सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

31 जुलाई 2010

मित्रता दिवस


31 जुलाई, रात के 10 बजकर 20 मिनट हो रहे हैं। एक घंटा चालीस मिनट बाद तारीख़ और दिन बदल जाएगा। एक अगस्त, रविवार। अगस्त के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाया जाता है। आज पश्चिम के बाज़ार की तर्ज़ पर भारत में भी सेलिब्रेशन होते हैं। देखा जाए तो हर दिन किसी न किसी चीज़ के नाम होता है।

ख़ैर ! तो कल का दिन फ्रेंडशिप के नाम है। तो हम मुहम्मद रफ़ी साहब के गीत की तर्ज़ पर यही कहेंगे : -

अहसान तुम्हारा इस दिल पर है दोस्तो
यह दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो
शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया दोस्तो।

तो हिन्दुस्तान के साथ-साथ दुनिया के हर कोने में रह रहे दोस्तों को मित्रता दिवस के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं !


मित्रता ज़िंदाबाद ! मित्र ज़िंदाबाद !

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30 जुलाई 2010

31 जुलाई,

तीन अज़ीम शख्सीयतों

को याद करते हुए......

आज भारत के महान सपूत राम मुहम्मद आज़ाद उर्फ़ शहीद ऊधम सिंह का 70 वां शहादत दिवस है। आज ही के दिन 1940 में उन्हें उनकी शपथ ' खून का बदला खून' यानि जलियांवाले कांड में गोलीबारी के लिए ज़िम्मेदार जनरल डायर के 13 मार्च 1940 को क़त्ल की सज़ा स्वरूप फाँसी दे दी गई। और इस जांबाज युवक ने अपने देश की ख़ातिर यह कहते हुए फाँसी के फंदे को हँसते-हँसते गले से लगा लिया -

क्या हुआ गर मिट गए अपने वतन के वास्ते,

बुलबुलें कुरबान होती हैं चमन के वास्ते।

और आज उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 130 वीं जयंती तथा मुहम्मद रफ़ी साहब की 30 वीं पुण्यतिथि है। 30 की संख्या दोनों के बीच कॉमन आ रही है, एक की 130 वीं जयंती और दूसरे की 30 वीं पुण्यतिथि। दोनों के फ़न में भी एक चीज़ कॉमन है, वह है प्रेमचंद जी के उपन्यास पर गोदान पर फ़िल्म और उस फ़िल्म में रफ़ी साहब का पार्श्व गायन। गीत याद आ रहा है, 'पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा, के जियरा में उठत हिलोर।' 1964 में बनी फ़िल्म गोदान को बेस्ट मोशन पिक्चर, बेस्ट सॉन्ग आवॉर्ड, बेस्ट डांस अवॉर्ड, बेस्ट डांस डायरेक्शन के लिए फ़िल्म जर्नलिस्ट अवॉर्ड के साथ-साथ डिप्लोमा ऑफ ऑनर फ्रॉम लोकार्ना इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टीवल अवॉर्ड भी प्रदान किया गया।

इन अज़ीम शख्सीयतों को भावभीनी श्रद्धांजलि ।

25 जुलाई 2010

आयकर विभाग की 150 वीं वर्षगाँठ का आयोजन ।



आयकर विभाग की 150 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर शनिवार 24 की शाम कोलकाता के नेशनल लाईब्रेरी सभागार में एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत श्री गौतम चौधुरी, मुख्य आयकर आयुक्त, कोलकाता - I द्वारा दीप प्रज्जवलन से हुई। अपने स्वागत वक्तव्य में उन्होंने संक्षेप में विभाग की गतिविधियों पर भी प्रकाश डाला।
मुख्य आकर्षण रहा, विभाग द्वारा कॉर्पोरेट सेक्टर तथा विभिन्न क्षेत्रों के लब्ध-प्रतिष्ठित कर दाताओं का सम्मान। इस श्रृंखला में मशहूर शास्त्रीय गायिका पद्मश्री गिरिजा देवी, स्वागता लक्ष्मी दास, उस्ताद रशीद खान, पंडित तन्मय बोस, गायक इंद्रनील सेन, गायक नचिकेता चक्रवर्ती, फिल्म क्षेत्र से अपर्णा सेन, निर्देशक बुद्धदेवा दासगुप्ता, अभिनेता प्रसेनजीत, जीत, सव्यसाची चक्रवर्ती, अभिनेत्री रीतुपर्णा सेनगुप्ता, खेलजगत से चुन्नी गोस्वामी, पी. के बैनर्जी, मशहूर क्रिकेटर सौरभ गांगुली, वाई चांग भुटिया, दिव्येंदु बरुआ, दोला बैनर्जी, लेखन जगत से शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, रंगकर्म से रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता तथा उषा गांगुली आदि विभिन्न सेलिब्रिटिज़ को सम्मानित किया गया।
क़ॉर्पोरेट क्षेत्र में आई. टी. सी, इलाहाबाद बैंक, यूको बैंक, यू. बीय आई, सी.ई.एस. सी, डी.वी.सी., टाटा टी, बिरला कॉर्पोरेशन, पीयरलेस जनल फाइनेंस, बॉल्मर लॉरी, एन्ड्रयु यूल, नेशनल इन्शयोरेंस तथा अन्य शामिल हैं।
पद्मश्री गिरिजा देवी ने कहा कि मैं आज 82 वर्ष की हूँ तथा 1948 से कर अदा करती आ रही हूँ। सभी करादाताओं ने कहा कि कर भुगतान द्वारा प्राप्त राजस्व को देश के विकास कार्यों में लगाया जाता है, अत: सभी को ज़िम्मेदार तथा ईमानदार नागरिक की हैसियत से ईमानदारी से अपने कर का भुगतान करना चाहिए।
अपने उत्कृष्ट कार्य निष्पादन हेतु विभाग के अधिकारियों को भी सम्मानित किया गया। मौके पर विभाग के सेवानिवृत्त मुख्य आयकर आयुक्त, श्री एस. के गंगोपाध्याय, आयकर गोया के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री देबनाथ मुखोपाध्याय तथा आयकर कर्मचारी संघ, कोलकाता के भूतपूर्व महासचिव श्री तरुण दत्ता आदि ने भी अपने वक्तव्य तथा अनुभव श्रोताओं के साथ बाँटे।
कार्यक्रम के आरंभ में आयकर विभाग की गतिविधियों से संबंधित ऑडियो-विज़ुयल प्रस्तुति भी दिखाई गई। उल्लेखनीय है कि जाने-माने अभिनेता ओम पुरी ने इसमें अपनी आवाज़ दी है। 24 जुलाई 1860 को तत्कालीन भारत सरकार के प्रथम वाइसरॉय के वित्तीय सदस्य मिस्टर जॉन विल्सन ने ब्रिटिश साम्राज्य में प्रचलित आयकर प्रणाली को इनट्रोडूस किया था। इस वर्ष मिस्टर विल्सन की 150 वीं पुण्यतिथि भी है, 11 जुलाई 1860 को कोलकाता में उनका निधन हो गया था।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत् श्रीमती स्वागता लक्ष्मी दास ने अपनी गायकी की विविधता से श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया।




