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17 नवंबर 2010

कोलकाता वापसी की आपबीती

घर से दूर बहुत है मस्ज़िद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।

कितनी ख़ूबसूरत सोच है शायर की लेकिन जनाब जब कोई ज़बरदस्ती आपको रुलाने पर तुला हुआ हो तो आप क्या करें ......

14 नवंबर (2010) की शाम पांच बजे की फ्लाइट से दिल्ली से कोलकाता की रवानगी तय थी मेरी । चंडीगढ़ से सुबह की कालका शताब्दी ट्रेन पकड़ी नई दिल्ली के लिए। चंडीगढ़ से फ्लाइट द्वारा आने पर दिल्ली से क्नेक्टिंग फ्लाइट के मिस हो जाने का ख़तरा था, इसलिए नई दिल्ली तक ट्रेन से सफ़र किया। कालका शताब्दी ने पौने ग्यारह बजे तक दिल्ली पहुंचा दिया। फ्लाइट के लिए तीन बजे तक एयरपोर्ट पहुंचना था। यानी ग्यारह से एक बजे तक दो घंटों का समय था अपने पास। तो स्टेशन के क्लॉक रूम में सामान जमा कर सामने पहाड़गंज वाले इलाके के पुराने बाज़ार की ज़रा सी सैर कर ली। जैसे ही सवा एक बजे नई दिल्ली स्टेशन की तरफ वापसी और सामान लेने के लिए रुख किया कि  एयर लाइन्स वालों का फोन आ गया कि आज फ्लाइट तीन नंबर टर्मिनल से छूटेगी। लगे हाथों उन्हीं से पूछ लिया कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कैसे आना बेहतर होगा। दो ऑप्शन बताए गए। दोनों  ऑप्शन सीधे एयरपोर्ट नहीं पहुंचाते थे, बीच में चेंज करना पड़ रहा था।  कोलकाता से जाते वक्त छह तारीख को डोमेस्टिक एयर पोर्ट पर ही फ्लाइट ने उतारा था। मुझे लगा कि तीन नंबर टर्मिनल भी उसी परिसर में कहीं आस-पास होगा। ऊपर से ऑटो चालक ने भी थोड़ा सा कन्फयूज कर दिया। मैंने कहा कि इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर जाना है लेकिन चालक ने कहा कि डोमेस्टिक फ्लाइट तो पालम से छूटती है। मैंने फिर से एयरलाइन्स के जिस नंबर से फोन आया था, उस पर फोन से कन्फर्मशन लेकर उससे कहा कि तीन नंबर टर्मिनल चलो। ख़ैर उस टर्मिनल पर एक दायरे के बाद ऑटो आगे नहीं जा सकते। वहाँ से एयरलाइन की बस पिक अप करती है। फिऱ भी 3.33  तक ऑटो ने वहां पहुंचा दिया था। आगे उनकी बस ने पिक अप किया और पूरे पैसेंजर भर जाने के बाद लगभग पौने चार बजे गंतव्य पर छोड़ा। चूँकि इस टर्मिनल पर पहली बार जाना हुआ था सो पूछते-पुछाते ऊपर चेक-इन कांउटर तक पहुँचते-पहुँचते चार बज गए थे। कांउटर की कतार तो टस से मस नहीं हो रही थी। अंतत: कतार बदल कर दूसरे कांउटर पर लगाई। वहाँ बार-बार नेट वर्क और सर्वर की समस्या आ रही थी। डिलिंग असिस्टेंट महोदय मुस्कराते हुए कभी एक कंप्यूटर पर बैठते तो कभी दूसरे पर। सर्वर की प्रॉब्लम के कारण उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आ रही थी। ख़ैर मैंने इस दौरान तीन बार सामने जाकर कहा कि मेरी फ्लाइट पाँच बजे की है ज़रा जल्दी कर दीजिए। लेकिन कोई सुनवाई नहीं। तिस पर इस बीच बार-बार जालंधर और चंजीगढ़ से फोन आते जा रहे थे लेकिन बोर्डिग पास के चक्कर में उन सबसे बात करने की फुर्सत नहीं थी। जब क़तार के अनुसार अंतत:  मेरी बारी आई तो 5.03 मिनट हो चुके थे। महोदय ने बोर्डिग पास देने से मना कर दिया कि आपकी फ्लाइट तो गई, मैं नहीं दे सकता टिकट। मैं कुछ नहीं कर सकता। जबकि मेरे मन में अंदेशा था कि जब इनके शेड्यूल में परिवर्तन हुआ है तो फ्लाइट अवश्य विलंब से जाएगी और मुझे लिए बिना नहीं जाएगी। लेकिन किसी प्रकार की घोषणा भी नहीं सुनाई दी। उस डीलिंग असिस्टेंट ने तो हाथ खड़े कर दिए कि मैं आपकी टिकट नहीं बना सकता। आप अमुक कांउटर पर वो मि. मित्तल से बात करें। उस कांउटर वाले सज्जन भी कुछ सुनने को