सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

29 सितंबर 2012


28 सितंबर, 2012 को प्रभात वार्ता (कोलकाता) में प्रकाशित मेरा आलेख






27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (अब पाकिस्तान) में जन्में थे भगत सिंह। मज़े की बात यह है कि अब यह स्थान पाकिस्तान में है लेकिन पंजाब के नवांशहर जिले में उनके पैतृक गाँव खटकड़कलां के पास यानी नवांशहर जालंधर मार्ग पर भी बंगा शहर है। 

नवंबर 2008  को अपनी पंजाब फेरी के दौरान मैंने तय किया कि इस बार खटकड़कलां अवश्य जाना है। और, एक दिन सुबह जा पहुंचे हम खटकड़कलां, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के गाँव। नवांशहर-जालंधर मार्ग पर स्थित है यह गांव। वैसे तो पंजाब के गाँव सिर्फ़ कहने भर को गाँव कहलाते हैं लेकिन होते हैं सभी सुविधाओं से संपन्न। नवांशहर से हमने ओंकार बस सर्विस की बस ली और कंडक्टर से गुज़ारिश की कि भई खटकड़कलां उतार देना। (ज़्यादातर लंबे रूट की बसें वहाँ नहीं रुकती या तो अपने वाहन से जाया जाए या टैंपों से)। भाई, अपने काम की व्यस्तता के कारण हमारे साथ नहीं जा पाया परिणामस्वरूप अपने वाहन की बजाए हमें बस का सहारा लेना पड़ा। 

   कहते हैं न जब कोई चीज़ आसानी से उपलब्ध हो तो हम उसकी क़द्र नहीं करते। हां, 1980-86 तक पंजाब प्रवास के दौरान हज़ारों बार उस रूट से सफ़र किया क्योंकि मौसी या बुआ के घर जालंधर या फगवाड़ा जाते वक्त वह रास्ते में पड़ता है। हमारे अपने गाँव से नवांशहर छह कि.मी. है और नवांशहर से  लगभग 13-14 कि.मी. का फासला होगा। उस वक्त हम छोटे थे, इसलिए उतनी समझ भी नहीं थी, जबकि मेरी मम्मी का ननिहाल उसी गाँव में है (अब कोई नहीं रहता)। लेकिन अब जब कलकत्ते में रहकर पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ तो सोचा कि इस बार ज़रूर ख़टकड़कलां होकर आएंगे। मेरे साथ मम्मी और छोटे भाई की पत्नी टीना भी थी। मुख्य सड़क पर उतर कर पक्की सड़क से हम पैदल ही चलते चले। क्या नज़ारा था। बीचो-बीच कंकरीट की सड़क और दोनों तरफ फसलों से लहलहाते खेत। खेतों में सुनहरी धान लहलहा रही थी और कहीं गन्ने झूम रहे थे। यूं तो घरों में रखे अनाज को कीड़ा लग जाता है लेकिन मैं उस वक्त खेत से धान की दो बालियां तोड़ कर लाई थी और उन्हें बड़े जतन से अपनी डायरी में सहेज कर कोलकाता ले कर आई। अब तब से मेरे कमरे की दीवार पर झूल रही हैं ज्यों की त्यों। जब हम पैदल चले जा रहे थे तो अचानक टीना ने पूछा, दीदी हम यहाँ क्यों  जा रहे हैं। सच कहूं तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि पंजाब मे पली-बढ़ी और पत्रकारों के परिवार की बहू होकर उसने ऐसा बचकाना सवाल क्यों किया। ख़ैर, मेरी मम्मी को तो आदत है हमारे साथ इस तरह की घुमक्कड़ी की।