प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

























पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी तथा दार्जिलिंग जिलों में स्थित
ऐतिहासिक महत्ता वाले भवनों की अनूठी चित्र प्रदर्शनी ।
पश्चिम बंगाल हेरिटेज कमिशन द्वारा 23 जुलाई से 25 जुलाई तक एक अनूठी त्रिदिवसीय फोटो प्रदर्शनी का आयोजन नंदन परिसर (कोलकाता) स्थित गगनेन्दर प्रदर्शनशाला में किया गया। 23 जुलाई को पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री, श्री योगेश चंद्र बर्मन ने प्रदर्शनी का उदघाटन किया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि थे, तथ्य तथा संस्कृति राष्ट्र मंत्री श्री अंजन बेरा। पौर मंत्री श्री अशोक भट्टाचार्य भी उपस्थित थे। प्रदर्शनी का अनूठापन था, उत्तरी बंगाल के जलपाईगुड़ी एवं दार्जिलिंग जिलों में स्थित ऐतिहासिक महत्व वाले भवनों की फोटो प्रदर्शनी। जलपाईगुड़ी की सुश्री अनीता दत्ता ने ऐतिहासिक महत्ता वाले इन भवनों को अपने कैमरे में सहेजा डॉ। सुदीप दत्ता ने। चूँकि प्रदर्शनी में स्पेस की एक सीमा होती है, इसलिए पूर्ण तथ्यों को वहां प्रस्तुत करना संभव नहीं। तथ्य और संस्कृति विभाग इसे पुस्तक रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रयत्नशील है। तस्वीरों में जलपाईगुड़ी जिले के अलीपुरद्वार स्थित नल राजा का गढ़, मयनागुड़ी स्थित जल्पेश मंदिर, जटिलेश्वर मंदिर, जलपाईगुड़ी का सेंट माईकल ऐंड ऑल ऐंजलस् चर्च, पुरानी मस्ज़िद, राडबाड़ी का तोरण तथा दार्जिलिंग जिले के कार्सियांग स्थित विक्टोरिया ब्वॉयज़ स्कूल, गिदापहाड़ स्थित शरत चंद्र बसु का मकान, दा्र्जिलिंग का दरभंगा हाउस, विंडमेयर होटल, जिमखाना, लॉरेटो कॉन्वेंट, कलिन्टन, गिरिबिलास तथा ट्वॉय ट्रेन उल्लेखनीय हैं। सुश्री अनीता ने बताया कि दर्शकों का बहुत अच्छा रिस्पांस मिला हैं। कुल तीन दिनों में साढ़े तीन सौ से अधिक दर्शक प्रदर्शनी में आए। यह एक शोधपरक कार्य है जो सचमुच ही लाजवाब, काबिल-ए-ग़ौर तथा काबिल-ए-तारीफ़ है।


चित्र सं. 1 - सन् 1878-79 में स्थापित दार्जिलिंग भुटियाबस्ती का बौद्ध मठ।


चित्र सं. 2 - जलपाईगुड़ी स्थित भवानीपाठक मंदिर जो कि पैगोडा के रूप में निर्मित है। रायकत शिष्यसिंह के ज़माने में निर्मित इस मंदिर का बाद में स्कॉट या हैचिंगन साहब के आर्थिक सहयोग से पुनर्निर्माण किया गया।


चित्र सं. 3 - दार्जिलिंग रेलवे की यह ट्वॉय ट्रेन 18 मार्च, 1880 को सिलीगुड़ी से तीनधरिया तक चलाई गई थी। जुलाई 1881 से दार्जिलिंग तक। दुनिया के सर्वोच्च रेल पथ पर चलने वाली इस ट्रेन को 6 नवंबर, 1999 को विश्व धरोहर घोषित किया गया।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु '

24 जुलाई 2010




बांग्ला फ़िल्मों के महानायक उत्तम कुमार की पुण्यतिथि


आज 24 जुलाई !

बांग्ला फ़िल्मों के महानायक उत्तम कुमार का जन्म हुआ था 3 सितंबर 1926 को भवानीपुर कोलकाता के गिरीश मुखर्जी रोड स्थित अपने पुश्तैनी मकान में। कोलकाता के ही साउथ सबर्बन स्कूल (मेन) से स्कूली शिक्षा के बाद कोलकाता विश्वविद्यालय के गोयेनका कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड बिजनेस ऐडमिनिस्ट्रेशन में दाखिला लिया लेकिन वे अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए और उन्होंने कलकत्ता पोर्ट ट्रस्ट में कलर्क की नौकरी ज्वॉयन कर ली। अभिनेता, निर्माता, निर्देशक उत्तम कुमार की बतौर नायक पहली फ़िल्म थी नितिन बोस निर्देशित दृष्टिदान। सुचित्रा सेन के साथ उनकी जोड़ी खूब पसंद की गई। सुचित्रा के साथ उनकी सप्तपदी, पौथे होलो देरी, हारानो सुर, चावा पावा, बिपाशा, जीवन तृष्णा और सागरिका जैसी फ़िल्में बेहद लोकप्रिय रहीं।

बांग्ला के साथ-साथ उन्होंने पांच हिन्दी फ़िल्मों में भी अभिनय किया। 1967 में छोटी सी मुलाक़ात (स्वयं निर्माता), 1975 में अमानुष, 1 977 में आनंद आश्रम 1979 में क़िताब और दूरियां।

उनका असली नाम था अरुण कुमार चैटर्जी। कोलकाता में हाजरा अंचल में उनके नाम पर उत्तम थियेटर है तथा टालीगंज ट्रामडिपो के समक्ष उनका विशाल स्टैच्यु सड़क के चौंक पर लगाया गया है। और अब विगत वर्ष २००९ में टालीगंज मेट्रो स्टेशन का नामकरण महानायक उत्तम कुमार हो गया है।

उनके एकमात्र पुत्र गौतम कुमार चटर्जी (दिवंगत) एक व्यवसायी थे।फिल्मों में उनकी रुचि नहीं थी लेकिन उत्तम के पौत्र गौरव बांग्ला फ़िल्मों में अभिनय कर रहे हैं।

उनकी ख़्वाहिश थी कि अभिनय करते हुए उनका दम निकले और हुआ भी ऐसा ही। 1980 में ओ गो बोधु शुंदरी की शूटिंग के दौरान हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया।

अनेक पुरस्कारों से सम्मानित महानायक उत्तम कुमार को

उनकी पुण्यतिथि के मौक़े पर उन्हें श्रद्धांजलि।



23 जुलाई 2010




आयकर विभाग की 150 वीं वर्षगाँठ !


