सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

20 अक्तूबर 2009


तेरी मेरी उसकी बात - 5



संसद से चलकर जूतियां........


पिछले चालीस वर्षों में
कई बार हुआ है
यह सब-
संसद में चलकर जूतियां-
जब-
सचिवालय में घुसकर
कार्यालय में टूटी थीं
तो ताली पीटी थी
- लोगों ने।
कुछ ने यह समझा
कि - शायद
खेल शुरू होगा अब
और कुछ ने – कि
खेल ख़त्म हो गया
था अब।

और मैं जिसने कि
- तय किया था
यह सफ़र -
दफ़्तर से सचिवालय
और फिर-
संसद तक का।

और लौटा था
कुछ शॉर्ट कट से
- इस सड़क तक
- लोगों के हजूम में
पिछली बार भी
जब -
संसद से चलकर
जूतियां.......


मुस्करा दिया था
या कि ठहाका लगाकर
- हंसा भी था –
उन सब की नज़र बचा कर
शायद इसलिए कि
रंग में भंग पड़ता देख
पूछ न बैठें-
भई, यह क्या ?

पर मैं सहम गया था -
फ़िर अचानक-
सोचकर- यह जो भी जानता था
उन्हीं की चमड़ी से खिंचीं
यही जूतियां- जब बरसेंगी
इन सब के सिरों पर
और बनेंगी-
फांसी का फंदा-
तो फ़िर - एक बार
- एक और व्यक्ति- मुझसा-
पहुंचेगा- उसी राह से
- कार्यालय, सचिवालय
- और संसद तक
तो पीटेंगे लोग
तालियां !
पीटेंगे लोग
तालियां !



- के. प्रमोद

18 अक्तूबर 2009

तेरी मेरी उसकी बात (4)

इस कॉलम में इमरोज़ साहब, के. प्रमोद जी, श्रीमती आशा रानी शर्मा के बाद इस बार के अतिथि रचनाकार हैं- श्री श्याम नारायण सिंह।

1) पागल

हर एक पागल के पीछे एक दर्द भरी दास्तां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

सुना, एक वफ़ा के साथ बेवफ़ाई किसी ने की

वादा किया, फ़िर गैर से सगाई किसी ने की

इस सोच और फ़िक्र ने उसे घायल बना दिया

ज़िक्र किया इसका, तो जहां ने उसे पागल बना दिया ।

दुनिया के इस दस्तूर से हर बंदा परेशां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

पागल है, जाने दो, यह सदां थी फैली हुई

दूसरे रोज़ पाया गया, लाश उसकी थी फेंकी हुई

हाथ में एक ख़त था, कहानी उसकी थी लिखी हुई

पागल हुआ, कैसे हुआ, काग़ज़ पे हर इबारत थी उभरी हुई।

किसी ने न ग़ौर किया, मिट गया इक नौजवां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

कोई पागल है, धनमान लुटने से

कोई पागल है यार, अपने मेहमान छूटने से

पर वह पागल हुआ, इज़्जत बहन की लुटने से।

आघात वह सह न सका, पागल बना और कहाँ है ?

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

मैं भी पागल हूँ, सुनो पागल तुम भी हो।

वक़्त है नर्तकी, पाँवों के उसकी पायल तुम भी हो,

टूटते हो, जोड़ लेती है, बजने फ़िर लगते हो

घुंघरू की आवाज़ में ही सही, पर यही कहते हो –

बचा नहीं है कोई, पागल हर इंसां है

नज़रें उठा कर देखो, पागल सारा जहां है।

2) मधुमास

तेरी झील सी गहरी आँखों में इक प्यास हमने देखी है।

सपने में, फूल सा चेहरा तेरा उदास हमने देखा है।

तेरी अल्हड़ हरकतों ने इस दिल में जगह पाई है ।

गुस्से में भींचना ओंठ तेरा सच, अदा यह मुझे बहुत भाई है।

तुम न आना चाहो पास मेरे यह तो मर्ज़ी है तेरी।

पर, तेरी यादों का साया यहीं आस-पास हमने देखा है।

मुड़-मुड़ कर देखना और धीरे से मुस्कराना तेरा ।

कैसे बचें इन बेरहम नज़रों से हर अंदाज़ है क़ातिलाना तेरा।

तेरी चुलबुली सी चहक से खिल उठता है यह उपवन।

क्योंकि तेरे आने से यहाँ आते मधुमास हमने देखा है।

क्यों तूने किसी का दिल तोड़ने की कसम खाई है ?

क्यों तू आ नहीं सकती जब तेरी याद चली आई है।

कौन कहता है कि तू रोज़ इस महफ़िल से चली जाती है ।

तेरे नहीं रहने पर भी यहाँ रहने का अहसास हमने देखा है।

- श्याम नारायण सिंह, कुसुंडा, धनबाद (झारखंड) ।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा 'अंशु'

मेरे भईया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन ..........