तैयार नहीं। ऊपर से कहा कि आप देर से आई हैं। जब मैंने बताया कि उस कांउटर पर पूछिए बाकी लोगों से कि कब से खड़े थे हम और सर्वर की क्या स्थिति थी। तो जनाब ने कहा कि आपको आठ बजे की फ्लाइट से भेज देते हैं। मेरे यह कहने पर कि आठ की फ्लाइट दस बजे कलकत्ते पहुँचेगी और फिर वहांँ से घर जाते-जाते बारह बजेंगे। इतनी रात को मैं घर कैसे जा पाउँगी। मुझे पाँच बजे वाली फ्लाइट का ही बोर्डिंद पास दें। जनाब ने तेवर दिखाते हुए कहा, जाइए कोई ज़रूरत नहीं जाने की, कल जाइएगा। फिर बड़ी मुश्किल से उन्होंने लिखा कि मे बी एक्सेपटेड और कहा जी-12 नंबर कांउटर पर चली जाइए। साथ में एक स्टाफ को भेजा जो कि उस कांउटर पर कागज़ पकड़ा कर लौट आया। और उस कांउटर वाले ने बाद में जवाब दिया कि मेरे पास पहले ही इतनी लंबी सूची है। मैं नहीं बना सकता। फिर एक अन्य कांउटर पर जाने को कहा, वहाँ भी सुनवाई नहीं हुई। तो मैंने पास के एक अन्य कांउटर पर बैठे सज्जन से गुज़ारिश की तो उन्होंने कहा, मैडम मैं तो कैशियर हूं, मैं कोई मदद नहीं कर सकता। आप वो उस कांउटर पर जाकर उन सज्जन से बात करें जो उस दूसरी तरफ मुँह किए खड़े हैं,  मि. चोपड़ा। वे हमारे चीफ़ हैं। मैंने कहा उसी कांउटर से तो यह लिख कर दिया गया है और मि. मित्तल ने लिखा था, अब वहाँ कोई और बैठा नज़र आ रहा है। उन्होंने मि. चोपड़ा की तरफ ही इशारा करते हुए कहा कि वही कुछ कर सकते हैं, उनके पास जाईए।  मुझे तो इस कांउटर से उस कांउटर पर भटकते हुए रोना आ रहा था यह सोच कर कि अब रात यहीं रुकना पड़ेगा, परंतु मुश्किल से मैंने अपने को नियंत्रित कर रखा था। (डर इसलिए भी था कि सेमीनार में हमारे दो साथियों की फ्लाइट मिस हो गई थी और उस रात दिल्ली रुक कर अगले दिन शाम की फ्लाइट से वे चंडीगढ़ पहुँच पाए थे।) आखिर मि. चोपड़ा को बोर्डिंग पास देने के लिए कहा तो उन्होंने भी डाँट कर कहा कि आप देर से आई हैं, आप झूठ बोल रही हैं कि आप चार बजे से क़तार में है, ऐसा हो ही नहीं सकता।  इसी बीच वे मेरी ही फ्लाइट के एक पेसेंजर को चार बोर्डिंग पास इश्यु कर रहे थे, तो मैंने फ्लाइट का नंबर सुनकर कहा कि आप इन्हें भी तो दे रहे हैं, मेरा तो एक ही है, मुझे भी इसी में एडजस्ट कर दीजिए। तो पूछा गया कि क्या बैगेज भी है ? हां कहने पर उन्होंने फिर से सुना दिया कि बैगेज बुक नहीं हो सकता, पहुँचेगा कि नहीं कह नहीं सकते। दो दिनों तक आप रोती फिरेंगी कि बैगेज नहीं मिला। (लोग महिलाओं से बात करते वक्त भाषा का भी ध्यान नहीं रखते) 170 पैसेंजर फ्लाइट का इंतज़ार कर रहे हैं। बैगेज बुक नहीं हो सकता। मैंने तपाक से कहा कि बैगेज मैं साथ ले लूंगी। वे बोर्डिग देने को राज़ी हो गए। मैंने उस सहयात्री से बांग्ला में रिक्वेस्ट की कि प्लीज़ थोड़ा सा रुक लीजिए मुझे भी साथ ले लीजिए, मैं अमुक कांउटर से अपना सामान उठा लाऊं। फिर उनकी मिसेज ने मेरा छोटा बैग पकड़ लिया और वो साहब, उनके दो बच्चे पीछे मैं और मेरे पीछे उनकी मिसेज, हम भागने लगे फलाइट की ओर। इतना वक्त भी नहीं था कि बोर्ड फॉलो कर सकें कि किस गेट की तरफ जाना है। इतना विशाल परिसर। ख़ैर दौड़ा-दौड़ी में साँस फूल रही थी, हिम्म्त जवाब दे रही थी। उनकी मिसेज तो मुझसे भी थोड़ी ज़्यादा हेल्दी थी, उनसे भी दौड़ा नहीं जा रहा था। सामान की चेकिंग के बाद दोनों बैग मेरे कंधे पर थे।  आगे जाकर उन सज्जन ने मुझसे मेरा बड़ा बैग ले लिया। ख़ैर वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती। जैसे ही हम दौड़ते-हाँफते निर्धारित गेट पर पहुँचे तो कांउटर पर खड़े स्टाफ ने कहा, आराम से बैठिए, अभी देर है, सभी लोग यहाँ लांउज में ही बैठे हैं तो राहत की साँस ली। सहयात्री ने कहा कि हमारे तो सामान का भी पता नहीं, क्या बनेगा। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया कि आप लोग मेरे लिए नहीं रुकते तो मैं तो आज सचमुच ढूंढ ही नहीं पाती दौड़-भाग में। जवाब में उन्होंने कहा, मैडम यह तो हमारी ड्यूटी थी। ज़रा सोचिए जिनकी वास्तव में ड्यूटी थी उन लोगों ने कैसे रियेक्ट किया और किस लहज़े में बात की। मानो कसूरवार मैं ही होऊं। आधे घंटे बाद बताया गया कि फ्लाइट साढ़े सात बजे टेक ऑफ करेगी। वजह क्या थी ? क्रू मेम्बर्स की कमी। तो हमें क्यों इस तरह काँउटर पर परेशान किया गया। अगर मैने उस परिवार के लिए बोर्डिंग पास इश्यु करते हुए न देखा होता तो तय था कि वे मुझे अगले दिन की फ्लाइट के लिए टरका देते। साढ़े सात बजे बताया गया कि फ्लाइट साढ़े आठ बजे टेक ऑफ करेगी, तब तक आप लोग नीचे दिल्ली स्ट्रीट नामक रेस्टरां में डिनर कर सकते हैं। सब लोग उस दिशा में बढ़ने लगे। वहाँ पहुँचने पर बताया गया कि हम आठ बजे से पहले खाना सर्व कर ही नहीं सकते। वजह पूछने पर बताया गया कि हेड का आदेश नहीं है। हैड कहाँ हैं? अमुक कांउटर पर हैं। जब हैड से यात्रियों ने कहा तो हैड ने जवाब दिया फूड ऑन दे वे है तो मैं कहाँ से सर्व करूं। जबकि आठ बजे वहीं कंटेनर्स में पड़ा फूड ही सर्व किया गया, जो कि पहले भी दिया जा सकता था। यात्रियों ने यहाँ तक भी कहा कि क्या हम भिखारी हैं, जो आप लोग इस तरह बर्ताव कर रहे हैं। उस वक्त एक साथ दो फ्लाइटों के यात्रियों को खाना सर्व किया जाना था। हमारे बाद साढ़े छह बजे की बंबई की फ्लाइट भी डिलेड थी। खैर, डिनर के नाम पर जो परोसा गया उसकी बात छोड़िए। कइयों ने तो खाया ही नहीं। फिर बताया गया कि अभी कलकत्ते से जो फ्लाइट आएगी, उसी के क्रू को हमारी फ्लाइट में भेजा जाएगा। पायलट तो मौजूद है, मगर अन्य क्रू मेंबर्स की कमी है। ख़ैर, नौ बजे बताया गया कि गेट नंबर 30  से टेकऑफ होगा । विमान में बैठकर रिश्तेदारों को सूचित किया कि बैठ तो गए हैं पता नहीं टेक ऑफ कब होगा। अब एक ही बार घर पहुँचकर फोन करूंगी।  नौ बजे से बैठे-बैठे 9.59  पर फ्लाइट ने टेक ऑफ किया और 11.55  पर हमने लैंड किया। उतरने के बाद हर कोई पायलट मि. बख्शी से हैंड शेक कर सही सलामत कलकत्ते पहुँचा देने के लिए धन्यवाद दे रहा था। हैरानी की बात यह है कि डिनर के बाद विमान में सवार होते वक्त और फिर कलकत्ते लैंडिंग के बाद वह फैमिली मुझे नज़र नहीं आई। ख़ैर बारह बजे पहुँच कर वह वक्त मैंने एयर पोर्ट पर ही बैठ कर गुज़ारा क्योंकि उस वक्त टैक्सी पकड़ कर 36 किलोमीटर का सफ़र तय कर घर पहुँचना क़तई समझदारी का काम नहीं था। सुबह पाँच बजे निकल कर टैक्सी ली और सवा छह बजे तक घर पहुँची। जालंधर और चंड़ीगढ़ के रिश्तेदारों को पहुँचने की सूचना देकर मोबाइल स्विच ऑफ कर सो गई। और फिर एक ही बार नींद खुली एक बजे। ऑफिस में फोन किया कि मैं तो आज आने से रही। उसके बाद चाय नाशता किया और साढ़े तीन बजे लंच। ख़ैर इतनी बार यात्राएं कीं हैं लेकिन ऐसी दुर्गति कभी नहीं हुई। एयरलाइन्स के स्टाफ के व्यवहार से बेहद दु:ख हुआ। ऐयरपोर्ट पर बैठे-बैठे तेजेन्द्र शर्मा जी को SMS  किया कि आपकी एयरलाइन वालों ने आज अभी तक एयरपोर्ट पर बिठाए रखा है। जबकि विगत बारह वर्षों से वे एयरलाइन के मुलाज़िम भी नहीं हैं। पता नहीं उन तक SMS पहुंँचा भी कि नहीं। खैर किसी पर तो भड़ास निकालनी ही थी न। ग़नीमत है कि सिविल एवियेशन के कार्यालय में तैनात अपने परिचित एक अन्य अधिकारी मित्र से शिकायत नहीं की। 