आज 24 जुलाई 2010, आयकर विभाग अपनी 150वीं वर्षगाँठ मना रहा है। आज ही के दिन 1860 में तत्कालीन भारत सरकार के प्रथम वाईसरॉय के वित्तीय सदस्य मिस्टर जेम्स विल्सन ने ब्रिटिश साम्राज्य में प्रचलित आयकर प्रणाली को भारत में introduce किया था। इस अवसर पर विभाग द्वारा साल भर चलने वाले समारोह की ऋंखला शुरू की जा रही है जिसकी शुरूआत आज सायं पाँच बजे कोलकाता के राष्ट्रीय पुस्तकालय के सभागृह में कार्यक्रम के आयोजन से की जा रही है। इस अवसर पर विभिन्न लब्ध प्रतिष्ठित करदाताओं को सम्मानित किया जाएगा तथा विभाग के विभिन्न अधिकारियों को भी उनके उत्कृष्ट कार्य-निष्पादन हेतु सम्मानित किया जाएगा। मुख्य कार्यक्रम का आयोजन राजधानी दिल्ली में किया जाएगा जिसका शुभारंभ करेंगे माननीय वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी। संयोग की बात यह है कि इस वर्ष मिस्टर विल्सन की 150 वीं पुण्यतिथि भी है11 अगस्त 1860 को कोलकाता में उनका निधन हो गया। कौन और क्या थे मिस्टर विल्सन ? आईए जानते हैं कोलकाता में तैनात आयकर विभाग के श्री सी. पी. भाटिया, (आई. आर. एस.) सहायक आयकर आयुक्त, के इस विस्तृत आलेख के माध्यम से।

150th Death Anniversary of Mr. James Wilson


THE RIGHT HONORABLE JAMES विल्सन



Right Hon’ble James Wilson was born on the 3rd June1805 in a small border town of Scotland called Hawick. His father Mr. William was running a textile mill. He joined a hat factory, when he was 16 but continued his studies. This business proved successful and he soon set up his business in London along with his brother. He was an admirer of Adam Smith and believed in his theory of ‘laissez-faire’. He had married Elizabeth Preston of New Castle-upon-Tyne.

He dreamt of setting up a news paper specializing in financial matters covering all aspects of trade and commerce. ‘The Economist Magazine’ was started by him on the 2nd Sep 1843
[1]. In early days of the magazine, he used to write many columns himself. Later-on, it was handled by Mr. Walter Bagehot, who had married his eldest daughter Eliza. It is one of the most widely respected financial magazines even today. Mr. James Wilson had six daughters. A daughter, Sophie, was married to Mr. William Stirling Halsey, who later joined Indian Civil Service. He also served as Private Secretary to Mr. Wilson. One of his daughters, Ms. Emile Isabel Wilson was known as Mrs. Russell Barrington after her marriage. Mr. Wilson had other daughters named Julia, Joe and Matilda[2].

He was elected to British Parliament in 1847
[3] from Westbury and was nominated for the post of Joint Secretary to the Board of Control for India, looking after Indian financial affairs from London. He could foresee the need for a new bank for International Business for the growing business needs. He set up the ‘Chartered Bank of India, Australia and China’ on the 9th October 1852. This venture grew up and later merged with ‘The Standard Bank of British South Africa’. Later-on it was named the Standard Chartered Bank, which has a sound global business presence even today.

In early 1859, Lord Stanley, the first secretary of State for India, recommended to appoint a financier from England to fill the vacancy caused by appointment of Sir Barnes Peacock, the Legal Member as the Chief Justice of the Supreme Court at Kolkata. Lord Palmerston, the British Prime Minister in 1859 had put a great faith in him and offered him the post of Finance Member to the Viceroy of India Council, akin to the post of Chancellor of Indian Exchequer. After the great mutiny, finances in India were in total chaos. The treasury was nearly empty and cost of governance was very high. It was perceived by some to be situation more dangerous than the mutiny itself.

Mr. Wilson took up the challenge and set sails for India 20/10/1859 for India. He arrived on 28/11/1859. A letter dated 22/11/1859 written by Lord Canning to him suggests that he may fix his residence in any of the government accommodations at the Park, Barrackpore, Kolkata
[4]. However, the official papers disclose that he was staying at 9, Middleton Street, Kolkata[5]. Here a new building has come up called, Middleton Mansion, having numbers 9 & 9/1. Mr. James Wilson took over his seat as the Finance Member of the Governor General in Council on 3/12/1859. He introduced a Bill on 18/2/1860 in the Indian Legislature, aimed at amending the tariff laws. Mr. James Wilson’s financial statements of 1860 marked the commencement of a new chapter in the financial history of the country. He introduced the system of budget, paper currency and was best known for introduction of Income Tax in India.

At the time of presenting his budget, Mr. Wilson delivered a forceful speech in the Indian Legislature
[6]. He observed that the suppression of the mutiny had entailed a great expenditure and had resulted in large public debt. He surveyed the prevailing economic condition of India and outlined the steps he desired to take to put it in order. He proposed two new taxes- one was called the ‘Licence tax’ – to be imposed on trade and commerce and the other was imposition of ‘Income tax, which was to be imposed on people in general irrespective of their nature of work. In his opinion, the two supplemented each other and targeted different classes of people. Income tax was supposed to be levied upon annual income exceeding Rs. 200 annually. He defended such a low basic limit observing that it will ensure greater justice[7]. He called upon people to contribute for the cost of governance. The tax proposed was a progressive one, the rich supposed to pay more.

He also introduced better system of accounting for the tax collected. A separate a/c was to be kept for one percent duty. The tax so collected was to be utilized by the Provincial Govt. for construction of roads, canals and other public utilities. Proper documentation ensured that such statistics was to be utilized by successive governments for determining the proper course of actions and to study whether such steps were yielding results or not. Provincial governments were authorized to notify and exempt the properties utilized for religious and charitable purposes. He had to face opposition from many quarters, particularly from the European community. As traders, they were likely to be affected. So far they were enjoying special privileges. However, he termed his measures as just, equitable and based upon intelligent principles.

At that time several members of the Council expressed hope that imposition of Income tax will not be a permanent measure and it would be taken resort to only in emergency. They believed that it will be given up as soon as the situation improved.

The Income Tax Bill was passed on 24/7/1860. Mr. Wilson expressed his satisfaction that such a large Bill was passed without much change in its basic form. It received the assent of the Governor General in Council on the same day. It was to be imposed for five years.

