सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

29 अप्रैल 2009

मेरी, उनकी, हमारी बात - 1

साथियो ! 'संस्कृति सरोकार' एक ऐसा मंच है जिस पर आप भी अपनी बात रख सकते हैं । स्वागत है आप सबका। आप भी अपनी रचनाएं, आलेख fmrjneelamanshu@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। 'मेरी, उनकी, हमारी बात' कॉलम में हम इस बार इमरोज़ जी की रचनाएं शामिल कर रहे हैं। जाने-माने कलाकार-चित्रकार इमरोज़ किसी परिचय के मुहताज नहीं। उनके कला जगत से तो आप परिचित हैं ही, आईए मिलवाते हैं आपको कवि-शायर इमरोज़ से भी। वे न सिर्फ़ अपनी तूलिका से कमाल दिखाते हैं बल्कि अपनी कलम से भी। प्रस्तुत हैं यहां उनकी कुछ पंजाबी नज़्मों का हिन्दी रूपांतर-

1. नज्में

उड़ते क़ाग़ज़ों पर
मैंने नज़्में लिखीं
कितनी तुम तक पहुंची
और कितनी नहीं.....
पता नहीं।

2 . रब्ब

जिस ने ख़ुद
को गंवा लिया
उसने
रब्ब भी गंवा दिया।

3 . आसमा/घर

धरती पर
अपने-अपने
आसमां भी होते हैं.....
फूल, तितलयों के
पेड़ पंछियों के
ख़्याल अक्षरों के
सपने ज़िंदगी के
और प्यार प्यार का
आसमां होता है।

4 . दीदार

गैरहाज़िर को नहीं
हाज़िर को ही
दीदार हो जाता है
रब्ब का भी
ख़ुद का भी।

5. मुहब्बत

पाठ भी वही
जो बिना शब्द
अपने आप
होता रहे
मुहब्बत भी वही
जो चुपचाप
फूलों की भांति
ज़िंदगी में
महकती रहे।

6. सच

बादशाह भी
सच से डरता है
औरंगज़ेब से पूछ कर देख लें
परंतु सच
किसी से नहीं डरता
सरमद को सुन कर देख लें।

7 . शुक्रिया

जब तुम आ जाती हो
मन ही मन
मैं नाचता रहता हूं
तुम्हारे अस्तित्व के साथ....
जब तुम चली जाती हो
मेरे वज़ूद में
खुद-ब-खुद
तुम्हारे अस्तित्व का शुक्रिया
अदा होता रहता है........

8 . कविता

ज्यों-ज्यों
साहित्य में
कवि बढ़ते जा रहे हैं
जीवन से
कविता घटती जा रही है.......

साभार - पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'हुण'
(पंजाबी से रूपांतर - नीलम शर्मा 'अंशु' 30 - 04 - 2009)

24 अप्रैल 2009

सरोकार - यूं भी होती है ईश्वर की उपासना ! फ्लैश बैक - ( 3) जनसत्ता/कोलकाता, 28 नवंबर 1995


अड्डा!’ यानी कुछ लोगों का जमावड़ा । ख़ास तौर पर बंगाल में ‘अड्डा’ का प्रचलन बहुत है। यूं तो मनुष्य ऐसा प्राणी है जो हमेशा मिलजुल कर एक साथ रहना और वक्त गुज़ारना चाहता है । छोटे-बड़े, वृद्ध, सबका अपनी-अपनी उम्र के हिसाब से एक सर्कल होता है, जहां वे एक साथ मिलकर अपना खाली समय गुज़ारते हैं। इसके लिए तरह-तरह के पार्क या क्लबों की व्यवस्था भी होती है।
ऐसे में रेलवे स्टेशन तो सदा ही यात्रियों की भीड़ से घिरा रहता है। गाड़ियां आती हैं, जाती हैं, सवारियां अपनी-अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ जाती हैं। शाम के वक्त तो गहमा-गहमी और भी बढ़ जाती है। कोलकाता के सियालदह स्टेशन से 18 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले के उपनगर मध्यमग्राम के तीन नंबर प्लैटफार्म पर भी शाम को अच्छी-खासी गहमागहमी रहती है। यह बरबस ही आकर्षण का केंद्र बन जाती है। मन में उत्सुकता सी जगती है कि आख़िर वहां हो क्या रहा है ? इतनी भीड़ जमा है, लोग घिरे खड़े हैं। पास जाकर देखने पर पता चलता है कि कुछ बुजुर्ग नीचे बैठे हुए हैं, चारों तरफ मिली-जुली उम्र के लोग उन्हें घेरा डाले खड़े हैं। एक सज्जन वक्ता हैं, जिन्हें सभी ध्यान से सुन रहे हैं। वे कुछ वक्तव्य दे रहे हैं। यह कोई साधारण या कामचलाऊ बातचीत नहीं वरन् भक्ति रस से सराबोर गाथाएं सुनाई जा रही हैं। (उन दिनों टी. वी. चैनलों पर आज की भांति प्रवचनकर्ताओं की बाढ़ नहीं होती थी)। जी हां, ईष्ट देव की साधना, आराधना के लिए यह क़तई ज़रूरी नहीं कि वह बकायदा मंदिरों-मस्जिदों, गुरुद्वारों-आश्रमों के प्रांगणों में ही की जाए। सच्ची निष्ठा व मन में प्रभु की लगन रूपी जोत जल रही हो, मन निर्मल हो तो यह साधना कहीं भी की जा सकती है। कुछ ऐसा ही आयोजन प्लैटफॉर्म नंबर 3 पर नियमित रूप से शाम पांच से सात बजे तक होता है। खुले आसमां की छत के नीचे। गर्मी, बरसात की कोई परवाह नहीं। बारिश में छतरियां तान लोग तल्लीन हो सुनते। कोई फर्क़ नहीं पड़ता। कोई प्लैटफॉर्म टिकट भी नहीं लगता।
वक्ता है विनय कुमार सिकदर। कलकत्ते की मर्चेंट फर्म में इजीनियर थे, पांच वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुए। तब से ही नियमित रूप से वे शाम की इस सभा में शामिल हो रहे हैं । इस सभा में रामायण, महाभारत, गीता, श्री भागवत् व अन्य धार्मिक ग्रंथों की कथाओं पर विमर्श किया जाता है। शुरू-शुरू में बैठने वालों की पांच-छह थी मगर अब यह विशाल भीड़ का रूप धारण करती जा रही है। इस टाइम पास सभा में नियमित उपस्थित रहने वाले श्रोताओं में मध्यमग्राम निवासी हरिपद भौमिक का कहना है कि जब से सिकदर बाबू यहां बैठ रहे हैं, तब से ही मैं नियमित रूप से आ रहा हूं। वे बड़े अच्छे वक्ता हैं, अच्छी-अच्छी ज्ञानवर्द्धक धर्म कथाएं सुनाते हैं, सुनकर बड़ी तृप्ति होती है। मध्यमग्राम के श्रीनगर अंचल के सेवानिवृत्त वीरेन्द्र चंद्र चक्रवर्ती का कहना है कि समय कट जाता है। ये सब कथाएं स्कूल में पढ़ी थीं, अब रिवाइज़ हो रही हैं। मैं तो नियमित आ रहा हूं, आसपास से गुज़रने वाले भी चुंबक की भांति आकर्षित हो खिंचे चले आते हैं। कुछ अन्य बुजुर्ग भी हैं जो अपनी इस डेली रूटीन को नहीं भूलते। पच्चीस वर्षीय युवा वासुदेव राय भी नियमित रूप से इसमें शिरकत करते हैं। यह पूछे जाने पर कि आप अपने हमउम्र दोस्तो के साथ न रहकर इन बुजुर्गों के बीच क्यों आते हैं ? जवाब में वे कहते हैं कि मैं नहीं मानता कि उम्र की सीमा कोई मायने रखती है। यहां अच्छी कथाएं सुनकर मन को तृप्ति मिलती है, भविष्य के लिए काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है। श्रोताओं की इस प्रतिक्रिया को देखते हुए मुख्य वक्ता विनय कुमार सिकदर से भी बात-चीत की गई, प्रस्तुत है उसके कुछ अंश :-

० सेवानिवृत्ति के बाद समय गुज़ारने के लिए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है, आपने इसे ही क्यों चुना ?

