सोचा था 21 को लिखूंगी, लेकिन हर तरफ होली की रंगीनी देख कर फिर सोचा कि लिख ही डाला जाए। 21 मार्च 1989 को होली से दो दिन पहले शुक्रवार की सुबह 6 बजे कामरूप एक्सप्रेस में अलीपुरद्वार जंशन से आकर कलकत्ते की सरज़मीं पर क़दम रखा था, भारत सरकार के नियुक्तिपत्र के साथ। शुक्रवार ज्वॉयन किया, शनि -रवि की छुट्टी थी। रविवार को संभवत: होली थी उस वर्ष। 25 वर्ष पूरे हो गए इस शहर में। भारत सरकार ने तो नीलम शर्मा को कोलकाता में बुलाया लेकिन इसी कोलकाता ने नीलम शर्मा को नीलम शर्मा 'अंशु' बनाया। शुक्रिया मेरे शहर, तेरा सौ बार शुक्रिया।
12 मार्च 1989 का दिन – घर में गहमागहमी
थी। लाउड स्पीकर पर बड़े भाई ने गीत लगा रखे थे। उनके मित्र नूपुर दा ने पूछा –
नीलम बताओ न आज क्या है, कुछ तो है तुम लोग छुपा रहे हो। किस का जन्म दिन है? लाउड स्पीकर
क्यों? मैंने कहा, बस ऐसे ही। फिर उन्होंने चंदन से पूछा, तुम्हारा
जन्मदिन है क्या? चंदन भी बड़ी महारत से टाल गया। कहा,
नहीं मुझे तो नहीं पता। मम्मी के मन मुताबिक सुबह ब्रह्म भोज हो चुका था। पंडित जी
भोजन करके जा चुके थे। अब दोपहरी में हमारी मस्ती की बारी थी। अचानक पोस्ट मैन
काकू हरिपदो पधारे। हस्ताक्षर करवा के खाकी रंग का रजिस्टर्ड लिफाफा थमाते हुए कहा, ग्वर्मेंट का
ऐप्येंटमेंट लेटर है। मैंने कहा, कहाँ काकू जो लेटर आना था, उसका तो समय निकल गया
अब कहाँ से आएगा। पता नहीं इसमें क्या है। खोला तो देखा, सचमुच नियुक्ति पत्र था।
प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम तो दिसंबर में घोषित हो गया था। एंप्लॉमयमेंट न्यूज़
में परिणाम देखा था। उम्मीद के विपरीत मेरा रोलनंबर नज़र नहीं आया। रो-धो कर शाम
तक मन को समझा लिया था कि पूरे हिंदुस्तान में पता नहीं कितने लोगों ने परीक्षा दी
होगी। परीक्षा बहुत अच्छी हुई थी। अब ये नियुक्ति पत्र इतने दिनों बाद.... खैर,
भाई ने तो नाचना शुरू कर दिया कि देखो मेरे जन्मदिन के दिन तुम्हें कितना अच्छा
तोहफ़ा मिला है। उस दिन तो वो नाच रहा था लेकिन हफ्ते भर बाद उसे डैडी के पास मैं
और मम्मी कोलकाता के लिए रवाना हो गए। तब उसे थोड़े पता था कि परिवार के संग उसका
यह अंतिम जन्म दिन था। उसके बाद बड़े भाई बहन उसे छोड़ अपने-अपने पोस्टिंग स्थल पर
चले आए थे।
कोई अपना न था, इस शहर में। अजनबी शहर -
अजनबी लोग। डैडी इतनी दूर अकेले भेजने को राज़ी न थे। बीमार माँ साथ आईं कि कहीं
रहने का बंदोबस्त कर वापिस घर लौट जाएंगी क्योंकि भाई बहुत छोटा था। मगर ये हो न सका। कोई भी वर्किंग लेडीज़ हॉस्टल पसंद नहीं आया रहने
के लिए, तो घर वाले ज़बरदस्ती कैसे हॉस्टल के हवाले कर देते। जन्म से बंगाल में
रहना हुआ, कोई रिश्तेदार तक इधर नहीं। लिहाज़ा, अपना घर छोड़
किसी के घर जाकर एक भी दिन रहने की आदत नहीं, तो होस्टल कैसे रास आता। खैर, कलकत्ते
में अलीपुरद्वार के कल्याण भईया के रिश्तेदारों के यहाँ मध्यमग्राम में उन्होंने
