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11 मई 2014

आज अंतर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस पर सभी माँओं को सलाम।



मेरी माँ !

































चंद कविताएं माँ को समर्पित


 (1)

माँ

माँ, सोचती हूँ
क्या, तेरा शुक्रिया अदा करूं ?
तूने इस खूबसूरत धरती और जहाँ का
मुझे दीदार जो करवाया।
भला, शुक्रिया कहना
ओछी हरकत न होगी माँ ?
ऐसे में जबकि तूने तो नि:स्वार्थ भाव से
दिया मुझे जन्म।
कोई भेद-भाव न दिखाया बेटी और बेटों में।
लाख पहनाए हों तूने मुझे बेटों जैसे वस्त्र
पर थी तो मैं बेटी ही न!

वो दिन भी क्या दिन थे
छोटा सा शहर और नन्हा सा बचपन।
और बढ़ते जाना हमारा जीवन पथ पर।
ऐसे में एकाएक नियुक्ति पत्र द्वारा
महानगर में आमंत्रण
मानो नन्हीं सी मछली को
सागर का आलिंगन।
एकाएक माँ का रक्षाकवच बनना और
सबको, सबकुछ पीछे छोड़
समंदर की तरफ बढ़ना।

धीरे-धीरे स्मृतियों का मध्यम पड़ना
पिता का भी विलीन हो स्मृति बन जाना
बेटी होने के नाते ख़ामोश तकते जाना
समाज की रीति-नीति, तकाज़े को समझना बूझना
दिल में पहली बार हल्की सी कसक का उठना ।
लाख कहो डंके की चोट पर
कि बेटी और बेटे में कोई फ़र्क नहीं होता
भले ही  दोनों की परवरिश में
माता-पिता के दिलों में
खोट नहीं होता।

पर कहाँ माँ,
बेटियां तो बेटियां ही रहती हैं।
अपने घर में परायों की अमानत बन
बेटियों रूपी पौध बनती है
पराए आँगन की शान
बेटे वंश-वृक्ष और आन
बेटियां रच-बस जाती हैं
नए आँगन में उसी नि:स्वार्थ भाव से
भूल सारे गिले-शिकवे
रचती हैं नई सृष्टि।

माँ, तूने मुझे भ्रूण से पल्लवित होने दिया
इस खूबसूरत धरती और
जहाँ का दीदार करने दिया
नहीं, शुक्रिया तो अदा करना ही होगा।
फिर सोचती हूँ, क्या शुक्रिया कहना
मामूली बात न होगी
तुम्हारी इस सर्जना के समक्ष?


नीलम शर्मा अंशु



(2)


 माँ


 लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

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कुछ नहीं होगा तो आंचल में छुपा लेगी मुझे

मां कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी।


किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई

मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।

 -  मुनव्वर राणा।



(3)



चल उठ माँ अब घर चलिए

किस बात पे बोल खफा हो गयी
क्यों शहर-ए-खामोशां में सो गयी
चल उठ माँ अब घर चलिए
मैं छोटा था तू कहती थी
मिटटी से खेल के आऊँ न
अब तुमने मिटटी ओढ़ी है
और मैं कुछ भी कर पाऊं न
तू जाने मैं भी जिद्दी हूँ
तुझे बिना लिए घर जाऊं न
चल उठ माँ अब घर चलिए
बचपन से अब तक कोई भी
मेरी बात न तूने टाली है
तू आज बात न मानेगी
क्यों ऐसी क़सम उठा ली है
माँ बात आखिरी मान ले तू
तेरे बिन अब घर खाली है
चल उठ माँ अब घर चलिए
जो कहते हैं तू गुज़र गयी
झूठे हैं सारे के सारे
मैं बेटा तेरा मैं जानूं
वो क्या जानें तेरे बारे
अब देख तू ऐसे जिद न कर
मेरे आंसू मिन्नत कर हारे
चल उठ माँ अब घर चलिए
तूने दुःख सह कर जिसे पाला था
उस बेटे का सुख देख तो ले
है उस के हक़ में आज हवा
हवा का ये रुख भी देख तो ले
पर इस पल बेटा रोता है
उसका रोता मुख देख तो ले
चल उठ माँ अब घर चलिए।