'भ्रातृ द्वितीया यानी भाई दूज के अवसर पर सभी भाई-बहनों को हार्दिक शुभ कामनाएं !'


यह त्योहार पूरे देश में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यूं अखिल भारतीय स्तर पर रक्षा बंधन और भाई दूज के त्योहार का एक सा महत्व है परंतु बंगाली संस्कृति में भाई दूज ज़्यादा महत्वपूर्ण है। राखी की तुलना में यह त्योहार ज़्यादा पारंपरिक तौर पर मनाया जाता है।

इस दिन भाई बहन एक दूसरे के पास अवश्य पहुंचते हैं। बचपन से देखती आई हूँ कि मेरे मामा मध्य प्रदेश में रहते हैं तो हर बार माँ वहां नहीं जा पाती है, तो डाक या कोरियर से टीका या राखी भेज दी जाती है, साथ में मुंह मीठे के लिए चीनी की पुड़िया भी ताकि शगुन के तौर पर वे टीका लगा लें या राखी बांध लें। आज कल तो सभी की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं, चाह कर भी इन्सान मजबूरन कई बार नहीं जा पाता।

आज मेरा एफ. एम. रेनबो पर लाईव टॉक शो था। भाई दूज पर ही केन्द्रित था। मसलन आज आप किस तरह सेलिब्रेट करने वाले हैं और जब आपने अपनी पहली कमाई से बहना को उपहार दिया था तो क्या दिया था और कैसी अनुभूति हुई थी आपको, वगैरह, वगैरह। शो में मेरे पहले फोन कॉलर आए मंटू टेलर। आते ही उन्होंने मुझसे कहा कि दीदी मुझे टीका लगाईए। मैंने उनसे बकायदा सर को रूमाल से ढकने का अनुरोध किया, फिर उन्हें टीका लगाया और लड्डू तथा बर्फी से मुँह मीठा करवाया। बेचारे मंटु साहब इतने भावुक हो गए कि बस इतना ही बताया कि दीदी मेरी बहन आगरा मे रहती है, आज के दिन नहीं आ सकी। फिर भावुकता वश उनके शब्द उनका साथ न दे पाए, तथा ‘इससे ज़्यादा और नहीं बोल पा रहा हूँ’ कहकर माफ़ी मांगते हुए उन्होंने लाईन छोड़ दी। और वो कहते हैं न कि ‘जीने के बहाने लाखों हैं, जीना तुझको आया ही नहीं, कोई भी तेरा हो सकता है, तूने किसी को अपनाया ही नहीं’, की तर्ज़ पर मेरे सभी कॉलर फ्रेंडस् सुमित, लाडला मोल्ला, राम बालक दास, हफ़ीज़ उल्ला लस्कर वगैरह ने मुझसे ऑन एयर टीका लगवाया। मैंने उन्हें शुभकामनाएं दीं और उन्होंने भी मुझे दुआओं के तोहफे दिए। राम बालक ने कहा कि मेरा भी कुछ देने का फर्ज़ बनता है तो दीदी जब आप आकाशवाणी से बाहर निकलेंगी न, मेन गेट पर एक फोर व्हीलर खड़ा होगा गुलदस्तों से लदा, वह आपके लिए ही होगा।

हफ़ीज़उल्ला ने कहा कि हमारे यहां तो भाई दूज नहीं मनाई जाती है, लेकिन प्रोग्राम के माध्यम से सुनकर बहुत अच्छा लग रहा है। मैंने उन्हें बताया कि आजकल त्योहार किसी कम्युनिटि विशेष के न रहकर सबके हो गए हैं। सभी द्वारा मनाए जाते हैं। और, अगर कोई परंपरा अच्छाई के लिए हो तो उसे दूसरे धर्म वालों को भी अपना लेना चाहिए। हफ़ीज़ को मैंने बादशाह हुमायूं के राखी बांधे जाने का प्रसंग याद दिलाया।

