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20 जून 2023

 Father's Day


अब बड़े होने पर लगता है कि  डैडी मतलब, बेवजह का आतंक।

आज (20 जून) अपना बतौर आर जे रेडियो एफ एम से जुड़ने का दिन है और संयोग से इस बार Father's Day भी आज ही है। मम्मी से सुना है कि हम बच्चों की पैदाइश से पहले डैडी जी को फिल्में देखने और रेडियो का बहुत शौक था। 

1. पर हमें रेडियो, फिल्मों और कोर्स से इतर किताबें पढ़ने की स नि न एनख़्त मनाही थी कि सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। घर में पहला रेडियो भईया ने लाकर दिया कॉलेज के दिनों में नवांशहर में और भईया ने ही  नवांशहर के सतलुज सिनेमा में पहली फिल्म दिखाई थी "मुकद्दर का सिकंदर"। फिर फगवाड़ा में फुफेरी बहन के इसरार पर पहली पंजाबी फिल्म दिखाई थी "चन्न परदेसी"। (फिर संयोग से एक के बाद एक दोस्ताना, कालिया वगैरह - वगैरह सतलुज में अमित जी की ही फिल्में देखीं।) 

2. बचपन में एक दिन दोपहर को भईया के सहपाठी रतन भंसाली भईया फिल्म देखने जाने के लिए बुलाने आए। डैडी लंच के बाद घर पर आराम कर रहे थे। भईया ने धीमे स्वर में रतन भईया को मना करते हुए कहा, आज नहीं, पिताजी घर पर हैं। बस रतन भईया के जाने की देर भर थी कि डैडी उठे, छड़ी उठाई और भईया की पिटाई शुरू - "पिताजी घर पर हैं, फिल्म देखने नहीं जाना है। आ तुझे मैं फिल्म दिखाता हूं।" उनको पिटते देख अपना तो रोना शुरू। बोले - तुझे क्या कहा, तू क्यों रोती है? लगाऊं तेरे भी एक।

3. अब लगता है संडे बड़ी जल्दी गुज़र जाता है, कल फिर ऑफिस जाना पड़ेगा। लेकिन स्कूल के दिनों में लगता था कि संडे आता ही क्यों है? हालांकि मैंने तो डैडी से कभी डांट भी नहीं खाई, पिटना तो दूर की बात है। घर  पर उनकी उपस्थिति मात्र ही दहशत में रखती थी। रविवार होता तो मां कहती, आज डैडी से अंग्रेजी और गणित पढ़ लो। बस, आ गई शामत। जो कुछ आता था, डर के मारे सब भूल जाता। कोशिश होती कि रात को उनके घर लौटने से पहले ही सो जाओ, भले ही झूठ - मूठ आंखें बंद करके पड़े रहो। वे कहते भी कि बंगालियों के घर के सामने से गुजरी तो पता चलता है कि  पढ़ाई हो रही है ( बच्चे जोर - जोर से बोल कर पढ़ा करते हैं) अपने घर में तो पता ही नहीं चलता कि पढ़ते कब हैं। ये आठवीं तक की बातें हैं।

4. अब समझ में आता है कि सख्ती का वह आवरण ओढ़ा हुआ था हमारे भले के लिए।  (मां भी हमेशा डरा कर रखतीं, आने दो डैडी को बताऊंगी।) बड़े होने के बाद उन्हें वैसा नहीं पाया। अखबारें, पत्रिकाएं और किताबें लातीं तो पहले वे ही पढ़ते। आंखों की सर्जरी के बाद उन्हें ट्यूब लाइट के बिलकुल नीचे बैठकर पढ़ते देखा मानो इम्तहान की तैयारी हो। तब सब कुछ छुपा कर रखना पड़ता बच्चों की तरह ताकि  पढ़ने से आंखों पर ज़ोर न पड़े।

5. उन्होंने जनसत्ता में मेरे लेख और थोड़े बहुत अनुवाद छपते देखे। दुग्गल जी लिखित "फूलों का साथ" के अनुवाद पर काम करते देखा। कुछ शब्दों के अर्थ पूछती तो कहते, तुम्हें कैसे पता होंगे, ये तो हमारे ज़माने के अरबी - फारसी के कठिन  - कठिन शब्द हैं। किताब प्रकाशित होते नहीं देखी उन्होंने।

सरकारी नौकरी के अलावा अन्य सारी छोटी - छोटी उपलब्धियां उनके जाने के  बाद की हैं।

बचपन में जिन चीजों रेडियो, किताबों, फिल्मों की मनाही थी, अनायास ही वे चीजें बड़े होने पर काम/शौक़ का हिस्सा बन गईं।

