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21 मई 2013


....... तो फिर ये महिला कौन थी..... 
क्या महज़ इत्तेफाक़ था..........

दिनांक 20-05-2013, समय - रात के लगभग 9.15, स्थान राजभवन क्रॉसिंग। आकाशवाणी से प्रोग्राम के बाद घर वापसी के लिए मेट्रो स्टेशन तक जाने के लिए राजभवन के पास सड़क पार करने के लिए सिग्नल का इंतज़ार कर रही थी। अचानक पीछे से, दाहिनी तरफ से आवाज़ सुनाई दी (हिंदी में पूछा गया) - दीदी झालदा का रस्ता इधर है क्या ? पलट कर देखा तो साड़ी में एक 30 - 32 वर्षीया महिला थी। न तो ठेठ देहातिन और न ही शहरिन लग रही थी। चूँकि थोड़ी देर पहले आँधी - तूफान सहित बारिश होकर हटी थी तो उसके सर पर कुछ लकड़ियों का छोटा सा गट्ठर दिखा और हाथ में भी कुछ टूटी टहनियां थाम रखी थी शायद जलावन के लिए। र्मैने सियालदह समझ कर तुरंत कहा - हाँ। फिर मुझे लगा कि नहीं, सियालदह न कह कर कुछ और कहा गया है। मैंने दुबारा पूछा तो उसने कहा - झालदा। मैंने हैरान होकर पूछा - झालदा ? ये कहाँ है । फिर उसने कहा - तुम सुधा हो। मैंने कहा - नहीं। उसने हंसते हुए कहा, झूठ बोलती हो। मुझे लगा कि उसे मेरी शक्ल किसी से मिलती-जुलती लग रही होगी। मैंने कहा, कहाँ रहती है सुधा? (सोचा था वो कहेगी - खिदिरपुर। मैं जिस सुधा को जानती हूं वो कभी खिदिरपुर में भी रहती थी।) इस बार उसने जिस जगह का नाम लिया, चाह कर भी याद नहीं कर पा रही हूं, कल रात ही पोस्ट लिखनी चाही थी पर नेट ने दगा दिया। 


मैंने फिर से कहा, आप जिन जगहों के नाम ले रहीं है, मैंने तो कभी ये नाम सुने तक नहीं, मुझे लगा शायद आप सियालदह की बात कह रही हैं, पर ये झालदा वगैरह हैं कहाँ ? उसने कहा वहीं हमारे बंगाल में। मुझे हल्की सी हँसी आ गई। हँसते हुए पूछा - वो आपका बंगाल है तो ये कौन सी जगह है। सोचा था आशा के अनुरूप जवाब मिलेगा - कलकत्ता (यानी शहर)। पर उसने कहा वो हमारा बंगाल है ये पाकिस्तान है। मेरी हँसी गायब......। समझ में आया कि संभवत: इसका मानसिक संतुलन ग़ड़बड़ है। दिन का वक्त होता तो शायद कुछ देर और बात कर भी लेती। उस वक्त कुछ और नहीं सूझा लगा कि इसके साथ बातों में लगे रहने से निर्धारित ट्रेन भी छूट जाएगी 9.26 वाली। फटाक से दौड़ कर रोड पार कर मेट्रो स्टेशन की तरफ दौड़ लगा दी। आज ऑफिस में जाकर कलीग से पूछा तो उन्होंने बताया कि "ये जगह पुरुलिया जिले में पड़ती है, हावड़ा स्टेशन से पुरुलिया जाने वाली ट्रेन लेनी पड़ती है। वह महिला अपनों से बिछुड़ गई होगी। वही कहीं गलत हाथों में पहुंच जाएगी।" लेकिन अब मुझे लगता है कि वह अपनों से बिछुड़ी नहीं थी कलकत्ते की ही होगी, क्योंकि उसकी बात-चीत में अजनबी शहर में अपनों से बिछुड़ने का डर या घबराहट का लहज़ा क़तई नहीं था। मानसिक संतुलन की गड़बड़ी ही रही होगी वर्ना लकड़ियां उठाए क्यों फिरती ? भगवान ही जाने......




या फिर...... परसों रविवार को "शिरडी के साँई बाबा" फिल्म देखी थी ज़ी क्लासिक पर। बाबा के भक्त ने बाबा से पूछा था कि आप कल भोजन करने क्यों नहीं आए। बाबा ने कहा, आया था पर तुमने डांट-फटकार कर भगा दिया। भक्त ने कहा - मैंने आपको भगा दिया ? फिर कुछ सोच कर कहा, वो तो मैंने एक भिखारी को भगाया था। बाबा ने कहा - वो मैं ही था। मैं किसी भी रूप में आ सकता हूं।
 

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तो फिर ये महिला कौन थी..... क्या महज़ इत्तेफाक़ था..........




प्रस्तुति    – नीलम शर्मा अंशु 



 आखिर ऊपर बैठा वो फ़नकार इतनी विविधता कहाँ से लाए...... 


