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29 सितंबर 2012


28 सितंबर, 2012 को प्रभात वार्ता (कोलकाता) में प्रकाशित मेरा आलेख






27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (अब पाकिस्तान) में जन्में थे भगत सिंह। मज़े की बात यह है कि अब यह स्थान पाकिस्तान में है लेकिन पंजाब के नवांशहर जिले में उनके पैतृक गाँव खटकड़कलां के पास यानी नवांशहर जालंधर मार्ग पर भी बंगा शहर है। 

नवंबर 2008  को अपनी पंजाब फेरी के दौरान मैंने तय किया कि इस बार खटकड़कलां अवश्य जाना है। और, एक दिन सुबह जा पहुंचे हम खटकड़कलां, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के गाँव। नवांशहर-जालंधर मार्ग पर स्थित है यह गांव। वैसे तो पंजाब के गाँव सिर्फ़ कहने भर को गाँव कहलाते हैं लेकिन होते हैं सभी सुविधाओं से संपन्न। नवांशहर से हमने ओंकार बस सर्विस की बस ली और कंडक्टर से गुज़ारिश की कि भई खटकड़कलां उतार देना। (ज़्यादातर लंबे रूट की बसें वहाँ नहीं रुकती या तो अपने वाहन से जाया जाए या टैंपों से)। भाई, अपने काम की व्यस्तता के कारण हमारे साथ नहीं जा पाया परिणामस्वरूप अपने वाहन की बजाए हमें बस का सहारा लेना पड़ा। 

   कहते हैं न जब कोई चीज़ आसानी से उपलब्ध हो तो हम उसकी क़द्र नहीं करते। हां, 1980-86 तक पंजाब प्रवास के दौरान हज़ारों बार उस रूट से सफ़र किया क्योंकि मौसी या बुआ के घर जालंधर या फगवाड़ा जाते वक्त वह रास्ते में पड़ता है। हमारे अपने गाँव से नवांशहर छह कि.मी. है और नवांशहर से  लगभग 13-14 कि.मी. का फासला होगा। उस वक्त हम छोटे थे, इसलिए उतनी समझ भी नहीं थी, जबकि मेरी मम्मी का ननिहाल उसी गाँव में है (अब कोई नहीं रहता)। लेकिन अब जब कलकत्ते में रहकर पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ तो सोचा कि इस बार ज़रूर ख़टकड़कलां होकर आएंगे। मेरे साथ मम्मी और छोटे भाई की पत्नी टीना भी थी। मुख्य सड़क पर उतर कर पक्की सड़क से हम पैदल ही चलते चले। क्या नज़ारा था। बीचो-बीच कंकरीट की सड़क और दोनों तरफ फसलों से लहलहाते खेत। खेतों में सुनहरी धान लहलहा रही थी और कहीं गन्ने झूम रहे थे। यूं तो घरों में रखे अनाज को कीड़ा लग जाता है लेकिन मैं उस वक्त खेत से धान की दो बालियां तोड़ कर लाई थी और उन्हें बड़े जतन से अपनी डायरी में सहेज कर कोलकाता ले कर आई। अब तब से मेरे कमरे की दीवार पर झूल रही हैं ज्यों की त्यों। जब हम पैदल चले जा रहे थे तो अचानक टीना ने पूछा, दीदी हम यहाँ क्यों  जा रहे हैं। सच कहूं तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि पंजाब मे पली-बढ़ी और पत्रकारों के परिवार की बहू होकर उसने ऐसा बचकाना सवाल क्यों किया। ख़ैर, मेरी मम्मी को तो आदत है हमारे साथ इस तरह की घुमक्कड़ी की।