6. हमारे डैडी फिल्म दंगल के पिता की भांति नहीं थे, फिर भी ये फिल्म मुझे बहुत पसंद है और वो गाना - " बापू तू तो" भी। डैडी होते तो ये गाना उन्हें ज़रूर सुनवाती।

तब सहगल साहब के गीत सुन कर मैं नाक सिकोड़ती तो वे कहते, तुम लोग क्या जानो सहगल को, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद? ( FM से जुड़ने पर सहगल भी अच्छे लगने लगे)। अल्ताफ राजा की एल्बम  "तुम तो ठहरे परदेसी" एकमात्र ऐसी रही जो हम भाई बहनों के संग - संग उन्हें भी पसंद थी।

7. रवींद्र नाथ बंगाल वालों के  जीवन का अटूट हिस्सा रहें हैं, पिता का निधन रवींद्र जयंती के दिन ही हुआ। इस तरह रवींद्र नाथ और भी शिद्दत से मेरे जीवन में शामिल हो गए। अब तो डैडी का ज़िक्र होने पर ही आंखें नम हो आती हैं, पर निधन वाले दिन भगवान ने पता नहीं मुझे कहां से इतनी ऊर्जावान और मजबूत बना दिया था कि मैंने सबको अच्छी तरह संभाला। बात - बात पर नम होने वाली आंखें इतने बरसों में मां के समक्ष पिता के लिए कभी नम नहीं हुई। भले ही वे सोचती हों कि बेटी कभी उन्हें याद नहीं करती।

8. उन्हीं दिनों F M programme के शुरुआती दिनों में मैंने बचपन पर एक prog किया, तब पिता को गुज़रे चंद महीने ही हुए थे। Prog में क्रिस्टोफर रोड की एक श्रोता कॉलर मिसेज चक्रबर्ती जो कि खुद भी वयस्क बच्चों की मां थी, अपने पिता और बचपन के दिनों को याद कर फूट - फूट कर तो पड़ीं। मैंने उन्हें ऑन एयर अच्छी तरह हैंडल किया, ढांढस बढ़ाया। अगले दिन दफ्तर जाने पर  मेरी एक कलीग ने बताया कि कल prog सुनते वक्त मेरी जान पर बनी हुई थी कि अब नीलम भी अपने पिता को याद कर इस श्रोता के साथ फूट - फूट कर रो पड़ेगी, या इस का स्वर नम हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने कहा कि भगवान की कृपा से उस वक्त अपने पिता की तरफ मेरा ध्यान बिलकुल नहीं गया, मेरा ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाइव prog पर केंद्रित था। हां, उस वक्त उनसे बात करते समय ज़रूर मैं रो पड़ी थी। 

(20-06-2021)

 आज ही के 1999 में आकाशवाणी एफ एम रेनबो की ध्वनि तरंगों के ज़रिए कोलकाता की फिज़ाओं में.......


आज अपनी 24वीं सालगिरह है.... दिल से शुक्रिया मेरे रब्बा! 🙏🙏


ऐसी भी क्या आपा - धापी कि आप अपने शौक़ से जुड़े विशेष दिन को ही भुला दें और फेस बुक याद दिलाए!


(1)

आज ही के दिन, 20 जून 1999 को शाम 6 -7 बजे पहली बार  आकाशवाणी  FM Rainbow कोलकाता की ध्वनि तरंगों पर सवार होकर म्यूजिकल शो "छायालोक" के ज़रिए बतौर आर. जे. इस नाचीज़ की आवाज़ अपने श्रोताओं तक पहली बार पहुंची थी। ईश्वर का तह-ए-दिल से आभार। श्रोताओं के असीम स्नेह के लिए उनका आभार। मुझे भले याद न हो पर कुछ श्रोता दोस्तों को आज भी उन दिनों की कुछ विशेष प्रस्तुतियां याद हैं जिसे वे गाहे-ब-गाहे आज भी मुझे याद दिलाते रहते हैं। डॉक्टर दीपक पोद्दार साहब, मलय दा, माया दी, शीला दी बहुत याद आते हैं और अन्य बहुत से साथियों से जुड़ी बहुत सी हसीन यादें हैं। लगता है जैसे कल की बात हो।

अब 2016 से FM Rainbow दिल्ली का साथ मिला है। शुक्रिया मेरे रब्बा। शुक्रिया दिल से आकाशवाणी!