 मुख्य सड़क से निकली वह सड़क आगे जाकर एक चौराहे का रूप ले लेती है। दाहिने मुड़ जाने पर दाहिनी तरफ भगत सिंह की स्मृति में बना पुस्तकालय है। उस दिन वह बंद था। बांई तरफ उनका एक मंजिला पैतृक मकान। और उसके इर्द-गिर्द सर उठाए ऊंची-ऊंची इमारतें जिनमें वह छुप सा गया प्रतीत होता था।  एक कमरे में पलंग, अलमारी और कुछ अन्य वस्तुएं नज़र आ रही थीं कांच के दरवाज़े से। दूसरे कमरे में रसोई के बर्तन, अनाज पीसने वाली चक्की वगैरह-वगैरह। मकान के सामने खाली स्थान पर विशाल खुला पार्क है भगत सिहं को समर्पित। पुस्तकालय और पार्क हाल ही यानी साल-डेढ़ साल पहले बनाए गए थे। चौराहे के बांई तरफ सीनियर सेकेंडरी स्कूल है। हमने स्कूल की प्रधानाध्यापिका से मुलाकात की।

 मुख्य सड़क के किनारे संग्रहालय स्थित है। स्मारक में कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें, दुर्लभ दस्तावेज प्रदर्शित हैं। कुल मिलाकर जिस जोश से लबरेज होकर आप वहां पहुंचते हैं वापसी में अपने साथ वैसा कुछ नहीं ला पाते सिवाय निराशा या मायूसी के। वहां से गुज़र रहे दो स्कूली छात्रों से मैंने पूछा कि यह गाँव क्यों मशहूर है तो जवाब में वे बस शहीद भगत सिहं का नाम ही ले पाए। कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति मुहम्मद रफ़ी साहब के पैतृक गाँव कोटला सुल्तान सिंह जाकर हुई थीजहाँ आज की पीढ़ी इन हस्तियों के बारे ज़यादा जानकारी नहीं रखती। 

ख़ैर, अब 2000 से नवांशहर का नाम शहीद-ए-आज़म भगत सिंह नगर किया गया है। 

1980-86 के अपने पंजाब प्रवास के दौरान पंजाबी की पाठ्य पुस्तक में संकलित एक कविता देखी थी, जो कि पंजाबी माध्यम के स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल थी। हमारे सामने वाले चाचा जी प्यारा सिंह की बड़ी बेटी बलबीर से पुस्तक लेकर मैंने पढ़ी थी। मुझे बहुत प्रिय थी। मैंने उसे डायरी में नोट कर रखा था संभवत: करतार सिंह सराभा रचित है, कविता हू-ब-हू देवनागरी में प्रस्तुत कर रही हूं :- 



                                                   हिंद वासियां नूं अंतिम संदेश 


                                                   हिंद वासियों रखणा याद सानू 
                                                   किते दिलां तों न भुल्ल जाणा 
                                                  ख़ातिर वतन दी लग्गे हां चढ़न फाँसी 
                                                  सानूं वेख के नहीं घबरा जाणा 
                                                  साडी मौत ने वतन दे वासियां दे 
                                                  दिली वतनां दा इश्क जगा जाणा 
                                                  देश वासियों, चमकणा चन्न वांगू 
                                                  किते बदलां हेठ न आ जाणा 
                                                  करके देश दे नाल ध्रोह यारो 
                                                  दाग़ क़ौम दे मत्थे ते ना ला जाणा 
                                                  मूला सिंघ, भगत सिंघ, सुखदेव, राजगुरू 
                                                  ते सराभे वांगू नांऊ कमा जाणा 
                                                  जेलां होण कालज वतन सेवकां दे 
                                                  दाखल हो के डिगरियां पा जाणा 
                                                  हुंदे फेल बहुते अते पास थोहड़े 
                                                  वतन वासियो दिल ना ढाह जाणा 
                                                  प्यारे वीरो, चल्ले हां असीं जित्थे 
                                                  बस रसतियों तुसी वी आ जाणा। 


                 (कविता का कथ्य पंजाबी में है लेकिन आसानी से समझ आ जाएगी, इसलिए हिन्दी रूपांतर नहीं दिया)
  

                                   
                                                                     प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'