= भगवान ने जन्म दिया है। 84 लाख योनियां भुगतने के बाद मानव जन्म मिलता है जो बड़ा ही दुर्लभ है। इतने दिन तो खाने-पीने गृहस्थी की ज़रूरतों को पूरा करने में गुज़ार दिए। अब थोड़ा सा समय धर्म-कर्म को अर्पित करता हू। मेरा मानना है कि चौबीस घंटों में अगर मैं मैं दो घंटे रोज़ाना धर्म को समर्पित करता हूँ तो यही मेरे जीवन की सार्थकता है। पुत्र का कर्तव्य है कि वृद्धावस्था में माता-पिता को धर्म ग्रंथों का पाठ सुनाए। मैं अपने जीवन में मात-पिता के प्रति इस कर्तव्य को निभा नहीं पाया। अब मैं इन श्रोताओं को ही अपने माता- पिता मान उस कर्तव्य का निर्वाह कर रहा हूं जो पहले नहीं कर पाया। भगवान ने मुझे इतनी सामर्थ्य नहीं दी कि मैं आर्थिक रूप से किसी की सहायता कर सकूं। तो इस तरह हरिनाम की कथा सुनाकर उनका कुछ उपकार कर सकूं, तो मुझे आत्मिक संतुष्टि होगी.

० यहां बैठते हुए असुविधा नहीं ?
= थोड़ी-बहुत तो ज़रूर होती है। खुले आसमां के नीचे बैठते हैं। ऊपर से प्लेन और पास से ट्रेनें गुज़रती हैं। गुरु नाम का स्मरण करता हूं। नाम की शक्ति की महत्ता से यह वातावरण भी सुखद बन पड़ा है, क्योंकि है बैठते-बैठते आदत सी हो गई है। अब प्लेन व ट्रेन का शोरगुल ज़्यादा प्रभावित नहीं करता।
कुछ लोगों ने अपने घरों में जगह की पेशकश की थी परंतु यहां हम उन्मुक्त भाव से बैठ पाते हैं। किसी के घर जाकर बैठने से बंधन सा महसूस होता है। यहां लोग अपनेपन से खिंचे चले आते हैं उन्मुक्त भाव से। दूसरी जगह जाने पर उन्हें विशेष रूप से जाना पड़ेगा। श्रोताओं में कई ऐसे भी हैं जो ट्रेन(लोकल) की प्रतीक्षा करते-करते हमारी इस सभा में शामिल हो जाते हैं और ट्रेन आते ही उसमें चढ़कर अपने गंतव्य को चले जाते हैं। ट्रेन की प्रतीक्षा में उनके समय का भी सदुपयोग हो जाता है।

0 आज सारी दुनिया में अशांति का बोलबाला है, ऐसे में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है आपके विचार में ?
= आज ही नहीं, अशांति तो संसार में सदा से ही रही है। इतिहास में काफ़ी उदाहरण मिलते हैं। अशांति न होती तो कुरुक्षेत्र का युद्ध क्यों होता ? हां, धर्म शांति-दूत का काम कर सकता है, हमारा पथ-प्रदर्शक है बशर्तें हम शांति की आकांक्षा रखते हों।

0 आज का युवा वर्ग तो फ़िल्मों, टीवी, केबल टीवी, इंटरनेट की सतरंगी दुनिया में रमा हुआ है, धर्म के प्रति उसमें रुचि के क्या कोई आसार दिखते हैं ?
= ऐसी बात नहीं है। मेरे श्रोताओं में कुछ युवक भी नियमित आते हैं। नि:संदेह उन्हें धर्म संबंधी यह वार्तालाप अच्छा लगता होगा, तभी तो आते हैं।
दूसरी बात यह कि जीवन की चार अवस्थाएं है। युवा वर्ग वृद्धावस्था में जब कदम रखेगा, तब अपनी जिम्मेदारियों से स्वयं को मुक्त समझेगा तो उसका मन स्वत: ही धर्म की ओर उन्मुख होगा। यूं यह तो कलियुग है। कलियुग अपना प्रभाव तो दिखाएगा ही। जब समय आता है तो भगवान खुद ही मन में लगन उत्पन्न कर देता है।
वि. द्र. - यह आलेख व बातचीत नवंबर 1995 की है। 28 नवंबर को प्रकाशित होने के बाद उस ग्रुप ने बकायदा अपनी सभा में एक दिन मुझे आमंत्रित कर यह कहते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया कि बेटा ! आपने हम पर लिखने की पहल की वह भी हिन्दी के अखबार ने, आज तक बांग्ला के किसी पत्रकार ने हम बूढ़ों की सुध लेने की ज़रूरत नहीं समझी। मैंने अकतूबर 1997 में मध्यमग्राम छोड़ दिया था, अब पता नहीं आज वह सभा ज्यों की त्यों जारी है या नहीं -अंशु (26 - 4 - 2009)