हमारे रहने का इंतज़ाम करवा दिया था। हावड़ा स्टेशन से सीधे अपनी चचेरी बहन के घर
हमें ले जाकर कहा था, दीदी मेरी ये बहन यहाँ नौकरी करने आई है, तुम इनके लिए घर का
बंदोबस्त करके दो। वे अपने भतीजे के घर ले गई, जिनका ऊपरी मंजिल पर घर बन तो गया
था लेकिन दरवाज़े खिड़कियां लगने बाकी थे। उन्होने कहा, ऊपर रह लोगे। मेरे मना
करने पर उन्होंने नीचे अपने दो कमरों में से एक कमरा हमें दे दिया खाली करके और
कहा बरामदे में रसोई का काम चला लेना। साथ वाले कमरे में वे माँ और छोटा बेटा
सोते। बड़ा बेटा और बहू ऊपर बने अधूरे कमरों में। होली वाले दिन उनका घर देखने गए
थे। तीन महीने उसे घर में रहने के बाद हमें दूसरा घर मिल गया। इस घर में नलकूप था, पानी भरते-भरते हालत खराब। माँ को तो
नीचे झुकने तक की मनाही थी। उन लोगों ने राशन के लिए दुकान दिखा दी थी। दुकान वाले
से कह दिया था कि ये हमारे किराएदार हैं, इन्हें किसी तरह की तकलीफ़ न हो। फिर उसी
दुकानदार को एक दिन माँ ने कहा कि हमें कोई नया घर बताओ, जहाँ नल लगे हों, नलकूप
नहीं। सुनकर तुरंत पास खड़े एक गाहक ने कहा, इन्हें हमारे घर भेज दीजीए मेर साथ।
बस उनका घर देखा, नीचे एक कमरा था, उस के
साथ ही उन्होंने क छोटी सी रसोई भी बना दी हमारे लिए। इस दौरान भईया का नियुक्ति
पत्र आ चुका था और उन्हें ट्रेनिंग पर साल भर रहना था खड़गपुर। इस तरह लोकल ट्रेन
में सफ़र करना सीखा, लोकल वह भी बनगाँव
लोकल। हम किसमत को रोते कि जिनके अपने मकान यहाँ हैं उनकी तो ट्रेन में
धक्के खाना मजबूरी है, हमें कहाँ से ला पटका यहाँ। सोचा नहीं था कभी कि इधर से
निकल कर प्रॉपर कलकत्ते में रहना भी हो पाएगा । 1989 से अक्तूबर 96 तक लोकल ट्रेन
के धक्के झेले। फिर एक कलीग को क्वार्टर मिला टालीगंज में तो उन्होंने मुझे तुरंत कहा - कवार्टर लेना है तो बताईए दिया। फिर ऑफिशियली शेयर बेसिस पर पास करवा कर क्वार्टर मुझे दे दिया और खुद वे सपिरवार रिसड़ा में रहते। अपने क्वार्टर के लिए एस्टेट मैनेजर वाले कहते - अभी सीनियॉरिटी के हिसाब से बारी आने में देर है। भारत सरकार घरों से बेघर कर
नौकरी पर बुला तो लेती है लेकिन रहने को घर नहीं देती। सीनियॉरटी के हिसाब से पहला
क्वार्टर मिला सॉल्टलेक में। मैं तो देखने तक भी नहीं गई। माँ कहे देख तो आ। मैं
कहती, मुझे इतनी दूर सूट नहीं करता, रात-बिरात मैं इतनी दूर आवाजाही नहीं कर सकती।
यह टालीगंज का किराये पर ही ठीक है। अपने नाम न सही लेकिन है तो इंडीपेंडेट रूप से
अपना ही। फिर साथ वाले कैंपस में टाइप थ्री में अपना क्वार्टर मिला नवंबर 1999 में
और नवंबर 2004 में पाँच साल रहने के बाद
छोड़ कर फ्लैट में शिफ्ट किया।
याद आता है, अलीपुरद्वार में जब मिशन स्कूल में पढ़ती थी सातवीं में, तो दो बहनें साथ पढ़ती थीं। उनके माता-पिता कुछ दिनों के लिए उन्हें स्कूल के बोर्डिंग में छोड़ कर गाँव गए थे। मैंने भी माँ से कहा कि मुझे भी बोर्डिंग में उनके साथ रहना है। रात को जब यूं ही बातों-बातों में डैडी ने पूछा कि बोर्डिंग में जाओगी सहेलियों के साथ। बस पूछना भर था कि रोना शुरू, मानों भेज ही दिया गया हो। बेहद दुबली-पतली सी थी उन दिनों तो सिस्टर्स कहा करती थीं कि माँ खाने को नहीं देती है क्या। बोर्डिंग में आ जाओ, मोटी करके भेजेंगे।