 मुख्य सड़क से निकली वह सड़क आगे जाकर एक चौराहे का रूप ले लेती है। दाहिने मुड़ जाने पर दाहिनी तरफ भगत सिंह की स्मृति में बना पुस्तकालय है। उस दिन वह बंद था। बांई तरफ उनका एक मंजिला पैतृक मकान। और उसके इर्द-गिर्द सर उठाए ऊंची-ऊंची इमारतें जिनमें वह छुप सा गया प्रतीत होता था।  एक कमरे में पलंग, अलमारी और कुछ अन्य वस्तुएं नज़र आ रही थीं कांच के दरवाज़े से। दूसरे कमरे में रसोई के बर्तन, अनाज पीसने वाली चक्की वगैरह-वगैरह। मकान के सामने खाली स्थान पर विशाल खुला पार्क है भगत सिहं को समर्पित। पुस्तकालय और पार्क हाल ही यानी साल-डेढ़ साल पहले बनाए गए थे। चौराहे के बांई तरफ सीनियर सेकेंडरी स्कूल है। हमने स्कूल की प्रधानाध्यापिका से मुलाकात की।

 मुख्य सड़क के किनारे संग्रहालय स्थित है। स्मारक में कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें, दुर्लभ दस्तावेज प्रदर्शित हैं। कुल मिलाकर जिस जोश से लबरेज होकर आप वहां पहुंचते हैं वापसी में अपने साथ वैसा कुछ नहीं ला पाते सिवाय निराशा या मायूसी के। वहां से गुज़र रहे दो स्कूली छात्रों से मैंने पूछा कि यह गाँव क्यों मशहूर है तो जवाब में वे बस शहीद भगत सिहं का नाम ही ले पाए। कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति मुहम्मद रफ़ी साहब के पैतृक गाँव कोटला सुल्तान सिंह जाकर हुई थीजहाँ आज की पीढ़ी इन हस्तियों के बारे ज़यादा जानकारी नहीं रखती। 

ख़ैर, अब 2000 से नवांशहर का नाम शहीद-ए-आज़म भगत सिंह नगर किया गया है। 

1980-86 के अपने पंजाब प्रवास के दौरान पंजाबी की पाठ्य पुस्तक में संकलित एक कविता देखी थी, जो कि पंजाबी माध्यम के स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल थी। हमारे सामने वाले चाचा जी प्यारा सिंह की बड़ी बेटी बलबीर से पुस्तक लेकर मैंने पढ़ी थी। मुझे बहुत प्रिय थी। मैंने उसे डायरी में नोट कर रखा था संभवत: करतार सिंह सराभा रचित है, कविता हू-ब-हू देवनागरी में प्रस्तुत कर रही हूं :- 



                                                   हिंद वासियां नूं अंतिम संदेश 


                                                   हिंद वासियों रखणा याद सानू 
                                                   किते दिलां तों न भुल्ल जाणा 
                                                  ख़ातिर वतन दी लग्गे हां चढ़न फाँसी 
                                                  सानूं वेख के नहीं घबरा जाणा 
                                                  साडी मौत ने वतन दे वासियां दे 
                                                  दिली वतनां दा इश्क जगा जाणा 
                                                  देश वासियों, चमकणा चन्न वांगू 
                                                  किते बदलां हेठ न आ जाणा 
                                                  करके देश दे नाल ध्रोह यारो 
                                                  दाग़ क़ौम दे मत्थे ते ना ला जाणा 
                                                  मूला सिंघ, भगत सिंघ, सुखदेव, राजगुरू 
                                                  ते सराभे वांगू नांऊ कमा जाणा 
                                                  जेलां होण कालज वतन सेवकां दे 
                                                  दाखल हो के डिगरियां पा जाणा 
                                                  हुंदे फेल बहुते अते पास थोहड़े 
                                                  वतन वासियो दिल ना ढाह जाणा 
                                                  प्यारे वीरो, चल्ले हां असीं जित्थे 
                                                  बस रसतियों तुसी वी आ जाणा। 


                 (कविता का कथ्य पंजाबी में है लेकिन आसानी से समझ आ जाएगी, इसलिए हिन्दी रूपांतर नहीं दिया)
  

                                   
                                                                     प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'