The Bill was again partly amended due to some deficiencies pointed out. It came into force in the month of September 1860. This session was sponsored by Sir Bartle Frere, in the absence of Mr. James Wilson. It was numbered as the Act XXXIX of 1860. However, some taxes were already collected in some parts of the country, particularly in Oudh Province owing to the financial crunch faced by the Government. The government had to issue an order to legalize the collections already made.

The yield of tax was rather small in the very first year. Mr. Charles Canning was the viceroy during that period. Other important works during this period was, setting up of a university each in Calcutta, Bombay and Madras, passing of the Indian Penal Code 1860, Indian Councils Act 1861 and Indian Police Act 1861, creation of Indian Police Service, reorganization of the Customs Department and setting up of the Archeological Survey of India.


[1] www.suite101.com
[2] Life of Walter Bagehot- Mrs. Russell Barrington-1914
[3] wikipedia-James Wilson.
[4] Life of Walter Bagehot- Mrs. Russell Barrington-1914
[5] The Calcutta Gazette-1860
[6] Proceedings of the Legislative Council of India-1860
[7] The History of Taxation in India- P Banerjea-1930

23 जुलाई...........

आज 23 जुलाई बाल गंगाधर तिलक और शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के जन्मदिन पर हमारी भाव-भीनी श्रद्धांजलि।

इतिहास के पन्नों में आज के दिन यानी 23 जुलाई 1927 को रेडियो का प्रसारण शुरू हुआ था, देश के सारे रेडियो प्रेमियों / श्रोताओं को बधाई।

22 जुलाई 2010

आज राष्ट्रीय ध्वज दिवस पर समग्र देशवासियों को बधाई !

आज 22 जुलाई मुकेश साहब के जन्मदिन के अवसर पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

आगामी कल 23 जुलाई को हिमेश रेश्मिया जी का जन्मदिन है। उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं तथा बधाईयां !

परसों 24 जुलाई को जाने-माने अभिनेता मनोज कुमार साहब का जन्मदिन है, उन्हें अग्रिम शुभकामनाएं तथा बधाई देते हुए उनके स्वस्थ्य जीवन की मंगल कामना करते हैं।

29 जुलाई अनूप जलोटा, संजय दत्त जी के जन्म दिन के अवसर पर उन्हें अग्रिम शुभकामनाएं !

30 जुलाई को सोनू निगम जी के जन्म दिन के मौके पर उन्हें अग्रिम शुभकामनाएं !

31 जुलाई को हरमनप्यारे मुहम्मद रफ़ी साहब की पुण्यतिथि है, उन्हें हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि !

20 जुलाई 2010

मैं कोई चाँद नहीं जो पिघल जाऊँगा
मैं कोई हर्फ़ नहीं जो बदल जाऊंगा
मैं सहरों पे नहीं खुद पे यकीन रखता हूँ
गिर पड़ूंगा तो क्या हुआ, मैं संभल जाऊंगा
चाँद, सूरज की तरह वक़्त से निकलता हूँ
चाँद, सूरज की तरह वक़्त पे ढल जाऊंगा
काफ़िलेवाले मुझे छोड़ गए हैं पीछे
मैं अंधेरों को मिटा दूंगा, चराग़ों की तरह
आग लगा दूंगा, मैं जल जाऊंगा
हुस्न वालों से गुज़ारिश है कि पर्दा कर लें
मैं दीवाना हूँ, आशिक हूँ, मचल जाऊंगा
रोक सकती है मुझे तो रोक ले दुनिया, बख्शी
मैं तो जादू हूँ, मैं जादू हूँ, चल जाऊंगा।

यह प्यारी सी नज़्म आप सबकी नज़र जो निकली थी गीतकार और शायर आनंद बख्शी की कलम के जादू से। आज है 21 जुलाई, आज ही के दिन 1920 में अविभाजित हिन्दुस्तान के रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) जन्म हुआ था गीतकार, शायर आनंद बख्शी साहब का। गायक बनने का सपना लेकर बंबई आए थे, लेकिन क़िस्मत ने उन्हें गीतकार के रूप में सफलता दिलाई। इस सफलता का पहला स्वाद चखा उन्होंने सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फिल्म मिलन से। चार बार उन्हें फिल्म फेयर पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

पहली बार - 1977 फिल्म अपनापन - गीत आदमी मुसाफ़िर है।
दूसरी बार - 1981 में फिल्म इक दूजे के लिए - गीत तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन ।
तीसरी बार - 1995 में दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे - गीत तुझे देखा तो ये जाना सनम ।
चौथी बार - 1999 में फिल्म ताल - गीत इश्क बिना क्या जीना यारो ।
गायक बनने का ख़्वाब संजोए वे बंबई आए थे, बन गए गीतकार, परंतु उन्होंने कुछ गीतों में अपनी आवाज़ भी दी जैसे - फ़िल्म चरस के गीत - के आजा तेरी याद आई, मोम की गुड़िया में - बागों में बहार आई /सुनो बातों-बातों में/मैं ढूँढ रहा था, फ़िल्म शोले की क़व्वाली(जो कि फ़िल्म में शामिल नहीं की गई) के चाँद सा कोई चेहरा, फ़िल्म बालिका वधु - जगत मुसाफ़िर खाना, फ़िल्म खान दोस्त - हर साल हमने तो सुना चर्चा इसी पैगाम का, फ़िल्म प्रेम योग - जिसे प्रेम का रंग चढ़ा हो, उसपे कोई भी रंग।
ऐसे में क्या दिल बरबस ही नहीं कह उठता कि
दिल क्या करे जब किसी को
किसी से प्यार हो जाए....
या फिर आदमी मुसाफ़िर है, आता है और जाता है,
आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है।
आज उनके जन्म दिन के अवसर पर हम उन्हें यादों के श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु ' (21-07-2010, 9.30AM)
यह कैसी पत्रकारिता..........
और दिमाग़ में कैसे-कैसे घोंसले ?



