सुस्वागतम्

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26 जून 2010


जाने-माने संगीतकार राहुल देव बर्मन साहब का आज( जून 27) जन्म दिन है, समवेत स्वर उन्हें सलाम करता है।



25 को जाने माने संगीतकार मदन मोहन साहब का जन्म दिन था। एफ. एम. रेनबो पर उस दिन मेरा प्रोग्राम था। मैंने जून में जन्में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के मुख्य-मुख्य कलाकारों को लेकर एक घंटे का प्रोग्राम किया। सोचा था एफ. एम गोल्ड वाले कार्यक्रम में पूरा प्रोग्राम मदन मोहन साहब पर करूंगी। गोल्ड पर उस दिन सुबह वाघा बॉर्डर से क्वींस बेटन रिले का प्रसारण दिल्ली केन्द्र से हो रहा था। रिले प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरे हिस्से केवल पंद्रह मिनट का वक्त आया जिसमें तीन -चार विज्ञापन भी बजने थे। तो सिर्फ़ तीन ही गीत बज पाए, मदन मोहन साहब पर जिस तरह प्रोग्राम मन ही मन तय किया था, समय की कमी के कारण सिरे नहीं चढ़ पाया।


अब याद करते हैं अन्य कलाकारों को -

6 जून - सुनील दत

6 - गीतकार राजेन्द्र कृष्ण
8 - डिंपल कपाड़िया, शिल्पा शेट्टी
13 - गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन
15 - सुरैय्या
16 - मिठुन चक्रवर्ती
22 - अमरीश पुरी
23 - राज बब्बर
25 - करिश्मा कपूर
30 - कल्याण जी संगीतकार

20 जून 2010


22 जून जन्मदिन पर याद करते हुए......

आज से तीस वर्ष पूर्व 1980 में रिलीज़ हुई थी अब तक की एकमात्र राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त पंजाबी फ़िल्म चन्न परदेसी, जिसे देखने का मौका मिला था 1981 में।

उन दिनों संभवत: स्कूल की फाइनल परीक्षा के बाद छुट्टियों में बड़ी बुआ के घर फगवाड़ा जाना हुआ था। फुफेरी बहन ने भईया से फिल्म दिखाने को कहा। मुझे उन दिनों फ़िल्में देखने का क़तई शौक नहीं था, बेदिली से मैं उनके साथ गई। अब तो सिनेमा हॉल का नाम तक याद नहीं, यह भी याद नहीं कि हॉल शहर के किस हिस्से में था। ख़ैर चित्रार्थ निर्देशित इस फिल्म के नायक थे राज बब्बर, नायिका थीं ऋचा शर्मा। अन्य कलाकार थे, ओम पुरी, रमा विज, सुष्मा सेठ तथा अमरीश पुरी। अमरीश पुरी गाँव के जागीरदार जोगिन्दर सिंह की भूमिका में थे। अमरीश पुरी अभिनीत पहली फिल्म देखी थी यह मैंने। फ़िल्म में मुझे बस ओम पुरी का एक ही सीन पसंद आया था, जगीरदार जी मेरी चवान्नी।
(फिल्म में जागीरदार के कर्मचारी होने के नाते संभवत: वे ईनामस्वरूप चवन्नी लिया करते थे।) फिल्म देख कर अमरीश पुरी के बारे मन में बेहद ख़राब इमेज बनी। कहते हैं न फर्स्ट इम्प्रेशन इज़ द लास्ट इम्प्रेशन। फिर धीरे-धीरे उन्हें कई भूमिकाओं में अलग-अलग फ़िल्मों में देखा। 2001 में अचानक एक दिन टी।वी. चैनेल घुमाते-घुमाते किसी चैनेल पर पंजाबी स्टाईल का गीत बजता देखा। राजबब्बर पर्दे पर नज़र आए। मैं हमेशा कहा करती थी कि मैंने कभी राज साहब को मुस्कुराते नहीं देखा, अगर कभी किसी फिल्म में दिख भी गए तो मुझे उनकी मुस्कान भी बनावटी सी लगी। उत्सकुतावश वह चैनेल देखना शुरू किया तो पता चला कि यह चन्न परदेसी का ही हिन्दी संस्करण था – सुहाग की क़ीमत। पूरे इक्कीस वर्षों बाद उसी फिल्म को दुबारा देख मन भावुक हो उठा। अमरीश पुरी साहब के किरदार में मन पर दुबार पहले वाली ही छाप छोड़ी यानी पूरी नेगेटिव। चन्न परदेसी के बाद वे मुझे वे कभी पसंद नहीं आए।


