सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

03 अक्तूबर 2009


‘त्योहारों का बदलता स्वरूप’
आजकल त्योहारों की बयार चल रही है, अभी-अभी हमने ईद और दुर्गापूजा/दशहरे के त्योहार मनाए और आज तो बंगाल के घरों में कोजागरी लक्ष्मी पूजा भी है।

समय के साथ-साथ जीवन के सभी पहलुओं में बदलाव आया है। बदलाव वक़्त की ज़रूरत भी है। वर्ना आप अपने समय से पीछे छूट जाएंगे, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आप हर बदलाव को स्वीकार कर लें, बदलाव सही और अच्छे के लिए हो तो ठीक है। रही बात त्योहारों के बदलते स्वरूप की, तो हम हिन्दुस्तान वालों को तो बस Celebration का बहाना चाहिए। और बंगाल में तो कहा भी जाता है कि बारो मासे तेरो पार्बन यानी बारह महीनों में तेरह त्योहार। भारत तो कृषि प्रधान देश माना जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है। यहाँ के अधिकतर त्योहार कृषि और ऋतुओं विशेष पर आधारित है।

पहले त्योहारों के साथ आस्था और परंपरा जुड़ी होती थीं। त्योहार हमारी संस्कृति का आईना होते हैं। आज इनका भी व्यवसायीकरण हो गया है। पहले ये त्योहार परस्पर मेल-मिलाप का ज़रिया हुआ करते थे और आज ये विशुद्घ आस्था का वास्ता न रहकर व्यवसायिक समीकरणों को सुदृढ़ करने का रास्ता बन गए हैं। त्योहारों के पीछे की वास्तविक सोच बदल गई है।

आज त्योहारों के साथ प्रतियोगिता भी जुड़ गई है। त्योहारों पर तोहफ़े यानी उपहार दिए जाने की हमारी हिंदुस्तानी संस्कृति की काफ़ी पुरानी परंपरा रही है। पहले खुले दिल से तोहफ़े दिए जाते थे, उपहारों के पीछे छुपी भावना देखी जाती थी, आज क्वालिटी और ब्रांड देखे जाते हैं। यानी दिखावे की भावना प्रबल हो गई है। सामने वाले ने जिस स्तर का तोहफ़ा दिया है हमें भी उसी के अनुरूप देना है। व्यवसायिक फ़ायदे/स्वार्थ या तेज़ी से बदलते समीकरणों के मद्देनज़र हम पाँच-छह कि.मी. या उससे भी ज़्यादा दूरी वाले व्यक्ति से मिलने या बधाई दने पहुंच जाएंगे और अपने पड़ोसियों को भले ही नॉक न करें।

पहले घर की गृहणियां कई-कई दिन पहले से ही मिष्टान्न और पकवान बनाने की तैयारियों में बड़ी लगन और स्नेह से लगी रहती थीं। बड़ी और अनुभवी बुजुर्ग महिलाएं मार्गदर्शन किया करती थीं। आजकल एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, फलस्वरूप वरिष्ठ पीढ़ी परिवार का हिस्सा नहीं रही। उनका मार्गदर्शन नहीं मिल पाता।

आज तरह-तरह के मिष्टान्न और पकवान बाज़ार में सहज ही उपलब्ध हैं। और आज महिलाएं घर और बाहर दोनों मोर्चों पर दोहरी जिम्मेदारियां निभा रही हैं। ऐसे में व्यस्तता के चलते सोचा जाता है कि जब रेडीमेड मिष्टान्न और पकवान सहज ही उपलब्ध हैं तो फ़िर समय की बचत का ध्यान रखते हुए उस ज़हमत से बचा जाए।

पहले त्योहारों के वक़्त रिश्तेदारों को चिट्ठियों के माध्यम से शुभकामनाएं भेजी जाती थीं, फिर बधाईपत्रों/ग्रीटिंग कार्डों का ज़माना आया। फिर Ph ने उसकी जगह ली और आज सूचना और प्रौद्योगिकी के युग में इसकी जगह ईमेल/SMS ने ले ली है।

पहले दीपावली के मौके पर सरसों के तेल के दीये जलाने की परंपरा थी, फिर मोमबत्तियां आ गईं और आज Sylish साज सज्जा वाले मोमबत्तीनुमा आकर्षक दीये भी मिलते हैं। और रौशनी के लिए अब तो बिजली की आकर्षक लड़ियां भी मिल रही है, जिनकी अपनी ही शान है और पूरा मुहल्ला रौशनी से नहा उठता है। महानगरीय सभ्यता में पारंपरिक दीये पीछे छूटते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि कुछ घरों में अभी भी मिट्टी के दीये जलाए जाने की परंपरा है और लक्ष्मी जी की प्रतिमा के समक्ष रात भर सरसों के तेल का दीय जलता रहता है।