25 अगस्त 2012



आकाशवाणी कोलकाता के 85वें स्थापना दिवस पर विशेष

यादें रेडियो की

                  * नीलम शर्मा अंशु









पुराने ज़माने में हमारे पास मनोरंजन के साधन न के बराबर हुआ करते थे।  नानी, दादी के क़िस्सों से हम बच्चे खुश हो जाया करते।  उनसे राजा-रानी, परियों की कहानियां सुनते-सुनते कब रात को नींद हमें अपने आगोश में ले लेती पता ही न चलता।  और, अब वे क़िस्से कहीं पीछे छूट गए हैं क्योंकि आज बच्चों की नानी और दादी भी कहीं बहुत पीछे छूटती जा रही हैं । उन्हें अपने इस छूटने का मलाल क़तई नहीं बल्कि (बकौल डॉ कुमार विनोद) उनकी परेशानी का आलम कुछ यूं हैं -
          
                 बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
                 कहानी की किताबों में न आजकल राजा है न रानी है।

     मुझे अच्छी तरह याद है......बचपन में नानी और दादी का आँचल तो नहीं मिला, हां मां ज़रूर रात को कहानियां सुनाया करती थीं। उनमें राजा-रानी के किस्सों के साथ-साथ पौराणिक कहानियां ज्यादा होतीं।  मुझसे छोटा मेरा भाई जब तीन-साढ़े तीन वर्ष का था तो जब तक मां रात को रसोई के काम से फ़ारिग होकर बिस्तर पर आती, वह मुझसे कहा करता कि दीदी तब तक तुम कोई कहानी सुनाओ न। मैं जैसे ही सुनाना शुरू करती - इक सी राजा.....,वह तुरंत अपने तुतलाते स्वर में कहता  इक नाणी(रानी)। 
     राजा  रानी और परियों की कहानी के साथ हमारे पास मनोरंजन का एक साधन और भी मौजूद था – रेडियो ! जी हां, उस ज़माने में रेडियो ही वह सशक्त माध्यम था, जो मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाएं भी देता था। उससे भी बहुत पहले उसकी पहुंच हर किसी के वश की बात नहीं थी। जिस घर में रेडियो होता, उस घर के बाहर लोगों का मजमा लग जाता। सभी एक जगह बैठकर एक साथ मिलकर सुनते। लोग हैरान होते कि उस डिब्बे में से आखि़र आवाज़ कैसे निकलती है। मेरा रेडियो से पहला परिचय शैशवावस्था में ही हुआ। मेरे पिता उत्तरी बंगाल के दुआर्स अंचल में जिस कंस्ट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे उनके रसोईये को रेडियो सुनने की बहुत शौक था।  रेडियो का हैंडल पकड़े वह इधर-उधर घूमता रहता, काम भी करता। एक दिन उसी के रेडियो में दिल से संबंधित कोई गाना बज रहा था, वह गाना सुनकर मैंने मेरी माँ से तुतलाती हुई आवाज़ में  कहा था  मम्मी, मम्मी डीडी (रेडियो) कैंहदा, दिल्ला मेरा (मुझे तो याद नहीं घर वाले बताते हैं)। हमारे घर में रेडियो बजाने की अनुमति नहीं थी, पढ़ाई पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता। पिता समाचार सुनते और उसे उठाकर हमारी पहुंच से परे रख देते। हां यह अलग बात है कि घर के सामने डेकोरे़टर्स की दुकानों पर दिन भर फिल्मी गीत बजा करते थे।  