सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

20 जून 2023

 Father's Day


अब बड़े होने पर लगता है कि  डैडी मतलब, बेवजह का आतंक।

आज (20 जून) अपना बतौर आर जे रेडियो एफ एम से जुड़ने का दिन है और संयोग से इस बार Father's Day भी आज ही है। मम्मी से सुना है कि हम बच्चों की पैदाइश से पहले डैडी जी को फिल्में देखने और रेडियो का बहुत शौक था। 

1. पर हमें रेडियो, फिल्मों और कोर्स से इतर किताबें पढ़ने की स नि न एनख़्त मनाही थी कि सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। घर में पहला रेडियो भईया ने लाकर दिया कॉलेज के दिनों में नवांशहर में और भईया ने ही  नवांशहर के सतलुज सिनेमा में पहली फिल्म दिखाई थी "मुकद्दर का सिकंदर"। फिर फगवाड़ा में फुफेरी बहन के इसरार पर पहली पंजाबी फिल्म दिखाई थी "चन्न परदेसी"। (फिर संयोग से एक के बाद एक दोस्ताना, कालिया वगैरह - वगैरह सतलुज में अमित जी की ही फिल्में देखीं।) 

2. बचपन में एक दिन दोपहर को भईया के सहपाठी रतन भंसाली भईया फिल्म देखने जाने के लिए बुलाने आए। डैडी लंच के बाद घर पर आराम कर रहे थे। भईया ने धीमे स्वर में रतन भईया को मना करते हुए कहा, आज नहीं, पिताजी घर पर हैं। बस रतन भईया के जाने की देर भर थी कि डैडी उठे, छड़ी उठाई और भईया की पिटाई शुरू - "पिताजी घर पर हैं, फिल्म देखने नहीं जाना है। आ तुझे मैं फिल्म दिखाता हूं।" उनको पिटते देख अपना तो रोना शुरू। बोले - तुझे क्या कहा, तू क्यों रोती है? लगाऊं तेरे भी एक।

3. अब लगता है संडे बड़ी जल्दी गुज़र जाता है, कल फिर ऑफिस जाना पड़ेगा। लेकिन स्कूल के दिनों में लगता था कि संडे आता ही क्यों है? हालांकि मैंने तो डैडी से कभी डांट भी नहीं खाई, पिटना तो दूर की बात है। घर  पर उनकी उपस्थिति मात्र ही दहशत में रखती थी। रविवार होता तो मां कहती, आज डैडी से अंग्रेजी और गणित पढ़ लो। बस, आ गई शामत। जो कुछ आता था, डर के मारे सब भूल जाता। कोशिश होती कि रात को उनके घर लौटने से पहले ही सो जाओ, भले ही झूठ - मूठ आंखें बंद करके पड़े रहो। वे कहते भी कि बंगालियों के घर के सामने से गुजरी तो पता चलता है कि  पढ़ाई हो रही है ( बच्चे जोर - जोर से बोल कर पढ़ा करते हैं) अपने घर में तो पता ही नहीं चलता कि पढ़ते कब हैं। ये आठवीं तक की बातें हैं।

4. अब समझ में आता है कि सख्ती का वह आवरण ओढ़ा हुआ था हमारे भले के लिए।  (मां भी हमेशा डरा कर रखतीं, आने दो डैडी को बताऊंगी।) बड़े होने के बाद उन्हें वैसा नहीं पाया। अखबारें, पत्रिकाएं और किताबें लातीं तो पहले वे ही पढ़ते। आंखों की सर्जरी के बाद उन्हें ट्यूब लाइट के बिलकुल नीचे बैठकर पढ़ते देखा मानो इम्तहान की तैयारी हो। तब सब कुछ छुपा कर रखना पड़ता बच्चों की तरह ताकि  पढ़ने से आंखों पर ज़ोर न पड़े।

5. उन्होंने जनसत्ता में मेरे लेख और थोड़े बहुत अनुवाद छपते देखे। दुग्गल जी लिखित "फूलों का साथ" के अनुवाद पर काम करते देखा। कुछ शब्दों के अर्थ पूछती तो कहते, तुम्हें कैसे पता होंगे, ये तो हमारे ज़माने के अरबी - फारसी के कठिन  - कठिन शब्द हैं। किताब प्रकाशित होते नहीं देखी उन्होंने।

सरकारी नौकरी के अलावा अन्य सारी छोटी - छोटी उपलब्धियां उनके जाने के  बाद की हैं।

बचपन में जिन चीजों रेडियो, किताबों, फिल्मों की मनाही थी, अनायास ही वे चीजें बड़े होने पर काम/शौक़ का हिस्सा बन गईं।

6. हमारे डैडी फिल्म दंगल के पिता की भांति नहीं थे, फिर भी ये फिल्म मुझे बहुत पसंद है और वो गाना - " बापू तू तो" भी। डैडी होते तो ये गाना उन्हें ज़रूर सुनवाती।