सरकारी कर्मचारी होने के नाते जब किन्हीं सरकारी कर्मचारियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है तो बेहद दु:ख होता है। जबकि पब्लिक डिलिंग वाले लोगों से विनम्रता की उम्मीद की जाती है। बाद में पता चला कि दो-तीन दिन पूर्व दीदी (सुश्री ममता बैनर्जी, माननीया रेल मंत्री) के साथ भी ऐसा ही वाक्या पेश आया था। ख़ैर वी. आई. पीज़ के साथ अगर ऐसा हो सकता है तो हम तो हैं ही आम आदमी। 

हम सरकारी मुलाजिमों की मजबूरी है कि हमें सरकारी एयरलाइन्स से ही यात्रा करन पड़ती है। दु:ख इस बात का नहीं कि विमान सेवा की अस्त-व्यस्तता की वजह से तकलीफ उठानी पड़ी। इस अस्त-व्यस्तता की वजह से जो तकलीफ़ हुई सो तो हुई ही, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़  कांउटर कर्मियों के रवैये से हुई। फ्लाइट कब टेक ऑफ करेगी ा, इसका कोई अता-पता नही, क्रू मेंबर्स उपलब्ध नहीं और यात्रियों के धमकाया जाता है कि फ्लाइट जा चुकी है।

 अंत में फिर से यही कहना चाहूंगी कि

                  घर से दूर बहुत है मस्ज़िद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।

यह तो बहुत बाद में याद आया कि उस दिन बाल दिवस था, ख़ैर मेरे जैसे बड़े बच्चे रोते-रोते बचे।

