‘अड्डा!’ यानी कुछ लोगों का जमावड़ा । ख़ास तौर पर बंगाल में ‘अड्डा’ का प्रचलन बहुत है। यूं तो मनुष्य ऐसा प्राणी है जो हमेशा मिलजुल कर एक साथ रहना और वक्त गुज़ारना चाहता है । छोटे-बड़े, वृद्ध, सबका अपनी-अपनी उम्र के हिसाब से एक सर्कल होता है, जहां वे एक साथ मिलकर अपना खाली समय गुज़ारते हैं। इसके लिए तरह-तरह के पार्क या क्लबों की व्यवस्था भी होती है।
ऐसे में रेलवे स्टेशन तो सदा ही यात्रियों की भीड़ से घिरा रहता है। गाड़ियां आती हैं, जाती हैं, सवारियां अपनी-अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ जाती हैं। शाम के वक्त तो गहमा-गहमी और भी बढ़ जाती है। कोलकाता के सियालदह स्टेशन से 18 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले के उपनगर मध्यमग्राम के तीन नंबर प्लैटफार्म पर भी शाम को अच्छी-खासी गहमागहमी रहती है। यह बरबस ही आकर्षण का केंद्र बन जाती है। मन में उत्सुकता सी जगती है कि आख़िर वहां हो क्या रहा है ? इतनी भीड़ जमा है, लोग घिरे खड़े हैं। पास जाकर देखने पर पता चलता है कि कुछ बुजुर्ग नीचे बैठे हुए हैं, चारों तरफ मिली-जुली उम्र के लोग उन्हें घेरा डाले खड़े हैं। एक सज्जन वक्ता हैं, जिन्हें सभी ध्यान से सुन रहे हैं। वे कुछ वक्तव्य दे रहे हैं। यह कोई साधारण या कामचलाऊ बातचीत नहीं वरन् भक्ति रस से सराबोर गाथाएं सुनाई जा रही हैं। (उन दिनों टी. वी. चैनलों पर आज की भांति प्रवचनकर्ताओं की बाढ़ नहीं होती थी)। जी हां, ईष्ट देव की साधना, आराधना के लिए यह क़तई ज़रूरी नहीं कि वह बकायदा मंदिरों-मस्जिदों, गुरुद्वारों-आश्रमों के प्रांगणों में ही की जाए। सच्ची निष्ठा व मन में प्रभु की लगन रूपी जोत जल रही हो, मन निर्मल हो तो यह साधना कहीं भी की जा सकती है। कुछ ऐसा ही आयोजन प्लैटफॉर्म नंबर 3 पर नियमित रूप से शाम पांच से सात बजे तक होता है। खुले आसमां की छत के नीचे। गर्मी, बरसात की कोई परवाह नहीं। बारिश में छतरियां तान लोग तल्लीन हो सुनते। कोई फर्क़ नहीं पड़ता। कोई प्लैटफॉर्म टिकट भी नहीं लगता।
वक्ता है विनय कुमार सिकदर। कलकत्ते की मर्चेंट फर्म में इजीनियर थे, पांच वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुए। तब से ही नियमित रूप से वे शाम की इस सभा में शामिल हो रहे हैं । इस सभा में रामायण, महाभारत, गीता, श्री भागवत् व अन्य धार्मिक ग्रंथों की कथाओं पर विमर्श किया जाता है। शुरू-शुरू में बैठने वालों की पांच-छह थी मगर अब यह विशाल भीड़ का रूप धारण करती जा रही है। इस टाइम पास सभा में नियमित उपस्थित रहने वाले श्रोताओं में मध्यमग्राम निवासी हरिपद भौमिक का कहना है कि जब से सिकदर बाबू यहां बैठ रहे हैं, तब से ही मैं नियमित रूप से आ रहा हूं। वे बड़े अच्छे वक्ता हैं, अच्छी-अच्छी ज्ञानवर्द्धक धर्म कथाएं सुनाते हैं, सुनकर बड़ी तृप्ति होती है। मध्यमग्राम के श्रीनगर अंचल के सेवानिवृत्त वीरेन्द्र चंद्र चक्रवर्ती का कहना है कि समय कट जाता है। ये सब कथाएं स्कूल में पढ़ी थीं, अब रिवाइज़ हो रही हैं। मैं तो नियमित आ रहा हूं, आसपास से गुज़रने वाले भी चुंबक की भांति आकर्षित हो खिंचे चले आते हैं। कुछ अन्य बुजुर्ग भी हैं जो अपनी इस डेली रूटीन को नहीं भूलते। पच्चीस वर्षीय युवा वासुदेव राय भी नियमित रूप से इसमें शिरकत करते हैं। यह पूछे जाने पर कि आप अपने हमउम्र दोस्तो के साथ न रहकर इन बुजुर्गों के बीच क्यों आते हैं ? जवाब में वे कहते हैं कि मैं नहीं मानता कि उम्र की सीमा कोई मायने रखती है। यहां अच्छी कथाएं सुनकर मन को तृप्ति मिलती है, भविष्य के लिए काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है। श्रोताओं की इस प्रतिक्रिया को देखते हुए मुख्य वक्ता विनय कुमार सिकदर से भी बात-चीत की गई, प्रस्तुत है उसके कुछ अंश :-
० सेवानिवृत्ति के बाद समय गुज़ारने के लिए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है, आपने इसे ही क्यों चुना ?