तब सहगल साहब के गीत सुन कर मैं नाक सिकोड़ती तो वे कहते, तुम लोग क्या जानो सहगल को, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद? ( FM से जुड़ने पर सहगल भी अच्छे लगने लगे)। अल्ताफ राजा की एल्बम  "तुम तो ठहरे परदेसी" एकमात्र ऐसी रही जो हम भाई बहनों के संग - संग उन्हें भी पसंद थी।

7. रवींद्र नाथ बंगाल वालों के  जीवन का अटूट हिस्सा रहें हैं, पिता का निधन रवींद्र जयंती के दिन ही हुआ। इस तरह रवींद्र नाथ और भी शिद्दत से मेरे जीवन में शामिल हो गए। अब तो डैडी का ज़िक्र होने पर ही आंखें नम हो आती हैं, पर निधन वाले दिन भगवान ने पता नहीं मुझे कहां से इतनी ऊर्जावान और मजबूत बना दिया था कि मैंने सबको अच्छी तरह संभाला। बात - बात पर नम होने वाली आंखें इतने बरसों में मां के समक्ष पिता के लिए कभी नम नहीं हुई। भले ही वे सोचती हों कि बेटी कभी उन्हें याद नहीं करती।

8. उन्हीं दिनों F M programme के शुरुआती दिनों में मैंने बचपन पर एक prog किया, तब पिता को गुज़रे चंद महीने ही हुए थे। Prog में क्रिस्टोफर रोड की एक श्रोता कॉलर मिसेज चक्रबर्ती जो कि खुद भी वयस्क बच्चों की मां थी, अपने पिता और बचपन के दिनों को याद कर फूट - फूट कर तो पड़ीं। मैंने उन्हें ऑन एयर अच्छी तरह हैंडल किया, ढांढस बढ़ाया। अगले दिन दफ्तर जाने पर  मेरी एक कलीग ने बताया कि कल prog सुनते वक्त मेरी जान पर बनी हुई थी कि अब नीलम भी अपने पिता को याद कर इस श्रोता के साथ फूट - फूट कर रो पड़ेगी, या इस का स्वर नम हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने कहा कि भगवान की कृपा से उस वक्त अपने पिता की तरफ मेरा ध्यान बिलकुल नहीं गया, मेरा ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाइव prog पर केंद्रित था। हां, उस वक्त उनसे बात करते समय ज़रूर मैं रो पड़ी थी। 

(20-06-2021)

 आज ही के 1999 में आकाशवाणी एफ एम रेनबो की ध्वनि तरंगों के ज़रिए कोलकाता की फिज़ाओं में.......


आज अपनी 24वीं सालगिरह है.... दिल से शुक्रिया मेरे रब्बा! 🙏🙏


ऐसी भी क्या आपा - धापी कि आप अपने शौक़ से जुड़े विशेष दिन को ही भुला दें और फेस बुक याद दिलाए!


(1)

आज ही के दिन, 20 जून 1999 को शाम 6 -7 बजे पहली बार  आकाशवाणी  FM Rainbow कोलकाता की ध्वनि तरंगों पर सवार होकर म्यूजिकल शो "छायालोक" के ज़रिए बतौर आर. जे. इस नाचीज़ की आवाज़ अपने श्रोताओं तक पहली बार पहुंची थी। ईश्वर का तह-ए-दिल से आभार। श्रोताओं के असीम स्नेह के लिए उनका आभार। मुझे भले याद न हो पर कुछ श्रोता दोस्तों को आज भी उन दिनों की कुछ विशेष प्रस्तुतियां याद हैं जिसे वे गाहे-ब-गाहे आज भी मुझे याद दिलाते रहते हैं। डॉक्टर दीपक पोद्दार साहब, मलय दा, माया दी, शीला दी बहुत याद आते हैं और अन्य बहुत से साथियों से जुड़ी बहुत सी हसीन यादें हैं। लगता है जैसे कल की बात हो।

अब 2016 से FM Rainbow दिल्ली का साथ मिला है। शुक्रिया मेरे रब्बा। शुक्रिया दिल से आकाशवाणी!


(2) साडी कुड़ी कित्थे गई।...........

कल (19 जून, 2012) शाम कोलकाता से 'भाई जी' (मित्तल साहब) का फोन आया - कल कहाँ थी? मैंने तपाक से जवाब दिया कि मैं तो आपके शहर में हूं ही नहीं। (दरअसल मैंने सोचा कि शायद उन्होंने फोन किया होगा और कनेक्ट नहीं हो पाया होगा तभी ये सवाल किया गया है।) उन्होंने कहा, अरे कल हमने प्रोग्राम चलाया एफ. एम. पर तो देखा कि किसी और की ही आवाज़ है। मैंने सोचा, ओ साडी कुड़ी कित्थे गई, चलो पता करते हैं। दरअसल सबको पता है कि मैं हर सोमवार की शाम 'आज की शख्सीयत' प्रोग्राम लेकर आती हूँ और नियमित सुनने वालों को तो मैंने ऑन एयर बता दिया था कि आज की शख्सीयत लेकर अगली मुलाकात होगी 2 जुलाई को और इस बीच दो सोमवारों का विराम। भाई जी नियमित तो प्रोग्राम नहीं सुनते हैं लेकिन जिस दिन मैं नहीं थी उसी दिन उनका सुनने का मन हुआ । चलिए लोगों ने हमारी कमी तो महसूस की । (20/06/2012)