ख़ैर, शुरु-शुरु में
कलकत्ते में अच्छा नहीं लगता था क्योंकि मैंने दिल्ली का ऑप्शन दिया था और शायद
बंगाल निवासी देखकर महिला होने के नाते कलकत्ते में पोस्टिंग दे दी गई हो। ज्वॉयन
करने के बाद ऑफिस आकर पता चला कि मेरी रैंकिंग फर्स्ट थी। सोचती थी फर्स्ट आने पर
यानी टॉप पर रहने पर ऐसा विभाग मिलता है जिसके कार्यालय सिर्फ चार शहरों दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और
मद्रास के सिवाए कहीं न हों। आम आदमी ने जिस विभाग का नाम तक सुन न रखा हो। सुनकर
पूछे यह कौन सा विभाग है, क्या गतिविधियां है इस विभाग की।(हमारे शहर में सिर्फ
विवेकानंद कॉलेज के एक कलर्क ने सही-सही बताया था इस विभाग के बारे में। कलकत्ते
में भी ज़्यादातर लोग नहीं जानते इस दफ्तर को, हाँ बिजनेस वाले फिर भी जानते हैं।)
ज्वॉयनिंग के लिए भेजते वक्त डैडी ने कहा था कि ज्वॉयन कर लो बाद में ट्रांसफर
करवा कर इधर ले आएंगे। उधर यानी नॉर्थ बंगाल में ऑफिस होता तो न ट्रांसफर मिलता।
याद आता है, नौकरी के लिए ऐप्लाई करते वक्त हर जगह ऐप्लाई करती थी, चाहे परीक्षा के
वक्त जाना संभव हो पाए या नहीं, वो बाद की बात है, ऐप्लाई तो कर दिया जाए। साथी कंपीटीटर
मज़ाक करते - जहाँ कोई ऐप्लाई नहीं करता, नीलम वहाँ भी ऐप्लाई करती है, फिर परीक्षा
देने नहीं जाती। परीक्षा देने जाने के वक्त, कोई ले जाने वाला नहीं मिलता। कलकत्ते
में एक परीक्षा देने आना था तो डैडी ने बडे भाई को आसाम से छु्ट्टी दिलवा कर
बुलाया कि बहन को कलकत्ते ले जाओ, मैं कहाँ खाक छानूंगा अब कलकत्ते की। कलकत्ते में एक
परीक्षा देने आई थी दिसंबर 1988 में। धर्मतल्ला (एसप्लानेड) ट्राम डिपो में घंटा भर
बैठे रहे कि बस में नहीं ट्राम में ही जाना है और बिजली की कुछ प्रॉब्लम के कारण
ट्राम सेवा एक घंटे के लिए बंद थी। उस वक्त डैडी के कलीग के घर राजारहाट में ठहरे
थे। तब तो राजारहाट इतना विकसित भी नहीं हुआ था। अगले दिन भईया के किसी दोस्त के
घर से वापसी में बस में किसी ने भईया का पर्स उड़ा लिया और पहले दिन परीक्षा सेंटर
जाते राजारहाट से जो बस ली थी उसमें से उतरते
वक्त भईया ने पीछे से उतर कर सोचा कि बहन को सामने से बुला लूंगा और सामने
की तरफ भीड़ होने के कारण वे मुझे उतरवा नहीं पाए(मुझे को मालूम ही नहीं था कि
उतरना कहाँ है) और बस चल पड़ी। जब लगभग बस खाली हो गई तो मैंने सोचा कि इतना
लंबा-चौड़ा भाई नज़रा क्यों नहीं आ रहा कहीं भी बस में। कंडक्टर ने टिकट के पैसे
मांगे तो मैंने कहा पीछे मेरे भाई ने ले लिया है। तब कंडक्टर ने कहा, अच्छा वो, वो
तो उतर गए। मैं सोचूं कि भईया को मालूम है कि मैं पहली बार कलकत्ते आई हूँ और कुछ