 गृहनगर से वापसी की यात्रा बेहद मायूसी भरी रही। जालंधर से चंडीगढ़ आते हुए रास्ते में सोच रही थी कि गृहनगर जैसा अगर कोई concept है तो गृहनगर किसे कहूँ, जहाँ पूर्वजों की जड़ें हैं,जहाँ सभी रिश्तेदार रहते हैं उसे? या जहाँ पैदाइश हुई, जहाँ जन्म से रहती आई हूँ उसे। ख़ैर क्या फर्क़ पड़ता है? मैं कलकत्ते में रहते हुए भी पंजाबी गीतों के साथ-साथ, देस में निकला होगा चांद सुना करती हूँ और जालंधर-चंडीगढ़ सफ़र के दौरान भी देस में निकला होगा चाँद सुनते हुए सोच रही थी कि किसे देस समझूं, पंजाब को? या बंगाल को? पंजाब वाले हमें बंगाल के कहते हैं, बंगाल वाले पंजाब के मानते हैं। पंजाब के दोस्त मज़ाक में कहते हैं, इह तां पंजाबी बंगालन है। ख़ैर हम तो हिंदुस्तानी हैं जी, सारा हिंदुस्तान हमारा घर है।  

04 नवंबर 2010

दीपोत्सव !


आप सभी को दीपावली तथा काली पूजा  की शुभ कामनाएं  !  

रौशनी का यह पर्व आपके जीवन को आलोकित करे, यही मंगल कामनाएं हैं। आज सुबह एफ.एम. रेनबो छायालोक में मैंने दोस्तों से यही जानना चाहा था कि रौशनी के इस पर्व के  मौके पर वे दूसरों के दिलों को रौशन करने के लिए एक क़दम   कौन सा उठाना चाहेंगे ? जवाब में दोस्तों ने अपने-अपने हिसाब से अपना बात रखी। ज़्यादातर ने तो यही कहा कि वे इस बात का ध्यान रखेंगे कि माईक समय सीमा के भीतर ही बजाया जाए तथा शब्द  दूषण वाले पटाकों से वे परहेज करेंगे।  एक दोस्त ने कहा कि मैं कुछ बच्चों को नए वस्त्र तथा पटाके खरीद कर दूंगा। 




- नीलम शर्मा 'अंशु'

12 अक्तूबर 2010



13 अक्तूबर आज बड़े भाई दादा मोनी अशोक कुमार साहब का जन्म दिन है तो छोटे भाई किशोर कुमार साहब की पुण्यतिथि ! साथ ही आज नुसरत फतेह अली खान साहब का जन्मदिन है। इन सभी कलाकारों को हमारी श्रद्धांजलि !

03 अक्तूबर 2010

कोलकाता, आमी तोमाके भालोबाशी !

तस्वीरें बोलती हैं .......


1 )  रानी रासमणी एवेन्यू से राजभवन की तरफ जाने पर दाहिनी तरफ के छोटे

पार्कों में कुछ महान व्यक्तित्वों की मूर्तियां स्थापित हैं। 

02 अक्तूबर को दोपहर सवा एक बजे विद्यासागर जी की मूर्ति तथा संलग्न

अन्य मूर्तियों के समक्ष नज़ारा देखने लायक था। मज़े की बात

तो यह है कि ये पार्क सार्वजनिक पार्क भी नहीं हैं।

फिर लोगों ने कैसे भीतर प्रवेश

कर गंदगी फैलाई।

छुट्टी के दिन का यह मतलब तो क़तई नहीं।

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2)    11 सितंबर 2010 की सुबह आठ बजे तस्वीर नं. 1 में  ईद             

          की नमाज से पूर्व रानी रासमणी रोड/धर्मतल्ला इलाके 

           की साफ-सुथरी सड़क का परिदृश्य। शेष अन्य 

          तस्वीरो में नमाज के बाद का दृश्य सुबह 11.15  बजे।

               सड़क पार करते वक्त वाहनों के आवागमन से

             कागज़ हवा में इधर से उधर लहरा रहे थे।

              नमाज अदायगी के बाद लोग कागज़ों को

             सड़क पर हवा खाने के लिए छोड़ गए।
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3)    मेट्रो रेल परिसर में पीक फेंकने तथा थूकने पर  250/- रुपए का
       