(3) 2007 में किसी एक दिन अपना काम ख़त्म करने के बाद ड्यूटी रूम में मैं मलय दा से बात कर रही थी। उसी समय शाम के शो के लिए मेरी एक जूनियर को - आर जे अपनी प्रस्तुति के लिए अलमारी से CDs का अपना बंच उठा कर चुपचाप निकल जा रही थी तो मलय दा ने उसे टोकते हुए कहा, ..... ये तुम्हारे हिंदी प्रोग्राम की को - आर जे नीलम शर्मा हैं। जानती हो इनको? उसने तुरंत कहा - इनका हेयर स्टाइल चेंज हो गया है न..... उन्होंने तुरंत कहा, हेयर ज़रा से छोटे - बड़े हो जाने से इंसान की शक्ल बदल जाती है क्या? उसने सॉरी सॉरी कहा। उसके जाने के बाद मलय दा ने कहा, "देखो तो सही उसने तुम्हें नॉक तक नहीं किया, इसीलिए मैंने जान - बूझ कर उसे टोका। उसका ये रवैया मुझे अच्छा नहीं लगा।" मैंने कहा, छोड़िए न, क्या फ़र्क पड़ता है। जिस दिन मेरी प्रस्तुति मलय दा को बहुत पसंद आती कहते, ता होले एखुन तुमि कि एकटू चा खाबे? उन्हें पता था कि मुझे कैंटीन की चाय पसंद नहीं। फिर भी कभी - कभी उनका मान रखने के लिए मैं कहती, जी आज तो पी ही लेती हूं।  

कई बार शख्सियत वाले prog में वे इंतज़ार करते, फिर स्टूडियो में आकर कहते, वो वाला गाना बजाओगी न? अगर वह गाना प्ले लिस्ट में शामिल होता तो कहती कि बजेगा, और नहीं होता तो कहती आपको सुनना है, अच्छा अभी बजा देती हूं। सचमुच ऐसे ड्यूटी ऑफिसर को भला कोई भुला सकता है.... भले ही वे अब हमारे बीच मौजूद नहीं हैं।

(4) एक रोचक बात यह भी कि जब 2012 में हर सोमवार को "आज की शख्सियत" प्रोग्राम पेश करना शुरू किया तो तत्कालीन पैक्स दीपक पोद्दार सर पूछा करते कि आपके दोस्तों की क्या प्रतिक्रिया होती है, मैं कहती कि वे FM नहीं सुनते। लगभग साल भर बाद एक दिन पोद्दार सर ने कहा कि क्या नीलम जी आपकी प्रस्तुति के अगले दिन मीटिंग में मुझे हमेशा सबको कॉफी पिलानी पड़ती है, आपको excellent ग्रेडिंग जो मिलती है हर बार। कमाल है 12/13 सालों की निरंतर प्रस्तुति के बाद पता चला कि परफॉर्मेंस के लिए ड्यूटी ऑफिसर द्वारा ग्रेडिंग भी दी जाती है। कभी किसी ने बताया ही नहीं। ख़ैर, परफॉर्मेंस/ कार्य निष्पादन से जब खुद को संतुष्टि मिले कि हां मैंने अपना शत - प्रतिशत देने की बेहतरीन कोशिश की तो उससे बड़ा पुरस्कार क्या है। किसी ने यह भी कहा था कि अपना लहज़ा बदलो, पर पोद्दार सर ने कहा कि बिलकुल नहीं, जो आपकी स्वाभाविकता है वही आपकी पहचान है, इसे बिलकुल मत बदलना।

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09 मई 2023


                                                      लहरों की तरह यादें (1)

                     "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है".........  (09/05/2017)  


लोग कहते हैं आप तारीखों को याद कैसे रख लेती हैं? मैं उन्हें किसी न किसी तरह एक-दूसरे के साथ पंच कर लेती हूँ। आज ऑफिस में (दिल्ली) जाते ही बांग्लाभाषी कलीग ने कहा, जानती हैं आज 25 बैसाख है यानी रबींद्र जयंती? मैंने कहा आपको व्हाट्स ऐप्प ने याद दिलाया होगा पर मुझे याद दिलाने की ज़रूरत नही पड़तपहली बात तो यह कि बंगभूमि में जन्म लिया, दूसरी यह कि अब तक कि उम्र का 90% हिस्सा बंगाल में गुज़रा। तीसरी, रवीन्द्र नाथ मेरे जीवन में इस तरह से शामिल हैं कि 1998 को रवीन्द्र जयंती के दिन मेरे पिता का निधन हुआ। रवीन्द्र जयंती का दिन यानी बांग्ला कैलेंडर का 25 बैसाख (9 मई) सदैव के लिए अविस्मरणीय बन गया मेरे लिए। फिर 8 वर्षों बाद 2006 में मेरी दादी का निधन भी 9 मई को हुआ। रवीन्द्र जयंती की छाप और याद ज़हन में और भी पुख्ता हो गई। और.... 9                                                   मई, 2017 को एक मात्र शेष रहे मामा जी ने भी अंतिम सांस ली थी।