भी नहीं जानती, भला मुझे छोड़ कर कैसे उतर सकते हैं। खैर उल्टाडांगा पहुंच कर बस
वाले ने मेरे सेंटर का पता पूछ कर कहा कि यहाँ से दूसरी बस ले लो। वह मुझे समझा ही
रहा था कि तब तक भईया पहुंच गए। मैंने कहा इनका किराया तो दे दो। बोले, किराया
इनकी तो जूते से पिटाई करूं, इन्होंने सुनकर भी बस चला दी, रोकी नहीं। मैं टैक्सी
पकड़ कर पीछे से फॉलो करके आया हूँ तब तुम्हें पाया। अब ऐसे अनुभवों के साथ
कलकत्ते से लौट कर सोचा कि अब कलकत्ता सेंटर
हो तो ऐप्लाई नहीं करना है। एक की परीक्षा हो तो दो को आना पड़ता है, दुहरा खर्च
लेकिन, भगवान ने तीन महीनों बाद मार्च 1989 में स्थाई तौर पर यहाँ भिजवा दिया।
और दफ्तर, उसी ट्राम डिपो के सामने। यह परीक्षा दी थी, कूचबिहार सेंटर में। करियर की यही पहली परीक्षा थी वही सफल हो गई। इसके बाद बहुत परीक्षाएं दीं कलकत्ते से निकलने के लिए ताकि होम टाउन में वापसी हो सके लेकिन ईश्वर को शायद महानगर में रखना ही मंजूर था। चलो मेरे कारण हर रिश्तेदार ने कलकत्ता भी देख लिया। डैडी जो परीक्षा दिलवाने के लिए बड़े बेटे से कहते थे कि इस उम्र में कहाँ कलकत्ते में धक्के खाते हुए इसे लेकर फिरूंगा, तू साथ चला जा। बाद में हमारे यहाँ सेटल होने पर छुट्टियों में उन्हें भी यहाँ आना पड़ता। पाँच सालों तक तो हर बार दुर्गा पूजा में अलीपुरद्वार जाना ही मेरी प्राथमिकता में शामिल रहता था क्योंकि वहाँ एक हर पंडाल में किसी दोस्तों, परिचितों से मुलाकात होती, कलकत्ते में कौन, कोई नहीं। फिर 1995 से जाना छूट गया। 1995 के बाद 2005 में जाना हुआ था सहेली की शादी में। फिर 2009 में इन्कम टैक्स विभाग में तैनाती के दौरान सरकारी काम से जलपाईगुड़ी जाना हुआ तो अलीपुर द्वार भी गई थी। यानी पाँच साल हो गए। अलीपुरद्वार वापसी हो जाती तो बस शायद नौकरी के लायक ही रहती कोलकाता आकर जो इतने नए आयाम मिले क़तई न मिल पाते वहाँ तो तब आज का अख़बार तक अगले दिन पहुंचा करता था। अलीपुरद्वार वालों को थोड़े ही पता है कि जनसत्ता में 90 के दशक में छपने वाला नाम नीलम शर्मा अंशु वहीं का है। 2005 में जब गई थी तो भईया के दोस्त उमा जी ने कहा भी था कि मैं तो यहाँ तुम्हारा प्रोग्राम रेडियो पर हरदम सुनता हूँ पर मुझे थोड़े ही पता था कि यह नीलम शर्मा, प्रदीप शर्मा की वही बहन है (पता नहीं वे किस सिस्टम से सुना करते थे) । मज़े की बात यह है कि नीलम शर्मा को जानने वाले नीलम शर्मा अंशु को नहीं जानते और अंशु को जानने वाले नीलम शर्मा को नहीं जानते। जब कभी एफ. एम. वाला प्रोग्राम बहुत अच्छा होता था तो हमारे पेक्स पोद्दार साहब पूछा करते, नीलम जी आपके दोस्तों ने क्या कहा प्रो. सुनकर। मैं कहती, सर मेरे ज़्यादातर दोस्त साहित्यिक क्षेत्र के हैं और वे एफ. एम. नहीं सुनते। बेचारे सर इतने जोश से पूछते और मेरा जवाब उन्हें मायूस कर देता। एफ. एम. पर नीलम शर्मा को सुनते हैं वे नीलम शर्मा अंशु को नहीं जानते और नहीं पढ़ते। दोनों क्षेत्रों की अलग-अलग धाराएं हैं।