जुर्माना लगता है। आज तक किसी को लगा या नहीं, पता नहीं।
      
मेट्रो के भीतर सीढियों की दीवार पर पीक नज़र आना आम बात है।

        सफाई कर्मी साफ़ करते पाए जाते हैं, अगले दिन फिर ज्यों की

       त्यों स्थिति। अंदर फोटोग्राफी निषेध है तो हमने बाहरी परिसर

   की तस्वीरें लीं। ताज़ा रंग-रोगन वाली दीवारें 

हाल-ए-बयां खुद ही करते हुए कहती हैं

कि शहरवासी नहीं सुधरने वाले।

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30 सितंबर 2010

Nostalgic visuals of our childhood


 दोस्तो, 15  सितंबर को दिल्ली दूरदर्शन ने अपनी स्थापना के इक्यावन वर्ष पूरे किए। 1959  में इसी दिन दूरदर्शन की स्थापना की गई थी। कल 30 सितंबर को सचिन कालेकर जी की बहुत ही रोचक मेल मिली, जो कि प्रासांगिक है। उसे सबके साथ शेयर करना चाहती हूँ ।


If there was Ctrl+Z in life.........
Nostalgic memories of those 
'good old days' – 
world has changed and we also 
changed for the world !!! 

Are you missing those days? 

Sometimes I do 



Doordarshan Logo 

Doordarshan' s Screensaver 



Malgudi Days 



Dekh Bhai Dekh 



Mile Sur Mera Tumhara 



Turning Point 



Bharath Ek Khoj 



Alif Laila 



Byomkesh Bakshi 



Tehkikaat 



He Man 



Salma Sultana DD News Reader 


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Vicco turmeric,
Nahin cosmetic
Vicco turmeric ayurvedic cream 



Washing powder Nirma, 

Washing powder Nirma
Doodh si safedi, Nirma se aayi
Rangeen kapde bhi khil khil jaaye
 



I'm a 
Complan Boy(Shahid Kapoor) and
I'm a Complan Girl (Ayesha Takia) 







Then were 'Mungerilal ke hasin sapane' and 'karamchand' ...'Vikram Betal', etc.
* How did one survive growing up in the  
80's and 90's?
We had no seatbelts, no airbags..
 


Cycling was like a breath of fresh air… 


No safety helmets, knee pads or elbow pads, with plenty of cardboards between spokes to make it sound like a motorbike… 


When thirsty we only drank tap water, bottled water was still a mystery… 


We kept busy collecting bits & pieces so we could build all sort of things … and we were fearless on our bicycles even when the brakes failed going downhill… 


*  We were showing off how tough we are, by how high we could climb trees & then jumping down….It was great fun…. 

We could stay out to play for hours, as long as we got back before dark, in time for dinner… 

We walked to school, or sometimes we even rode our bicycle. 

We had no mobile phones, but we always managed to find each other…. How? 

We lost teeth, broke arms & legs, we got cuts and bruises and bloody noses…. nobody complained as we had so much fun, it wasn't anybody's fault, only ours 

We ate everything in sight, cakes, bread, chocolate, ice-cream, sweet sugary drinks, fruits..yet, we stayed skinny by fooling around. 
 
*  And if one of us was lucky to find a 1 litre coca cola bottle we all had a swig from it & guess what? Nobody picked up any germs...

We did not have Play Stations, MP3, Nintendo's, I-Pods, Video games, 99 Cable TV channels, DVD's, Home Cinema, Home Computers, Laptops, Chat-rooms, Internet, etc ... 

BUT, we had REAL FRIENDS!!!! 

*  We called on friends to come out to play, never rang the doorbell, just went around the backdoor… 

*  We played with sticks and stones, played cowboys and Indians, doctors and nurses, hide and seek, soccer games, over and over again… 

*  When we failed our exams we were given a second chance by simply repeating the same grade…without visiting psychiatrists, psychologists or counselors… 


Such were the days… 

*  We had freedom, success, disappointments and responsibilities. .. 

*  Most of all, we learned to respect others… 

Are YOU from that generation?? If that's the case, email this to all your friends from the same era… 

May be this message will help them forget the stress that surrounds us these days….and just for a few moments puts a smile to their faces as they remember what life was really like in the good old days……


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27 सितंबर 2010

सुर साम्राज्ञी लता जी के जन्म दिन पर विशेष !