इतने सालों में इतनी बार राखी और भाई दूज पर प्रोग्राम किए हैं, इस बार, पहली बार श्रोताओं ने ऑन एयर टीके का अनुरोध किया। अच्छा लगा। मंटु टेलर तो भावुक हो गए। भावुकता तो मुझमें भी बहुत है लेकिन ऑन एयर इस पर काबू रहता है, यह ईश्वर की कृपा है। वर्ना मैं बात-बात पर भावुक हो जाती हूँ। ऐसे ही 1998 में मैंने ‘बचपन’ पर एक प्रोग्राम किया था कि चलिए आपको बचपन के गलियारे में ले चलें। टीन एजर बच्चों विप्लव चक्रवर्ती तथा मीता के साथ-साथ उनकी माँ शुक्ला चक्रवर्ती भी रेगुलर क़ॉलर थीं। वे मेरे उस प्रोग्राम में आईं और बचपन की काफ़ी बातें उन्होंने शेयर की। पिता को याद करते हुए तो वे ऑन एयर फफक-फफक कर रो ही पड़ीं। उधर घर पर प्रोग्राम सुन रहीं मेरी कलीग गीता दी को टेंशन हो रही थी कि अभी नीलम का स्वर भीग जाएगा, ऑन एयर रो पड़ेगी अपने पिता को याद कर। अगले दिन ऑफिस आकर उन्होंने मुझे बताया कि मुझे बहुत डर लगा रहा था कि तुम रो पड़ोगी, क्योंकि पांच-छह महीने पहले ही मेरे पिता जी का अप्रत्याशित निधन हुआ था । लाईव परफॉर्म करते हुए ईश्वर की कृपा से उसे वक्त अपने पिता की बात बिलकुल ज़ेहन में नहीं आई, वर्ना मैं इमोशनल हो जाती और प्रोग्राम का कबाड़ा हो जाता। तो आज भी मंटु जी के साथ भावुक होते-होते मैंने ख़ुद पर नियंत्रण रखा।

प्रस्तुति : नीलम शर्मा ‘अंशु’

कौन है वो ?

मुझे लगता है कि मुझे छोड़कर हर दूसरा व्यक्ति कविता लिखता है। मैंने कभी लिखने की कोशिश ही नहीं की। मेरा मानना है हर काम हर किसी के बस की बात नहीं। हाँ, यह अलग बात है कि दूसरों की कविताओं का संपादन मैं बढ़िया कर लेती हूँ। कई साल पहले अचानक भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के पुस्तकालय में एक पाठक से मुलाक़ात हुई। वे बांग्ला भाषी थे और हिन्दी में कविताएं लिखा करते थे। उन्होंने कहा कि मैं हिन्दी में कविताएं लिखने की कोशिश करता हूँ, आप पढ़कर अपेक्षित सुधार कर दिया करें। वे मेरे दफ्तर में आकर अपनी कविताएं दिखा जाया करते। फिर अचानक उनका आना बंद हो गया। पता नहीं वे आजकल शहर में हैं भी या नहीं और मुझे भी ठीक से उनका नाम याद नहीं। और वह आज की तरह फोन और मौबाईल का ज़माना तो था नहीं। दूसरों की कविताएं पढ़ते वक्त लगता है कि अरे यह बात तो मैं भी कह सकती थी। पर जनाब, मैंने कभी ज़हमत ही नहीं उठाई क्योंकि मुझे लगता है कि यह मेरे बस का काम नहीं। हाँ, यह अलग बात हैं कि छोटा भाई चंदन स्वप्निल जब कॉलेज में था तो ऑन द स्पॉट कविता लेखन के लिए उसे कई बार पुरस्कार मिला। जब पहली बार मिला तो उसने पिता जी को बताया। पिता जी ने विश्वास नहीं किया और कहा तूने कैसे कविता लिख ली, ज़रूर दीदी की दो-चार पंक्तियां मार ली होंगी। उसने कहा, दीदी भला कब से कविता लिखने लगी। चूँकि मेरे आलेख अखबारों में छपा करते थे तो पिता की धारणा बन गई थी कि शायद मैं कविता भी लिखती होऊंगी। उसके बाद उसने अपनी डायरी में कई कविताएं लिख रखीं थीं, परंतु सार्वजनिक रूप से उसकी कविता पहली बार 9 मई 1998 को कोलकाता विश्वमित्र के समकालीन हिन्दी कविता कॉलम में प्रकाशित हुई। किसी मित्र ने उस दिन अखबार लाकर घर पर दिखाया। उसी दिन पिताजी का निधन हुआ था और हम शमशान से आवश्यक रस्में पूरी करके लौटे थे। अपनी कविता देखते ही भाई ने कहा, 'अब पिताजी को दिखाता मैं, जो मुझे कहा करते थे कि दीदी की लाईनें चुरा ली होंगी। कविता कहीं छपी भी तो उनके निधन के बाद, मुझे इस बात का सदा अफ़सोस रहेगा।'

ख़ैर 1994-96 तक मैंने नौकरी करते हुए एम. ए . की पढ़ाई की। परीक्षा के कुछ दिनों पहले ऑफ़िस से छुट्टी लेकर घर पर पढ़ा करती। रात को नींद दबोचने लगती लेकिन पढ़ना ज़रूरी होता था। तो, थर्मस में चाय डाल कर रख लेती लेकिन नींद तंग करने पर तुली रहती। ऐसे में ही एक दिन नींद को दूर भगाने के क्रम में ज़बरदस्ती जगने की कोशिश में कुछ तुकबंदी सी की थी। वही मेरी पहली कविता थी और उन्हीं दिनों एक छोटी सी कविता और लिखी थी। वह कविता पता नहीं कहां पड़ी होगी। बस कुल मिलाकर यही दो कविताएं लिखी थीं। फ़िर कभी कोशिश नहीं की। अब अचानक पहली तुकबंदी हाथ लग गई जो कुछ इस प्रकार थी -

कौन है वो ?