छोटे शहरों में रहने के अपने फायदे हैं। जब
नौकरी के लिए चयन हुआ था तो सारे शहर को खबर हो गई थी। जिससे मुलाकात होती वही
कहता,
सुना है
तुम्हारा सेलेक्शन हो गया है, कलकत्ते जा रही हो। कलक्ते में जब दिसं. 1988 में
परीक्षा देने आई थी तो परीक्षा केंद्र पर ही दमदमवासी सपना दी से परिचय हुआ था।
बाद में स्थाई तौर पर यहाँ आ जाने पर उनसे संपर्क कायम किया। वे अक्सर ऑफिस में
मिलने आतीं। एक दिन मेरे ऑफिस में बैठे-बैठे उनके मुँह से अनायास ही निकल गया,
नीलम तुम भाई बहनों ने नॉर्थ बंगाल से आकर कितनी अच्छी नौकरी जुगाड़ कर ली। मैंने
कहा, नहीं सपना दी आप ग़लत कह रही हैं, हमने यहाँ आकर नौकरी जुगाड़ नहीं की बल्कि
नौकरी हमें यहाँ लेकर आई है। फिर धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया और आज की तारीख
में पता नहीं वे कहाँ हैं, शायद हम एक दूसरे अब पहचान भी न पाएं। मुझे तो उनकी
शक्ल तक याद नहीं।
दफ्तर में एक दिन अपू दा का फोन आया तो अधिकारी
महोदय ने बात करने के लिए बुलाया। फोन पर बात हो गई तो उन्होंने कहा, ये लड़का कह
रहा था कि तुम्हारा भाई है। मैंने तो उसे कहा कि नीलम शर्मा का तो एक ही भाई है और
मैं उसे जानता हूं। मैंने कहा, सर आप ग़लती कर रहे हैं, मैं उन्हें दादा कह कर
बुलाती हूँ। वैसे भी मेरे गृहनगर का कोई होगा और बड़े भाई की उम्र का होगा तो भाई
ही कहेगा न। अपू दा एक दिन ऑफिस में आए तो मैं टेबल पर सर झुका रखा था। उनकी आवाज़
सुनकर सर उठाया तो आँखें नम थीं। उन्हें देख चौंक पड़ी। उन्होंने पूछा, रो क्यों
रही हो। मैंने कहा, छोटे भाई की याद आ गई थी । बाद में जब अलीपुरद्वार गई तो वहाँ
अपू दा ने दुर्गापूजा में मिलने पर दूसरे दोस्तों को हंसते हुए बताया कि एई बोका
मेयेटी कोलकातार ऑफिसे बोशे भाई एर जन्नो कांदे (ये बेवकूफ़ लड़की कलकत्ते के
दफ्तर में बैठकर छोटे भाई को याद कर रोती है)।
फिर 91-92 में एक दिन लंच टाइम में सेक्शन में
लौटने पर एक कलीग ने बताया कि एक सरदार जी आए थे तुमसे मिलने। मैंने कहा, मैं तो किसी
को नहीं जानती। बोले, वो जल्दी में थे, किसी दिन फिर आएंगे। इस तरह वो सज्जन दो
बार और आए, लेकिन संयोग से मुलाकात का सबब नहीं बन पड़ा। फिर एक दिन अचानक सेक्शन
में प्रवेश करते ही देखा कि मेरी सीट के पास एक सरदार जी बैठे हैं (नाम अब तो मुझे
याद नहीं ) मैं सीधे उस कलीग के पास गई जिन्होंने इसके पहले मुझे सूचनाएं दी थीं।
उन्होंने कहा, हाँ यही है जो तुम्हें इतने दिनों से ढूंढ रहा है। मैंने कहा, मैं
नहीं जानती उनको, मुझे डर लग रहा है। उन्होंने कहा, जाओ बात करो न। हम लोग तो हैं
ही सेक्शन में। जाकर मैंने सरदार जी से हिन्दी में बात की (स्वभाव के विपरीत
क्योंकि पंजाबी जानने वालों से में पंजाबी में बात करनी पसंद करती हूं।) उन्होंने मुझे एक पर्ची दिखाई और
कहा, ग्वालियर में आपका कजिन (ममेरा भाई) लक्की मिला था बस में, उसी ने आपका पता
