(1) चांद! कहां हो तुम?
चांद! कहां हो तुम?
कभी चंदा मामा बन
लोरियां सुनाते हो
कभी संदेसा प्रियतमा का
पिया तक पहुंचाते हो ।
कभी बेटा बन माँ के
आंचल में छुप जाते हो
कभी बादलों की ओट में जा
प्रिया को तड़पाते हो
फिर चांदनी बन
शीतलता भी बरसाते हो।
इतने रूप कैसे बदल लेते हो
कभी इतना बड़ा और
कभी नन्हा अर्ध सा टुकड़ा
कभी चांद सा मुखड़ा
चंदा सी बिटिया
चांद सी दुल्हन की
उपमा पाते हो
कैसे कर लेते हो यह सब।
दिन भर की निराहार, निर्जला
व्रतियों की पुकार पर होकर प्रकट
करवाते हो संपन्न उनका व्रत
तो कभी ईद का चांद कहाते हो
तिस पर बैरी की उपमा भी पाते हो
तुम्हें बुरा नहीं लगता चांद?
कुछ तो है बात तुझमें
जो हरेक को परदेस में भी
याद आते हो तुम।
कैसे सबको कर लेते हो संतुष्ट?
हम इन्सानों को भी
ये हुनर सिखलाओ न ।
(2) ख़्वाब
एक दिन किसी की दस्तक पर
दरवाज़ खोला, कहा - सुस्वागतम् !
कानों में हौले से आवाज़ गूंजी -
जी शुक्रिया !
पर अगले ही पल
'गुलज़ार' की नज़्म की तर्ज पर
यूं लगा, मानो ख़्वाब था।
हाँ, ख़्वाब ही तो था शायद
जी रात के अंधेरे में
नींद के आगोश में
चुपके से देता है दस्तक
और सुबह के उजाले में
हो जाता है उड़नछू।
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साभार - छपते-छपते दीपावली विशेषांक 2014 (कोलकाता)।
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