पहले हमारे घरों की महिलाएं दीवाली और अहोई अष्टमी पर बड़ी मेहनत से दीवार पर चित्र बनाया करती थीं और आज ये चित्र भी कैलेंडर के रूप में बने-बनाए पांच-दस रुपए में उपलब्ध हैं।


पहले क्या होता था कि जिस प्रदेश या अंचल विशेष के त्योहार होते थे, वहीं मनाए जाते थे। अब भारत के Global Vill बन जाने के कारण हर त्योहार देश के हर हिस्से में, हर Culture के लोगों द्वारा परस्पर भाईचारे से मिल जुल कर मनाया जाता है, चाहे ईद हो या दशहरा, दीपावली, बैसाखी, पोंगल, लोहड़ी, या फ़िर करवाचौथ हो। क्योंकि हर त्योहार का संदेश तो एक ही है, उसके मूल में छुपी भावना एक है, तभी तो कभी शायर मुहम्मद इक़बाल ने कहा था – मज़हब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना।
हिन्दी हैं हम, वतन है हिंन्दोस्तां हमारा।


आज TV Serials और फ़िल्मों के माध्यम से भी त्योहारों के फ़लक का विस्तार हुआ है। भारत में विविध मज़हबों और संस्कृति के लोग हैं। उन्हें टी. वी. धारावाहिकों द्वारा एक-दूसरे की संस्कृति को विस्तार से जानने का मौक़ा मिलता है। जिस दिन जो त्योहार पड़ता है, उस दिन प्रसारित होने वाली कड़ी में विशेष रूप से उन त्योहारों को भी कहानी के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है।

भारतीय फिल्मों में भी बड़े पैमाने पर त्योहारों को शामिल किया जा रहा है। पहले भी होली, दीवाली, दशहरे पर कई फिल्में बनती रही हैं और ख़ास तौर से त्योहारों के इन मौकों पर रिलीज भी की जाती रही हैं। आज फिल्मों में त्योहारों को बड़े भव्य तरीके से पेश किया जाता है। कहानी में सिचुयेशन बना ली जाती है। पहले कितने गैर हिन्दी भाषी(बंगाल वाले) लोग करवाचौथ के बारे जानते थे। आज करवाचौथ घर-घर पहुंच गया है। इसके साथ ही छठ, गणगौर, जन्माष्टमी, नवरात्र पूजन, गणपति पूजन भी बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

पहले की तुलना में आज परिवारों की तरफ से बच्चों को त्योहारों पर घूमने-फिरने की ज़्यादा आज़ादी है। आज वे सारी-सारी रात अपने-अपने सर्कल में अपने-अपने तरीके से Celebration को एन्जॉय करते हैं, पहले Parents का कठोर अनुशासन होता था, इतने बजे के बाद हर हाल में घर लौट आना है और बच्चे भी आज्ञापालन करते हुए उसमे सीमाबद्ध रहते थे।

आज उस आज़ादी के साथ-साथ उच्श्रृंखलता भी बढ़ी है, चाहे वह Celebration के तरीकों की हो या Dress Sense की । लोग नहीं सोचते कि हम क्या पहन कर निकल रहे हैं(ख़ास तौर से लड़कियां)। ज़ाहिर है जब हम तैयार होकर घर निकलते हैं तो निश्चित रूप से आईने में खुद को तो निहारते ही हैं। फिर भी लोग कैसे ऐसी पोशाकें पहन घर से बाहर क़दम रखते हैं। पहले पोशाकें बदन ढकने के लिए पहनी जाती थीं और आज बदन दिखाने के लिए। पहनने वाले की तुलना में देखने वाला शरमा जाए। अभिभावक भी पता नहीं कैसे इसकी अनुमति देते हैं।
Public Places में लोग उच्श्रृंखलता का प्रदर्शन करते हैं, पहले लोग दूसरों का लिहाज़ करते थे। आज इसकी कमी दिखती है। वर्ना सार्जेट बापी सेन जैसे दिलेर लोग क्यों ज़िंदगी से हाथ धो बैठे ?
आज त्योहारों का दायरा बढ़ा है। व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग अपनों से मिलने और उनके संग वक़्त गुज़ारने के लिए बहाना ढूँढते हैं और इसी क्रम में वेस्टर्न संस्कृति पर आधारित मदर्स डे, फादर्स डे, ग्रैंड पेरेंटस् डे, सीनियर सिटिजंस डे, वर्ल्ड म्युज़िक डे जैसे आयोजनों का चलन शुरू हुआ।

