आज अंतर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस पर सभी माँओं को सलाम।
मेरी माँ !
चंद कविताएं माँ को समर्पित
(1)
माँ
माँ, सोचती हूँ
क्या, तेरा शुक्रिया अदा
करूं ?
तूने इस खूबसूरत धरती
और जहाँ का
मुझे दीदार जो करवाया।
भला, शुक्रिया कहना
ओछी हरकत न होगी माँ ?
ऐसे में जबकि तूने तो
नि:स्वार्थ भाव से
दिया मुझे जन्म।
कोई भेद-भाव न दिखाया बेटी और
बेटों में।
लाख पहनाए हों तूने
मुझे बेटों जैसे वस्त्र
पर थी तो मैं बेटी ही
न!
वो दिन भी क्या दिन थे
छोटा सा शहर और नन्हा
सा बचपन।
और बढ़ते जाना हमारा
जीवन पथ पर।
ऐसे में एकाएक
नियुक्ति पत्र द्वारा
महानगर में आमंत्रण
मानो नन्हीं सी मछली
को
सागर का आलिंगन।
एकाएक माँ का रक्षाकवच
बनना और
सबको, सबकुछ पीछे छोड़
समंदर की तरफ बढ़ना।
धीरे-धीरे स्मृतियों
का मध्यम पड़ना
पिता का भी विलीन हो स्मृति
बन जाना
बेटी होने के नाते ख़ामोश
तकते जाना
समाज की रीति-नीति, तकाज़े
को समझना बूझना
दिल में पहली बार
हल्की सी कसक का उठना ।
लाख कहो डंके की चोट
पर
कि बेटी और बेटे में
कोई फ़र्क नहीं होता
भले ही दोनों की परवरिश में
माता-पिता के दिलों
में
खोट नहीं होता।
पर कहाँ माँ,
बेटियां तो बेटियां ही
रहती हैं।
अपने घर में परायों की
अमानत बन
बेटियों रूपी पौध बनती
है
पराए आँगन की शान
बेटे वंश-वृक्ष और आन
बेटियां रच-बस जाती
हैं
नए आँगन में उसी नि:स्वार्थ भाव से
भूल सारे गिले-शिकवे
रचती हैं नई सृष्टि।
माँ, तूने मुझे भ्रूण
से पल्लवित होने दिया
इस खूबसूरत धरती और
जहाँ का दीदार करने
दिया
नहीं, शुक्रिया तो अदा
करना ही होगा।
फिर सोचती हूँ, क्या
शुक्रिया कहना
मामूली बात न होगी
तुम्हारी इस सर्जना के
समक्ष?
- नीलम शर्मा ‘अंशु’
(2)
माँ
लबों पर
उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ
है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
इस तरह
मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत
गुस्से में होती है तो रो देती है।
मैंने रोते
हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों
माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
अभी ज़िंदा
है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से
जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।
जब भी
कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ
करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
ऐ अंधेरे
देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने
आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।
मेरी
ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस
तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
मुनव्वर‘ माँ के आगे
यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ
बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
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मां कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी।
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।
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कुछ नहीं होगा तो
आंचल में छुपा लेगी मुझे
मां कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी।
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।
- मुनव्वर राणा।
(3)
चल उठ माँ अब घर चलिए
किस बात पे बोल खफा हो गयी
क्यों शहर-ए-खामोशां में सो गयी
चल उठ माँ अब घर चलिए
मैं छोटा था तू कहती थी
मिटटी से खेल के आऊँ न
अब तुमने मिटटी ओढ़ी है
और मैं कुछ भी कर पाऊं न
तू जाने मैं भी जिद्दी हूँ
तुझे बिना लिए घर जाऊं न
चल उठ माँ अब घर चलिए
बचपन से अब तक कोई भी
मेरी बात न तूने टाली है
तू आज बात न मानेगी
क्यों ऐसी क़सम उठा ली है
माँ बात आखिरी मान ले तू
तेरे बिन अब घर खाली है
चल उठ माँ अब घर चलिए
जो कहते हैं तू गुज़र गयी
झूठे हैं सारे के सारे
मैं बेटा तेरा मैं जानूं
वो क्या जानें तेरे बारे
अब देख तू ऐसे जिद न कर
मेरे आंसू मिन्नत कर हारे
चल उठ माँ अब घर चलिए
तूने दुःख सह कर जिसे पाला था
उस बेटे का सुख देख तो ले
है उस के हक़ में आज हवा
हवा का ये रुख भी देख तो ले
पर इस पल बेटा रोता है
उसका रोता मुख देख तो ले
चल उठ माँ अब घर चलिए।
- डॉ. इरशाद कामिल
(4)
मेरी माँ
मेरी माँ
अनपढ़ है।
वह पढ़ नहीं सकती।
मगर जब भी
मैं गाँव जाता हूँ
वह मुझसे लिपटकर
अपने आँसुओं की कलम से
लिखती है कुछ
खुशी के गीत।
मेरी माँ
अनपढ़ है
वह पढ़ लिख नहीं सकती।
और जब मैं
छुट्टियां बिताकर लौटता हूँ
वह गाँव के छोटे से
अड्डे तक आती है।
तब मुझसे लिपटकर
अपने आँसुओं की कलम से
लिखती है कुछ
विरह वेदना के गीत।
- नरेंद्र कुमार गौड़
(5)
माँ चंदन की गंध है, माँ रेशम का तार
बंधा हुआ जिस तार से, सारा घर-द्वार।
माँ थी घधर में जब तलक, जुड़े रह सब तार
माँ के जाते ही उठी आँगन में दीवार।
यहाँ-वहाँ, सारा
जहाँ, नापें अपने पाँव
माँ के आंचल सी नहीं और कहीं भी छाँव।
रिश्तों का इतिहास है, रिश्तों का भूगोल
संबंधों के जोड़ का, माँ है फेवीकोल।
--- अशोक अंजुम
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