व्यक्तिगत रूप से रेडियो से जुड़ाव कॉलेज के दिनों में हुआ। भाई साहब ने रेडियो खरीद कर लाकर दिया। तब मैं रेडियो पास रखकर ही पढ़ा करती। परीक्षा की तैयारी भी इसी तरह होती। रेडियो धीमे स्वर में बजता रहता, भले ही उसके कार्यक्रमों की तरफ ध्यान हो या नहीं। कॉलेज का वक्त पंजाब में गुज़रा, उन दिनों हमारी अपनी ही दुनिया थी, आवाज़ के साथियों की दुनिया। वहां ऑल रेडियो, दिल्ली की उर्दू सर्विस खूब सुनी जाती थी। प्रसारण भी बहुत स्पष्ट होता था मीडियम वेव पर। तरह-तरह के ज्ञानवर्धक कार्यक्रम, फ़रमाईशी गीतों के प्रोग्राम, ख़तों के प्रोग्राम, बच्चों के प्रोग्राम, फ़िल्मों से संबंधित तरह-तरह के प्रोग्राम। बाड़ियांकलां से बूटीराम हांडा और जम्मू से प्रमोद सब्बरवाल जैसे पत्रदाता श्रोताओँ के नाम बड़ी शिद्दत से आज भी याद आते हैं। हम आवाज़ के ज़रिए प्रोग्राम के प्रस्तोता को पहचाना करते या फिर उनकी प्रस्तुति के विशेष अंदाज़ से भी।  बस यहीं से रेडियो से गंभीरता से जुड़ाव हुआ। ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस ज़िंदगी का अहम् हिस्सा बन गई थी 1980 से 86 तक। 1986 के बाद वापिस बंगाल आए तो भी दुआर्स में शॉर्ट वेव पर उसे सुन लेते परंतु 1989 में कोलकाता आने के बाद उर्दू सर्विस का साथ छूट गया क्योंकि यहां शॉर्ट वेव पर उसे ट्यून करने में बहुत मशक्त करनी पड़ती, तिस पर प्रसारण भी स्पष्ट सुनाई नहीं देता। आज भी जब-जब पंजाब जाना होता है तो वहां हम उसे बड़ी शिद्दत से सुनते हैं।  रेडियो के जुनून का सिलसला ऐसा रहा कि जब - जब मौका मिलता खाली वक्त में कोलकाता में ऑफिस में भी टेबल की दराज में रख रेडियो सुना करती। इसके बाद 1998 में आकाशवाणी कोलकाता की एफ. एम. सेवा शुरू हुई तो पता चला कि सुबह नौ बजे और शाम छह बजे तक बड़े बढ़िया हिन्दी गीत बजा करते हैं तो उसे सुनने का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। इसी दौरान रेडियो पर घोषणा सुनकर एफ. एम. के आर. जे. के लिए आवेदन किया और अब विगत तेरह वर्षों से खुद ऑल इंडियो रेडियो के एफ. एम पर परफार्म कर रही हूं। बल्कि इस तरह रेडियो का वह जु़ड़ाव, जुनून और भी पुख्ता हो गया।  रेडियो से जुड़ा एक क़िस्सा और शेयर करना चाहूंगी। 1990 में दिल्ली रेडियो गई तो वहां अपने क़ॉलेज के ज़माने में सुने उद्घोषकों से मुलाक़ात की। रेडियो के रिसेप्शन रजिस्टर में मैंने अपने नाम के साथ सिर्फ़ एस्पलानेड ईस्ट, कोलकाता - 69 लिखा था, पूरा पता नहीं लिखा था ।  फिर भी रजिस्टर से प्राप्त अधूरे पते पर ही दिल्ली रेडियो के किसी स्टाफ द्वारा भेजा गया पत्र डाकिए की मेहरबानी से मुझ तक पहुंच गया जबकि उन दिनों तो कोलकाता में मुझे ज़्यादा लोग जानते भी नहीं थे। रेडियो अब भी मेरे पास ऑफिस के दराज में रखा रहता है, यह अलग बात है कि अब सुनने की उतनी फुर्सत नहीं मिलती, बहुत ज़रूरी होने पर समाचार बुलेटिन कभी-कभार अवश्य सुन लेती हूं। अब तो मोबाइलों पर भी एफ. एम. सुलभ हैं।
बतौर आर. जे. दो यादगार घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगी, पहली यह कि मैंने आकाशवाणी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर अपने कार्यक्रम छायालोक की विशेष तैयारी की थी। मेरा प्रोग्राम 6 बजे से शुरू होना था। उससे पहले लखनऊ केन्द्र से आकाशवाणी के वार्षिक पुरस्कार वितरण से संबंधित लाइव प्रसारण चल रहा था। वह लाइव प्रसारण इतना लंबा चला कि मेरे प्रोग्राम का समय भी उसी में कवर हो गया और मैं स्टुडियो में माइक्रोफोन के सामने बैठी इंतज़ार ही करती रह गई। दूसरी घटना है, उन दिनों अभिनेता प्रदीप कुमार साहब अपनी अस्वस्थता के दिनों में कोलकाता में थे। मैंने उन पर पूरे एक घंटे का लाइव शो पेश किया, जिसे उन्होंने अपने आवास पर सुना। उनकी गुज़रे ज़माने की यादें ताज़ा हो गई और उन्होंने सुनकर उस प्रोग्राम को सराहा। यह मेरी विशेष उपलब्धि रही कि इतने बड़े कलाकार ने मेरी प्रस्तुति को सुना। एफ. एम. से ज़ुड़ने के बाद विगत 13 वर्षों में रेडियो कोलकाता को जितना मैंने जाना चलिए आप को भी बता दूं। किसी भी संस्थान का 85 वर्षों का सफ़र मामूली बात नहीं।
