मेट्रो में
17 वर्षों के सफ़र में ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ। आज (9 फरवरी) शाम 5.15 से रात 9
बजे तक एफ. एम. पर ड्यूटी थी। हमेशा प्रो. से दो दिन पहले गीतों का चयन कर लिया
जाता है लेकिन इस बार व्यस्तताओं के चलते वृहस्पतिवार को नहीं जाना हो पाया
आकाशवाणी, फिर शाम को कलीग के सुपुत्र की शादी के रिसेप्शन पर
आमंत्रण था। अगले दिन शुक्रवार को पुस्तक मेले में 1 बजे हाज़िरी देनी थी लिहाज़ा
वह दिन भी गया। सोचा प्रो. से एक घंटा पहले जाकर हाज़िरी देनी पड़ती है तो चलो और
एक घंटा पहले निकला जाए आज। इसलिए 1.55 पर घर से निकल पड़ी। मेट्रो स्टेशन जाकर
देखा कि 2.12 वाली ट्रेन मिलेगी। लेकिन ट्रेन दो मिनट देर से आई और फिर हर स्टेशन
पर काफ़ी देर रुकती रही भीड़ के कारण।
ट्रेन में
ज़बरदस्त भीड़ थी। उस वक्त ज़ेहन में बिलकुल कुछ नहीं आया। भीड़ इतनी कि सीट पर
बैठे होने की स्थिति में मेरे सामने खड़े लोगों का दबाब गोद में रखे मेरे बैग से
होकर पेट पर पड़ रहा था। तभी भीड़ की अधिकता को समझ कर मैंने दुपट्टा गले से
उतार कर बैग में रख दिया। वर्ना गल भीड़ की धक्का-मुक्की में गला घुट जाना तो तय
ही था। चूंकि मेरे सामने के तीन लोगों को पार्क स्ट्रीट उतरना था, (जो कि बाईं
तरफ पड़ता है) वो लोग उतर नहीं पाए तो उन्होंने एसप्लानेड की तरफ रुख किया (दाहिने
तरफ)। उनके अचानक इस तरफ मुड़ जाने के कारण मेरे स्थिति बदल गई। बाएं हाथ में पर्स
और मोबाइल थाम रखा था क्योंकि बैग में रखने से पिक-पॉकेट की आशंका बनी रहती है और
दाहिने कंधे पर बैग था। ठीक उतरने के वक्त दरवाज़े के सामने आकर बैग कंधे से स्लिप
करके पीछे, नीचे गिर गया, उसे उठा कर आगे बढ़ने तक चढ़ने वाले लोगों का रेला
सा आ गया और तांता लग गया। अब कौन किसकी सुनता। इतनी गुज़ारिश की, कि भई उतर
लेने दीजिए पर......
अचानक लगा
कि अब तो उतरना मुश्किल है, अगले स्टेशन पर देखा जाएगा। वैसे हर स्टेशन का फासला
दो मिनटों का होता है, ऐसी स्थिति में दूसरे या तीसरे स्टेशन पर जाकर उतरा
ही जा सकता है फिर उधर से दूसरी ट्रेन पकड़ कर लौट आओ। लेकिन जब लगा कि अब यहाँ
उतरना संभव नहीं तो कोशिश छोड़ दी। लगा अब तो दम ही घुट जाएगा अगले स्टेशन तक
जाते-जाते। चश्मा गिर जाएगा, पर उतारा कैसे जाए, उतार कर
रखा भी कहाँ जाए, हाथ में पकड़ने से तो वैसे भी भीड़ के दबाव से चटक
जाएगा। अब तो आँखों के सामने तारे नाचते नज़र आ रहे थे। (आइंदा ऐसी नौबत आने पर
चश्मा उतार कर बैग में रखकर ही उतरना उचित होगा।) जिन लोगों को पता चला था कि बैग
नीचे गिर गया था, उन लोगों ने पूछा, बैग मिला
क्या, कहाँ है। मैंने कहा, जी मिला, मेरे हाथ में है। लोगों ने पूछा, उतरना कहाँ
है,
मैंने कहा – यहीं उतरना था एसप्लानेड में (ट्रेन तब भी रुकी हुई
थी)। उन लोगों ने सुनकर कहा, उतर जाईए, उतरना ही बेहतर रहेगा। मैंने कहा, चढ़ने वाले
लोग उतरने का रास्ता नहीं छोड़ रहे। तो उन लोगों ने चढ़ने वालों को जबरन उतार कर
मुझे उतरने में सहायता की। गिरते-पड़ते प्लैटफॉर्म पर उतर कर कुर्सियों के पास
जाकर एक सज्जन से बैठने की जगह देने का इशारा किया। इशारा समझ उन्होंने सीट छोड़
दी। मुझसे तीसरी कुर्सी पर बैठी महिला ने मेरी हालत देख पानी की बोतल बढ़ाई। मैंने
उन्हें इशारे से समझाया कि फिलहाल पीने की स्थिति में नहीं हूँ, साँस ज़रा
दुरुस्त हो जाए। 15-20 मिनट साँस दुरुस्त होने में लगे। आधे लीटर
पानी की बोतल जो कि रात नौ बजे तक मेरे काम आती है (यानी कि पानी बहुत कम पीती
हूँ) वही बोतल उसी वक्त गटक कर ख़त्म हो गई। तब कहीं बोल पाने की स्थिति में आई।
फिर बाहर की ओर कदम बढ़ाए। बाहर आकर साइड में लगी बसों में लोगों को बैठे देख और