देकर कहा था कि मेरी दीदी वहाँ रहती है, आप मिल लेना। तब साँस में साँस आई। मैंने
उनसे कहा कि आप ने अपना फोन नंबर तक नहीं छोड़ा था कि आदमी फोन पर ही बात कर ले,
जब देखो एक मैसेज मिल जाता कि सरदार जी आए थे। और मैं पिछले दो हफ्तों से टेंशन
में थी कि पता नहीं कौन है। (तब अंशु का जन्म नहीं हुआ था कि शहर में इतने परिचित
लोग हों कि मिलने आते रहें।) उन दिनों फोन का ज़माना नहीं था कि घर-घर फोन हो।
डैडी को चिट्ठी लिखकर माज़रा बताया तो फिर उन्होंने मामा जी से कहा कि बच्चों को
समझाएं। दरअसल बस में जैसे ही सरदार जी ने कलकत्ते का नाम लिया तो भाई ने तपाक से
कहा कि वहाँ मेरी दीदी नौकरी करती है आप मिल लेना। संयोग से सरदार जी का दफ्तर भी
करीब ही ता एस. एन. बनर्जी रोड पर तो इसलिए आते-जाते मौका मिलने पर वे संदेश
पहुंचाने आ गए। फिर जब 92 में दूसरे कजिन की शादी में लक्की से मुलाकात हुई तो, लक्की
तो माने न कि दीदी मैंने तुम्हारा पता दिया था। मैंने कहा देखो, मैंने आप लोगों को
पते में DTE. लिख कर भेजा था। हर रिश्तेदार इसी तरह
लिखता है, सिर्फ तुम हो जो चिट्टी पर भी ग़लत लिखते हो और सरदार जी को दी गई पर्ची
में भी इसी तरह लिखा था यानी D. T. E. तुम्हारे इन्कार करने से कुछ नहीं होता। तुम्हें
क्या लगता है कि कलकत्ता तुम्हारा मुरैना या मेरा अलीपुरद्वार है कि सभी एक दूसरे
को जानेंगे। इतने बड़े महानगर पड़ोसी को नहीं जानता।
अब आप सोच सकते हैं कि इतनी सी बात पर इतना
झमेला क्यों? दरअसल मेरे ज्वॉयन करने के दो हफ्तों
बाद भईया भी यहीं आ गए थे इस इंतज़ार में कि उनका भी भारतीय रेलवे से नियुक्ति
पत्र आने वाला है और पोस्टिंग इधर ही होनी थी। तब तक उन्होंने एक प्राइवेट कंपनी
ज्वॉयन कर ली थी इस शर्त पर कि नियुक्ति पत्र मिलते ही आपकी कंपनी छोड़ दूंगा।
कंपनी ने शर्त रखी कि नियुक्ति पत्र मिलने पर बेशक छोड़ सकते हो लेकिन यह नहीं कि
किसी दूसरी कंपनी ने 400 रुपए ज़्यादा दे दिए तो वहाँ चले जाओ। हमें शहर में आए अभी
महीना भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन हमारे घर पर दोपहर में एक हट्टे-कट्टे व्यक्ति
ने आकर साथ वाले कमरे में खाना खा रहे मकान मालिक के परिवार से पूछा, नीलम शर्मा,
प्रदीप शर्मा यहीं रहते हैं। उन्होंने हमारे कमरे की ओर इशारा कर दिया। अब वो साहब
धड़ाक से दरवाज़ा खोल कमरे में प्रवेश कर गए। मां दोपहर को आराम कर रहीं थीं,
हड़बड़ाकर उठ बैठीं। उस व्यक्ति ने फटाक से पूछा, प्रदीप कहाँ है। मम्मी ने कहा,
वह तो ऑफिस गया है। उसने पता नहीं क्या शर्मा नाम बताया अपना और कहा मैं ट्रक लेकर
कलकत्ते आया था, मेरा ट्रक खराब हो गया मुझे कुछ रुपए चाहिए थे, मैं प्रदीप का
दोस्त हूँ। मम्मी ने उसे पानी पिलाया तो उसने गिलास मुँह से न लगा कर गिलास ऊँचा
उठाकर मुँह में उड़ेल कर पीया। साधारणत: बंगाली लोग ही
गिलास से इस तरह पानी पीते हैं। मम्मी ने कहा मेरे पास तो रुपए हैं नहीं। प्रदीप के पास होंगे तो होंगे। पानी
पीकर उल्टे पाँव वो हड़बड़ाहट में निकल गया और पता ही नहीं चला कि किधर को गया।
मम्मी ने कमरे से निकल मकान वालों से कहा कि तुम लोगों उसे भीतर क्यों आने दिया।
तो रामू दा ने कहा, मासी माँ मैंने सोचा कि मौसा जी होंगे। वह तो नॉनबंगाली ही लग
रहा था और प्रदीप की तरह ही लंबा-चौड़ा और हैंडसम भी। खैर, शाम को जब भईया की घर
वापसी हुई तो मम्मी ने उन्हें बताया। भईया ने अपनी पूरी डायरी देख कर कहा कि इस
नाम को मेरा कोई दोस्त हिंदुस्तान भर में नहीं है। रही बात पैसे देने की तो हम तो
खुद ही परदेस में थे, हमें ज़रूरत पड़ेगी तो हम किससे माँगने जाएंगे। अब बेटे के
ऐसा कहते ही माँ को फिक्र हुई कि जो घर आ सकता है वह बेटी के ऑफिस में भी जा सकता
है। जा बेटा, अब बहन को लेकर आ। दफ्तर तो पास नहीं। सियालदह से शायद मध्यमग्राम (उपनगर)
18 किमी. के लगभग है और सियालदह से एस्पलानेड तीन किमी. होगा। भईया ने लोकल ट्रेन
पकड़ी और सियालदह आकर मेरे ऑफिस में फोन किया तो पता चला फोन बंद (ईपीबीएक्स बंद
हो चुका था)। अब उन्होंने सोचा कि नीलम से अब संपर्क होने से रहा, ऑफिस पहुंचने तक
तो वह निकल चुकी होगा। लिहाज़ा उन्होंने स्टेशन पर घोषणा करवा दी कि नीलम शर्मा आप
सीधे घर चली जाएं। मैं घर पहुंची तो माँ ने पूछा प्रदीप कहाँ है। मैंने कहा मुझे
क्या पता। अब माँ की चिंता - कि बेटी आ गई तो बेटा नहीं आया। ख़ैर अगले दिन ऑफिस
गई तो एक कलीग ने पूछा, तुम क्या कल खो गई थी क्या? सियालदह स्टेशन
पर तुम्हारे लिए घोषणा हो रही थी। मैंने जानबूझ कर कहा - नहीं तो, किसी और के लिए
होगी। उन्होंने हंसकर कहा - नीलम शर्मा तो
तुम ही हो और तुम शहर में नई आई हो, ज़रूर कहीं खो गई होगी। तब मैंने उन्हें पूरा
वाक्या बताया। फिर संयोग से दो हफ्तों के बाद भईया माँ को लेकर कहीं जा रहे थे तो
सियालदह स्टेशन पर वह आदमी दिख गया। ये लोग बाहर निकल रहे थे और वह भीतर आ रहा था।
माँ ने उसे रोकते हुए उसका कॉलर पकड़ भईया से कहा, यही उस दिन घर पर आया था। उस
आदमी ने कहा - नहीं, नहीं मैं तो ट्रक लेकर बाहर (दूसरे शहर से) से आया हूँ। सीन
क्रिएट होता देख भईया ने उसे जाने दिया लेकिन माँ श्योर थीं कि यह वही आदमी था और
उसने भी ट्रक की बात कही।
बतौर साहित्यिक अनुवादक 21 साल का सफ़र पूरा हो रहा है। जून 1994 में जनसत्ता ने मेरी पहली अनूदित रचना प्रकाशित की थी। पहली रचना नीलम शर्मा आशादीप के नाम से, दूसरी रचना पंजाब केसरी में नीलम शर्मा पंजाबी के नाम से और फिर जनसत्ता में नीलम शर्मा अंशु के नाम से। और यही उपनाम फाइनल हो गया। आशादीप के बारे में संपादक महोदय का कहना था - ऐसा लगता है जैसे किसी भवन का नाम हो या फिर अस्पताल में कोई रोगी पड़ा हो और उसके सिरहाने सैलाइन की बोतल लटक रही हो। मुझे याद है जालंधर से दमन (जगदमन लाल दमन) अंकल ने मेरे अनुरोध पर कई उपनाम सुझाए थे, फिर शब्दकोश देखकर मैंने अंशु का चयन किया। अनूदित रचनाएं प्रकाशित करने के बाद जनसत्ता ने कलम थमा कर मुझसे कई आलेख लिखवा डाले। फिर प्रभात ख़बर ने भी बहुत छापा। लगातार 50 हफ्तों तक महिला शख्सीयतों पर कॉलम लिखवाया। मेरे छोड़ने पर ही लिखना छूटा। मैं मज़ाक में कहा करती, मैं दूसरों के बारे लिखती रहूंगी, मेरा नंबर कब आएगा।