अपने इस ब्लॉग पर 17 जुलाई की मेरी पोस्ट दिमाग में घोंसले से सारे तथ्य लेकर शहर के एक पत्रकार महोदय ने अपने नाम से रिपोर्ट बनाकर(सिर्फ़ इन्ट्रो लगाकर और शीर्षक बदल कर) srijangatha .com में भेज दी। जनाब प्रोग्राम ख़त्म होने से दो मिनट पहले पहुंचे थे।
एक तो मैंने साढ़े पाँच बजे से आठ बजे तक प्रोग्राम में शिरकत की, फिर साढ़े नौ बजे घर पहुंच कर दो घंटे फिर से खर्च कर रिपोर्ट तैयार की और 11 बजकर 59 मिनट पर ब्लॉग पर डाली। और इन साहब ने बगैर परिचर्चा सुने, बगैर कोई मेहनत किए सारी रिपोर्ट हु-ब-हु वहाँ से रेडीमेड उठा ली। वाह... कैसी पत्रकारिता। हमने तो नहीं सीखी यह कला। वाकई इस ने साबित कर दिया कि दिमाग में कैसे-कैसे घोंसले होते हैं।
यही रिपोर्ट मैंने अपने दूसरे ब्लॉग संस्कृति सरोकार पर भी लगाई थी, लेकिन मैंने उसमें साभार-समवेत स्वर दर्ज किया था।जबकि दोनों ही ब्लॉग मेरे हैं, फिर भी।
कलकत्ते के कुछ अख़बार पंजाब केसरी या दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित अच्छे लेखों को आठ-दस दिन बाद हुबहू अपने अख़बारों में लगा दिया करते हैं । मेरे जैसा बंदा परेशान हो जाता है कि आख़िर इस लेख को पहले कहाँ पढ़ा है, खोजबीन करने पर पता चलता है कि अरे, यह तो पंजाब केसरी या दैनिक ट्रिब्यून से लिया गया है लेकिन कहीं साभार लिखे जाने की ज़रूरत तक नहीं समझी जाती।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

19 जुलाई 2010









20 जुलाई.....



दोस्तो, आगामी कल दो सितारों का जन्मदिन है। बात करते हैं एक-एक करके।


(1) सबसे पहले बात करते हैं 20 जुलाई 1929 को पश्चिमी पंजाब के सियालकोट में जन्मे राजेन्द्र कुमार तुली उर्फ़ जुबली कुमार की । यह दुखद ही है कि उनके जन्म दिन से पहले उनकी पुण्यतिथि आती है 12 जुलाई को। ख़ैर, केदार शर्मा निर्देशित जोगन राजेन्द्र कुमार की डेब्यू फ़िल्म रही। उसके बाद उन्हें major ब्रेक मिला फ़िल्म वचन के ज़रिए, जिसमें उन्होंने गीता बाली के भाई का किरदार निभाया था। रोमांटिक लीडिंग रोल वाली उनकी पहली सुपरहिट फ़िल्म थी – गूंज उठी शहनाई। उनकी फ़िल्में तो नहीं गिनवाऊंगी लेकिन मदर इंडिया और संगम तो उल्लेखनीय हैं ही। उसके बाद तो एक वक़्त ऐसा आया कि उनकी हर फ़िल्म सिल्वर जुबली मनाती थी, इसी कारण उन्हें जुबली कुमार कहा जाने लगा। हिन्दी फ़िल्मों के साथ-साथ उन्होंने कई पंजाबी फ़िल्में भी की।



बतौर निर्देशक-निर्माता उनकी पहली फ़िल्म थी - लव स्टोरी, जिसमें उन्होंने अपने सुपुत्र कुमार गौरव को लॉंन्च किया। साथ ही उन्होंने फूल, जुर्रत, नाम, लवर्स आदि फ़िल्मों का निर्माण भी किया। 1969 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन्होंने Honorary Magistrate के तौर पर भी अपनी सेवाएं दीं।



हिन्दी फ़िल्म क़ानून और गुजराती फ़िल्म मेंहदी रंग लाग्यो के लिए उन्हें पं. नेहरू के कर-कमलों द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 12 जुलाई 1999 को कैंसर के कारण उनका निधन हो गया।



जन्म दिन के मौक़े पर उन्हें याद करते हुए

हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।



(2) 20 जुलाई 1950 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में जन्म हुआ था, नसीर-उ-द्दीन शाह का। अजमेर तथा नैनीताल के सेंट जोसेफ कॉलेज से शिक्षा के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की। फिर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली से भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। मुख्यधारा तथा समानांतर हिन्दी सिनेमा दोनों में ही वे सफल रहे। बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मों में भी काम किया। निशांत, आक्रोश, स्पर्श, मिर्च मसाला, अलबर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है, त्रिकाल, जुनून, मंडी, मोहन जोशी हाज़िर हो, अर्द्ध सत्य, कथा आदि उनकी लोकप्रिय समानांतर फ़िल्में रहीं तथा वहीं दूसरी ओर मासूम, कर्मा, इजाज़त, जलवा, हीरो हीरालाल, गुलामी, त्रिदेव, विश्वात्मा, मोहरा, सरफ़रोश, बाजा़र, उमराव जान, हे राम, इकबाल, अ वेनस्डे, मॉनसून वेडिंग, इश्किया, परज़ानिया, खुदा के लिए, राजनीति, दस कहानियां, कृष, ओंकारा, फ़िराक़ आदि मुख्य धारा की फि़ल्मों के साथ-साथ मिर्ज़ा ग़ालिब तथा भारत एक खोज धारावाहिकों के भी वे हिस्सा बने। उन्होंने लवेन्द्र कुमार, इस्मत चुगताई, मंटो लिखित नाटकों का निर्देशन भी किया। 2006 में फ़िल्म निर्देशन में भी हाथ आज़माया और यूं होता तो क्या होता का निर्देशन किया जिसकी स्टारकास्ट में शामिल थे उनके साहबज़ादे इमाद शाह, आयशा टाकिया, कोंकना सेनशर्मा, परेश रावल तथा इरफ़ान खान।

1980 में फ़िल्म काल के लिए उन्हें सर्वोत्कृष्ट अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार, 1981 में आक्रोश, 1982 में चक्र, 1984 में मासूम, 1985 में पार तथा अ वेनस्डे के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के अवार्ड से सम्मानित किया गया। 1987 में पद्मश्री तथा 2003 में पद्म भूषण पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। फ़िल्म इक़बाल के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

हम उनकी दीर्घायू तथा लंबी फ़िल्मी पारी की

कामना करते हैं।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा 'अंशु'

1857 में आज़ादी हेतु
पहला बिगुल बजाने वाले
शूरवीर के आज जन्म दिन
के मौके पर उन्हें
हमारे श्रद्धा सुमन तथा
शत्-शत् प्रणाम !
अगर आप जैसे जांबाज शूरबीर
देश में न हुए होते,
तो आज हम कैसे आज़ाद
कहलाते और कैसे
खुली फ़िज़ा में साँस ले रहे होते ।
शत्-शत् नमन आपको मंगल पांडेय !

