिन्दी में किए जाने के लिए मुख्य आयकर आयुक्त, केन्द्रीय –II के कार्यालय को विभागीय राजभाषा चल शील्ड प्रदान की गई, जिसे प्राप्त करते हुए आयकर आयुक्त श्री नरेन्द्र प्रताप सिंह ने अपने सहयोगियों को इसका श्रेय दिया। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से विभाग द्वारा ‘पूर्वांचल’ पत्रिका में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट रचनाओं के लिए श्री एन।पी. सिन्हा, आयकर आयुक्त, श्री सी. पी. भाटिया, अपर आयकर आयुकत व अंकित अनुराग को क्रमश प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया। मूल रूप से हिन्दी में काम-काज करने के लिए प्रोत्साहन योजना के तहत् प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय तीन पुरस्कार दिए गए।


इस मौके पर मुख्य अतिथि डॉ. विजय बहादुर सिंह ने विभागीय त्रिभाषी पत्रिका ‘पूर्वांचल’ के बीसवें अंक का लोकार्पण किया। साथ ही उन्होंने सहायक निदेशक (राजभाषा) सुश्री नीलम शर्मा ‘अंशु’ द्वारा हिन्दी में अनूदित बांग्ला के जाने-माने लेखक समीरण गुहा के उपन्यास ‘गोधूलि गीत’ का लोकार्पण भी किया। लेखक की हिन्दी में अनूदित यह पहली कृति है।

इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन भी किया गया। सुश्री श्रावणी घोष के गायन से गीत-संगीत कार्यक्रम आरंभ हुआ। उन्होंने भजन तथा शास्त्रीय गीत सुनाए। अंकित अनुराग ने कवि जयशंकर प्रसाद की रचनाओं की संगीतमयी प्रस्तुति से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। गायक पुलक दास ने हेमंत कुमार एवं किशोर कुमार के गीतों से श्रोताओं का मनोरंजन किया।

विशेष आकर्षण रहे दुआर्स के गायक नूपुर गांगुली। उन्होंने होठों से छू लो तुम, आईए बारिशों का मौसम है, चिट्ठी आई है और सोने जैसा तन है चांदी जैसे केस आदि गीत और ग़ज़लों द्वारा लोगों का दिल जीता। साथ ही शहर की रंगमंचीय संस्था लिटिल थेस्पियन ने मधु काकंरिया रचित कहानी ‘फाइल’ का भावपूर्ण मंचन प्रस्तुत किया।

कार्यक्रम के आरंभ में श्री प्रमोद चन्द्र श्रीवास्तव, आयकर आयुक्त व राजभाषा अधिकारी ने स्वागत वक्तव्य रखा। मुख्य आयकर आयुक्त व अध्यक्ष श्री गौतम चौधुरी ने अधिक से अधिक कार्य हिन्दी में किए जाने पर कर्मचारियो की सराहना की एवं संतोष व्यक्त किया। प्रमोद कुमार सिंह, उप निदेशक (राजभाषा) ने धन्यवाद ज्ञापन किया। पूरे कार्यक्रम का संचालन किया नीलम शर्मा, सहायक निदेशक (रा. भा.) ने। मंच पर उपस्थित अन्य अतिथियों में थे आयकर अन्वेषण के महानिदेशक श्री विनोद खुराना।



18 सितंबर 2009

कैसे कैसे रिश्ते
- नीलम शर्मा ‘अंशु’

रोज़ की भाँति नीलोफ़र दफ़्तर आई। आते ही मेज़ पर पड़े ख़तों पर नज़र पड़ी। उनमें से छाँटकर एक ख़त उसने पहले खोला और एक ही साँस में पढ़ डाला। ख़त पढ़ते ही उसकी आँखें छलछला आईं। साथ वाली सीट पर बैठने वाली मीता अभी आई नहीं थी। सामने वाली सीट पर मिश्रा जी अख़बार पढ़ने में तल्लीन थे। उनका ध्यान नीलोफ़र की तरफ नहीं गया। वे अपने में मग्न अख़बार पढ़ते रहे। चंद लम्हों बाद नीलोफ़र के आँसू खुद-ब-खुद थम गए। ख़त चंडीगढ़ से आया था, भंडारी अंकल का था। वे राजकिशोर अंकल के सहकर्मी भी रह चुके थे।