(2) साडी कुड़ी कित्थे गई।...........

कल (19 जून, 2012) शाम कोलकाता से 'भाई जी' (मित्तल साहब) का फोन आया - कल कहाँ थी? मैंने तपाक से जवाब दिया कि मैं तो आपके शहर में हूं ही नहीं। (दरअसल मैंने सोचा कि शायद उन्होंने फोन किया होगा और कनेक्ट नहीं हो पाया होगा तभी ये सवाल किया गया है।) उन्होंने कहा, अरे कल हमने प्रोग्राम चलाया एफ. एम. पर तो देखा कि किसी और की ही आवाज़ है। मैंने सोचा, ओ साडी कुड़ी कित्थे गई, चलो पता करते हैं। दरअसल सबको पता है कि मैं हर सोमवार की शाम 'आज की शख्सीयत' प्रोग्राम लेकर आती हूँ और नियमित सुनने वालों को तो मैंने ऑन एयर बता दिया था कि आज की शख्सीयत लेकर अगली मुलाकात होगी 2 जुलाई को और इस बीच दो सोमवारों का विराम। भाई जी नियमित तो प्रोग्राम नहीं सुनते हैं लेकिन जिस दिन मैं नहीं थी उसी दिन उनका सुनने का मन हुआ । चलिए लोगों ने हमारी कमी तो महसूस की । (20/06/2012)


(3) 2007 में किसी एक दिन अपना काम ख़त्म करने के बाद ड्यूटी रूम में मैं मलय दा से बात कर रही थी। उसी समय शाम के शो के लिए मेरी एक जूनियर को - आर जे अपनी प्रस्तुति के लिए अलमारी से CDs का अपना बंच उठा कर चुपचाप निकल जा रही थी तो मलय दा ने उसे टोकते हुए कहा, ..... ये तुम्हारे हिंदी प्रोग्राम की को - आर जे नीलम शर्मा हैं। जानती हो इनको? उसने तुरंत कहा - इनका हेयर स्टाइल चेंज हो गया है न..... उन्होंने तुरंत कहा, हेयर ज़रा से छोटे - बड़े हो जाने से इंसान की शक्ल बदल जाती है क्या? उसने सॉरी सॉरी कहा। उसके जाने के बाद मलय दा ने कहा, "देखो तो सही उसने तुम्हें नॉक तक नहीं किया, इसीलिए मैंने जान - बूझ कर उसे टोका। उसका ये रवैया मुझे अच्छा नहीं लगा।" मैंने कहा, छोड़िए न, क्या फ़र्क पड़ता है। जिस दिन मेरी प्रस्तुति मलय दा को बहुत पसंद आती कहते, ता होले एखुन तुमि कि एकटू चा खाबे? उन्हें पता था कि मुझे कैंटीन की चाय पसंद नहीं। फिर भी कभी - कभी उनका मान रखने के लिए मैं कहती, जी आज तो पी ही लेती हूं।  

कई बार शख्सियत वाले prog में वे इंतज़ार करते, फिर स्टूडियो में आकर कहते, वो वाला गाना बजाओगी न? अगर वह गाना प्ले लिस्ट में शामिल होता तो कहती कि बजेगा, और नहीं होता तो कहती आपको सुनना है, अच्छा अभी बजा देती हूं। सचमुच ऐसे ड्यूटी ऑफिसर को भला कोई भुला सकता है.... भले ही वे अब हमारे बीच मौजूद नहीं हैं।

(4) एक रोचक बात यह भी कि जब 2012 में हर सोमवार को "आज की शख्सियत" प्रोग्राम पेश करना शुरू किया तो तत्कालीन पैक्स दीपक पोद्दार सर पूछा करते कि आपके दोस्तों की क्या प्रतिक्रिया होती है, मैं कहती कि वे FM नहीं सुनते। लगभग साल भर बाद एक दिन पोद्दार सर ने कहा कि क्या नीलम जी आपकी प्रस्तुति के अगले दिन मीटिंग में मुझे हमेशा सबको कॉफी पिलानी पड़ती है, आपको excellent ग्रेडिंग जो मिलती है हर बार। कमाल है 12/13 सालों की निरंतर प्रस्तुति के बाद पता चला कि परफॉर्मेंस के लिए ड्यूटी ऑफिसर द्वारा ग्रेडिंग भी दी जाती है। कभी किसी ने बताया ही नहीं। ख़ैर, परफॉर्मेंस/ कार्य निष्पादन से जब खुद को संतुष्टि मिले कि हां मैंने अपना शत - प्रतिशत देने की बेहतरीन कोशिश की तो उससे बड़ा पुरस्कार क्या है। किसी ने यह भी कहा था कि अपना लहज़ा बदलो, पर पोद्दार सर ने कहा कि बिलकुल नहीं, जो आपकी स्वाभाविकता है वही आपकी पहचान है, इसे बिलकुल मत बदलना।