23 अप्रैल 2009

‘एडस्’ पर पहली हिन्दी फीचर फिल्म - - फ्लैश बैक - (1) जनसत्ता/कोलकाता/09-2-1996

एडस् ’ ! यह नाम जुबां पर आते ही बदन में सनसनी सी दौड़ जाती है। यह बीमारी अनजाने में ही मनुष्य को अपनी जकड़ में ले लेती है और उसे मौत के मुंह में धकेल देती है। यद्यपि लोगों में जागृति उत्पन्न करने के लिए इस विषय से संबंधित काफ़ी प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, तरह-तरह के प्रचार माध्यम अपनाए जा रहे हैं, फिर भी यह स्थिति ज्यों की त्यों हैं। ‘भारतीय दर्शक बाल सुलभ ही हैं, वे कड़वी गोली को तब तक निगलते रहेंगे, जब तक उस पर मिठास की परत है। ’ यह कहना है जाने-माने फिल्म निर्माता चेतन आनंद का जिन्हें इकबाल चन्ना अपना ‘गुरु’ मानते हैं। ऐसे गंभीर और ज्वलंत विषय पर वृत्तचित्र बनाने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि वृत्तचित्र लोगों का ध्यान कम ही आकर्षित कर पाते हैं, ऐसा मानना है इकबाल का । व्यापक स्तर पर सामाजिक जागरूकता उत्पन्न करने के लिए फीचर फिल्में ही आदर्श माध्यम हैं । इस रोग के विषय में अधिक से अधिक प्रचार और जानकारी उपलब्ध करवाना ही इकबाल का उद्देश्य है क्योंकि इसका सामना करने का एकमात्र यही उपाय है। इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास है – द्विभाषी फीचर फिल्म ‘नया तोहफा’जो कि पंजाबी और हिन्दी में साथ-साथ बन रही है। ‘नया तोहफा’ पंजाबी कथाकार जसवंत सिंह विरदी की कहानी पर आधारित है। यह कथा समाज की दो विशाल समस्याओं, एडस् व अधिकार हनन की प्रताड़ना पर रौशनी डालती है । एडस् संक्रमण का मुख्य शिकार है ‘ट्रक चालक वर्ग’। ‘नया तोहफा’ की कथावस्तु एक समृद्ध ट्रक-मालिक-चालक बलबीर सिह(अवतार गिल) पर केंद्रित है जो अपनी लापरवाही के कारण एचआईवी से संक्रमित पाया जाता है। निरीक्षण करने पर उसे जहां एडस् से प्रभावित बताया जाता है वहीं उसकी पत्नी रेशम(कुलबीर बडेसरों) को पूर्णत: स्वस्थय और एडस् रहित करार दिया जाता है। पति की यौन संबंधी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए रेशम, नौकरानी संतो(साहिबा) को रख लेती है। मासूम और निरीह संतो भी इस घातक रोग की शिकार हो जाती है। धूर्त पत्नी इस घृणित कांड को पारिवारिक प्रतिष्ठा की आड़ में छुपाए रखती है पर वह तब टूट जाती है जब उसे अपनी इस गोपनीय धूर्तता की बड़ी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है । जब उसके पति की मृत्यु के पश्चात् उसका नौजवान बेटा भी संतो में रुचि लेना शुरु कर देता है और एचआईवी से संक्रमित होकर मौत के क़गार पर आ जाता है।रेशम क्रोध और घृणा से संतो को घर से निकाल देती है। अब अभागी युवती को गांववासियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। वह अस्पताल में दम तोड़ देती है तथा उसे ‘प्रथम एडस् पीड़ित’ करार दिया जाता है। और इस तरह उन सभी लोगों के दिलों में भय छा जाता है जिन्होंने उसके साथ शारीरिक संबंध रखे थे। ‘यह विषय काफ़ी मजबूत पकड़ वाला है, इसलिए फिल्म निश्चित रूप से सफल होगी’, आशावादी लहज़े में कहते हैं इकबाल। इस शिक्षाप्रद मनोरंजक फिल्म में मशहूर संगीतकार रवि के निर्देशन में छह गीत हैं।ज़्यादातर आऊटडोर शूटिंग मध्यप्रदेश के दुर्ग-भिलाई के हाईवे की है, जहां राह किनारे वेश्यावृत्ति सरेआम प्रचलित है। इसलिए अपने गुरु चेतनजी (जिनसे पांच सालों तक इकबाल चन्ना ने प्रशिक्षण लिया) की भांति यथार्थ और रोमांस में संतुलन बनाए रखने में चन्ना प्रयासरत हैं। चन्ना ने भारतीय स्वास्थय संस्थान के डॉक्टरों से विस्तृत विचार-विमर्श के बाद इस फिल्म का निर्माण किया है। प्रोड्यूसर हैं बलबीर झाज। कलाकार हैं – अवतार गिल, कुलबीर बडेसरों व साहिबा। कथाकार – जसवंत सिंह विरदी और पटकथा लेखक हैं कुलदीप बेदी और जे़ड ए जौहर। - नीलम शर्मा ‘अंशु’