जून 2001 में अचानक एक दिन पता चला कि अमरीश जी कोलकातावासी फिल्म निर्देशक गुलबहार सिंह की फिल्म सिक्सर की शूटिंग के सिलसिले में कोलकाता में ही हैं। जा पहुंची शूटिंग स्थल पर जो कि निर्देशक के आवासीय परिसर में ही था। शॉट देकर अमरीश जी अगले शॉट के बुलावे तक कमरे में बैठे आराम फरमा रहे थे। मुझे भी उनसे अप्वॉंयटमेंट लेना था, सो जाकर उन्हें नॉक किया। वे एक फ्री लांसर को इंटरव्यू दे रहे थे। अंदर जाकर मैंने उनका अभिवादन किया, उन्होंने हाथ मिलाया। मिलते ही मैंने पंजाबी में कहा, चन्न परदेसी में आपकी ऐकटिंग पहली बार देखी, तो मन में बहुत बुरी इमेज बनी। उन्होंने मुस्करा कर पूछा, कितनी बुरी? मैंने कहा जितनी बुरी लग सकती थी, उससे भी कहीं बुरी। उनके चेहरे पर खुशी झलक रही थी यानी उन्होंने अपने किरदार के साथ इतना न्याय किया था कि मुझ जैसे दर्शक का हृदय उस विलेन के प्रति नफ़रत और कड़वाहट से इस क़दर भर गया था कि दिल में एक बुरी इमेज ने जगह बना ली थी जो बाद में विभिन्न अच्छी चरित्र भूमिकाओं पर भी हावी रही। यही तो अच्छे कलाकार की सफलता और संपूर्णता है। हां, यह कहते मुझे मोगैंबों से बिलकुल डर नहीं लगा। मैंने बहुत ही फ्रैंकली अपने विचार व्यक्त किए थे। मैंने कहीं पढ़ रखा था कि एक बार वे चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में गए थे तो लड़कियां उन्हें देख कर दूर भाग रही थीं। मैंने जब इस विषय में पूछा तो उन्होंने कहा, अब नहीं भागतीं, अब लड़कियां समझदार हो गई हैं। बातचीत के क्रम में मैंने उनसे पूछा कि आप मूलत: पंजाब के किस शहर से हैं, जवाब में उन्होंने गुरदासपुर बताया। मैंने उनसे कहा कि मैंने तो नवांशहर सुन रखा था तो उन्होंने कहा कि वहां मेरी ननिहाल है। चूँकि उन्हें अगला शॉट देने जाना था इसलिए हम खड़े-खड़े ही बात कर रहे थे। जैसे ही मैंने उन्हें बताया कि मैंने नवांशहर से मैट्रिक और ग्रेजुएशन किया है तो उन्होंने तपाक से दुबारा हाथ मिलाया और कहा – बैठो। जैसे ही उन्होंने बैठने के लिए कहा तो मैंने कहा ज़रा मैं अपने छोटे भाई को भी बुला लूं, बाहर खड़ा है। भाई अंदर आया तो उन्होंने उससे भी हाथ मिलाया। भाई ने भी वही बात कही कि आपक चन्न परदेसी में पहली बार देखा था। तो उन्होंने कहा तुम्हारी दीदी भी यह कह रही थी। उसने कहा फर्क़ यह है कि दीदी ने फिल्म सिनेमा हॉल में देखी थी और मैंने बड़े होकर टी। वी पर। चूँकि मुझे मालूम था कि वे रिकॉर्डिंग की अनुमति नहीं देते इसलिए मैंने उनसे पूछा कि मैं कल किस वक्त आऊँ क्योंकि मुझे अपने रेडियो एफ। एम के श्रोताओं के