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                                              लहरों की तरह यादें....(2)


                                    “जब जब बहार आई और फूल मुस्कुराए मुझे तुम याद आए।

                                देखी नज़र ने खुशियां या देखे ग़म के साए मुझे तुम याद आए।”


(09/05/2014 - कोलकाता।) कल शाम एफ. एम. गोल्ड (कोलकाता) के कार्यक्रम में पहला गीत फिल्म रोटी कपड़ा मकान से मैं न भूलूंगा बजाने के बाद जब दूसरा गीत बजाया ये, तो अचानक ‘देखी नज़र ने ………….’ पंक्ति के दौरान अचानक आँखें नम हो आईं। गीत का चयन करते या बजाते समय ऐसी कोई बात ज़ेहन में नहीं थी। मुश्किल से भावनाओं को नियंत्रित किया ताकि नम आँखों के साथ-साथ आवाज़ भी नम न हो जाए ऑन एयर। रोने में तो मुझे पल भर भी नहीं लगता, हाँ हँसने में भले ही लग जाए और गंगा-यमुना तो पलकों पर हमेशा मौजूद रहती है छलकने को। याद आता है 1999 में बचपन पर आधारित कार्यक्रम में एक श्रोता श्रीमती चक्रवर्ती (क्रिस्टोफर रोड से) प्रोग्राम में अपने पिता की यादों को शेयर करते हुए ऑन एयर फूट-फूट कर रो पड़ी थीं। मैंने उन्हें बहुत अच्छे तरीके से संभाला। मेरे पिता जी का भी कुछ महीने पूर्व ही निधन हुआ था। घर पर प्रोग्राम सुन रहीं मेरी कलीग गीता दी ने अगले दिन ऑफिस में मुझसे कहा कि मेरी तो जान सूख रही थी कि अब तो नीलम गई काम से, उस श्रोता के साथ-साथ तो ये भी रो पड़ेगी अपने पिता को याद कर। अब इसकी आवाज़ नम हुई कि हुई। भगवान की कृपा से उस वक्त तो मेरा ध्यान इस बात पर बिलकुल नहीं गया, जाता तो ज़रूर विचलित हो जाती और ऑन एयर नहीं संभाल पाती खुद को। हाँ, यह ज़रूर है कि गीता दी के ऐसा कहते ही मैंने रोते हुए कहा कि भगवान की कृपा से मुझे उस वक्त बिलकुल अपने पिता का ध्यान नहीं आया था, ध्यान सिर्फ़ प्रो. की प्रस्तुति पर था।


                                            प्रस्तुति : नीलम शर्मा ' अंशु '

                                                  09/05/2023




24 दिसंबर 2022

 जयंती पर विशेष

भुलाए न बने सफ़र रफ़ी के गाँव का

 *   नीलम शर्मा  अंशु 


      

    हमारे भारत ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है तथा कई मिसालें क़ायम की हैं। तभी तो भारत की पवित्र माटी पर जन्मा भारतीय सपूत बड़े दावे के साथ कहता नज़र आता है कि -                 

                  ‘ हाँ तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

                   जब कभी  भी सुनोगे गीत मेरे      

                   संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।

 

        इस शख्सीयत की आवाज़ की मिठास  बरबस ही हमारे कानों में मधुर रस घोलती है और हम गुनगुना उठते हैं


                       सौ बार जन्म लेंगे, सौ बार फ़ना होंगे

                  ऐ जाने वफ़ा! फिर भी हम तुम न जुदा होंगे।

 

   जी हाँ, 24 दिसंबर, 1924 को अविभाजित हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत के अमृतसर जिले के मजीठा ब्लॉक के गाँव कोटला सुल्तान सिंह में जन्म हुआ था आवाज़ के धनी इस फ़नकार का जिन्हें तब लोग फीको और आज हम मुहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। जिस माटी में बालक फीको ने आँखें खोलीं और किलकारी भरी, मुझे खुशी है कि मुझे भी उस माटी के दर्शन करने का अवसर मिला।  एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार।  12 अक्तूबर 2006 को मैं अपने परिवार सहित अमृतसर जिले के उस गाँव में गई थी और दूसरी बार 30 जुलाई 2008 को।  यह गाँव अमृतसर शहर के बस अड्डे से 26 किलो मीटर के फासले पर है। दूसरी तरफ 26 किलोमीटर के फासले पर ही है वाघा बॉर्डर और फिर उस पार लाहौर। गाँव कोटला सुल्तान सिंह की सीमा में प्रवेश करते ही सबसे पहले दाईं तरफ़ नज़र आता है प्राइमरी स्कूल, जहाँ बालक फीको उर्फ़ मुहम्मद रफी़ ने शिक्षा प्राप्त की।  मैंने स्कूल के भीतर जाकर स्कूल प्रबंधन से मुलाक़ात की। जैसे ही उन्हें पता चला कि  मैं कोलकाता से विशेष रूप से आई हूँ तो वे उत्साहित हो उठे। हमें चाय नाश्ता भी करवाया गया।