बिन बुलाए मेहमान की भांति आ जाती है
हौले-हौले से आकर थप-थपा जाती है ।
बुजुर्ग परेशां हैं उसके न आने से
तो छात्र परेशां हैं उसके यूं आ जाने से ।
कभी पलक झपकते ही आ जाती है
तो कभी फुर्र से उड़ जाती है ।
गर पूछते हो कौन सी शै है वो ?
तो सुनिए जनाब !
मीठी-मीठी सलोनी सी 'नींद' है वो।
 ( 1994)


- नीलम शर्मा 'अंशु'

17 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली !

अंधेरे से प्रकाश की तरफ अग्रसर करने वाले ज्योति व प्रकाश

पर्व दीपावली की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं।

आपके जीवन में सुख, शांति व समृद्धि की बौछार करे यह


त्योहार।


- नीलम शर्मा ' अंशु '

03 अक्तूबर 2009

तेरी मेरी उसकी बात - (3)


इस कॉलम में इस बार एक दम ताज़ा और नई कलम से निकली रचना को हम शामिल कर रहे हैं। कहते हैं जिजीविषा हो तो कुछ भी असंभव नहीं। प्रस्तुत है लगभग एक पखवाड़े के बाद 70 बसंत पूरे करने जा रहीं, श्रीमती आशा रानी शर्मा की हाल ही में लिखी ये रचना। साहित्य और पढ़ने में रुझान रखने वाली श्रीमती शर्मा के हृदय से भी लेखन की कोंपल फूट पड़ी है। तो लीजिए हाज़िर है उनके द्वारा लिखित पह पहली रचना –