लिए इंटरव्यू रिकॉर्ड करना है और कुंदन लाल सहगल साहब के बारे में भी आपसे बातें करनी है। उन्होंने कहा, कल तो मैं वापस जा रहा हूँ। तुम अपना कॉन्टैक्ट तथा पता दे दो मैं जब अदली बार कलकत्ते आऊँगा तो ज़रूर समय दूंगा। मैं मन ही मन सोच रही थी कि पता नहीं इतने बड़े कलाकार को अगली बार कोलकाता आने तक अपना वादा याद भी रहेगा या नहीं ये तो वक्त ही जाने। ख़ैर इस छोटी सी मुलाक़ात में कोलकाता में किसी पत्रकार से अपनी ज़बान में बातचीत कर उन्हें जो सकुन मिला उसे हम भाई बहन ने बखूबी महसूस किया। उनकी गर्मजोशी सब कुछ बयां कर रही थी। यकीन मानिए इस सहज मुलाक़ात के बाद कलाकार के रूप में अमरीश पुरी साहब की जो विलेन वाली छवि मन में घर किए हुए थी, पता नहीं कहां काफूर हो गई। ये सारी बातचीत महज़ दस मिनटों में हुई होगी, मुझे ऑफिस जाने की जल्दी भी थी । मैंने कहा था अगर आप कल का समय देते हैं तो मैं कल ऑफिस से छुट्टी लेकर आपसे मिलने आऊँगी। उन्होंने ठेठ पंजाबी में कहा, अज्ज दफ्तरों गुलाटी मार के आई एं। मैंने कहा जी हाँ – बिलकुल। लेकिन अगले दिन तो उनकी वापसी थी। ख़ैर ये छोटी सी मुलाक़ात मुझे हमेशा याद रहेगी, इसके पहले सक्रीन पर उनकी शक्ल देखते ही दिमाग गर्म हो जाता था लेकिन इस मुलाकात के बाद वह इमेज धुल गई। कुछ ऐसा ही मुनमुन सेन के मामले में भी थी। मुझे वे पसंद नहीं थीं। एक बार उनसे इंटरव्यू का समय मांगा तो उन्होंने कहा अगले दिन सुबह अपने घर आने के लिए कहा। उनसे बातचीत करके भी मन में बनी उनकी छवि बदल गई। दरअसल मैं हमेशा सुचित्रा सेन की इमेज से उन्हें तौला करती थी। इस वाक्ये का ज़िक्र फिर कभी।


ख़ैर अमरीश साहब को फिर कभी कलकत्ते आने का मौका ही नहीं मिला। 25 जनवरी 2005 को उनका निधन हो गया। 22 जून 1932 को पिता लाला निहाल चंद और माता वेद कौर की तीसरी संतान अमरीश साहब का नवांशहर स्थित ननिहाल के घर में जन्म हुआ था। रंगमंच से उन्होंने अभिनय की शुरूआत की और कई साल रंगमंच पर अभिनय के जलवे बिखेरने के बाद लाइफ बिगिन्स आफ्टर फौर्टी तो इसी तर्ज़ पर चालीस की उम्र में उन्हें फिल्मों में क़दम रखने का मौका मिला। और विभिन्न फिल्मों में उनकी विविध भूमिकाओं से तो आप भलीभांति परिचित हैं चाहे वो मिस्टर इंडिया का मोगैंबो हो या दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के पिता। उनके जन्मदिन पर यह थी समवेत स्वर पर यादों की छोटी सी श्रद्धांजलि।

मज़े की बात यह है कि अगले दिन 23 जून को राजबब्बर साहब का जन्मदिन है तो उन्हें भी समवेत स्वर की बधाईयां।

प्रस्तुति – नीलम शर्मा ‘अंशु’