- डॉ. इरशाद कामिल


(4)

मेरी माँ


मेरी माँ
अनपढ़ है।
वह पढ़ नहीं सकती।

मगर जब भी
मैं गाँव  जाता हूँ
वह मुझसे लिपटकर
अपने आँसुओं की कलम से
लिखती है कुछ
खुशी के गीत।

मेरी माँ
अनपढ़ है
वह पढ़ लिख नहीं सकती।

और जब मैं
छुट्टियां बिताकर लौटता हूँ
वह गाँव के छोटे से
अड्डे तक आती है।
तब मुझसे लिपटकर
अपने आँसुओं की कलम से
लिखती है कुछ

विरह वेदना के गीत।

-  नरेंद्र कुमार गौड़




 (5)



माँ चंदन की गंध है, माँ रेशम का तार
बंधा हुआ जिस तार से, सारा घर-द्वार।

माँ थी घधर में जब तलक, जुड़े रह सब तार
माँ के जाते ही उठी आँगन में दीवार।

यहाँ-वहाँ, सारा जहाँ, नापें अपने पाँव
माँ के आंचल सी नहीं और कहीं भी छाँव।

रिश्तों का इतिहास है, रिश्तों का भूगोल
संबंधों के जोड़ का, माँ है फेवीकोल।

---  अशोक अंजुम









 प्रस्तुति  नीलम शर्मा अंशु









13 अप्रैल 2014

आप सभी को बैसाखी की ढेरों हार्दिक शुभकामनाएं।





"आज फिर आई है बैसाखी"


आज फिर आई है बैसाखी
दिन भर चलेगा दौर
एस एम एस, ईमेल, फेस बुक पर
बधाई संदेशों का....
याद हो आती है
इतिहास के पन्नों में दर्ज
एक वह बैसाखी जब
दशमेश ने 1699 में
जाति-पाति का भेद-भाव मिटा
मानवता की रक्षा खातिर
सवा लाख से एक को लड़ा
नींव रची थी खालसा पंथ की
शत-शत नमन, शत-शत वंदन
दशमेश के चरणों में।

क्या सचमुच आज
हर्षोल्लास का दिन है?

ऐसे में जब याद हो आती हो
इतिहास के पन्नों में दर्ज
1919 की वह खूनी बैसाखी
जब जलियांवाले बाग में
हज़ारों बेगुनाह, निरीह, निहत्थी ज़िंदगियां
बर्बरता और क्रूरता का शिकार हुईं।
उन परिजनों तक
कौन पहुंचाएगा संवेदना संदेश
शत-शत नमन, वंदन उनकी अमर शहादत को
जिसने रखी थी नींव इन्क़लाब की।

-  नीलम शर्मा 'अंशु'

मैं सब मिलकर गुलज़ार हूं।

"मैं खुश व सम्मानित महसूस कर रहा हूँ। यह एक राष्ट्रीय सम्मान है। संपूर्णता की अनुभूति है, जो केवल एक गीत, स्क्रीन प्ले के लिए नहीं बल्कि पूरे  काम के लिए है। सभी के प्यार व प्रोत्साहन के लिए शुक्रगुज़ार हूँ। यह बताता है कि आपके काम को पसंद किया जाता है और आप सही रास्ते पर हैं।" 
- संपू्रण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार।





 गुलज़ार साहब को वर्ष 2013 के दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया है। अनेक सम्मानों को अपनी झोली में समेटे संपूरण सिंह पुरस्कार को पाकर संपू्र्णता अनुभव कर रहे हैं। इससे पूर्व  उन्हें 2009 में  फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के गीत जय हो के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था। वे यह पुरस्कार लेने के लिए महज़ इस लिए नहीं गए क्योंकि वे उक्त आयोजन का विशेष काला सूट पहनने को तैयार नहीं थे। दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई।

