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28 अप्रैल 2017

मैं आपसे मुखातिब हूँ....

मैं आपसे मुखातिब हूँ....


21 अप्रैल को नई दिल्ली के पोएट्री सोसायटी ऑफ इंडिया के तत्वावधान में 'मैं आपसे मुखातिब हूँश्रृंखला में लेखन जगत के वरिष्ठ रचनाकार व सशक्त हस्ताक्षर शैलेन्द्र शैल श्रोताओं से मुख़ातिब थे।  

आरंभ में उन्होंने अपने कॉलेज के सहपाठी व लोकप्रिय ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह पर रचित अपने संस्मरण का पाठ किया जो अपने आप में जगजीत साहब के जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटे था। साथ ही उन्होंने अपनी कुछ कविताएं भी श्रोताओं को सुनाई। कविताएं भी बेहद प्रभावी और सशक्त थीं जिनमें कई जगह उनके वायुसेना के अनुभवों की झलक भी देखने को मिली। पूर्वजों का गाँव कविता भी बाँधे रखने में सक्षम रही।

कार्यक्रम के आरंभ में  प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने श्री शैलेंद्र शैल के रचना कर्म पर चर्चा की तथा चंडीगढ़ में अध्ययन के दौरान की स्मृतियों को साँझा किया। 
     
इस मौक़े पर  कुसुम अंसल, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता किरण, कमल कुमार, तरन्नुम रियाज़,सुशीला श्योराण, रेखा जी, हरनेक गिल, राजेश शुक्ला आदि प्रबुद्ध श्रोता व पोएट्री सोसायटी के सदस्य, भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी अखिलेश जैन आदि उपस्थित थे।

भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. लीलाधर मंडलोई ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि जब हमारे जीवन में दिखाई देने वाली तमाम  चीज़ें  ठिठक जाती हैं, कविता वहाँ से शुरू होती हैस फ्रीज़ हो जाती हैं। यानी जहाँ  से चीज़ों के अर्थ चुक जाते हैं कविता वहाँ से शुरू होती है। कहने को हम कविता में यथार्थ की बात बहुत करते हैं जो यथार्थ है दरअसल वो एक चिपका हुए, ठहरा हुआ सच है। किसी चिपके हुए, ठहरे हुए सच से आप सपने तक नहीं जा सकते लेकिन एक सपना आपको शायरी तक ले जा सकता है। आलोचना एक जगह जाकर बिदक जाती है वे कविता के बारे में एक ही तरह से बात करते हैं लेकिन कविता इस लिए आलोचना से बड़ी है क्योंकि वह हमेशा स्थापित किए सच से आगे जाती है, अपने आप को ट्रांसफॉर्म करती है। शैल जी की कविता में भी ये बात दिखाई देती है कि जहाँ पर  दूसरे लिखने-पढ़ने वालों के लिए चीज़ें थोड़ी सी चिपक गई हैं,  वे वहाँ से शुरू करते हैं जैसे किसी कविता में फिल्म की भाषा में दृश्य को लाना बहुत मुश्किल होता है जैसे सुबह आती है, बारिश आती है, चिड़िया आती है और आपका मन होता है कि उस चिड़िया, उस बारिश को फूल को छू सकें, उस गंध को महसूस कर सकें क्योंकि आपकी इंद्रियां उतनी जागरुक नहीं हैं। एक कवि आपकी इन्द्रियों को जागृत करने का काम करता है जो कोई दूसरी विधा नहीं करती।  ज़िंदगी में जब चीज़ें छूटती सी लगें तब शायर या शायरी के साथ रहना चाहिए।

कार्यक्रम का संचालन सोसायटी की सचिव संगीता जी ने किया।  अंत में सोसायटी की तरफ से डॉ. कौल ने उपस्थित सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया।  कुल मिलाकर दिल्ली शहर की इस चिलचिलाती गर्मी में ये एक  बहुत उम्दा और सुकुनदायी शाम रही।

























           शैलेंद्र शैल जी की  एक कविता की एक बानगी देखें :-




(1)

लक्ष्मी रोज़ मिलती है कॉफी हाउस के बरामदे में
ली  कारबुज़ियर के शहर के 17 सेक्टर में
कारों के पीछे से धीरे से आती है वो दबे पाँव
एक थकी और भूखी बिल्ली की तरह
अपने एक पाँव पर बैसाखी के सहारे
उसकी आँखें देखी हैं आपने?
भट्ठी में दहकते अंगारे तो देखे होंगे 
भीतर कॉफी हाउस में बहस दस्तरख्वान सी बिछी है
मृत्युबोध उसे केरल से आई बतलाता है
और कुमार विकल बंबई के किसी चाल से
वो भीख नहीं मांगती, इवनिंग न्यूज़ बेचती है
मृत्युबोध खरीदता है कभी-कभार
बलात्कार की ख़बरें पढ़ने के लिए
और चवन्नी के बदले अठन्नी 
उछालता है लक्ष्मी की ओर
पकड़ पाई तो ठीक, फ़र्श पर गिरने पर
वह नहीं उठाती
दीवार के अमिताभ की तरह
मुक्तिबोध उठाकर उसकी
हथेली पर रखता है 
चवन्नी या अठन्नी खिसियाता हुआ
उम्र पुछने पर वह सिर्फ़ हँसती है
उसके दाँतों की तुलना मैं 
अनार के दानों से नहीं करूंगा
और शादी ?
न बाबा न
मैं भूल कर बैठा था एक बार
तमिल, पंजाबी, हिन्दी और बंगला में
वो चुनिंदी गालियां दी थीं कि तौबा
दरअसल लक्ष्मी को न किसी पति की तलाश है
न पिता की, न भाई की
उसका पूरा जिस्म एक बहुत बड़ा पेट है
और भूख उसकी आँखों के ज़रिए
पहुँचती है हमारी मेज़ तक
हमें कॉफ़ी शक्कर के बावजूद
बेहद कड़वी लगती है।

प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

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