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02 जुलाई 2010

रेनबो पर मु. अज़ीज़




दृश्य - 1

आज सुबह एफ. एम. रेनबो पर मु. अज़ीज़ साहब पर एक घंटे का और गोल्ड पर 45 मिनटों का प्रोग्राम पेश किया। रेनबो पर अक्सर हमारे कॉलर दोस्त हम लोगों से कहा करते हैं, प्लीज़ मु. अज़ीज़ साहब का अमुक एक गाना बजा दें तो अच्छा लगेगा। खुश हो जाऊंगा। यानी अपने कलकत्ते के इस कलाकार से लोग कितनी मुहब्बत करते हैं......कि मैं तेरी मुहब्बत में पागल हो जाऊंगा, मुझे ऐसा लगता है..... तो कहाँ तो दोस्त एक गीत सुनवा देने की इल्तज़ा करते हैं और मैंने तो आज दोनों कार्यक्रमों में सिर्फ़ और सिर्फ़ मु. अज़ीज़ के गीत बजाए। चूँकि मैं उनकी फैन तो नहीं हूँ लेकिन कलाकारों के जन्मदिन या पुण्यतिथि के मौके पर उन्हें याद करना अच्छा लगता है। रेनबो में फोन पर बातें भी हुईं और आठ गीत बजे एक घंटे में और गोल्ड के पैंतालीस मिनटों में कुल सात गाने बजे यानी कुल 15 गीत मु. अज़ीज़ साहब के नाम। कॉलर दोस्त बहुत जोश में थे। मैंने चाहा था कि अज़ीज़ साहब को भी फोन पर पेश किया जाए, दोस्तों से इल्तज़ा कर-कर के लाईन भी छुड़वाई कई-कई बार कि प्लीज़ आप थोड़ी देर बाद कोशिश करें तब मैं अज़ीज़ साहब को फोन पर ले लूं। जनाब दोनों फोन की लाईनें इस क़द्र बिज़ी आ रही थीं कि बस पूछिए मत। एक ने छोड़ी लाईन कि तुरंत दूसरा हाज़िर, उसे मनाया कि तीसरा हाज़िर। ख़ैर हमारे दोस्तों ने बहुत सहयोग किया लेकिन स्टुडियो के फोन से मैं उनसे बात नहीं कर पाई। अपने मोबाईल से रिंग करके मैंने उनसे कहा था कि आप तैयार रहें, मैं आपसे दस मिनटों में बात करती हूँ। खैर....


प्रोग्राम के बाद रेडियो स्टेशन से निकल कर मैंने फोन करके उनसे माफ़ी मांगी। जवाब में पता है उन्होंने क्या कहा ? कहा - नीलम जी मैं बहुत गिल्टी फील कर रहा था कि शायद मेरी तरफ से कोई गुस्ताखी हो गई है जो आपने फिर फोन नहीं मिलाया। सोचिए ऐसी विनम्रता। मैंने उन्हें बताया कि फोन पर बहुत से दोस्तों ने आपको जन्म दिन की बधाईयां दी और जिनके फोन नहीं मिले उन्होंने एस.एम. एस. द्वारा शुभकामनाएं दीं।

निमाई हालदर ने गड़िया से।


रामबालक ने हुगली से लिखा - दिल की गहराईयों से विश कर रहा हूँ।


मोनिका ने लिखा - होठों पे हंसी, आँखों में नमी, तुम तो खुदा की अमानत हो, हैप्पी बर्थ डे टू यू


बार-बार दिन ये आए। लिखा - बुलटी ने।


सबीर सलीम ने भी मैसेज भेजा।

यानी कुल मिलाकर मुझे भी मज़ा आया परफॉर्म , आत्म संतुष्टि भी बहुत बड़ी चीज़ होती है। चूंकि तबीयत कल से नासाज़ है लेकिन मन अच्छा था और वैसे भी आज बहुत दिनों के बाद शाम को अंधेरा घिरने से पहले ही घर में एंट्री हो गई थी, तो आते-आते रास्ते में दृश्य - 2 की तुकबंदी सूझ गई। तुकबंदी ही है शायद। कविता या ग़ज़लें तो मेरे बस की बात नहीं।


दृश्य - 2


एक दिन किसी की दस्तक पर
दरवाज़ा खोला, कहा - सुस्वागतम् !
कानों में हौले से आवाज़ गूंजी - जी शुक्रिया !
पर अगले ही पल
'गुलज़ार' की नज़्म की तर्ज़ पर
यूं लगा, मानो ख़्वाब था।
हाँ ख़्वाब ही तो था शायद
जो रात के अंधेरे में, नींद के आगोश में

चुपके से दस्तक देता है
और सुबह के उजाले में
उड़नछू हो जाता है।


- नीलम शर्मा ' अंशु '

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