एक और बदलाव का उल्लेख करना चाहूंगी। पंजाब प्रदेश का एक त्योहार है ‘लोहड़ी’ । 13 जनवरी को मनाया जाता है। पहले क्या होता था कि परिवार में पुत्र की पैदाईश या पुत्र की शादी वाले घरों में बड़े धूमधाम से यह त्योहार भव्यता से मनाया जाता था। पूरे गांव या मुहल्ले में लोहड़ी बांटी जाती थी। यानी पुत्र संतान के साथ इसका जुड़ाव था। लेकिन तीन साल पहले मैंने वहां के लोकल अख़बारों में देखा कि अब कन्या संतान की पैदाईश पर भी यह त्योहार बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। जहां कन्याओं की भ्रूण हत्याओं जैसे कृत को अंज़ाम दिया जाता था, वहां यह एक सुखद बदलाव है, ।


भारतीय संस्कृति के त्योहारों के अनुसार देवी पूजा, शक्ति पूजा, कुमारी पूजन, दुर्गा पूजा, लक्ष्मी – सरस्वति पूजा की जाती है। महिला को शक्ति का स्वरूप माना जाता है वहीं दूसरी ओर आज उसी शक्ति स्वरुपा नारी से पैदा होने का हक़ छीना जाने लगा है। पहले के ज़माने में पुत्र की अभिलाषा में कन्या संतानों की क़तार लग जाती थी आज तो कन्याओं के जन्म पर ही प्रश्न लग गया है।

महानगरों की तुलना में छोटे शहरों, कस्बो, गांवो में अभी भी आस्था और परंपराएं बची हुई हैं। मैं अगर अपनी बात करूं तो मेरी पैदाईश और बचपन उत्तरी बंगाल के अलीपुरद्वार जक्शन में गुज़रा। बीस बरसों से कलकत्ते में हूँ, मुझे नहीं लगता कि कलकत्ते आने से पहले कभी हमारे परिवार ने विश्वकर्मा पूजा या सरस्वति पूजा की शाम घर पर बैठकर गुज़ारी हो, वहां लोग सपरिवार ये पूजाएं देखने भी अलग-अलग पंडालों में जाया करते थे। इसका भी अपना ही मज़ा होता था। इंतज़ार रहता कि कब पिता डयूटी से फ़ारिग हो घर लौटेंगे और शाम को पूरे परिवार को पूजा घुमाने ले जाएंगे। इस चीज़ को मैं बड़ी शिद्दत से यहां कोलकाता में मिस करती हूं। पता ही नहीं चलता दफ़्तर में डयूटी करते हुए विश्वकर्मा पूजा कैसे बीत जाती है। इतना ही नहीं, पिता जिस कन्सट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे, कंपनी के बड़े से ट्रक हम सभी बच्चों को भरकर कूचबिहार में रास मेला घुमाने ले जाया जाता था। कोलकाता आने पर शुरू-शुरू के आठ-दस सालों तक तो मैं दुर्गा पूजा में वहीं जाना पसंद करती थी क्योंकि वहाँ अलग-अलग पंडालों में कोई न कोई परिचित परिवार या दोस्त-मित्र मिल जाते थे। बहुत मज़ा आता था। और महानगरों की आपाधापी में परिचित परिवारों या दोस्तों से आकस्मिक मुलाक़ात की बात तो भूल जाईए, परिवार का सदस्य भीड़ में बिछुड़ जाए तो उसे ढूंढने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

कुल मिलाकर पहले की तुलना में आज आर्थिक संपन्नता भी बढ़ी है, साथ-साथ मंहगाई भी बढ़ी हैं। त्योहारों के Celebration के तरीक़े, अंदाज़ भी बदले हैं। जोश भी बढ़ता जा रहा है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि भारत जो कि कृषि प्रधान देश कहा जाता है, गाँवों का देश कहा जाता है वहीं एक तरफ़ बड़ी भव्यता से बड़े पैमाने पर त्योहारों का आयोजन किया जाता है दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो दाने-दाने को मोहताज हैं। बदलाव वहीं तक स्वीकार्य हों, जो सुखद, सही और बेहतरी के लिए हों, चाहें वे किसी क्षेत्र में क्यों न हो ?
नीलम शर्मा ‘अंशु’ /03-10-2009

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। आलेख सच्चाई को सच साबित करता है कि बदलाव वहीं तक स्वीकार्य हों, जो सुखद सही और बेहतरी के लिए हों। एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं