मैं सब मिलकर गुलज़ार हूं।
"मैं खुश व सम्मानित महसूस कर रहा हूँ। यह एक राष्ट्रीय सम्मान है। संपूर्णता की अनुभूति है, जो केवल एक गीत, स्क्रीन प्ले के लिए नहीं बल्कि पूरे काम के लिए है। सभी के प्यार व प्रोत्साहन के लिए शुक्रगुज़ार हूँ। यह बताता है कि आपके काम को पसंद किया जाता है और आप सही रास्ते पर हैं।"
"मैं खुश व सम्मानित महसूस कर रहा हूँ। यह एक राष्ट्रीय सम्मान है। संपूर्णता की अनुभूति है, जो केवल एक गीत, स्क्रीन प्ले के लिए नहीं बल्कि पूरे काम के लिए है। सभी के प्यार व प्रोत्साहन के लिए शुक्रगुज़ार हूँ। यह बताता है कि आपके काम को पसंद किया जाता है और आप सही रास्ते पर हैं।"
- संपू्रण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार।
गुलज़ार साहब को वर्ष 2013 के दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया है।
अनेक सम्मानों को अपनी झोली में समेटे संपूरण सिंह इस पुरस्कार को पाकर संपू्र्णता अनुभव कर रहे हैं। इससे पूर्व उन्हें 2009 में फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के गीत ‘जय हो’ के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था। वे यह पुरस्कार लेने के लिए महज़ इस लिए नहीं गए
क्योंकि वे उक्त आयोजन का विशेष काला सूट पहनने को तैयार नहीं थे। दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई।
चलिए ज़रा फ्लैश-बैक में चलते हैं और शेयर करते हैं 17 अगस्त 2004 को
उनके जन्मदिन से एक दिन पहले शायर गुलज़ार से फोन पर हुई बात-चीत के कुछ चुनिंदा
अंश :-
अंशु - आपने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबी पारी खेली
है और यह अभी बदस्तूर जारी है। पटकथा लेखन, गीतकार, निर्देशन,
दूरदर्शन के लिए धारावाहिकों का निर्माण हर क्षेत्र
में आपने कदम रखा । फिल्म निर्देशन के माध्यम से आपने खा़स-खा़स विषयों को लिया।
ज्वलंत मुद्दों पर माचिस जैसी फिल्म बनाई। भविष्य में ऐसे किस मुद्दे या समस्या पर
आप फिल्म बनाना चाहेंगे जो आपको उद्वेलित करते हों ?
गुलज़ार - माचिस तो काफ़ी पीछे छूट गई, 1995 की बात है। उसके बाद हु-तु-तु बनाई। आज़ादी के 50 सालों की कहानी है कि किस तरह एक मासूम टीचर को
आहिस्ता-आहिस्ता सत्ता का नशा लगता है और वह चीफ मिनिस्टर बन जाता है। एक आम शहरी
की नज़र से हमने इस सत्ता को बदलते देखा है और कहां तक पहुंचे हैं, इसकी दास्तां थी हु-तु-तु। एक छोटा सा मसला है
पीने के पानी का, जो हम आज भी मुहैया नहीं करवा पाए। वो आज भी
ज्यों का त्यों है। फिर हमारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं जगह-जगह। अपनी मुफलिसी
की वजह से बच्चों की खरीद-फ़रोख्त कर रहे हैं। तो मुंशी प्रेमचंद की धनिया और होरी
याद आए। पंजाब की हालत आप देख लीजिए या आंध्रप्रदेश की। कावेरी के पानी और
सतलुज-जमुना लिंक नहर को लेकर हडकंप मचा हुआ है। किसान बेचारे को कोई नहीं पूछता।
सियासी झगड़े चलते रहते हैं। हर साल सूखा भी पड़ता है और बाढ़ भी आती है। तो आदमी
तो रिएक्ट करता ही है लेखक के तौर पर और फिल्म मेकर के तौर पर। मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में इन मसलों पर उँगली रखी थी, गोदान जैसा उपन्यास लिखा था, ठाकुर का कुआँ लिखा था, कफ़न जैसी कहानी लिखी थी, 70 बरस गुज़र गए वो तमाम मसले वैसे के वैसे बने
रहे। मैंने मुंशी प्रेमचंद के काम को 13 घंटों में फिल्माया है, जो आजकल दूरदर्शन पर चल रहा है।
अंशु - आप के भीतर तो बहुत सी चीजें समाई हुई हैं – गीतकार गुलज़ार हैं, स्क्रिप्ट लेखक गुलज़ार, बच्चों के लिए गीत लिखने वाले गुलज़ार, बोस्की का पंचतंत्र, पुखराज और रावी पार जैसी साहित्यिक कृतियों के
लेखक गुलज़ार। इनमें संपूर्ण सिंह उर्फ़ गुलजा़र मूल रूप से खुद को क्या मानते हैं ?