17 जुलाई 2010

उपन्यास परिचर्चा

कृति - दिमाग़ में घोंसले

लेखक - विजय शर्मा


कोलकाता, 17 जुलाई की शाम भारतीय भाषा परिषद में जाने-माने लेखक विजय शर्मा के नए उपन्यास ‘दिमाग़ में घोंसले’ पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा की शुरूआत जीवन सिंह के बीज वक्तव्य से हुई। जीवन सिंह ने कहा कि पाँच भागों में विभक्त उपन्यास की कथा-वस्तु का केन्द्र है ब्रजराज। उन्होंने काफ़ी विस्तार से उपन्यास के विभिन्न पहलुओं पर रौशनी डाली। उन्होंने कहा कि यह उपन्यास आज के दिनों में एक महाकाव्य है तथा इसे आम जनता के बीच वृहत्तर जीवन की खोज क़रार दिया।


कवि तथा कथाकार कुशेश्वर ने कहा कि उपन्यास का शीर्षक बहुत ही सटीक है। घोंसले कई तरह के होते हैं लेकिन बया के घोंसले की कारगरी बहुत ही सुंदर होती है। कौवे के घोंसले में कारीगरी नहीं होती लेकिन बहुत कुछ होता है। उन्होंने कहा कि घोंसले जब दिमाग में तैयार होते हैं तो बहुत ख़तरनाक होते हैं। उनमें पूरी दुनिया को समा लेने या मिटा देने की साज़िश होती है।


परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कला समीक्षक राज्यवर्द्धन ने कहा कि कलकत्ते को लोग हिन्दी समाज का पिछवाड़ा मानते हैं। जब यहाँ से ज्ञानोदय पत्रिका निकलती थी तब ये मुख्य केन्द्र होता था। वैसे आज कलकत्ते की रचनीशीलता बढ़ी है और यह आशा जगाती है कि कलकत्ते में और रचनाशीलता आएगी। उन्होंने कहा कि जिस तरह चित्रकार पिकासो ने चित्रकारी में चीज़ों को गड्डमड्ड कर दिया था उसी तरह ‘दिमाग़ में घोंसले’ में भी चीज़ें आगे-पीछे हो गई हैं। इसकी भाषा काव्यात्मक है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पाँच भागों में विभक्त कथा-वस्तु अगर पाँच अलग-अलग कहानियां होतीं तो ज़्यादा सशक्त होता। उपन्यास का क्रमबद्ध विकास नहीं हो पाया है।

इसी क्रम में कहानीकार सेराज खान बातिश ने कहा कि उपन्यास ऐसे समय में आया है जब देश में माओवाद चरम पर है। उपन्यास की भूमि भी माओवाद तथा नक्सलवाद है। ‘दिमाग़ में घोंसले’ का ब्रजराज जब जेल से निकल कर आता है तो उसके सामने वह आंदोलन नहीं है। उन्होंने कहा कि उपन्यास कुल मिलाकर फैज़ का एक शेर ही है :-

‘मुकाम फैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कु-ए-यार से निकले तो सु-ए-दार चले।’



प्रो. आशुतोष ने कहा कि उपन्यास, उपन्यास न होकर 96 पृष्ठों का synopsis है। यह उपन्यास बन नहीं पाया। साथ उन्होंने यह भी कहा कि जब ज्ञानरंजन इस पर स्वीकृति की मोहर लगा चुके हैं तो फिर हमारी आलोचना कोई मायने नहीं रखती। ब्रजराज (उपन्यास का केन्द्रीय पत्र) कोई गंभीर क्रांतिकारी नहीं रहा भले ही उसे बीस साल की सज़ा मिली हो। उन्होंने कहा कि क्रांतिकथा में लेखक ने लेख प्रस्तुत किए हैं। कथा को गंभीर रूप से नहीं लिया गया। लेखक की भी अपनी स्वायत्तता है और पाठक की भी। इसका फार्मेट ऐसा है कि पाठक को कथा के साथ बहने नहीं देता। लेखक यह कहता प्रतीत होता है कि मैं उत्तर-आधुनिक लेखक हूँ। मेरा शिल्प अलग है। उन्होंने आगे कहा कि उपन्यास में अंतर्वस्तु कुछ नहीं हैं, शिल्प का प्रयोग है। अभी इस पर एक अच्छा उपन्यास लिखा जा सकता है। यह उपन्यास न बनकर सिनॉप्सिस मात्र रह गया है।

परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए पत्रकार पुष्पराज ने कहा कि भूतपूर्व लेखक कहे जाने के आघात की चुनौती के मद्द-ए-नज़र उन्होंने यह उपन्यास लिखा। यह सिनॉप्सिस है। जिस बंगाल में वे बैठे हैं, वहाँ जो-जो कुछ हुआ वह इतिहास में दर्ज नहीं हो पाया। उपन्यास का शिल्प बहुत अच्छा है। लेखक अपने पात्र के साथ, पात्र की विचारधारा के साथ प्यार करता है। वह अपने पात्र के मौलिक स्वरूप के साथ छेड़-छाड़ नहीं करता लेकिन कई प्रसंगों में लेखक बचता है, हड़बड़ाहट में है। हड़बड़ाहट में नहीं लिखना चाहिए। विजय शर्मा को अंशकालिक नहीं पूर्णकालिक लेखक होना चाहिए। वे इसे प्रतिबद्धता के तौर पर लें।


शरणबंधु ने कहा कि मुझे धूमिल की पंक्ति याद हो आई है :

‘भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलवाद है।’


विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि चीज़ों को देखते हुए गुज़र जाना, उसमें इन्वॉल्व न होना, चीज़ों को क़तई पूर्णता नहीं देता। उन्होंने कहा कि लेखक का रोमांटिक मिजाज़ पूरी तरह से उपन्यास में उभर कर आया है। लेखक के पास काफ़ी कच्चा माल है। कच्चे माल का भविष्य में और भी गहराई से प्रयोग हो तो बेहतर है।


आलोचक-समीक्षक हितेन्द्र पटेल ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हिन्दी के नए/युवा लेखकों को पुराने मानदंड से मापा और पुराने चश्मे से देखा जा रहा है। उन्होंने कहा कि उपन्यास का सिनॉप्सिस होना ही उसकी यूनिकनेस है। कथावस्तु 1967-69, 1981 और 2007 तक की है। इसमें उस कालखंड, मोबाईल तथा एस.एम.एस का फ्यूज़न तैयार किया गया है। और इस तरह इसके स्पेक्टरम से जो प्ले तैयार होता है वह चमत्कारपूर्ण है। इस किताब के बहाने हिन्दी में बहस छेड़ी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दी वालों ने प्रयोग नहीं किए, अगर किए भी तो उन्हें समझने वाले आलोचक या समीक्षक नहीं मिले। इसके टेक्सट को बारीक़ी से समझे जाने की ज़रूरत है। उन्होंने आगे कहा कि कोई लकीर खींच देना आसान है। लकीर हमारे लिए सीमा-रेखा बन जाती है, लेकिन ज़रूरत है कि नई रेखा खींची जाए तभी रचनात्मकता का सम्मान होगा। विजय शर्मा में चिंगारी तो है लेकिन निष्ठा की कमी है। उनके कथामानस का हार्ड डिस्क कोमल है। पृष्ठ संख्या 58 से 61 तक में इसके दर्शन होते हैं। उनके मन में कई तरह की ज़िद है जिसे स्थापित करने के लिए उन्होंने जो सॉफ्टवेयर लगा रखा है, वह किसी विशेष वर्ग के प्रति व्यक्तिगत ख़ार को दर्शाता है। लेखन में इतनी स्पेस होनी चाहिए कि नया रास्ता दिखाई दे। विजय शर्मा के जीवन के अनुभव वाले प्रसंग बहुत बेहतरीन बन पड़े हैं।