चलिए ज़रा फ्लैश-बैक में चलते हैं और शेयर करते हैं 17 अगस्त 2004 को उनके जन्मदिन से एक दिन पहले शायर गुलज़ार से फोन पर हुई बात-चीत के कुछ चुनिंदा अंश :-



अंशु - आपने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबी पारी खेली है और यह अभी बदस्तूर जारी है। पटकथा लेखन,  गीतकार, निर्देशन, 
दूरदर्शन के लिए धारावाहिकों का निर्माण हर क्षेत्र में आपने कदम रखा । फिल्म निर्देशन के माध्यम से आपने खा़स-खा़स विषयों को लिया। ज्वलंत मुद्दों पर माचिस जैसी फिल्म बनाई। भविष्य में ऐसे किस मुद्दे या समस्या पर आप फिल्म बनाना चाहेंगे जो आपको उद्वेलित करते हों ?

गुलज़ार - माचिस तो काफ़ी पीछे छूट गई, 1995 की बात है। उसके बाद हु-तु-तु बनाई। आज़ादी के 50 सालों की कहानी है कि किस तरह एक मासूम टीचर को आहिस्ता-आहिस्ता सत्ता का नशा लगता है और वह चीफ मिनिस्टर बन जाता है। एक आम शहरी की नज़र से हमने इस सत्ता को बदलते देखा है और कहां तक पहुंचे हैं, इसकी दास्तां थी हु-तु-तु। एक छोटा सा मसला है पीने के पानी का, जो हम आज भी मुहैया नहीं करवा पाए। वो आज भी ज्यों का त्यों है। फिर हमारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं जगह-जगह। अपनी मुफलिसी की वजह से बच्चों की खरीद-फ़रोख्त कर रहे हैं। तो मुंशी प्रेमचंद की धनिया और होरी याद आए। पंजाब की हालत आप देख लीजिए या आंध्रप्रदेश की। कावेरी के पानी और सतलुज-जमुना लिंक नहर को लेकर हडकंप मचा हुआ है। किसान बेचारे को कोई नहीं पूछता। सियासी झगड़े चलते रहते हैं। हर साल सूखा भी पड़ता है और बाढ़ भी आती है। तो आदमी तो रिएक्ट करता ही है लेखक के तौर पर और फिल्म मेकर के तौर पर। मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में इन मसलों पर उँगली रखी थी, गोदान जैसा उपन्यास लिखा था, ठाकुर का कुआँ लिखा था, कफ़न जैसी कहानी लिखी थी, 70 बरस गुज़र गए वो तमाम मसले वैसे के वैसे बने रहे। मैंने मुंशी प्रेमचंद के काम को 13 घंटों में फिल्माया है, जो आजकल दूरदर्शन पर चल रहा है।

अंशु - आप के भीतर तो बहुत सी चीजें समाई हुई हैं  गीतकार गुलज़ार हैं, स्क्रिप्ट लेखक गुलज़ार, बच्चों के लिए गीत लिखने वाले गुलज़ार, बोस्की का पंचतंत्र, पुखराज और रावी पार जैसी साहित्यिक कृतियों के लेखक गुलज़ार। इनमें संपूर्ण सिंह उर्फ़ गुलजा़र मूल रूप से खुद को क्या मानते हैं ?

गुलज़ार  ये तो मुश्किल सवाल किया है आपने । मैं एक बेटी का बाप हूँ, एक पत्नी का पति हूँ, मां का बेटा हूँ, भाई का भाई हूँ, बहन का भाई हूँ, तो आप मूल किसे मानेंगी ? मैं सब मिलकर गुलज़ार हूँ

अंशु - पुराने नगमें आज भी दिलों पर छाप छोड़ते हैं, लोग आज भी गुनगुनाना पसंद करते हैं जबकि आज के गीत दो-तीन महीनों बाद गायब हो जाते हैं, क्या आप ऐसा महसूस करते हैं ?