मुलाक़ात ( 1 ) - मैं सब कुछ मिलकर गुलज़ार हूँ !

 फ्लैश बैक (2)

अभी हाल में ही ऑस्कर अवॉर्ड समारोह संपन्न हुआ। स्लमडॉग मिलिनेयर के बहुत चर्चे हुए। ए. आर. रहमान के संगीत का जादू हर एक के सर चढ़ कर बोला। रहमान और भारतीय संगीत का काफ़ी जय-जयकार हुई। ‘जय हो’ के द्वारा गुलज़ार भी सम्मानित हुए। चलिए ज़रा फ्लैश-बैक में चलते हैं और शेयर करते है 17 अगस्त 2004 को उनके जन्मदिन से एक दिन पहले शायर गुलज़ार से फोन पर हुई बात-चीत के अंश –



अंशु - आपने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबी पारी खेली है और यह अभी बदस्तूर जारी है। गीतकार, पटकथा लेखन, निर्देशन, दूरदर्शन के लिए धारावाहिकों का निर्माण हर क्षेत्र में आपने कदम रखा । फिल्म निर्देशन के माध्यम से आपने खा़स-खा़स विषयों को लिया। ज्वलंत मुद्दों पर माचिस जैसी फिल्म बनाई। भविष्य में ऐसे किस मुद्दे या समस्या पर आप फिल्म बनाना चाहेंगे जो आपको उद्वेलित करते हों ?


गुलज़ार - माचिस तो काफ़ी पीछे छूट गई, 1995 की बात है। उसके बाद हु-तु-तु बनाई। आज़ादी के 50 सालों की कहानी है कि किस तरह एक मासूम टीचर को आहिस्ता-आहिस्ता सत्ता का नशा लगता है और वह चीफ मिनिस्टर बन जाता है। एक आम शहरी की नज़र से हमने इस सत्ता को बदलते देखा है और कहां तक पहुंचे हैं, इसकी दास्तां थी हु-तु-तु। एक छोटा सा मसला है पीने के पानी का, जो हम आज भी मुहैया नहीं करवा पाए। वो आज भी ज्यों का त्यों है। फिर हमारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं जगह-जगह। अपनी मुफलिसी की वजह से बच्चों की खरीद-फ़रोख्त कर रहे हैं। तो मुंशी प्रेमचंद की धनिया और होरी याद आए। पंजाब की हालत आप देख लीजिए या आंध्रप्रदेश की। कावेरी के पानी और सतलुज-जमुना लिंक नहर को लेकर हडकंप मचा हुआ है। किसान बेचारे को कोई नहीं पूछता। सियासी झगड़े चलते रहते हैं। हर साल सूखा भी पड़ता है और बाढ़ भी आती है। तो आदमी तो रिएक्ट करता ही है लेखक के तौर पर और फिल्म मेकर के तौर पर। मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में इन मसलों पर उँगली रखी थी, गोदान जैसा उपन्यास लिखा था, ठाकुर का कुआँ लिखा था, कफ़न जैसी कहानी लिखी थी, 70 बरस गुज़र गए वो तमाम मसले वैसे के वैसे बने रहे। मैंने मुंशी प्रेमचंद के काम को 13 घंटों में फिल्माया है, जो आजकल दूरदर्शन पर चल रहा है।


अंशु - आप के भीतर तो बहुत सी चीजें समाई हुई हैं – गीतकार गुलज़ार है, स्क्रिप्ट लेखक गुलज़ार, बच्चों के लिए गीत लिखने वाले गुलज़ार, बोस्की का पंचतंत्र, पुखराज और रावी पार जैसी साहित्यिक कृतियों के लेखक गुलज़ार। इनमें संपूर्ण सिंह उर्फ़ गुलजा़र मूल रूप से खुद को क्या मानते हैं ?


