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29 मार्च 2014

आज हिन्दी के प्रसिद्ध कवि  भवानी प्रसाद मिश्र जी का जन्म दिन है। उनका जन्म 29 मार्च, 1913 को गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में हुआ था।

अध्यापन से शुरूआत कर कालांतर में वे आकाशवाणी बंबई और दिल्ली से भी संबद्ध रहे। मद्रास की ए. वी. एम. कंपनी के लिए उन्होंने गीत और संवाद भी लिखे।  
1972 में उनकी कृति 'बुनी हुई रस्सी' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया। उनकी कविताएं गेय शैली की हैं और सरलता से याद रहती हैं।
     


(1)

गीत-फ़रोश

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 
मैं तरह-तरह के 

गीत बेचता हूँ
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत 
बेचता हूँ। 

जी, माल देखिए दाम बताऊँगा
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा
यह गीत पिया को पास बुलायेगा। 
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को 
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को;
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान। 
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान। 
मैं सोच-समझकर आखिर 
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था। 
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है 
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है 
जी, यह मसान में भूख जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर 
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर। 
मैं सीधे-साधे और अटपटे
गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ 
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ;
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें 
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें। 
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात
मैं पास रखे हूँ क़लम और दवात 
इनमें से भाये नहीं, नए लिख दूँ ? 
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा
हैं दोनों चीज़ें व्यस्त, कलम, कंधा। 
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के 
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के। 
मैं नए पुराने सभी तरह के 
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ। 

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का
यह गीत पित्त का है, यह बादी का। 
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी  
यह लीजे चलती चीज़ नई, फ़िल्मी। 
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत
यह दुकान से घर जाने का गीत
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात 
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात। 
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत
जी रूठ-रुठ कर मन जाते हैं गीत। 
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ 
गाहक की मर्ज़ी  अच्छा, जाता हूँ। 
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ  
या भीतर जा कर पूछ आईए, आप। 
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर 
गीत बेचता हूँ। 
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।






(2)


बुनी हुई रस्सी


बुनी हुई रस्सी को घुमाएं उल्टा

तो वह खुल जाती है
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !





(3)


सतपुड़ा के घने जंगल


सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल।


झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।


सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,


ये घिनौने, घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
साँप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ


लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात-झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,


कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,


कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिंत बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।


जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके


सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।


जागते अंगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाईयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।


क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?


ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


धंसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।


लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरण दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय


सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।


प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'