2002 में जब काबुलीवाले की बंगाली बीवी पुस्तक प्रकाशित हुई थी, तो एक दिन पुस्तक मेले के दौरान मैं पुस्तक मेले में थी और एफ. एम. पर अपनी साथी प्रेजेंटर का प्रोग्राम सुन रही थी एक स्टॉल पर बैठ कर कि अचानक किसी श्रोता को उनसे फोन पर इस पुस्तक का ज़िक्र करते पाया। उसने कहा भी कि मैं अमुक-अमुक स्टॉल पर गया था वहाँ ये-ये नई पुस्तकें देखीं और उसने काबुलीवाले..... का ज़िक्र करते हुए कहा कि हिन्दी में यह किताब खूब बिक रही है और बतौर अनुवादक मेरे नाम का ज़िक्र भी किया लेकिन उस श्रोता के थोड़े ही पता था कि ये अनुवादक और प्रेजेंटर नीलम शर्मा दोनों एक ही हैं। जब मेरे साथी-प्रेजेंटर को ही नहीं पता था तो श्रोता को कैसे पता हो सकता है। मैंने बाद में साथी प्रेजेंटर को फोन करके पूछा कि किसी श्रोता ने कुछ हिन्दी किताबों का जिक्र किया था, मैं उसका नाम नहीं सुन पाई ज़रा बताओ तो। तो उसने मुझे श्रोता का नाम बताया और पूछा - अच्छा नीलम जी, वो नीलम शर्मा अंशु कहीं आप ही तो नहीं।
2002 में जब काबुलीवाले की बंगाली बीवी पुस्तक प्रकाशित हुई थी, तो एक दिन पुस्तक मेले के दौरान मैं पुस्तक मेले में थी और एफ. एम. पर अपनी साथी प्रेजेंटर का प्रोग्राम सुन रही थी एक स्टॉल पर बैठ कर कि अचानक किसी श्रोता को उनसे फोन पर इस पुस्तक का ज़िक्र करते पाया। उसने कहा भी कि मैं अमुक-अमुक स्टॉल पर गया था वहाँ ये-ये नई पुस्तकें देखीं और उसने काबुलीवाले..... का ज़िक्र करते हुए कहा कि हिन्दी में यह किताब खूब बिक रही है और बतौर अनुवादक मेरे नाम का ज़िक्र भी किया लेकिन उस श्रोता के थोड़े ही पता था कि ये अनुवादक और प्रेजेंटर नीलम शर्मा दोनों एक ही हैं। जब मेरे साथी-प्रेजेंटर को ही नहीं पता था तो श्रोता को कैसे पता हो सकता है। मैंने बाद में साथी प्रेजेंटर को फोन करके पूछा कि किसी श्रोता ने कुछ हिन्दी किताबों का जिक्र किया था, मैं उसका नाम नहीं सुन पाई ज़रा बताओ तो। तो उसने मुझे श्रोता का नाम बताया और पूछा - अच्छा नीलम जी, वो नीलम शर्मा अंशु कहीं आप ही तो नहीं।
ईश्वर ने भारत सरकार का एक नियुक्ति पत्र देकर इस शहर में भेजा था, और इस शहर ने तो मेरी झोली ही भर दी। नीलम शर्मा और अंशु से अपार स्नेह रखने वाले एफ. एम. श्रोताओं और साहित्यिक दोस्तों एवम् लेखनी को रवानगी व प्रोत्साहित करते हुए प्रकाशन का अवसर प्रदान करने वाले संपादकों व पत्र-पत्रिकाओँ व प्रकाशकों जिन्होंने मेरी पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाया, उन सबके प्रति तह-ए-दिल से आभारी हूँ।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'
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