= भगवान ने जन्म दिया है। 84 लाख योनियां भुगतने के बाद मानव जन्म मिलता है जो बड़ा ही दुर्लभ है। इतने दिन तो खाने-पीने गृहस्थी की ज़रूरतों को पूरा करने में गुज़ार दिए। अब थोड़ा सा समय धर्म-कर्म को अर्पित करता हू। मेरा मानना है कि चौबीस घंटों में अगर मैं मैं दो घंटे रोज़ाना धर्म को समर्पित करता हूँ तो यही मेरे जीवन की सार्थकता है। पुत्र का कर्तव्य है कि वृद्धावस्था में माता-पिता को धर्म ग्रंथों का पाठ सुनाए। मैं अपने जीवन में मात-पिता के प्रति इस कर्तव्य को निभा नहीं पाया। अब मैं इन श्रोताओं को ही अपने माता- पिता मान उस कर्तव्य का निर्वाह कर रहा हूं जो पहले नहीं कर पाया। भगवान ने मुझे इतनी सामर्थ्य नहीं दी कि मैं आर्थिक रूप से किसी की सहायता कर सकूं। तो इस तरह हरिनाम की कथा सुनाकर उनका कुछ उपकार कर सकूं, तो मुझे आत्मिक संतुष्टि होगी.
० यहां बैठते हुए असुविधा नहीं ?
= थोड़ी-बहुत तो ज़रूर होती है। खुले आसमां के नीचे बैठते हैं। ऊपर से प्लेन और पास से ट्रेनें गुज़रती हैं। गुरु नाम का स्मरण करता हूं। नाम की शक्ति की महत्ता से यह वातावरण भी सुखद बन पड़ा है, क्योंकि है बैठते-बैठते आदत सी हो गई है। अब प्लेन व ट्रेन का शोरगुल ज़्यादा प्रभावित नहीं करता।
कुछ लोगों ने अपने घरों में जगह की पेशकश की थी परंतु यहां हम उन्मुक्त भाव से बैठ पाते हैं। किसी के घर जाकर बैठने से बंधन सा महसूस होता है। यहां लोग अपनेपन से खिंचे चले आते हैं उन्मुक्त भाव से। दूसरी जगह जाने पर उन्हें विशेष रूप से जाना पड़ेगा। श्रोताओं में कई ऐसे भी हैं जो ट्रेन(लोकल) की प्रतीक्षा करते-करते हमारी इस सभा में शामिल हो जाते हैं और ट्रेन आते ही उसमें चढ़कर अपने गंतव्य को चले जाते हैं। ट्रेन की प्रतीक्षा में उनके समय का भी सदुपयोग हो जाता है।
0 आज सारी दुनिया में अशांति का बोलबाला है, ऐसे में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है आपके विचार में ?
= आज ही नहीं, अशांति तो संसार में सदा से ही रही है। इतिहास में काफ़ी उदाहरण मिलते हैं। अशांति न होती तो कुरुक्षेत्र का युद्ध क्यों होता ? हां, धर्म शांति-दूत का काम कर सकता है, हमारा पथ-प्रदर्शक है बशर्तें हम शांति की आकांक्षा रखते हों।
0 आज का युवा वर्ग तो फ़िल्मों, टीवी, केबल टीवी, इंटरनेट की सतरंगी दुनिया में रमा हुआ है, धर्म के प्रति उसमें रुचि के क्या कोई आसार दिखते हैं ?
= ऐसी बात नहीं है। मेरे श्रोताओं में कुछ युवक भी नियमित आते हैं। नि:संदेह उन्हें धर्म संबंधी यह वार्तालाप अच्छा लगता होगा, तभी तो आते हैं।
दूसरी बात यह कि जीवन की चार अवस्थाएं है। युवा वर्ग वृद्धावस्था में जब कदम रखेगा, तब अपनी जिम्मेदारियों से स्वयं को मुक्त समझेगा तो उसका मन स्वत: ही धर्म की ओर उन्मुख होगा। यूं यह तो कलियुग है। कलियुग अपना प्रभाव तो दिखाएगा ही। जब समय आता है तो भगवान खुद ही मन में लगन उत्पन्न कर देता है।
वि. द्र. - यह आलेख व बातचीत नवंबर 1995 की है। 28 नवंबर को प्रकाशित होने के बाद उस ग्रुप ने बकायदा अपनी सभा में एक दिन मुझे आमंत्रित कर यह कहते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया कि बेटा ! आपने हम पर लिखने की पहल की वह भी हिन्दी के अखबार ने, आज तक बांग्ला के किसी पत्रकार ने हम बूढ़ों की सुध लेने की ज़रूरत नहीं समझी। मैंने अकतूबर 1997 में मध्यमग्राम छोड़ दिया था, अब पता नहीं आज वह सभा ज्यों की त्यों जारी है या नहीं -अंशु (26 - 4 - 2009)
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