‘भूली बिसरी गलियां ’।

मिसेज़ शर्मा घर से जब चलने लगीं, तो बच्चों ने कहा, मम्मी आप मुरैना घूमने जा रही हैं, तो इस बार मथुरा, वृंदावन, गोकुल, यमुना जी सबके दर्शन कर आईएगा। पिछली बार जब आप गई थीं तो गर्मी का मौसम होने के कारण आप सभी जगहों पर नहीं जा पाई थीं। अब तो मौसम अच्छा है, न अधिक सर्दी है न गर्मी। यह सुनकर मिसेज़ शर्मा के मन को अति प्रसन्नता हुई। अमृतसर से मुरैना के लिए ए. सी. कोच में रिजर्वेशन पहले ही करवा रखी थी, परंतु सीट कन्फर्म नहीं हुई थी। यात्रा से एक दिन पहले ही अचानक घुटने में मोच आ गई जिस कारण चलने-फिरने, उठने-बैठने में भी भारी कष्ट हो रहा था। ऐसे में रात को पता चला कि सीट कन्फर्म हो गई है, फ़िर तो घुटने की तकलीफ़ होने पर भी वे अगली सुबह ट्रेन में सवार हो गईं कि चलो इसी बहाने बांके बिहारी के दर्शन होंगे। अमृतसर से जब मुरैना भईया के घर पहुँचीं तो वहाँ घुटने की तकलीफ़ और बढ़ गई। ख़ैर वहाँ डॉक्टर से चेक अप करवाया और टेस्ट वगैरह करवाए तो मालूम हुआ कि घुटने की माँसपेशियां ही फट गई हैं। अब ठीक होने में वक्त लगेगा, बेड रेस्ट करना होगा। ऐसे में तीर्थ यात्रा तो होने से रही। फ़िर देखते ही देखते अमृतसर लौटने की तारीख़ भी क़रीब आती गई। कहीं और जा पाने की शारीरिक स्थिति में वे थी नहीं। वहाँ जाकर भी पास ही विजयपुर में छोटे भाई से मिलने नहीं जा सकीं। सोचा उसे यहीं मुरैना बुला लूं। फोन किया तो भाई ने आने में असमर्थता जताई । उसकी बेटी भी बीमार थी और उसके अपने भी घुटनों में तकलीफ़ थी। उनको बुरा लगा कि देखो भाई ने आने से मना कर दिया और शायद भाई को बुरा लगा होगा कि इतनी दूर पंजाब से एक भाई के पास आकर वे दूसरे भाई के घर नहीं आ सकती क्या ? फ़िर अचानक दो दिन बाद उसे हार्ट अटैक होने की ख़बर आई। सुन कर किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था। सब आपस में काना-फूसी कर रहे थे परंतु मिसेज़ शर्मा को कोई कुछ बता नहीं रहा था। जब ख़बर की पुष्टि हो गई तो उन्हें भी बता दिया गया। वे बड़े भाई- भाभियों के साथ जब छोटे भाई के घर पहुँचीं तो भाई को देख उन्हें लगा मानो सो रहा है। उसकी मुस्कराहट से ऐसा लग रहा था मानो अभी उठ बैठेगा। पाँच बच्चों का बाप होते हुए भी, आख़िरी समय में कोई भी पास न था। दो बेटे नौकरियों के सिलसिले में पड़ोसी प्रांतों में थे। एक बिटिया ससुराल में थी। और छोटा बेटा, छोटी बिटिया को डॉक्टरी चेक अप के लिए ग्वालियर लेकर गया हुआ था। भाई को ऐसी हालत में देख मिसेज़ शर्मा की नज़रों के सामने फ्लैशबैक की तरह फ़िल्म सी चलने लगी। पाँच भाईयों में से एक-एक कर बड़े तीन भाई और बड़ी बहन तो पहले ही चल बसे थे, यह सबसे छोटा, जिसे गोद में खिलाया वह भी पहले ही चलता बना। पंजाब के एक छोटे से गांव में जन्मा वह जब छोटा था तो सभी उसे प्यार से काका कह कर पुकारते थे। वह पिता के पास दुकान पर जा बैठता और लोगों की बातें सुना करता। यह वह समय था जब अंग्रेजों की कूटनीति से हिन्दू और मुसलमानों का आपस में झगड़ा-फ़साद हो रहा था। कहाँ तो हिन्दू -मुस्लिम कितने प्यार से रहा करते थे और अब एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए थे। तिस पर सिक्ख जत्थे लेकर आ जाते कि यदि हिन्दुओं ने मुसलमानों की सहायता की तो तलवार से काट दिए जाएंगे, जिस कारण हिन्दू भी मदद करने में असमर्थ थे। जब तब वे जत्था लेकर आ जाते थे, तब काका दुकान से दौड़ कर घर भाग जाता था। रास्ते में आते-आते हल्ला करता आता, लोगो दरवाज़ा बंद कर लो जत्था आ गया है। उसका शोर सुनकर लोग दरवाज़े बंद कर लेते थे और वह अपने घर आकर दरवाज़ा बंद कर माँ की गोद में बैठ कर रोने लगता कि माँ हम सब यहाँ बैठे हैं, मेरा भाजी (सबसे बड़ा भईया) कहाँ है, वह कब आएगा। यह सुनकर सारे घर वाले भी रोने लगते क्योंकि उस घर का बड़ा बेटा यानी काके का भाजी काश्मीर की सरहद पर युद्ध में गया हुआ था(जिस समय देश विभाजन हो रहा था)। बहुत दिनों तक काके के भाजी का पत्र नहीं आया, जिस कारण घर वाले परेशान और दुखी रहते थे। माँ तो पागलों जैसी हो गई थी, पिता बेटे की कुशलता जानने के लिए मिलिट्री कमांडर को कभी पत्र तो कभी तार भेजते। जवाब न आने पर सभी निराश हो जाते। ऐसी स्थिति में घर में
कभी-कभी खाना नहीं बनता था, और यदि बन जाता तो कोई ठीक से खाता भी नहीं था। रात को सब लोग गली बाज़ारों में पहरा देते थे। हर घर से एक आदमी पहरे के लिए जाता था, घर के आसपास सब तरफ मुसलमानों के घर थे, जिस कारण हर समय भय लगा रहता कि कहीं कोई आग न लगा दे। रात को गली मुहल्ले की औरतें भी अपने घर की छत पर घूम-घूम कर पहरा देती थीं, ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगातीं – ‘जागते रहो, भई जागते रहो।’

आख़िर एक दिन देश का बंटवारा हो गया। सारे मुसलमान परिवारों को गाँवों और शहरों से निकाल दिया गया। जो जहां-जहां जाना चाहते थे वहां उन्हें भेज दिया गया और पाकिस्तान से हिन्दू परिवार भारत में आ गए। एक दिन काका खुशी से उछलता-कूदता दौड़ा-दौड़ा घर आया कि मेरे भाजी की चिट्ठी आई है। वह काश्मीर की लड़ाई जीत कर वापस घर आ रहा है। जिस दिन भाजी युद्ध जीत कर घर आया पूरे गांव वालों की खुशी का ठिकाना नहीं था। सबने भाजी का स्वागत किया और गले में फूलों के हार डाले। भाजी की जीत और सही सलामत घर लौटने पर बधाई देने आने वालों का घर पर तांता लग गया। उस समय भाजी की दादी और माँ ने परातें भर-भर की सक्कर(गुड़ की) बांटी और खुशियां मनाईं। तब काका भाजी की गोद में बैठकर प्रसन्नता से उछलने लगा। सब भाई बहनों ने एक साथ आनन्द मनाया। सभी भाजी से काश्मीर के किस्से सुनते और रोमांचित हो उठते। काका जो सब का प्यारा और दुलारा था, आज परलोक की यात्रा पर निकल गया। मिसेज़ शर्मा की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे क्योंकि वह तो तीर्थ यात्रा की सोच लेकर निकली थी और भाई यह कैसी यात्रा पर निकल गया ? पंजाब में जन्मा, पला-बढ़ा और एम. पी. में अधिकारी के पद से रिटायर हो वहीं की शमशान भूमि की तरफ बढ़ गया, जो अब कभी वहाँ से वापस नहीं आएगा, कभी मिलने नहीं आएगा। कभी नहीं।