शुक्रवार, 17 मई 2013 - शाम को ऑफिस से घर के लिए निकली तो गेट पर एक मित्र मिल गई। उनसे वहीं खड़े-खड़े बातें हो रही थीं कि एक कलीग भी पास से गुज़रे, साथ में उनकी बिटिया थी। चूँकि बचपन से वह मुझे जानती है तो रुक कर उसने भी बात की। मैंने कहा, अगली बार आओ तो मिल कर जाना, खूब बातें करेंगे। और जाते-जाते वह कह गई बांगला में - सेलिब्रिटिज इस तरह यहाँ खड़े बातें करते मिल जाएंगे कौन सोच सकता है भला ? उसे देख कर मेरी मित्र ने कहा देखो ये लड़की हुबहु अपने पिता जैसी दिखती है, वैसे ही होंठ, वैसी ही मुस्कान। कुछ देर और अपनी उस मित्र से बातें करने के बाद हमने अपनी-अपनी राह पकड़ी। मेट्रो से उतर कर सोचा, कुछ सामान लेते हुए चला जाए तो एक दुकान का रुख किया। कुछ देर बाद दुकान पर एक और महिला गाहक आईं। अचानक देखा, मेरी तरफ देख वे अकेले-अकेले मुस्कुरा रही हैं। मैंने भी एक बार गौर से देखा, पर वे परिचित नहीं जान पड़ीं। सामान लेकर जाते वक्त उन्होंने बांगला में ही कहा - 'एक्सक्यूज मी, आपकी शक्ल मेरी छोटी बहन से हु-ब-हु मिलती है, पल भर के लिए तो मैं चौंक ही गई।' जवाब में मैंने उनका मन रखने के लिए कहा - थैंक्स, सो स्वीट। आप कहाँ रहती हैं। उन्होंने कहा - यहीं पास में रहती हूं, पर मेरी बहन राणाघाट में रहती है कहकर फिर से मुस्कुराते हुए वे चली गईं। (ये जगह हमारे वहाँ से कई किलोमीटर के फासले पर है, य़ानी एक उपनगर है)



जब स्कूल में पढ़ती थी तो एक बार मेरी हमउम्र ममेरी बहन मध्य प्रदेश से आई हुई थी छुट्टियों में हमारे घर। लिहाज़ा वह घर पर ही रहती और मैं स्कूल चली जाती। घर के सामने रास्ते से गुज़रने वाली महिलाएं उसे नीलम समझ कर पूछतीं - आज स्कूल नहीं गई ? जवाब में मेरी मम्मी कहतीं - नीलम तो स्कूल तो गई है, ये तो मेरी भतीजी है। जबकि मेरी उसकी शक्ल में इतनी समानता भी नहीं थी। 



90 के दशक में डी. डी.1 पर अंग्रेजी की समाचारवाचिका हुआ करती थीं - संगीता बेदी। हमारी माँ को लोगों की शक्लें मिलाने की आदत है।एक दिन माँ ने कहा, ये बिलकुल तुम्हारे जैसी लगती है। मैंने कहा - आपको तो और कोई काम है नहीं, बस शक्लें मिलाती रहतीं है आप। लेकिन कुछ दिनों बाद लोकल ट्रेन में मेरी एक मित्र ने भी कहा कि अरे तुम्हारी शक्ल अमुक न्यूज रीडर से मिलती है। संयोग की बात कि कुछ ही दिनों बाद फिर मेरे एक सीनियर कलीग ने भी कह डाला कि अरे नीलम तुमने ध्यान दिया है वो इंगलिश न्यूज री़डर आती है न, तुम्हारी शक्ल उससे बहुत मिलती-जुलती है। मैंने सोचा, तीन-तीन लोग कह रहे हैं तो चलो कुछ हद तक समानता होगी। घर आकर माँ को भी खुश करने के लिए बता दिया कि आपके साथ-साथ और दो लोगों ने भी यही बात कही है। बड़े भाई साहब ने एक दिन कह दिया कि दिल्ली जाओ और संगीता बेदी से मिलकर कहना कि लोग मुझे आपके जैसी कहते हैं।




अभी पिछले साल मेरे एक श्रोता संटु मल्लिक ने कहा कि दीदी आपकी आवाज़ कविता कृष्णमूर्ति की आवाज़ से मिलती है (गायकी वाली आवाज़ नहीं जब वे साधारण बात-चीत करती हैं तो)। उसने कहा हम टी.वी. पर उनकी इंटरव्यु देख रहे थे तो अचानक मेरे भाई ने कहा कि अरे इनकी आवाज़ तो नीलम शर्मा से मिलती है। ख़ैर मैंने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि आज तक मैंने कविता कृष्णमूर्ति जी की सिर्फ़ गायकी वाली आवाज़ ही सुनी है।

पिछले दिनों मेरी एफ. एम. कलीग कविता झा ने भी एक दिन कह ही दिया कि नीलम जी, आपने गौर किया है कि आपकी आवाज़ कविता कृ. जैसी है। मैंने तुरंत कहा पता नहीं, तुमसे पहले भी संटु मल्लिक ने यही बात कही थी।




आखिर ऊपर बैठा वो कुम्हार इतनी विविधता कहाँ से लाए...... हलाँकि मैं तो यही कहा करती हूँ कि मैं किसी के जैसी नहीं, अपने जैसी हूँ।



प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'