                                                       


                                     

       खुले आसमां के नीचे बच्चों की क्लास चल रही थीं। बच्चों से मैंने पूछा कि आपका गाँव क्यों प्रसिद्ध है तो उन्होंने जवाब दिया कि मशहूर गायक मुहम्मद रफ़ी यहीं पैदा हुए थे इसलिए।  तीसरी कक्षा की छात्रा खुशप्रीत कौर ने मैं जट्ट यमला पगला दीवाना गीत गुनगुना कर सुनाया।  खुशप्रीत की ख़ासियत यह रही कि उसने रफी और आशा भोंसले द्वारा गाया पंजाबी गीत मैं पींघ ते तू परछावां, तेरे नाल हुलारे खावां भैड़ा पोस्ती खुद ही डूयेट रूप में सुनाया।  स्कूल की हेल्पर श्रीमती लखविंदर कौर ने फिल्म बैजू बावरा का गीत ओ दुनिया के रखवारे गाकर सुनाया।


      ज़रा सा आगे बढ़ने पर बाँई तरफ गाँव का हाई स्कूल है,   
श्री दश्मेश सीनियर सेकेंडरी स्कूल। 1979 में इसकी स्थापना की गई। स्कूल का प्रवेश द्वार रफ़ी साहब को समर्पित है। हाई स्कूल के ततकालीन प्रिंसीपल
  सरदार मलूक सिंह भट्टी ने बताया कि स्कूल का कंप्यूटर कक्ष भी मुहम्मद रफ़ी को समर्पित है। मुझे इस बात पर बहुत दु:ख हुआ कि प्राईमरी के बच्चों ने जहाँ इतने उत्साह से रफ़ी के गीत गुनगुनाए वहीं हाई स्कूल के बच्चे एक पंक्ति तक न गुनगुना सके।  बहुत ज़ोर देने पर प्लस वन मेडिकल की छात्रा मंदीप कौर गिल ने कहा कि मुहम्मद रफ़ी बहुत बढ़िया गायक थे और बहारो फूल बरसाओ गीत गुनगुनाया।


मैट्रिक पास और चौथी कक्षा तक रफ़ी के सहपाठी रहे 85 वर्षीय सरदार कुंदन सिह जी ने बालक रफ़ी की बहुत सी यादें हमारे साथ बांटी। दोनों पड़ोसी थे, घर पास-पास थे। बालक रफ़ी पढ़ाई में ठीक-ठाक था, शरारती भी नहीं था।  फीको के पिता हाजी मुह. अली का लाहौर में व्यवसाय था।  फीको चाचा के पास गाँव में ही रहता था।गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक दिन उसने कुंदन सिंह से कहा कि मैं अगली जमात में दाखिला नहीं लूंगा क्योंकि मैं लाहौर जा रहा हूँ। बालक कुंदन ने कहा कि अपनी कोई निशानी तो देते जाओ। बालक रफ़ी ने घर के पास स्थित आम के बाग में एक पेड़ पर अपना नाम खोद दिय़ा  फ़ीको । यह अलग बात है कि कुछ वर्ष पूर्व बाग के मालिक ने अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए उस पेड़ को कटवा दिया। रफ़ी साहब का पुश्तैनी घर भी बरसों पहले बिक चुका है।     

                                                                      


        कुंदन सिंह जी क्षोभ से कहते हैं कि सरकार ज़रा सी भी जागृत होती तो उस घर को खरीद कर संग्रहालय का रूप दे सकती थी। गाँव में कभी-कभार जन्म दिन के मौक़े पर रफ़ी यादगारी मेले का आयोजन किया जाता है। कुंदन सिंह कहते हैं कि रफ़ी से संपर्क करने पर रफ़ी ने बहुत बार कहा कि आप गाँव में जो कुछ भी बनाना चाहते हैं बनाइए, मैं साथ देने को तैयार हूँ पर पहल तो आप लोगों को ही करनी होगी परंतु गाँव के तत्कालीन सरपंच या सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई। वे इस उदासीनता के लिए रफ़ी को भी कसूरवार ठहराते हैं कि रफ़ी ने गाँव छोड़ने के बाद या यूं कहें कि रफ़ी बनने के बाद गाँव से कोई संपर्क ही नहीं रखा जबकि वे देश विभाजन के पश्चात् भी भारत में ही रहे। 1970 तक तो उनका मकान भी मौजूद था। अब किसी और ने उसे खरीद कर ढहा कर नया बना लिया है। वहाँ मवेशी बंधे रहते  हैं।