प्रस्तुति – नीलम शर्मा ‘अंशु’
05-10-2009 रात्रि 12.36


‘त्योहारों का बदलता स्वरूप’
आजकल त्योहारों की बयार चल रही है, अभी-अभी हमने ईद और दुर्गापूजा/दशहरे के त्योहार मनाए और आज तो बंगाल के घरों में कोजागरी लक्ष्मी पूजा भी है।

समय के साथ-साथ जीवन के सभी पहलुओं में बदलाव आया है। बदलाव वक़्त की ज़रूरत भी है। वर्ना आप अपने समय से पीछे छूट जाएंगे, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आप हर बदलाव को स्वीकार कर लें, बदलाव सही और अच्छे के लिए हो तो ठीक है। रही बात त्योहारों के बदलते स्वरूप की, तो हम हिन्दुस्तान वालों को तो बस Celebration का बहाना चाहिए। और बंगाल में तो कहा भी जाता है कि बारो मासे तेरो पार्बन यानी बारह महीनों में तेरह त्योहार। भारत तो कृषि प्रधान देश माना जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है। यहाँ के अधिकतर त्योहार कृषि और ऋतुओं विशेष पर आधारित है।

पहले त्योहारों के साथ आस्था और परंपरा जुड़ी होती थीं। त्योहार हमारी संस्कृति का आईना होते हैं। आज इनका भी व्यवसायीकरण हो गया है। पहले ये त्योहार परस्पर मेल-मिलाप का ज़रिया हुआ करते थे और आज ये विशुद्घ आस्था का वास्ता न रहकर व्यवसायिक समीकरणों को सुदृढ़ करने का रास्ता बन गए हैं। त्योहारों के पीछे की वास्तविक सोच बदल गई है।

आज त्योहारों के साथ प्रतियोगिता भी जुड़ गई है। त्योहारों पर तोहफ़े यानी उपहार दिए जाने की हमारी हिंदुस्तानी संस्कृति की काफ़ी पुरानी परंपरा रही है। पहले खुले दिल से तोहफ़े दिए जाते थे, उपहारों के पीछे छुपी भावना देखी जाती थी, आज क्वालिटी और ब्रांड देखे जाते हैं। यानी दिखावे की भावना प्रबल हो गई है। सामने वाले ने जिस स्तर का तोहफ़ा दिया है हमें भी उसी के अनुरूप देना है। व्यवसायिक फ़ायदे/स्वार्थ या तेज़ी से बदलते समीकरणों के मद्देनज़र हम पाँच-छह कि.मी. या उससे भी ज़्यादा दूरी वाले व्यक्ति से मिलने या बधाई दने पहुंच जाएंगे और अपने पड़ोसियों को भले ही नॉक न करें।

पहले घर की गृहणियां कई-कई दिन पहले से ही मिष्टान्न और पकवान बनाने की तैयारियों में बड़ी लगन और स्नेह से लगी रहती थीं। बड़ी और अनुभवी बुजुर्ग महिलाएं मार्गदर्शन किया करती थीं। आजकल एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, फलस्वरूप वरिष्ठ पीढ़ी परिवार का हिस्सा नहीं रही। उनका मार्गदर्शन नहीं मिल पाता।

आज तरह-तरह के मिष्टान्न और पकवान बाज़ार में सहज ही उपलब्ध हैं। और आज महिलाएं घर और बाहर दोनों मोर्चों पर दोहरी जिम्मेदारियां निभा रही हैं। ऐसे में व्यस्तता के चलते सोचा जाता है कि जब रेडीमेड मिष्टान्न और पकवान सहज ही उपलब्ध हैं तो फ़िर समय की बचत का ध्यान रखते हुए उस ज़हमत से बचा जाए।

पहले त्योहारों के वक़्त रिश्तेदारों को चिट्ठियों के माध्यम से शुभकामनाएं भेजी जाती थीं, फिर बधाईपत्रों/ग्रीटिंग कार्डों का ज़माना आया। फिर Ph ने उसकी जगह ली और आज सूचना और प्रौद्योगिकी के युग में इसकी जगह ईमेल/SMS ने ले ली है।