गुलज़ार - गीतकार को अलग से नहीं देख सकता मैं। क्या फिल्में आपको तसल्लीबख्श लगती हैं। अगर फिल्में तसल्लीबख्श नहीं हैं तो गानों या गीतकार का क्या कसूर ? क्या म्युज़िक तसल्लीबख्श लगता है आपको ?

अंशु  एक चीज़ और जो इन दिनों देखने में आ रही है, पुराने हिट और पॉपुलर गानों को नए अंदाज़ में बतौर रिमिक्स पेश किया जा रहा है, क्या इस से ऐसा नहीं लगता कि हमारी नई जेनरेशन को देने के लिए हमारे पास नया कुछ नहीं है, हम पुराने को ही नए रूप में परोस रहे हैं, इसे किस रूप में लेना चाहिए ?

गुलज़ार - कह नहीं सकता । हर दौर में क्रिएटिविटी तो होती है। ये भी नहीं कि आज की जेनरेशन के पास कुछ नहीं है। उसके पास भी बहुत कुछ है कहने के लिए, लेकिन जो कह पाते हैं वो कह रहे हैं। जैसे रहमान साहब हैं, बहुत खूबसूरत काम कर रहे हैं। विशाल भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। जिनके पास कुछ नहीं है वे दूसरों का परोसा हुआ पेश कर रहे हैं। है वो सरासर नाइंसाफ़ी क्योंकि ब भी पुराने शहरों के इतिहास खुदाई होती है, तो वहां उस दौर के मटके- मटकियां. सिक्के, दीवारों या चट्टानों पर अभिलेख आदि से उस सभ्यता का अंदाज़ा लगाया जाता है कि वो सभ्यता कैसी थी। उसमें मिश्रण करे दें या तोड़-मरोड़ दें या मिलावट कर दे तो वह इतिहास नहीं रह जाएगा। ये जो जुल्म हो रहा है जिसे आप रिमिक्स कहती हैं, ये इतिहास के साथ खिलवाड़ है। अगर रवीन्द्र संगीत में आज के इलैक्ट्रॉनिक्स डाल दें तो उस दौर की रिकॉर्डिंग तो खराब हो गई, वह तो गायब हो गया, पॉल्यूट हो गया। मुझे तो ये गुनाह लगता है।

अंशु  इसी से जुड़ी एक बात और....  आजकल डिजीटल तकनीक से ब्लैक एडं व्हाईट फिल्मों जैसे मुगल-ए-आज़म, नया दौर, मधुमति को रंगीन बनाया जा रहा है, इसे आप किस रूप में लेते हैं ?

गुलज़ार - उसकी क्या ज़रूरत थी ? हमें अपनी पुरानी गुफाओं में जो पेंटिंग्स मिलती हैं, अब अगर उन्हें रीपेंट कर दें तो, ओरिजिनैलिटी तो क्या, पूरे इतिहास का सत्यानाश कर दिया, है न ? पूरी तहज़ीब, पूरी सभ्यता को गर्क़ कर दिया आपने। यही हो रहा है। ब्लैक एंड व्हाईट का अपना दौर था, बड़ा रंगीन दौर था। ये फिल्में इसका प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें बिलकुल छेड़ने की ज़रूरत नहीं थी।

अंशु - गीतकार, शायर गुलज़ार हमारे कोलकाता के प्रशंसकों के लिए कौन सी पंक्तियां गुनगुनाना चाहेंगे ?

गुलज़ार - बेसुरा हूं, वर्ना गाकर बताता। साथिया का चोरी चोरी नंगे पाँव जाना, अच्छा लगता है,’ पता नहीं आपको कैसे लगता है। दूसरा गीत चुपके से तो बड़ा अच्छा लगता है।

                                                 
प्रस्तुति - नीलम शर्म 'अंशु'

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