       मुहम्मद रफ़ी के पिता हाजी मुहम्मद अली बेहतरीन कुक थे। तरह-तरह के पकवान बनाने में माहिर थे। कुंदन सिंह बताते हैं कि वे एक ही देग में सात रंगों का पुलाव बना डालते थे।  कुंदन सिंह जी ने रफ़ी को परफॉर्म करते हुए 1971 में कलकत्ते में सुना।  लोगों ने मु. रफ़ी से अपनी पसंद का कोई भी गीत सुनवाने का आग्रह किया तो रफ़ी साहब ने कहा कि अपनी पसंद से मैं एक पंजाबी गीत सुनाना चाहूंगा और वह गीत था दंद च लगा के मेखां, मौज बंजारा लै गिया।  और एक बार रफ़ी 1956 में अमृतसर के अलेकजेंडर ग्रांउड में भी परफॉर्म करने आए थे तो गाँव वालों सहित कुंदन सिंह भी उनसे मिलने गए। तीन रातों तक लगातार शो चलता रहा। 

  

    उन्होंने बताया कि 1945 में कोटला सुल्तान सिंह में ही चाचा की बेटी बशीरा से रफ़ी की शादी हुई थी। बारात लाहौर से आई थी। बाद में उनसे रफी साहब का अलगाव हो गया। फिर दूसरी शादी हुई। उन्होंने बताया कि लाहौर के समीप किला गुज्जर सिंह में नाई की दुकान थी।  कोटला सुल्तान सिंह से जाने के बाद बालक रफ़ी उसी दुकान पर नाखून काटने का काम करता था और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनका स्वभाव था।                                         


             ऐसे में एक दिन पंचोली आर्ट पिक्चर के कर्ता-धर्ता तथा ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर के निदेशक वहाँ हजामत करवाने आए तो उन्होंने बालक रफ़ी को काम करते हुए गुनगुनाते देख एक कविता लिख कर दी और कहा कि अमुक प्रोग्राम में सुनानी है। बस इसी तरह सफ़र चल निकला और एक दिन रेडियो लाहौर के मार्फत् रफ़ी की आवाज़ घर-घर तक पहुँची और वे छा गए। कालांतर में उनके बंबई फिल्म इंडस्ट्री की पारी के विषय में तो सारी दुनिया परिचित है।  कुंदन सिंह कहते हैं कि मैं जब पाकिस्तान दौरे पर गया था तो वहाँ उनके भाईयों से भी मिला।  कुंदन सिंह जी को अफसोस इस बात का है कि मेरी आँखें मुंद जाने के बाद इस गाँव में रफ़ी के बारे में बताने वाला कोई भी न होगा।


        अब गाँव में मुहम्मद रफ़ी चैरीटेबल ट्रस्ट बनाया गया है। हाई स्कूल के विपरीत पंचायत ने एक किल्ला ज़मीन उपलब्ध करवाई है, जहाँ मुहम्मद रफ़ी की स्मृति में एक पुस्तकालय भवन बनाया जा रहा था (जो कि अक्तूबर 2006 और जुलाई 2008 में मेरे दूसरे  दौरे तक निर्माणाधीन था, शायद  अब बन कर तैयार हो गया हो)। तत्कालनी सरपंच स. कुलदीप सिंह ने बताया कि कांग्रेस सरकार ने पाँच लाख का अनुदान दिया था जिससे पुस्तकालय भवन का सिर्फ़ ढाँचा ही तैयार हो पाया था। इतनी ही राशि की और आवश्यकता है तथा उन्हें ग्रांट का इंतज़ार है। कुंदन सिंह चाहते हैं कि रफ़ी के नाम अस्पताल बनाया जाना बेहतर होता इससे जन-कल्याण का काम हो पाता। वे कहते हैं कि अफसोस है कि लता मंगेशकर के जीवनकाल में  ही उनके नाम पर इतना कुछ हो गया है परंतु रफ़ी के गुज़र जाने के बाद भी कुछ ख़ास नहीं हो पाया उनकी स्मृति में।  


                यह दिल रफ़ी साहब के प्रति बेहद शुक्रगुज़ार है कि उन्होंने बाकी लेखकों या कलाकारों की तरह देश-विभाजन के वक्त पाकिस्तान का रुख नहीं किया वर्ना आज हम उन के नाम पर फख्र से सर ऊँचा करने से वंचित रह जाते। धन्य हैं ये आँखें और पाँव जिन्हें एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार उस माटी के दर्शन का अवसर मिला जो रफ़ी की जन्म भूमि कहलाती है।  कोलकाता के ही जाने माने गायक मुहम्मद अज़ीज़ साहब के गाए गीत से बोल उधार लेकर कहना चाहूंगी कि -

                         न फ़नकार तुझसा तेरे बाद आया,

                           मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया।

 

यूं तो आकाशवाणी के एफ.एम. रेनबो पर पिछले वर्षों में कई बार ऱफी साहब पर लाइव प्रोग्राम किए हैं। इसी सिलसिले में मुहम्मद अज़ीज़ साहब से भी फोन पर बात हुई तो उन्होंने अपने संदेश में कहा - रफ़ी साहब की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। वे अपने आप में एक इंस्टीट्यूट थे। प्ले बैक को उन्होंने एक नया मोड़ दिया।  उनसे पहले के सिंगर लो पिच में गाया करते थे । रफ़ी साहब के गायकी में वैरायटी थी, वे versatile singer थे।  उनको सुनकर बहुत से लोगों ने गाना सीखा। मैं अपने आप को ख़ुशकिस्मत समझता हूँ कि जिनके गाने बचपन में हमने सुने, सुनकर गाना सीखा, अंत में मैं उनके लिए भी गा पाया श्रद्धांजलि के रूप में उक्त गीत गा पाया।