पहले दीपावली के मौके पर सरसों के तेल के दीये जलाने की परंपरा थी, फिर मोमबत्तियां आ गईं और आज Sylish साज सज्जा वाले मोमबत्तीनुमा आकर्षक दीये भी मिलते हैं। और रौशनी के लिए अब तो बिजली की आकर्षक लड़ियां भी मिल रही है, जिनकी अपनी ही शान है और पूरा मुहल्ला रौशनी से नहा उठता है। महानगरीय सभ्यता में पारंपरिक दीये पीछे छूटते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि कुछ घरों में अभी भी मिट्टी के दीये जलाए जाने की परंपरा है और लक्ष्मी जी की प्रतिमा के समक्ष रात भर सरसों के तेल का दीय जलता रहता है।

पहले हमारे घरों की महिलाएं दीवाली और अहोई अष्टमी पर बड़ी मेहनत से दीवार पर चित्र बनाया करती थीं और आज ये चित्र भी कैलेंडर के रूप में बने-बनाए पांच-दस रुपए में उपलब्ध हैं।


पहले क्या होता था कि जिस प्रदेश या अंचल विशेष के त्योहार होते थे, वहीं मनाए जाते थे। अब भारत के Global Vill बन जाने के कारण हर त्योहार देश के हर हिस्से में, हर Culture के लोगों द्वारा परस्पर भाईचारे से मिल जुल कर मनाया जाता है, चाहे ईद हो या दशहरा, दीपावली, बैसाखी, पोंगल, लोहड़ी, या फ़िर करवाचौथ हो। क्योंकि हर त्योहार का संदेश तो एक ही है, उसके मूल में छुपी भावना एक है, तभी तो कभी शायर मुहम्मद इक़बाल ने कहा था – मज़हब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना।
हिन्दी हैं हम, वतन है हिंन्दोस्तां हमारा।


आज TV Serials और फ़िल्मों के माध्यम से भी त्योहारों के फ़लक का विस्तार हुआ है। भारत में विविध मज़हबों और संस्कृति के लोग हैं। उन्हें टी. वी. धारावाहिकों द्वारा एक-दूसरे की संस्कृति को विस्तार से जानने का मौक़ा मिलता है। जिस दिन जो त्योहार पड़ता है, उस दिन प्रसारित होने वाली कड़ी में विशेष रूप से उन त्योहारों को भी कहानी के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है।

भारतीय फिल्मों में भी बड़े पैमाने पर त्योहारों को शामिल किया जा रहा है। पहले भी होली, दीवाली, दशहरे पर कई फिल्में बनती रही हैं और ख़ास तौर से त्योहारों के इन मौकों पर रिलीज भी की जाती रही हैं। आज फिल्मों में त्योहारों को बड़े भव्य तरीके से पेश किया जाता है। कहानी में सिचुयेशन बना ली जाती है। पहले कितने गैर हिन्दी भाषी(बंगाल वाले) लोग करवाचौथ के बारे जानते थे। आज करवाचौथ घर-घर पहुंच गया है। इसके साथ ही छठ, गणगौर, जन्माष्टमी, नवरात्र पूजन, गणपति पूजन भी बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

पहले की तुलना में आज परिवारों की तरफ से बच्चों को त्योहारों पर घूमने-फिरने की ज़्यादा आज़ादी है। आज वे सारी-सारी रात अपने-अपने सर्कल में अपने-अपने तरीके से Celebration को एन्जॉय करते हैं, पहले Parents का कठोर अनुशासन होता था, इतने बजे के बाद हर हाल में घर लौट आना है और बच्चे भी आज्ञापालन करते हुए उसमे सीमाबद्ध रहते थे।

आज उस आज़ादी के साथ-साथ उच्श्रृंखलता भी बढ़ी है, चाहे वह Celebration के तरीकों की हो या Dress Sense की । लोग नहीं सोचते कि हम क्या पहन कर निकल रहे हैं(ख़ास तौर से लड़कियां)। ज़ाहिर है जब हम तैयार होकर घर निकलते हैं तो निश्चित रूप से आईने में खुद को तो निहारते ही हैं। फिर भी लोग कैसे ऐसी पोशाकें पहन घर से बाहर क़दम रखते हैं। पहले पोशाकें बदन ढकने के लिए पहनी जाती थीं और आज बदन दिखाने के लिए। पहनने वाले की तुलना में देखने वाला शरमा जाए। अभिभावक भी पता नहीं कैसे इसकी अनुमति देते हैं।
Public Places में लोग उच्श्रृंखलता का प्रदर्शन करते हैं, पहले लोग दूसरों का लिहाज़ करते थे। आज इसकी कमी दिखती है। वर्ना सार्जेट बापी सेन जैसे दिलेर लोग क्यों ज़िंदगी से हाथ धो बैठे ?
आज त्योहारों का दायरा बढ़ा है। व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग अपनों से मिलने और उनके संग वक़्त गुज़ारने के लिए बहाना ढूँढते हैं और इसी क्रम में वेस्टर्न संस्कृति पर आधारित मदर्स डे, फादर्स डे, ग्रैंड पेरेंटस् डे, सीनियर सिटिजंस डे, वर्ल्ड म्युज़िक डे जैसे आयोजनों का चलन शुरू हुआ।