इलाहाबाद से पधारे वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि मैं यह देखकर अभिभूत हूँ कि परिचर्चा में अपने साथी की रचना पर सबने पूरी नि:संगता के साथ, ऑब्जेक्टिविटी के साथ अपनी अनुभूतियों को व्यक्त किया। उन्होंने उपन्यास के कथानक के विषय में कहा कि यह वह कालखंड था जब आज़ादी की लड़ाई के बाद पहली बार छात्र, अध्यापक और बौद्धिक लोग सड़कों पर उतर आए। यह आज के माहौल में एक मार्गदर्शक चीज़ है। अगर लेखक ने कुछ भी हमें ऐसा दिया जो उस युग का आभास देता है तो यह हमारे लिए गर्व की बात है। आज बहुत कम लोग उन चीज़ों पर उजास डालते हैं। उन्होंने कहा कि जो विचार आयातित होते हैं उन्हें हम खाँचों में बिठाने की कोशिश करते हैं जबकि लेखक अपने हिसाब से प्रयोग करता है। यह स्वागतयोग्य है।

अंत में विजय शर्मा ने उपस्थित सबके प्रति आभार व्यक्त किया। परिषद के निदेशक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने परिचर्चा का संचालन किया। परिचर्चा के दौरान शहर के गण-मान्य साहित्य प्रेमी पाठक उपस्थित थे।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा ‘अंशु

17-07-2010, 11.59PM

15 जुलाई 2010


































हैप्पी बर्थडे इन्दु !



जी हाँ, यही कहना चाहूँगी इन्दु से। बार-बार दिन ये आए, बार-बार दिल ये गाए - तुम जीओ हज़ारो साल। आप भी सोच रहे होंगे कि भला ये इन्दु है कौन ? चलिए बताए देती हूँ, इन्दु वही... अरे ! वो राजनीति के ज़रिए जो प्रदेश की मुख्यमंत्री बनती है। यानी क्यूट - क्यूट कैट.... आई मीन.....कैटरीना कै़फ़।



आज है 15 जुलाई, रात के नौ बजने वाले हैं और कल है कैटरीना का जन्म दिन। सुबह चूँकि जल्दी निकलना है और लौटते-लौटते वही शाम के सात-आठ बजेगें। तो ऐसे में ब्लॉगिंग के ज़रिए कैटरीना को विश करने में तो देर हो जाएगी। हाँ, यह अलग बात है कि AIR FM Rainbow पर तो सुबह नौ बजे कोलकातावासी FM प्रेमियों के साथ मिलकर विश तो कर ही लेंगे।


ख़ैर ! 16 जुलाई 1984 को हॉंगक़ॉंग में जन्मी थीं कैटरीना। मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ज्वैलरी के लिए मॉडलिंग शुरू की। ऐसे में 2003 में हिन्दी फ़िल्म बूम में काम करने का ऑफर मिला तो उन्होंने बंबई का रुख किया। 2007 में प्रदर्शित नमस्ते लंदन उनकी पहली major हिट रही। फिर तो हमको दीवाना कर गए, पार्टनर, युवराज, वेलकम, अपने, रेस सिंग इज़ किंग, ब्लयु, अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी वगैरह...वगैरह के बाद अब आई राजनीति। दो और फिल्में दिसंबर तक प्रदर्शित होंगी। अब तक कुल सतरह हिन्दी, दो मलयालम और एक तेलगु फिल्म कर चुकी हैं वे। मैंने उनकी फिल्म पहली बार देखी - राजनीति। चर्चाएं तो काफ़ी रहीं। इस फिल्म में निभाए किरदार से उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार की उम्मीद भी है। ख़ैर, छोटे-छोटे कई पुरस्कार तो मिल चुके हैं परंतु कोई उल्लेखनीय पुरस्कार अभी तक उनकी झोली की शोभा नहीं बढ़ा पाया। हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। कल की सालगिरह से शुरू हो रहा उनका नया साल उनके लिए और भी मंगलमय हो। यही दुआ है दिल से।


प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'













































13 जुलाई 2010






1. पुरी रथ - यात्रा
2-3. कोलकाता के भवानीपुर अंचल की रथ-यात्रा की झल्कियां।

आप सबको रथ यात्रा की हार्दिक शुभ कामनाएं !
















11 जुलाई 2010

' कभी ज़िन्दगी में किसी के लिए मत रोना
क्योंकि वह तुम्हारे आँसुओं के काबिल नहीं होगा........
और वह जो इसके काबिल होगा
 तुम्हें कभी रोने नहीं देगा......
'