गुलज़ार – ये तो मुश्किल सवाल किया है आपने । मैं एक बेटी
का बाप हूँ, एक पत्नी का पति हूँ, मां का बेटा हूँ, भाई का भाई हूँ, बहन का भाई हूँ, तो आप मूल किसे मानेंगी ? मैं सब मिलकर गुलज़ार हूँ।
अंशु - पुराने नगमें आज भी दिलों पर छाप छोड़ते हैं, लोग आज भी गुनगुनाना पसंद करते हैं जबकि आज के
गीत दो-तीन महीनों बाद गायब हो जाते हैं, क्या आप ऐसा महसूस करते हैं ?
गुलज़ार - गीतकार को अलग से नहीं देख सकता मैं। क्या
फिल्में आपको तसल्लीबख्श लगती हैं। अगर फिल्में तसल्लीबख्श नहीं हैं तो गानों या
गीतकार का क्या कसूर ? क्या म्युज़िक तसल्लीबख्श लगता है आपको ?
अंशु – एक चीज़ और जो इन दिनों देखने में आ रही है, पुराने हिट और पॉपुलर गानों को नए अंदाज़ में
बतौर रिमिक्स पेश किया जा रहा है, क्या इस से ऐसा नहीं लगता कि हमारी नई जेनरेशन को
देने के लिए हमारे पास नया कुछ नहीं है, हम पुराने को ही नए रूप में परोस रहे हैं, इसे किस रूप में लेना चाहिए ?
गुलज़ार - कह नहीं सकता । हर दौर में क्रिएटिविटी तो होती
है। ये भी नहीं कि आज की जेनरेशन के पास कुछ नहीं है। उसके पास भी बहुत कुछ है
कहने के लिए, लेकिन जो कह पाते हैं वो कह रहे हैं। जैसे रहमान
साहब हैं, बहुत खूबसूरत काम कर रहे हैं। विशाल भी बहुत
अच्छा काम कर रहे हैं। जिनके पास कुछ नहीं है वे दूसरों का परोसा हुआ पेश कर रहे
हैं। है वो सरासर नाइंसाफ़ी क्योंकि जब भी पुराने शहरों के इतिहास खुदाई होती है, तो वहां उस दौर के मटके- मटकियां. सिक्के, दीवारों या चट्टानों पर अभिलेख आदि से उस सभ्यता
का अंदाज़ा लगाया जाता है कि वो सभ्यता कैसी थी। उसमें मिश्रण करे दें या
तोड़-मरोड़ दें या मिलावट कर दे तो वह इतिहास नहीं रह जाएगा। ये जो जुल्म हो रहा
है जिसे आप रिमिक्स कहती हैं, ये इतिहास के साथ खिलवाड़ है। अगर रवीन्द्र
संगीत में आज के इलैक्ट्रॉनिक्स डाल दें तो उस दौर की रिकॉर्डिंग तो खराब हो गई, वह तो गायब हो गया, पॉल्यूट हो गया। मुझे तो ये गुनाह लगता है।
अंशु – इसी से जुड़ी एक बात और.... आजकल डिजीटल तकनीक से
ब्लैक एडं व्हाईट फिल्मों जैसे मुगल-ए-आज़म, नया दौर, मधुमति को रंगीन बनाया जा रहा है, इसे आप किस रूप में लेते हैं ?
गुलज़ार - उसकी क्या ज़रूरत थी ? हमें अपनी पुरानी गुफाओं में जो पेंटिंग्स मिलती
हैं, अब अगर उन्हें रीपेंट कर दें तो, ओरिजिनैलिटी तो क्या, पूरे इतिहास का सत्यानाश कर दिया, है न ? पूरी तहज़ीब, पूरी सभ्यता को गर्क़ कर दिया आपने। यही हो रहा
है। ब्लैक एंड व्हाईट का अपना दौर था, बड़ा रंगीन दौर था। ये फिल्में इसका
प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें बिलकुल छेड़ने की ज़रूरत नहीं थी।
अंशु - गीतकार, शायर गुलज़ार हमारे कोलकाता के प्रशंसकों के लिए
कौन सी पंक्तियां गुनगुनाना चाहेंगे ?
गुलज़ार - बेसुरा हूं, वर्ना गाकर बताता। साथिया का ‘चोरी चोरी नंगे पाँव जाना, अच्छा लगता है,’ पता नहीं आपको कैसे लगता है। दूसरा गीत ‘चुपके से’ तो बड़ा अच्छा लगता है।
प्रस्तुति - नीलम शर्म 'अंशु'
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