ख़त पढ़ते ही उसे बेचैनी सी महसूस होने लगी। यकायक आई इस ख़बर ने उसके दिल-ओ-दिमाग में उथल-पुथल मचा दी थी। चाहते हुए भी उसका दिल इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था। यकायक अतीत की कुछ घटनाएं फ्लैशबैक की भाँति उसके स्मृतिपटल पर दौड़ने लगीं। नज़रों के समक्ष ‘दैनिक प्रभात’ का वह विज्ञापन था –‘निजी दफ्तर के लिए कुछ क्लर्क चाहिएं। इच्छुक उम्मीदवार विस्तृत विवरण सहित आवेदन करें।’
नीलोफ़र ग्रेजुएट थी। साल भर पहले वह चंडीगढ़ से ग्रेजुएशन कर जलपाईगुड़ी आ गई थी। मक़सद था दुर्गा पूजा देखना और सालों के अंतराल के बाद अपनी जन्मभूमि का सैर-सपाटा। इसी शहर में उसकी पैदाईश हुई थी। पिता जलपाईगुड़ी स्थित एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे। नीलोफ़र की स्कूली तालीम पूरी होते ही उसकी कॉलेज की पढ़ाई के लिए पिता ने परिवार को चंडीगढ़ भेज दिया था। दुर्गा पूजा के दौरान ही अचानक माँ की तबीयत ख़राब हो गई। पेट में दर्द उठने लगा। सिलीगुड़ी नर्सिंग होम ले जाया गया। डॉक्टरों ने तुरंत ऑप्रेशन करवाने का सुझाव दिया। आनन-फानन में ऑप्रेशन भी हो गया। डॉक्टर ने कुछ ज़रूरी हिदायतों के साथ कुछ दिनों बाद छुट्टी दे दी। साथ ही ज़्यादा लंबा सफ़र करने की निषेधी और साल भर के बेड रेस्ट की सलाह भी।
नीलोफ़र का सार कार्यक्रम गड़बड़ा गया। चंडीगढ़ में वह अपनी सहेलियों से वादा कर आई थी कि महीने भर के सैर-सपाटे के बाद लौट कर उनके साथ एम। ए. में दाख़िला लेगी। पर, अब डॉक्टर की हिदायतों का पालन ज़रूरी था। माँ को आराम और देखभाल की ज़रूरत थी। फिर भी चंडीगढ़ जाकर पढ़ाई पूरी करने को उसका मन मचल उठता था। यही सोचकर उसने ‘दैनिक प्रभात’ के उस विज्ञापन के लिए आवेदन कर डाला था। कुछ दिनों बाद उसका जवाब भी आ पहुँचा। पत्र राजकिशोर जी का था, चंडीगढ़ से। उन्होंने उत्सुकतावश नीलोफ़र के आवेदन का जवाब दिया था-
‘बेटा! कहाँ जलपाईगुड़ी और कहाँ चंडीगढ़ के लिए आवेदन किया है। हमारी तो एक छोटी सी सामाजिक संस्था है – ‘परिवार मिलन’, जो लोगों की वैवाहिक समस्याओं का समाधान करती है। मात्र सात-आठ सौ रुपये जेब-खर्च ही दे पाते हैं हम। अत: इस काम के लिए स्थानीय बच्चे ही सूट करते हैं। इतनी दूर से तुम्हारा आना ठीक न होग। तुममें योग्यता है, एक से बढ़कर एक नौकरियां मिल जाएंगी तुम्हें। तुम्हारी डिग्री तो चंडीगढ़ विश्वविद्यालय की है, पर तुम इतनी दूर कैसे जा पहुँची ? ईश्वर ने चाहा तो बेटा, तु्म्हें नौकरी ज़रूर मिल जाएगी। चाहो तो हमारे साथ यूं ही पत्राचार बरक़रार रखो, हमें खुशी होगी।’ बस यूं नीलोफ़र का राजकिशोर जी के साथ पत्राचार का सिलसिला शुरू हुआ। वह उन्हें अपने सगे अंकल से बढ़कर मानती। वे भी पत्रों में ढेर सारा प्यार और अपनत्व उड़ेल भेजते। देखते-देखते वक़्त गुज़रता जा रहा था। इसी बीच नीलोफ़र को भारत सरकार की नौकरी मिल गई और वह जलपाईगुड़ी से कलकत्ते आ गई। छोटे से शहर से महानगरीय दुनिया में आगमन। मानो छोटी सी मछली को विशाल समंदर में छोड़ दिया गया हो। राजकिशोर अंकल के साथ ख़तों का सिलसिला जारी रहा। अंकल के ख़त आते – ‘बेटा ! जब भी टी।वी। पर कलकत्ते की कोई ख़बर सुनता हूँ या कोई दृश्य दिखाया जाता है तो मैं उस भीड़ में अपनी नीलोफ़र बिटिया को तलाशता हूँ कि इस भीड़ में कहीं न कहीं वह भी शामिल होगी। तुम मुझे अपनी तस्वीर भेज दो ताकि भीड़ में मैं अपनी बिटिया को पहचान तो लूं।’
राजकिशोर जी ‘दैनिक प्रभात’ में उप संपादक थे, साथ ही वे ‘परिवार मिलन’ नामक अपनी सामाजिक संस्था का दफ़्तर भी चलाते थे। बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव भी लड़ते और समाज सेवा भी जम कर करते। ‘परिवार मिलन’ के माध्यम से लोगों के बिखरे परिवार को समेटने का प्रयास करते। खुद नि:संतान थे, पर देश के कोने-कोने में नीलोफ़र जैसी उनकी अनेकों संताने थीं। शायद इसी लिए उन्हें कभी संतान की कमी महसूस नही हुई। उनका हमेशा ख़त आता, ‘बेटा ! दफ़तर से छुट्टी लेकर पंजाब घूम जाओ।’
अचानक दो साल बाद नीलोफ़र का पंजाब जाने का प्रोग्राम बना। उन दिनों पंजाब के हालात अच्छे नहीं थे। अत: वहां जाकर भी राजकिशोर जी से मिलने का सबब न बना। अक्सर अंकल के ख़त में इस बात का ज़िक्र रहता, ‘बेटा ! किसी दिन तुम्हें सूचना मिलेगी कि तुम्हारे अंकल की हत्या हो गई है और तुमसे फिर कभी मुलाक़ात भी नही हो पाएगी।’ उनका नाम हिट लिस्ट में था। इससे पूर्व ‘दैनिक प्रभात’ के संपादक पर क़ातिलाना हमला कर उनकी इहलीला समाप्त कर दी गई थी। राजकिशोर जी की क़िस्मत में अभी चंद साँसें और लिखी थीं, शायद इसी लिए संपादक महोदय के साथ एक ही गाड़ी में दफ़्तर से लौटते वक्त वे कार्यवश पहले स्टॉप पर उतर गए थे। पंजाब जाकर भी उनसे नीलोफ़र के न मिल पाने के पीछे यही वजह थी। पिता का कहना था, हालात अच्छे नहीं हैं तिस पर जिस आदमी का नाम हिट लिस्ट में हो उससे मिलने का ख़तरा क़तई मोल नहीं लेना चाहिए। ख़ैर ! दो सप्ताह तक अन्य रिश्तेदारों के यहाँ घूम-फिर कर वह कलकत्ता लौट आई। आते ही अंकल को ख़त लिखा और न मिल पाने के लिए क्षमा याचना की। किशोरी अंकल का ख़त आया, ‘पगली, इतने पास आकर भी बिना मिले चली गई। अरे, इतनी व्यस्तता थी! तुम नहीं आ सकती थी तो मुझे सूचित किया होता, मैं ही समय निकाल कर तुमसे मिलने चला आता।’ मगर नीलोफ़र क्या करती ? चाहकर भी, न मिल पाने की असली वजह न बता पाई। ख़ैर! इसी तरह दो साल और गुज़र गए।
फिर अचानक चचेरे भाई की शादी के मौके पर नीलोफ़र अपने बड़े भाई के साथ शादी में शरीक होने जालंधर चली गई। जाने से पूर्व ही भाई से वादा लिया कि वह उसे किशोरी अंकल से मिलवाने चंडीगढ़ ज़रूर ले जाएगा। भाई भला क्यों इन्कार करता, वह तो उसे पहल ही फटकार चुका था कि जो व्यक्ति उसे सगी बेटी से भी ज़्यादा चाहता है, ममता भरे, अपनत्व भरे ख़त लिखता है, भला वह ऐसे शख़्स से मिले बिना ही क्यों चली आई ?