गुलज़ारये तो मुश्किल सवाल किया है आपने । मैं एक बेटी का बाप हूं, एक पत्नी का पति हूं, मां का बेटा हूं, भाई का भाई हूं, बहन का भाई हूं, तो आप मूल किसे मानेंगी ? मैं सब मिलकर गुलज़ार हूं।


अंशु - पुराने नगमें आज भी दिलों पर छाप छोड़ते हैं, लोग आज भी गुनगुनाना पसंद करते हैं जबकि आज के गीत दो-तीन महीनों बाद गायब हो जाते हैं, क्या आप ऐसा महसूस करते हैं ?


गुलज़ार - गीतकार को अलग से नहीं देख सकता मैं। क्या फिल्में आपको तसल्लीबख्श लगती हैं। अगर फिल्में तसल्लीबख्श नहीं है तो गानों या गीतकार का क्या कसूर ? क्या म्युज़िक तसल्लीबख्श लगता है आपको ?


अंशु – एक चीज़ और जो इन दिनों देखने में आ रही है, पुराने हिट और पॉपुलर गानों को नए अंदाज़ में बतौर रिमिक्स पेश किया जा रहा है, क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि हमारी नई जेनरेशन को देने के लिए हमारे पास नया कुछ नहीं है, हम पुराने को ही नए रूप में परोस रहे हैं, इसे किस रूप में लेना चाहिए ?


गुलज़ार - कह नहीं सकता । हर दौर में क्रिएटिविटी तो होती है। ये भी नहीं कि आज की जेनरेशन के पास कुछ नहीं है। उसके पास भी बहुत कुछ है कहने के लिए, लेकिन जो कह पाते हैं वो कह रहे हैं। जैसे रहमान साहब हैं, बहुत खूबसूरत काम कर रहे हैं। विशाल भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। जिनके पास कुछ नहीं है वे दूसरों का परोसा हुआ पेश कर रहे हैं। है वो सरासर नाइंसाफ़ी क्योंकि जब भी पुराने शहरों की इतिहास खुदाई होती है, तो वहां उस दौर के मटके- मटकियां. सिक्के, दीवारों या चट्टानों पर अभिलेख आदि से उस सभ्यता का अंदाज़ा लगाया जाता है कि वो सभ्यता कैसी थी। उसमें मिश्रण करे दें या तोड़-मरोड़ दें या मिलावट कर दे तो वह इतिहास नहीं रह जाएगा। ये जो जुल्म हो रहा है जिसे आप रिमिक्स कहती हैं, ये इतिहास के साथ खिलवाड़ है। अगर रवीन्द्र संगीत में आज के इलैक्ट्रॉनिक्स डाल दें तो उस दौर की रिकॉर्डिंग तो खराब हो गई, वह तो गायब हो गया, पॉल्यूट हो गया। मुझे तो ये गुनाह लगता है।


अंशु – इसीसे जुड़ी एक बात और। आजकल डिजीटल तकनीक से ब्लैक एडं व्हाईट फिल्मों जैसे मुगल-ए-आज़म, नया दौर, मधुमति को रंगीन बनाया जा रहा है, इसे आप किस रूप में लेते हैं ?


गुलज़ार - उसकी क्या ज़रूरत थी ? हमें अपनी पुरानी गुफाओं में जो पेंटिंग्स मिलती हैं, अब अगर उन्हें रीपेंट कर दें तो, ओरिजिनैलिटी तो क्या, पूरे इतिहास का सत्यानाश कर दिया, है न ? पूरी तहज़ीब, पूरी सभ्यता को गर्क़ कर दिया आपने। यही हो रहा है। ब्लैक एंड व्हाईट का अपना दौर था, बड़ा रंगीन दौर था। ये फिल्में इसका प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें बिलकुल छेड़ने की ज़रूरत नहीं थी।


अंशु - गीतकार, शायर गुलज़ार हमारे कोलकाता के प्रशंसकों के लिए कौन सी पंक्तियां गुनगुनाना चाहेंगे ?

गुलज़ार - बेसुरा हूं, वर्ना गाकर बताता। साथिया का ‘चोरी चोरी नंगे पाँव जाना, अच्छा लगता है,’ पता नहीं आपको कैसे लगता है। दूसरा गीत ‘चुपके से’ तो बड़ा अच्छा लगता है।


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