दोस्तो पूरे दो साल बाद आपसे समवेत स्वर पर मुख़ातिब हूँ। बस कुछ यादों, बातों के बहाने.......
दृश्य – (1)
बी. एन. आर.
गार्डेनरीच से बस पकड़ी। खिदिरपुर आते-आते धीरे-धीरे बस यात्रियों से भरने लगी। एक
बुजुर्ग सी महिला मेरे साथ वाली सीट की तरफ यह कहते हुए बढ़ीं – थोड़ा सरको बेटा।
मैंने खुद को खिड़की की तरफ थोड़ा सा और सरक जाने दिया। खिदिरपुर क्रॉसिंग पर बस
काफ़ी देर रुकी रही। लोकल बस में किसी का इस तरह बेटा कह कर संबोधन मन को छू गया।
उस वृद्धा ने अपने दाहिने तरफ वाली सीट पर बैठे युवक से कुछ कहा। युवक ने सुनकर
कंडक्टर की तरफ इशारा करते हुए कुछ कहा। थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझसे पूछा – कहाँ
जाओगी बेटी। मैंने अपना गतंव्य बता दिया। उन्होंने कहा – बेटा मेरा एक टिकट कटा
दोगी। मैंने पूछा कहाँ तक जाना है आपको। सियालदह, उन्होंने जवाब दिया। मैंने कहा-
ठीक है। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाकर दुआ सी देते हुए मेरे ठुड्डी को छू लिया। फिर
उन्होंने पूछा – बेटा ये बस टाला जाएगी क्या? चूंकि मेरी उस रूट पर नियमित आवा-जाही नहीं होती तो मुझे कुछ अंदाज़ा
न होने के कारण मैंने कहा, यह तो मुझे नहीं पता। उन्होंने कहा, यह बस अगर जाए तो
एक ही बार में पहुंच जाऊंगी सीधे, वर्ना सियालदह से फिर दूसरी बस लेनी होगी। मैंने
मन ही मन सोचा कि सियालदह का टिकट ले दूंगी और दूसरी बस के किराए के पैसे भी
उन्हें दे दूंगी। फिर कंडक्टर से पूछने पर
उसने तसदीक की, कि जाएगी। वृद्धा ने कहा, तो सियालदह के बजाय टाला का टिकट ले दो।
मैंने वैसा ही किया। उन्होंने टिकट लेकर झोले में डाल लिया। फिर से आशीष देते हुए
कहा, बेटा तेरे बच्चे जीएं।
10-12 मिनटों
बाद मैंने कहा, मैं उतर रही हूं, तो उन्होंने फिर कहा – बेटा टिकट। मैंने कहा,
आपने लेकर झोले में रखा न। तो उन्हें याद आया कि हाँ। फिर भी मैंने उतरते वक्त
कंडक्टर से कहा कि मैंने उनका टिकट ले दिया है, शायद वे भुलक्कड़ हैं, आप दुबारा
टिकट मत काट देना।
मैं मन ही मन
सोच रही थी कि शायद मेरा इन पर पिछले किसी जन्म का कोई छोटा सा उधार चुकाना शेष
रहा होगा जो आज इस तरह चुकता हो गया। साथ
ही साथ मन में कसक सी भी उठी कि आखिर क्यों उन्हें इस तरह किराए के लिए किसी को
कहना पड़ा। पता नहीं दुनिया की इस भीड़ में कौन अपने अंदर क्या-क्या दु:ख
तकलीफ़ें लिए घूमता है, यह तो वही
भुक्त-भोगी ही जाने। क्यों उसे इस उम्र में दूसरों से मामूली से किराए के लिए
गुज़ारिश करनी पड़ रही है।
दृश्य – (2)
याद कीजिए दीवार
का वो दृश्य – ‘मेरे पास माँ है.’
फिल्म मौसम का
एक दृश्य - शर्मिला टैगोर कहती हैं – मैं
औरत बन कर जीना चाहती हूँ। मेरा माँ बनने को मन करता है। मैं माँ बनना चाहती हूँ।
यानी माँ बन कर एक स्त्री परिपूर्ण होना
चाहती है वर्ना वह अधूरी ही रहती है। नि:संतान होने पर मां-बाप खुद को अभागा मानते
हैं। वहीं दूसरी तरफ बड़े होकर संतान अगर नालायक निकले तब माता-पिता सोचते हैं कि
क्या इसी दिन के लिए हमने इतनी दुआएं मांगी थीं,
मन्नतें मांगी थीं।
कितनी अभागी
होंगी वे संतानें जो अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेती होंगी। या फिर वे
संतानें जो बूढ़ी हड्डियों की गठरी को वृद्धाश्रमों में छोड़ देती होंगी। या फिर
वे, जो 'लोग क्या कहेंगे' इस डर से ऐसा नहीं कर पाते, लेकिन बोझ ढोने को मजबूर हों
और उठते –बैठते यह अहसास दिलाते रहते हों
कि हाँ, वे बोझ ही तो हैं। कितनी अभागी
होंगी वे संतानें जिनकी वजह से वृद्ध माता-पिता की आँखें नम होती होंगी।
दृश्य – (3)
वॉटस् ऐप पर एक
संदेश मिला – जिसका निचोड़ यह था कि प्रवासी पुत्र दो बरस के बाद माँ को फोन करता
है कि मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ, अब तुम हमारे साथ रहोगी। पुत्र आकर मकान बिकवा
कर माँ को साथ ले एयरपोर्ट के बाहर बिठा फ्लाइट पकड़ चलते बनता है। माँ बेचारी
थक-हार लौट आती है उसी घर के पास जो अब उसका न रहा था। रात भर बाहर चबूतरे पर पड़ी
रहती है। सुबह मकान-मालिक देखता है और फिर उसे रहने के लिए एक कमरा दे देता है।
कुछ दिन बाद वह कहता है कि इस उम्र में कब तक आप अकेली रहेंगी, किसी रिश्तेदार के
पास चली जाएं। माँ कहती है, चली तो जाऊं पर मेरा बेटा अगर वापस आया तो उसका ख़याल
कौन रखेगा? यानी बेटे की यह शर्मनाक हरक़त भी माँ को नागवर नहीं गुज़री। यह है माँ
की ममता, महानता।
यह मैसेज शेयर
किए जाने के अनुरोध के साथ मिला था। उस वक्त तो मैंने कहा कि आप लोग अगर इसे शेयर
करें तो शोभा देता है लेकिन हम बेटियां अगर शेयर करें तो लगेगा कि हम बेटियां,
बेटों को कमतर आँक रही हैं। जवाब आया कि हाँ यह तो आप सही कह रही हैं।
o नीलम शर्मा 'अशु'
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