एक दिन समय निकाल कर दोनों भाई-बहन चंडीगढ़ ‘परिवार मिलन’ के दफ़्तर जा पहुँचे। किशोरी अंकल उस वक्त दफ़्तर में नहीं थे, उनकी सहायक शालिनी ने बताया कि वे आधे घंटे तक आ जाएंगे। जैसे ही नीलोफ़र ने अपना परिचय दिया तो शालिनी की खुशी का ठिकाना न रहा क्योंकि अंकल के माध्यम से वह नीलोफ़र से परिचित थी। कभी-कभी समय के अभाव में किशोरी अंकल सोनिया और शालिनी से ही ख़त लिखवा भेजते ताकि ख़त न लिखने की शिकायत उनकी नीलोफ़र बिटिया न कर सके।
किशोरी जी जब तशरीफ़ लाए तो शालिनी ने कहा, ‘ये लोग काफ़ी समय से आपका इंतज़ार कर रहे हैं।’ किशोरी अंकल ने पल भर के लिए ग़ौर से देखा और फिर कहा, ‘तुम कलकत्ते से मेरी नीलोफ़र बिटिया हो न ?’ फिर वे बच्चे की भाँति मचल उठे। नीलोफ़र और दीपक देख-देख कर हैरान होते रहे कि एक पचास-पचपन वर्षीय व्यक्ति इतना जीवंत भी हो सकता है। वे तीन दिन अंकल के साथ रहे। अंकल ने सारा शहर घुमाया, मुख्य-मुख्य स्थान दिखाए। क़ाफ़ी मौज़-मस्ती करवाई दोनों भाई-बहनों को। राह में जिससे भी मुलाकात होती कहते, ‘मिलो मेरी बिटिया से कलकत्ते से आई है। नौकरी करती है वहाँ।’ वे काफ़ी उत्साहित लग रहे थे।

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उस दिन वे लगेज सहित दोनों को सीधे अपने छोटे भाई के घर ले गए। दोपहर का खाना खाकर कुछ देर आराम करने के बाद शाम को इधर-उधर घुमाया और फिर अपने घर ले गए। ताला लगा था। डुप्लीकेट चाबी से ताला खोला, घर दिखाया। आंटी घर पर नहीं थीं, फिर से वे लोग अंकल के भाई के घर लौट आए। नीलोफ़र को बड़ा अटपटा सा लग रहा था कि अपने घर की बजाए उन्होंने भाई के घर क्यों ठहराया ? अगले दिन भाई के परिवार को शादी पर शहर से बाहर जाना था। अत: उस दिन शाम को वे उन्हें अपने घर लिवा लाए। आँटी आँगन में कपड़े धो रही थीं, उनसे परिचय करवाते हुए कहा – ‘यह मेरी वही कलकत्ते वाली बेटी है, मैंने तुम्हें बताया था न!’ सुमित्रा आँटी ने चाय बनाई, सबने मिल कर चाय पी। कुछ देर बाद उन्होंने आँटी से रात का खाना तैयार करने को कहा। फ्रिज से सरसों का साग निकालते हुए आँटी ने अंकल से पूछा – ‘ आप खाएंगे न ?’ जवाब में अंकल ने कहा – ‘हाँ बच्चों का साथ देने के लिए एक-आधी चपाती मैं भी खा लूंगा।’ नीलोफ़र को यह सब बड़ा अटपटा सा लगा रहा था। उसने दीपक से कहा – ‘लगता है मामला गड़बड़ है, भला कोई इस तरह भी पति से पूछता है कि तुम खाना खाओगे या नहीं ?’ दोनों ने सोच-विचार कर महसूस किया कि दाल में कुछ काला है, क्यों न हम खाना न खाने का बहाना गढ़ दें कि बाहर घूमते-फिरते बहुत कुछ खा लिया है, अब भूख नहीं है। ख़ैर ! नीलोफ़र रसोई में आँटी के पास जा पहुँची और भूख न होने की बात कही। उन्होंने कहा – ‘ठीक है, एक-एक चपाती ही खा लेना।’ सबने मिलकर खाना खाया। दीपक और नीलोफ़र की वाकई भूख ग़ायब हो चुकी थी, वे बड़ी मुश्किल से अंकल का मन रखने के लिए एक-एक निवाला निगल रहे थे। नीलोफ़र को आँटी की व्यवहार न जाने कैसा-कैसा लग रहा था। उसे लगा, उन लोगों ने घर आकर ग़लती की है। अंकल ने इतने प्यार से रुकने का अनुरोध किया था, इसलिए वे रुक गए थे। रात के खाने से निपटने के पश्चात् सोने की तैयारी शुरू हुई। अंकल और दीपक एक कमरे में सो गए। नीलोफ़र का बिस्तर आँटी ने दूसरे कमरे में लगा दिया। कुछ देर तक बात-चीत करने के बाद वे बिस्तर उठा कर जाने लगीं तो नीलोफ़र से रहा न गया। घबरा कर पूछा – ‘आँटी आप कहाँ चलीं ?’