            * अब तो कुंदन सिंह जी भी इस दुनिया से विदा हो चुके हैं।



 

 

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29 अप्रैल 2017

52वां ज्ञानपीठ पुरस्कार।


बंगला कवि शंख घोष को राष्ट्रपति ने दिया 52 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार।


महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुख़र्जी ने 27 अप्रैल वृहस्पति वार की शाम नई दिल्ली में  बांगला के मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं शिक्षाविद् प्रोफसर शंख घोष को 52वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। संसद भवन के बालयोगी सभागार में आयोजित एक गरिमापूर्ण समारोह में मुख़र्जी ने प्रोफेसर घोष (85) को वर्ष 2016 के लिए यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान में 11 लाख रुपए का चेक, वाग्देवी की एक कांस्य प्रतिमा, प्रशस्ति पत्र और शाल तथा श्रीफल शामिल हैं। मुख़र्जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि उन्हें प्रोफेसर घोष को सम्मानित करते हुए इसलिए भी प्रसन्नता हो रही है कि वे उस भाषा में लिखते है जो मेरी मातृभाषा है। ताराशंकर बंदोपाध्याय, आशापूर्ण देवी, विष्णु दे, महाश्वेता देवी एवं सुभाष मुखोपाध्याय के बाद वे बंगला के छठे ऐसे लेखक हैं, जिन्हें यह सम्मान मिल रहा है। वह मूर्धन्य कवि और आलोचक होने के साथ -साथ प्रतिष्ठित शिक्षक और यह सम्मान पाने वाले सबसे योग्य लेखक हैं। 

शंख घोष ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि, मुझसे भी ज़्यादा योग्य व्यक्ति हैं जो इस सम्मान के हक़दार हैं। रबींद्र साहित्य के मर्मज्ञ शंख घोष को नरसिंह दास पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, रबींद्र पुरस्कार, देसिकोट्टम, सुनील गंगोपाध्याय स्मृति पुरस्कार और  पद्मभूषण  से भी सम्मानित किया जा चुका है।

आदिम लता, गलमोमॉय, मुर्खो बारो, सामाजिक नौय, बाबोरेर प्रार्थना, दिलगुली रातगुली, निहिता पातालछाया आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। 

इस अवसर पर प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ. नामवर सिंह ने कहा कि यह ऐतिहासिक अवसर है कि कवि श्री शंख घोष को विभूषित किया जा रहा है, मैं उन्हें  हार्दिक बधाई देता हूँ । उनकी कविताएं लयबद्धता की सीमाएं तोड़कर पाठकों के अपना कथ्य प्रेषित करती हैं। 

कार्यक्रम के आरंभ में आकाशवाणी दिल्ली के कलाकारों ने राष्ट्रीय गान और सरस्वति वंदना प्रस्तुत की।

स्वागत संबोधन किया भारतीय ज्ञानपीठ के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति विजेंद्र जैन ने और अंत में धन्यवाद ज्ञापन किया भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन ने।

पूरे कार्यक्रम का कुशल संचालन किया आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम अधिशासी जैनेन्द्र ने। 

 अपने संबोधन के दौरान ़डॉ. नामवर सिंह ने शंख घोष की निम्न पंक्तियां भी उद्धृत की : -

लिखना ही पड़ेगा कि मैं भी हूँ
मैं भी हूँ तुम्हारे साथ
हाथ मिलाने के लिए
और जिसे लिखूंगा
उसे भी शायद आना होगा
उस ने कह दिया है
स्वप्न में
खुलने लगे हैं
रास्तों में बने तोरण !

                                               




















प्रस्तुति - राजेश शुक्ला



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28 अप्रैल 2017

मैं आपसे मुखातिब हूँ....

मैं आपसे मुखातिब हूँ....


21 अप्रैल को नई दिल्ली के पोएट्री सोसायटी ऑफ इंडिया के तत्वावधान में 'मैं आपसे मुखातिब हूँश्रृंखला में लेखन जगत के वरिष्ठ रचनाकार व सशक्त हस्ताक्षर शैलेन्द्र शैल श्रोताओं से मुख़ातिब थे।  

आरंभ में उन्होंने अपने कॉलेज के सहपाठी व लोकप्रिय ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह पर रचित अपने संस्मरण का पाठ किया जो अपने आप में जगजीत साहब के जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटे था। साथ ही उन्होंने अपनी कुछ कविताएं भी श्रोताओं को सुनाई। कविताएं भी बेहद प्रभावी और सशक्त थीं जिनमें कई जगह उनके वायुसेना के अनुभवों की झलक भी देखने को मिली। पूर्वजों का गाँव कविता भी बाँधे रखने में सक्षम रही।