जिन दिनों हम टालीगंज में रहा करते थे(1996-2004), उन्हीं दिनों एफ. एम. ज्वॉयन किया था। 120 कवार्टरों वाली बिल्डिंग में हम चौदहवीं मंज़िल पर रहते थे। कोई नहीं जानता था कि ये एफ. एम. पर आती हैं। दरअसल कभी कोई पूछता भी तो मैं इन्कार कर देती कि नहीं वो मेरी आवाज़ नहीं है। ऐसे ही एक लड़का छठी-सातवीं में पढ़ता था, वह हमारे घर अख़बार दिया करता था। उसे किसी तरह पता चल गया। अब जिस दिन वह अख़बार देने आता (क्योंकि रोज़ अलग-अलग लड़के आया करते थे), घंटी बजाकर मम्मी से कहता, दीदी से पूछ कर बताईए न कि अगला प्रोग्राम किस दिन है। मैं उसे कहती, अरे पढ़ाई किया करो। प्रोग्राम वगैरह के चक्कर में मत रहो। तो वह कहता, मेरी पढ़ाई का नुकसान मैं नहीं करता, मैं आपके प्रोग्राम से पहले या बाद में पढ़ाई कर लेता हूँ। फिर हमने दिसंबर 2004 में ठाकुरपुकुर इलाके में शिफ्ट किया। यही कोई साल या डेढ़ साल पहले सुबह-सुबह एक दिन साईकिल पर तफ़रीह के लिए जा रही थी तो पास से गुज़र रहे एक युवक ने पुकारा, नीलम दी। रुक कर उसकी तरफ देखा, लंबा-चौड़ा सा युवक। परंतु चेहरा क़तई जाना-पहचाना नहीं लगा। उसके चेहरे पर स्माईल थी। उसने कहा – चीनते पारले न तो (नहीं पहचाना न।) मैं अमुक। आपके घर अख़बार दिया करता था। आप इस इलाके में.....? आजकल इधर रहती हैं क्या ? मेरे पूछने पर कि आजकल क्या करते हो तो उसने कहा, अब मैं इंवनिंग कॉलेज में बी.ए. फर्स्ट ईयर में हूँ, पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करता हूँ। मैंने कहा, अब तो देखने में तुम मेरे दादा (भईया) लगते हो, इतने बड़े हो गए हो। कैसे पहचानूं। वैसे भी इतने सालों में वह मेरे ज़ेहन से निकल चुका था। ख़ैर.... उसने मुझे पहचाना क्योंकि बड़ा तो वह हुआ था, (मेरे ज़ेहन में तो उसके बचपन की सूरत ही थी)। मेरे हिसाब से मेरी शक्ल में तो कोई बदलाव नहीं आया। हाँ, यह अलग बात है कि बहुत से लोग कहते हैं कि पहले की तुलना में मेरी पर्सनैलिटी बहुत बदल गई है। तो चलिए धन्यवाद उन दोस्तों का, जिनकी सोहबत में यह बदलाव आया होगा (कहते हैं न, मैन इज़ नोन बाय द कंपनी ही कीप्स)। उस बच्चे ने मुझे पहचाना। अरे.... अरे, हो सकता है अब उसे बच्चा कहलवाना पसंद न आए। ऐसे ही वह मुझे अब भी आते-जाते रास्ते में मिल जाता है, कभी-कभी मेट्रो स्टेशन पर भी। कहता है दीदी, मैं तुम्हें रोक कर बात कर लेता हूँ, तुम बुरा तो नहीं मानती न ? मेरा मोबाईल नंबर ले रखा है। एस. एम. एस. और फोन भी कर लेता है। अक्सर कहता है - दीदी, प्लीज़ कोई सैड सॉन्ग सुनवाना। और प्रोग्राम की डेट बता दिया करें। मैं कहती हूँ, मुझे सैड सॉन्ग सुनवाना क़तई पसंद नहीं। ये क्या बात हुई कि सबको मनोरंजन के नाम पर सैड कर दो। जब तक स्क्रिप्ट की बहुत ज़्यादा माँग न हो, मैं सैड सॉन्ग नहीं रखती। बच्चे हो, अभी से कौन से दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा ? उसने कहा, नहीं ज़िंदगी में बहुत दु:ख देखे हैं। मैंने कहा, अभी तो बहुत बड़ी ज़िंदगी बाकी है, अभी से हार गए तो कैसे चलेगा। उसके एस. एम. एस. भी सैड होते हैं। मैंने उसे मना किया, एस.एम.एस.भेज कर पैसे मत बर्बाद किया करो, क्योंकि मेहनत की कमाई है उसकी तथा साथ-साथ वह पढ़ाई भी तो करता है। यानी अभी जीवन में स्थापित होने के लिए संघर्षरत है।उसकी माँ ने अकेले ही उसकी परवरिश की है । आज भी  पिछले प्रोग्राम से पहले मैं तैयारी कर रही थी तो उसके एक के बाद एक पाँच मैंसेज आए। 02 जुलाई को जब मैं मुहम्मद अज़ी़ज़ पर प्रोग्राम कर रही थी तो उसका मैसेज आया, दीदी तुमने बताया ही नहीं लेकिन देखो मैं तुम्हारा प्रोग्राम सुन रहा हूँ।


लेकिन, आज सुबह बस यूं ही कंप्यूटर पर काम करते-करते अचानक किसी बात पर आँखें नम हो आईं (बहुत ही इमोशनल हूँ न, ये दिल है कि मानता ही नहीं, यह जानते हए भी कि मुझ जैसे लोग आज की सोसायटी में मिसफिट हैं)। अचानक उसी वक्त मोबाईल का एसएमएस बीप बज उठा। देखा 9. 25 पर उसी नीलकमल का एस. एम. एस. था। नीलकमल बंगलाभाषी है, लेकिन इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की बदौलत यह पीढ़ी हिन्दी भी सीख गई है। एस. एम. एस. रोमन हिन्दी में था, लिखा था –


' कभी ज़िंदगी में किसी के लिए मत रोना
क्योंकि वह तुम्हारे आँसुओं के काबिल नहीं होगा........
और वो जो इसके काबिल होगा
वो तुम्हें कभी रोने नहीं देगा......
'


और मेरे होठों पर मुस्कान खेल गई कि अनजाने में ही कितने सही वक्त पर पहली बार उसने कितना माकूल मैसेज भेजा ( कहाँ तो मैं उसे कहा करती हूँ कि मैसेज भेजने में पैसे बर्बाद मत किया करो)। ख़ैर ! आँखें नम होने की वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन मैंने तुरंत आँखे पोंछ डाली।


बाद में जोड़ा गया -(9-12-2010)एक दिन मैंने उसे ऑफिस में बुलवाया और उसे यह आलेख पढ़वाया। चूँकि उसने संस्कृत पढ़ी है तो जोड़-जोड़ कर धीरे-धीरे हिन्दी का यह आलेख भी उसने पढ़ लिया। बातों के दौरान उसने फिर कहा कि मुझे सैड सॉंग बहुत पसंद है, तुम प्रोग्राम में सुनवाती ही नहीं हो। मैंने उससे कहा कि देखो मेरा प्रोग्राम ज्यादातर सुबह नौ बजे होता है, सुबह-सुबह लोगों को सैड स़ॉंग सुनवाना उचित नहीं लगता। फिर उसने कहा कि नहीं जिंदगी में इतने दु:ख देखे हैं और उसने बताया कि किस तरह उसके पिता ने उसकी माँ से लव मैरिज करने के बावजूद दूसरी गृहस्थी बसा ली और उसने झिझकते हुए बताया कि उसकी माँ आज भी लोगों के घरों में काम करती हैं। मैंने उससे कहा कि इसमें शर्मिंदगी की क्या बात है ? कोई भी काम छो़टा नहीं होता, बल्कि उन्होंने स्वाभिमान से सर उठाकर तुम्हारी परवरिश की है। कहाँ तो उसके एसएमएस ने एक दिन मेरे आँसुओं पर विराम लगवाया था और कहाँ उस दिन वह भावुक होकर मेरे पास रो पड़ा। बंगाल में अड्डा का चलन है और मुझे बड़ी हैरानी हुई जब उसने कहा कि मेरे बहुत कम दोस्त हैं। मैं अड्डा नहीं मारता। काम से लौट कर घर पर बैठ कर पढ़ाई करता हूँ य़ा फिर टी.वी. देखता हूँ और रेडियो सुनता हूँ। साथ ही उसने यह भी कहा कि, दीदी आमी कोनो दिन भालोबेशो बिए कोरबो न(यानी मैं कभी लव मैरेज नहीं करूंगा)।