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09 मई 2023


                                                      लहरों की तरह यादें (1)

                     "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है".........  (09/05/2017)  


लोग कहते हैं आप तारीखों को याद कैसे रख लेती हैं? मैं उन्हें किसी न किसी तरह एक-दूसरे के साथ पंच कर लेती हूँ। आज ऑफिस में (दिल्ली) जाते ही बांग्लाभाषी कलीग ने कहा, जानती हैं आज 25 बैसाख है यानी रबींद्र जयंती? मैंने कहा आपको व्हाट्स ऐप्प ने याद दिलाया होगा पर मुझे याद दिलाने की ज़रूरत नही पड़तपहली बात तो यह कि बंगभूमि में जन्म लिया, दूसरी यह कि अब तक कि उम्र का 90% हिस्सा बंगाल में गुज़रा। तीसरी, रवीन्द्र नाथ मेरे जीवन में इस तरह से शामिल हैं कि 1998 को रवीन्द्र जयंती के दिन मेरे पिता का निधन हुआ। रवीन्द्र जयंती का दिन यानी बांग्ला कैलेंडर का 25 बैसाख (9 मई) सदैव के लिए अविस्मरणीय बन गया मेरे लिए। फिर 8 वर्षों बाद 2006 में मेरी दादी का निधन भी 9 मई को हुआ। रवीन्द्र जयंती की छाप और याद ज़हन में और भी पुख्ता हो गई। और.... 9                                                   मई, 2017 को एक मात्र शेष रहे मामा जी ने भी अंतिम सांस ली थी।

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                                              लहरों की तरह यादें....(2)


                                    “जब जब बहार आई और फूल मुस्कुराए मुझे तुम याद आए।

                                देखी नज़र ने खुशियां या देखे ग़म के साए मुझे तुम याद आए।”


(09/05/2014 - कोलकाता।) कल शाम एफ. एम. गोल्ड (कोलकाता) के कार्यक्रम में पहला गीत फिल्म रोटी कपड़ा मकान से मैं न भूलूंगा बजाने के बाद जब दूसरा गीत बजाया ये, तो अचानक ‘देखी नज़र ने ………….’ पंक्ति के दौरान अचानक आँखें नम हो आईं। गीत का चयन करते या बजाते समय ऐसी कोई बात ज़ेहन में नहीं थी। मुश्किल से भावनाओं को नियंत्रित किया ताकि नम आँखों के साथ-साथ आवाज़ भी नम न हो जाए ऑन एयर। रोने में तो मुझे पल भर भी नहीं लगता, हाँ हँसने में भले ही लग जाए और गंगा-यमुना तो पलकों पर हमेशा मौजूद रहती है छलकने को। याद आता है 1999 में बचपन पर आधारित कार्यक्रम में एक श्रोता श्रीमती चक्रवर्ती (क्रिस्टोफर रोड से) प्रोग्राम में अपने पिता की यादों को शेयर करते हुए ऑन एयर फूट-फूट कर रो पड़ी थीं। मैंने उन्हें बहुत अच्छे तरीके से संभाला। मेरे पिता जी का भी कुछ महीने पूर्व ही निधन हुआ था। घर पर प्रोग्राम सुन रहीं मेरी कलीग गीता दी ने अगले दिन ऑफिस में मुझसे कहा कि मेरी तो जान सूख रही थी कि अब तो नीलम गई काम से, उस श्रोता के साथ-साथ तो ये भी रो पड़ेगी अपने पिता को याद कर। अब इसकी आवाज़ नम हुई कि हुई। भगवान की कृपा से उस वक्त तो मेरा ध्यान इस बात पर बिलकुल नहीं गया, जाता तो ज़रूर विचलित हो जाती और ऑन एयर नहीं संभाल पाती खुद को। हाँ, यह ज़रूर है कि गीता दी के ऐसा कहते ही मैंने रोते हुए कहा कि भगवान की कृपा से मुझे उस वक्त बिलकुल अपने पिता का ध्यान नहीं आया था, ध्यान सिर्फ़ प्रो. की प्रस्तुति पर था।


                                            प्रस्तुति : नीलम शर्मा ' अंशु '

                                                  09/05/2023