कार्यक्रम के आरंभ में  प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने श्री शैलेंद्र शैल के रचना कर्म पर चर्चा की तथा चंडीगढ़ में अध्ययन के दौरान की स्मृतियों को साँझा किया। 
     
इस मौक़े पर  कुसुम अंसल, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता किरण, कमल कुमार, तरन्नुम रियाज़,सुशीला श्योराण, रेखा जी, हरनेक गिल, राजेश शुक्ला आदि प्रबुद्ध श्रोता व पोएट्री सोसायटी के सदस्य, भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी अखिलेश जैन आदि उपस्थित थे।

भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. लीलाधर मंडलोई ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि जब हमारे जीवन में दिखाई देने वाली तमाम  चीज़ें  ठिठक जाती हैं, कविता वहाँ से शुरू होती हैस फ्रीज़ हो जाती हैं। यानी जहाँ  से चीज़ों के अर्थ चुक जाते हैं कविता वहाँ से शुरू होती है। कहने को हम कविता में यथार्थ की बात बहुत करते हैं जो यथार्थ है दरअसल वो एक चिपका हुए, ठहरा हुआ सच है। किसी चिपके हुए, ठहरे हुए सच से आप सपने तक नहीं जा सकते लेकिन एक सपना आपको शायरी तक ले जा सकता है। आलोचना एक जगह जाकर बिदक जाती है वे कविता के बारे में एक ही तरह से बात करते हैं लेकिन कविता इस लिए आलोचना से बड़ी है क्योंकि वह हमेशा स्थापित किए सच से आगे जाती है, अपने आप को ट्रांसफॉर्म करती है। शैल जी की कविता में भी ये बात दिखाई देती है कि जहाँ पर  दूसरे लिखने-पढ़ने वालों के लिए चीज़ें थोड़ी सी चिपक गई हैं,  वे वहाँ से शुरू करते हैं जैसे किसी कविता में फिल्म की भाषा में दृश्य को लाना बहुत मुश्किल होता है जैसे सुबह आती है, बारिश आती है, चिड़िया आती है और आपका मन होता है कि उस चिड़िया, उस बारिश को फूल को छू सकें, उस गंध को महसूस कर सकें क्योंकि आपकी इंद्रियां उतनी जागरुक नहीं हैं। एक कवि आपकी इन्द्रियों को जागृत करने का काम करता है जो कोई दूसरी विधा नहीं करती।  ज़िंदगी में जब चीज़ें छूटती सी लगें तब शायर या शायरी के साथ रहना चाहिए।

कार्यक्रम का संचालन सोसायटी की सचिव संगीता जी ने किया।  अंत में सोसायटी की तरफ से डॉ. कौल ने उपस्थित सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया।  कुल मिलाकर दिल्ली शहर की इस चिलचिलाती गर्मी में ये एक  बहुत उम्दा और सुकुनदायी शाम रही।

























           शैलेंद्र शैल जी की  एक कविता की एक बानगी देखें :-




(1)

लक्ष्मी रोज़ मिलती है कॉफी हाउस के बरामदे में
ली  कारबुज़ियर के शहर के 17 सेक्टर में
कारों के पीछे से धीरे से आती है वो दबे पाँव
एक थकी और भूखी बिल्ली की तरह
अपने एक पाँव पर बैसाखी के सहारे
उसकी आँखें देखी हैं आपने?
भट्ठी में दहकते अंगारे तो देखे होंगे 
भीतर कॉफी हाउस में बहस दस्तरख्वान सी बिछी है
मृत्युबोध उसे केरल से आई बतलाता है
और कुमार विकल बंबई के किसी चाल से
वो भीख नहीं मांगती, इवनिंग न्यूज़ बेचती है
मृत्युबोध खरीदता है कभी-कभार
बलात्कार की ख़बरें पढ़ने के लिए
और चवन्नी के बदले अठन्नी 
उछालता है लक्ष्मी की ओर
पकड़ पाई तो ठीक, फ़र्श पर गिरने पर
वह नहीं उठाती
दीवार के अमिताभ की तरह
मुक्तिबोध उठाकर उसकी
हथेली पर रखता है 
चवन्नी या अठन्नी खिसियाता हुआ
उम्र पुछने पर वह सिर्फ़ हँसती है
उसके दाँतों की तुलना मैं 
अनार के दानों से नहीं करूंगा
और शादी ?
न बाबा न
मैं भूल कर बैठा था एक बार
तमिल, पंजाबी, हिन्दी और बंगला में
वो चुनिंदी गालियां दी थीं कि तौबा
दरअसल लक्ष्मी को न किसी पति की तलाश है
न पिता की, न भाई की
उसका पूरा जिस्म एक बहुत बड़ा पेट है
और भूख उसकी आँखों के ज़रिए
पहुँचती है हमारी मेज़ तक
हमें कॉफ़ी शक्कर के बावजूद
बेहद कड़वी लगती है।

प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

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