छत पर बेटा, मुझे तो छत पर सोने की आदत है। वहीं चारपाई पर बिस्तर लगा कर सोती हूँ। हालाँकि पंजाब में गर्मियों में खुली छत या आँगन में सोने का ही चलन है, मगर नीलोफ़र को आँटी की अक्ल पर तरस आ रहा था। अजीब महिला हैं, एक लड़की जो कि घर में बतौर मेहमान आई हुई है और पहली बार आई है, उसे वे अकेली नीचे छोड़ ख़ुद छत पर सोने जा रही हैं। नीलोफ़र ने कहा, तो मैं भी आपके साथ छत पर चलती हूँ। परंतु छत पर एक ही चारपाई थी, दो जने भला कैसे सो सकते थे ? नीलोफ़र ने कहा, छत पर एक ही चारपाई है, तो क्यों नहीं आप भी नीचे ही कमरे में सो जाती ? इतना बड़ा पलंग है, दोनों साथ-साथ लेट जाएंगी, कोई मुश्किल नहीं होगी। ख़ैर नीलोफ़र की बात उन्हें माननी ही पड़ी, भले ही अनिच्छा से। उस रात वे दोनों काफ़ी देर तक बात-चीत करती रहीं, फिर पता नहीं कब आँख लग गई।
सुबह आँटी उठीं, नहा-धोकर चाय बनाई। नीलोफ़र ने उनके साथ चाय पी। फिर उन्हें डयूटी पर स्कूल जाना था, वे अध्यापिका थीं। कुछ हद तक रात का नज़ारा याद कर नीलोफ़र को कुछ-कुछ माज़रा समझ में आ गया था। अत: उसने आँटी को नाश्ता बनाने के लिए मना किया और कहा आप नाश्ता कर यथासमय डयूटी चली जाएं। आँटी के जाने के बाद दीपक तथा अंकल भी नहा-धोकर तैयार हो गए। अंकल ने ब्रेड और जेली नीलोफ़र के हाथ में थमाते हुए कहा – ‘बेटा ! चलो अब हम लोग नाश्ता कर लें, आँटी तो चली गईं। आओ, मैं तुम्हें अपना किचन दिखा दूं। तुम चाय बना लो और ब्रेड सेक लो। अपनी आँटी के व्यवहार का बुरा मत मानना। बस यूं ही अपना मस्त-मौला ज़िंदगी गुज़र रही है। ईश्वर ने जिस रज़ा में रखा, हम खुश हैं।’
नाश्ते के बाद अंकल उन्हे फिर ‘परिवार मिलन’ के दफ़्तर ले गए। नीलोफ़र को एक प्यारा सा तोहफ़ा लाकर दिया। उन्हें रवानगी की इजाज़त दे विदा किया। आँटी को तो नीलोफ़र सुबह ही बता चुकी थी कि आपके स्कूल से लौटने तक तो हम रुक नहीं पाएंगे। अत: उसी वक्त उनसे इजाज़त ले ली थी।
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नीलोफ़र ने आँटी के साथ हुई संक्षिप्त बात-चीत से यही निष्कर्ष निकाला कि कहीं तो, दोनों पति-पत्नी के बीच एक दूरी सी है। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी दोनों अजनबी से थे। दोनों की रसोईयां अलग थीं। शायद इस सबकी ठोस वजह थी, उनके इतने वर्षों के वैवाहिक जीवन में, उनके आँगन में किसी नन्हीं किलकारी की गूंज का अभाव। संतान ही एकमात्र ऐसी कड़ी है, जो पति-पत्नी को एक सूत्र में आबद्ध किए रखती है। किशोरी अंकल ने इसे विधि का विधान समझ संतोष कर लिया था। भगवान ने जो दिया उसे हँसकर स्वीकार किया, जो नहीं दिया उस पर किसी प्रकार का गिला नहीं किया। वे अख़बार की नौकरी, निजी दफ़्तर, समाज सेवा के कार्यों में व्यस्त रहते। यानी ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा व्यस्त रखने का ज़रिया ढूँढ लिया था। पत्नी अध्यापिका थीं, सुबह आठ बजे निकल जातीं, दोपहर दो़-तीन बजे तक लौट आतीं। उन्होंने भी स्वयं को स्कूल में व्यस्त रखने की कोशिश की। ख़ैर ! नारी फिर भी नारी है। बहन, बेटी, पत्नी के बाद जननी बनकर ही पर परिपूर्ण बनती है। शायद यही कमी उन्हें सालती रही होगी और इस बात को उन्होंने इतनी गंभीरता से दिल को लगा लिया होगा। परिणामस्वरूप एक ही पेड़ की, एक ही शाख पर, एक ही नीड़ में रहते हुए भी वे परस्पर दूर-दूर थे।