 वह शख्सीयत नहीं है जो हर सदी या दो सदियों में हुआ 
करती है।यह बड़े भाग्य की बात है कि हमारी हस्ती उनके साथ 
बनी हुई है। 12 सुरों पर उसका नियंत्रण मुग्ध कर देने वाला 
रहा है। मेरी बहन है इस, नाते तारीफ़ नहीं कर रहा हूँ मैं।  
परंतु नहीं, महाभारत में एक ही कृष्ण हुए हैं। उसी तरह भारत
में सिर्फ़ एक ही लता हुई हैं। 
कहते हैं -  भाई हृदयनाथ मंगेशकर।


 सदियों में पैदा होने वाली आवाज़ और गुज़री सदी की 
  बिलाशक श्रेष्ठतम आवाज़ है जिससे ये सदी भी धन्य हुई है।
  पड़ोसी राष्ट्र के मेरे एक मित्र कहते हैं कि हमारे मुल्क़ में वह
  सब है जो भारत में आप लोगों के पास है, बस नहीं हैं तो 
  सिर्फ़ ताजमहल और लता मंगेशकर। अमिताभ बच्चन।

 बकौल जगजीत सिंह  बीसवीं शताब्दी में सिर्फ़ तीन चीज़ें 
याद की जाएंगी  लता मंगेशकर का जन्म, मनुष्य का चंद्रमा
की धरती पर क़दम रखना और बर्लिन की दीवार टूटना।


 बहन आशा भोंसले के अनुसार 
जब बड़ी गाती है तो लगता है कि मंदिर की घंटियां बज उठी 
हों। मैं तो बचपन से उस के साथ रही हूँ। क्या कहूँ स्वर्ग से 
अपदस्थ अप्सरा है जिसे शापवश स्वर्ग से धरती पर फेंक दिया
गया है लेकिन शाप देते हुए देवगण शायद उसकी दिव्य आवाज़
छीनना भूल गए हैं। और रास्ता भटक वह ग़लती से हमारे बीच 
आ गई है। उसकी आवाज़ की मिठास, उसके उच्चारण, फ़िर चाहे
किसी भी भाषा में गा रही हो सुनते ही बनते हैं।




 जिस तरह फूल की खुशबू का कोई रंग नहीं होता, वह 
महज़ खुशबू होती है, जिस तरह बहते हुए पानी के झरने
या ठंडी हवाओं का कोई घर, देश नहीं होता, जिस तरह 
उभरते हुए सूरज की किरणों या मासूम बच्चे की मुस्कराहट
का कोई भेदभाव नहीं होता वैसे ही लता मंगेशकर की आवाज़
कुदरत की तहलीक का करिश्मा है। कहते हैं दिलीप कुमार।


० बकौल जावेद अख़्तर,- 
पृथ्वी पर एक सूर्य हैएक चंद्रमा और एक लता।



० अगर ताजमहल दुनिया का सातवां आश्चर्य है तो लता आठवां।
  कहना है उस्ताद अमज़द अली ख़ाँ का ।



० लता जी के गाए गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ को बहुत
 शोहरत मिली लेकिन उसके गीतकार को लोग भूल से गए हैं।
 इस गीत को लता के नाम से जाना जाता है लेकिन गीतकार 
पंडित प्रदीप का कोई ज़िक्र भी नहीं करता। कहा यह भी जाता
 है कि इसे पहले आशा भोंसले गाने वाली थीं , फ़िर बाद में
 दोनों बहनों द्वारा गाया जाना तय हुआ लेकिन यह बाद में 
लता जी की झोली में चला गया।


कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि देश विभाजन के 
परिणामस्वरूप नूरजहाँ अगर पाकिस्तान न चली गई
 होतीं तो शायद लता मंगेशकर का सफ़र इतना
 आसां नहीं होता। याद कीजिए उनके शुरुआती दौर
 के गीतों का अंदाज़ बिलकुल वैसा ही था।

ऐसे में हम आज के दिन उनके दीर्घायु होने की कामना
करते हुए यही कहेंगें कि तुम जीओ हज़ारों साल ...... 
और इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि


 न भूतो न भविष्यति
स्वर्ग की अपदस्थ अप्सरा
राष्ट्र की आवाज़
कोकिल कंठी
स्वर किन्नरी
गंधर्व स्वर
संगीत साम्राज्ञी
जीवंत किंवदंती ! 

उन्हें चाहे ऐसी कितनी ही उपमाएं
अलंकरण, संबोधन या 
उपाधियां दी जाएं

सत्य यही है कि वे लता मंगेशकर हैं।

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