नीचे फर्श पर खाने की प्लेटें फेंकी पड़ी देख ध्यान आया कि आज तो ब्रिगेड में वाम
वालों का समावेश था। ख़ैर, किसी तरह आकाशवाणी पहुंची तो, एक ड्यूटी
ऑफिसर ने पूछा – बाहर की स्थिति क्या है? मैंने
सिर्फ़ इतना कहा, फिलहाल बोल पाने की हालत में नहीं हूँ। उन्होंने
तुरंत दूसरे साथी से कहा देखा, बाहर की हालत कितनी ख़राब है, ये बोल
पाने की स्थिति में भी नहीं हैं। फिर कंप्यूटर पर बैठ कर 25-26 गाने
चुने, दो कार्यक्रमों में बजाने के लिए। और 5.15 से प्रो. का लाइव
प्रसारण शुरू हुआ। तब तक संयत हो चुकी थी, यानी होना ही था। वर्ना प्रो. में गड़बड़ी होगी।
इसीलिए मैं हमेशा दो-तीन दिन पहले गाने चुन कर रखती हूं। ख़ैर, जो अनुभूति
आज हुई, उसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है, सिर्फ़
महसूस किया जा सकता है।
सोच रही थी
कि मेरे जैसा ऐक्टिव और मीडिया वाले आदमी का अगर आज ये हाल हुआ तो आम लोगों का
क्या हाल हुआ। हम लोग तो धक्का-मुक्की और दौड़-भाग के अभ्यस्त हैं। अरे, हम जैसे
लोग तो मजबूरी में ड्यूटी बजाने जा रहे थे, बाकी लोग रविवार की छुट्टी के दिन कहाँ झख मारने गए, घर पर बैठा
नहीं जाता लोगों से।
ऐसी स्थिति
में खुद ही संभलना पड़ता है खुद को, घर आकर बताते भी नहीं बनता वर्ना आगे से जब तक घर
नहीं पहुंचो तब तक घर वाले चिंतित। घर बैठे कर ही क्या सकते हैं सिवाय फिक्र करने
के।
कोलकाता के
उपनगरीय लोकल ट्रेन सेवा में सबसे बदतर सेवा बनगाँव रूट की है। उस रूट में मैंने
सात-आठ साल तक डेली पैसेंजरी की, जो आदमी बनगाँव लोकल की धक्का-मुक्की का अभ्यस्त हो
वह आज मेट्रो से ही न उतर पाए। सोचने वाली बात ये है कि सिर्फ भीड़ की अधिकता की
वजह से अगर ऐसी घुटन महसूस हुई तो फिर मेट्रो में जब चिंगारी लगने, धुआँ
निकलने जैसी स्थितियों में अफ़रा-तफरी मचती होगी तो लोगों की हालत क्या होती होगी?
आज दूसरा
रविवार ऐसा बदतर रहा। पिछला रविवार भी ऐसा ही गुज़रा, बल्कि
पिछले से आज वाला ज्यादा बदतर रहा। पिछले रविवार यानी 2 फरवरी को
आकाशवाणी की तरफ से पिकनिक पर जाना था कल्याणी। सियालदह स्टेशन से लोकल ट्रेन
पकड़नी थी सबको। मैंने तय किया कि सियालदह न जाकर मेट्रो से दमदम स्टेशन जाकर वहाँ
से वही ट्रेन पकड़ ली जाए। मैं तो 8 बजे दमदम स्टेशन पहुंच गई मेट्रो से। जो लोग
पीछे से आने वाले थे सियालदह स्टेशन से वे वहीं फंस गए, क्योंकि उस
दिन दमदम से सियालदह जाने वाले एक लोकल ट्रेन दमदम स्टेशन छोड़ते ही सात बोगियां
पटरी से उतर गई, परिणामस्वरूप एक ही लाइन और प्लैटफॉर्म पर सारी
ट्रेनों की आवा-जाही हो रही थी। तो सियालदह से आने वालों की ट्रेन 11 बजे दमदम
पहुंची और हम गंतव्य पर पौने एक बजे पहुंच पाए। शाम को वापसी के वक्त भी ट्रेन सवा
घंटा दमदम स्टेशन से बाहर रुकी रही। जाते वक्त मुझे तीन घंटे उन सबका इंतजार करना
पड़ा अकेले, और शाम के सफ़र में सवा घंटा यानी उस दिन कुल सवा
चार घंटे बरबाद हुए लेकिन आज का मेट्रो का 20 मिनटों का सफ़र उस दिन से भी ज्यादा
कष्टप्रद रहा।
आज की भीड़
को क्या वाम रैली के साथ जोड़ कर देखूं ....... 30 जनवरी की दीदी की रैली थी, तो सुबह
10.30 बजे जो ऑफिस में प्रवेश किया तो फिर शाम 5 बजे ही निकलना हुआ घर लौटते वक्त।
फिर मोदी साहब की रैली के दिन सुबह ऑफिस जाते वक्त आस-पास देख कर सोचा कि आज फल
वालों ने दुकानें क्यों नहीं सजाई तो ध्यान आया कि अच्छा आज भाजपा की रैली है।
लेकिन आज तो रविवार की छुट्टी थी, ऑफिस तो जाना नहीं था, शाम को
आकाशवाणी जाना था बस प्रो. के लिए।
- नीलम
शर्मा ‘अंशु’
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