नीलोफ़र को जहाँ पहले अंकल से न मिलने का दु:ख सालता रहता था, वहीं अब मिलकर भी दु:ख हो रहा था। उनके पारिवारिक विघटन के विषय में जानकर उसे हार्दिक पीड़ा हुई। इससे पूर्व, पाँच साल से नियमित पत्राचार में उन्होंने कभी इस बात का आभास तक न होने दिया था कि वे जीवन में इस दौर से गु़ज़र रहे हैं। पत्राचार द्वारा किशोरी अंकल के व्यक्तित्व के विषय में जो छवि नीलोफ़र के मन में बनी थी, ठीक वैसा ही पाया – हँसमुख, तनाव रहित।
नीलोफ़र के हृदय में अंकल के प्रति श्रद्धा और बढ़ गई कि ऐसी स्थिति में उन्होंने संतान की ख़्वाहिश में दूसरी शादी जैसी हरकत नहीं की, जैसा कि साधारणत: लोग कर बैठते हैं। उनका मानना था कि अगर भाग्य में संतान सुख लिखा होता तो इसी गुलशन में फूल खिलता। उन्हें कोई मलाल न था । मगर उनकी पत्नी चाहकर भी शायद ईश्वर को इस निर्णय को स्वीकार न कर पाई थीं। नीलोफ़र ने देखा कि अंकल के स्वभाव के विपरीत वे चिड़चिड़ी सी, रूखे स्वभाव वाली बन चुकी थीं। मानो ईश्वर द्वारा दी गई साँसों को बस औपचारिकतावश गिन रहीं हों। फलत: दोनों के बीच इस मामूली सी कमी ने गहरी खाई उत्पन्न कर दी थी। कुदरत का कैसा क्रूर मज़ाक था कि यह व्यक्ति जो परिवार मिलन के माध्यम से दूसरों के बिखरे परिवार को एक सूत्र में आबद्ध करने का प्रयत्न करता है उसका अपना ही गुलशन वीरान था। एक ही घरौंदे में एक ही छत के नीचे रहते हुए भी वे कितने बेगाने से थे।
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समय की धारा अपने वेग से बहती रही। फिर समाचार मिला कि अंकल ने दैनिक प्रभात की नौकरी छोड़ कर अपना अख़बार निकालना शुरू कर दिया है, नया ज़माना। फलत: उनकी व्यस्तताएं बढ़ती गईं, स्वास्थ्य भी ख़राब रहने लगा था। दो बार दिल का दौरा भी पड़ चुका था।
भंडारी अंकल का ख़त हाथ में थामे जब नीलोफ़र अतीत से वर्तमान में लौटी तो उसका दिल उनक प्रति आभार महसूस कर रहा था। भंडारी जी दो महीने के आऊटडोर टुअर के बाद जब चंडीगढ़ लौटे तो समाचार पाकर उन्होंने तुरंत नीलोफ़र को सूचित करना मुनासिब समझते हुए लिखा था, ‘लौट कर सुना कि दो माह पूर्व मेरे अज़ी़ज़ दोस्त और तु्म्हारे अंकल का अस्वस्थता के काराण निधन हो गया। सोचा तुम्हें कौन ख़बर करेगा, इसीलिए तुम्हें सूचित करना ज़रूरी समझा।’ नीलोफ़र सोच रही थी कि भंडारी अंकल ने सूचित न किया होता शायद वह कभी न जान पाती कि उसके अंकल अब इस दुनिया में नहीं रहे, तभी तो उनके ख़त नहीं आते। पगली उनसे ख़त न लिखने की शिकायत करती रह जाती। अत: उसने इस सूचना के लिए भंडारी अंकल को शुक्रिए का ख़त लिखना चाहा और उसके हाथ बरबस ही क़ाग़ज़-क़लम की ओर बढ़ गए।