एक और बदलाव का उल्लेख करना चाहूंगी। पंजाब प्रदेश का एक त्योहार है ‘लोहड़ी’ । 13 जनवरी को मनाया जाता है। पहले क्या होता था कि परिवार में पुत्र की पैदाईश या पुत्र की शादी वाले घरों में बड़े धूमधाम से यह त्योहार भव्यता से मनाया जाता था। पूरे गांव या मुहल्ले में लोहड़ी बांटी जाती थी। यानी पुत्र संतान के साथ इसका जुड़ाव था। लेकिन तीन साल पहले मैंने वहां के लोकल अख़बारों में देखा कि अब कन्या संतान की पैदाईश पर भी यह त्योहार बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। जहां कन्याओं की भ्रूण हत्याओं जैसे कृत को अंज़ाम दिया जाता था, वहां यह एक सुखद बदलाव है, ।


भारतीय संस्कृति के त्योहारों के अनुसार देवी पूजा, शक्ति पूजा, कुमारी पूजन, दुर्गा पूजा, लक्ष्मी – सरस्वति पूजा की जाती है। महिला को शक्ति का स्वरूप माना जाता है वहीं दूसरी ओर आज उसी शक्ति स्वरुपा नारी से पैदा होने का हक़ छीना जाने लगा है। पहले के ज़माने में पुत्र की अभिलाषा में कन्या संतानों की क़तार लग जाती थी आज तो कन्याओं के जन्म पर ही प्रश्न लग गया है।

महानगरों की तुलना में छोटे शहरों, कस्बो, गांवो में अभी भी आस्था और परंपराएं बची हुई हैं। मैं अगर अपनी बात करूं तो मेरी पैदाईश और बचपन उत्तरी बंगाल के अलीपुरद्वार जक्शन में गुज़रा। बीस बरसों से कलकत्ते में हूँ, मुझे नहीं लगता कि कलकत्ते आने से पहले कभी हमारे परिवार ने विश्वकर्मा पूजा या सरस्वति पूजा की शाम घर पर बैठकर गुज़ारी हो, वहां लोग सपरिवार ये पूजाएं देखने भी अलग-अलग पंडालों में जाया करते थे। इसका भी अपना ही मज़ा होता था। इंतज़ार रहता कि कब पिता डयूटी से फ़ारिग हो घर लौटेंगे और शाम को पूरे परिवार को पूजा घुमाने ले जाएंगे। इस चीज़ को मैं बड़ी शिद्दत से यहां कोलकाता में मिस करती हूं। पता ही नहीं चलता दफ़्तर में डयूटी करते हुए विश्वकर्मा पूजा कैसे बीत जाती है। इतना ही नहीं, पिता जिस कन्सट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे, कंपनी के बड़े से ट्रक हम सभी बच्चों को भरकर कूचबिहार में रास मेला घुमाने ले जाया जाता था। कोलकाता आने पर शुरू-शुरू के आठ-दस सालों तक तो मैं दुर्गा पूजा में वहीं जाना पसंद करती थी क्योंकि वहाँ अलग-अलग पंडालों में कोई न कोई परिचित परिवार या दोस्त-मित्र मिल जाते थे। बहुत मज़ा आता था। और महानगरों की आपाधापी में परिचित परिवारों या दोस्तों से आकस्मिक मुलाक़ात की बात तो भूल जाईए, परिवार का सदस्य भीड़ में बिछुड़ जाए तो उसे ढूंढने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

कुल मिलाकर पहले की तुलना में आज आर्थिक संपन्नता भी बढ़ी है, साथ-साथ मंहगाई भी बढ़ी हैं। त्योहारों के Celebration के तरीक़े, अंदाज़ भी बदले हैं। जोश भी बढ़ता जा रहा है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि भारत जो कि कृषि प्रधान देश कहा जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है वहीं एक तरफ़ बड़ी भव्यता से बड़े पैमाने पर त्योहारों का आयोजन किया जाता है दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो दाने-दाने को मोहताज हैं। बदलाव वहीं तक स्वीकार्य हों, जो सुखद, सही और बेहतरी के लिए हों, चाहें वे किसी क्षेत्र में क्यों न हो ?
नीलम शर्मा ‘अंशु’ /03-10-2009