जी हां15 अगस्त इतिहास के पन्नों में क्यों दर्ज हैं इससे तो शहर का बच्चा-बच्चा परिचित होगा लेकिन 26 अगस्त के बारे में शायद ही किसी को याद हो। 26 अगस्त 1927 को आकाशवाणी के कोलकाता केन्द्र की स्थापना हुई। बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल सर स्टेनली जैक्सन ने इसकी स्थापना की थी। आरंभ में इसका कार्यालय 1, गरस्टिन प्लेस में (अब बी. बी. डी. बाग़) में था। इसके पश्चात् 15 सितंबर 1958 को इसे इडेन गार्डन के मौजूदा भवन में स्थानांतरित किया गया।  1 अप्रैल 1930 को ही रेडियो का प्रसारण सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गया था। डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रीज एंड लेबर (उद्योग एवं श्रम विभाग)  के अधीन इसका नामकरण इंडियन ब्रॉडकास्टिंग सर्विस(भारतीय प्रसारण सेवा) किया गया। 1 जनवरी 1936 को इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस के दिल्ली केन्द्र की स्थापना की गई। जून 1936 को इसका नामकरण किया गया  ऑल इंडिया रेडियो। 1935 तक रेडियो (कोलकाता) से दो समाचार बुलेटिन प्रसारित होते थे, एक अंग्रेजी में और दूसरा भारतीय भाषा में। 1947 तक आते-आते इनकी संख्या बढकर 74 हो गई।  इसके बाद रेडियो की अपनी पत्रिका भी प्रकाशित की जाने लगी, अंग्रेजी में ऑल इंडिया टाईम्स और बांग्ला में बेतार जगत। कालांतर में जब इस केंद्र से 50 किलोवॉट का प्रसारण आरंभ किए जाने के अवसर पर बेतार जगत पत्रिका हेतु रवीन्द्रनाथ टैगोर से आशीर्वचन हेतु अनुरोध किए जाने पर उन्होंने आशीर्वचन स्वरूप पद्यात्मक पंक्तियां लिख भेजीं। इनमें आकाशवाणी शब्द का प्रयोग किया गया था। इसी आधार पर ऑल इंडिया रेडियो हेतु आकाशवाणी’ शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। इससे पूर्व मैसूर रेडियो(प्राइवेट) आकाशवाणी शब्द का प्रयोग करता रहा है। इस केन्द्र का प्रसारण बंद हो जाने के तीन वर्षों के पश्चात् ऑल इंडिया रेडियो हेतु यह नामकरण प्रचलन में आया। अब सभी केन्द्रों में आकाशवाणी नाम ही चलन में है। 20 अक्तूबर 1941 को आकाशवाणी को सूचना मंत्रालय में शामिल किया गया। आकाशवाणी से प्रसारित सर्वश्रेष्ठ नाटक, फीचर तथा संगीतप्रधान नाटकों के लिए 1974 से आकाशवाणी के वार्षिक पुरस्कार शुरू किए गए। 

रेडियो पर प्रथम :- यूं तो विश्व के प्रथम अनांउसर थे, हंगरी के वुडापेस्ट शहर के एडे. शर्टसई। 1901 में उन्होंने प्रथम बार माइक्रोफोन का सामना किया था। वहीं आकाशवाणी कोलकाता की प्रथम महिला एनांउसर थीं - श्रीमती इंदिरा देवी। महिला महल कार्यक्रम की प्रथम संचालिका थी श्रीमती बेला दे 

अभिलेखागार :- आकाशवाणी कोलकाता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर महत्वपूर्ण अभिलेखों को संरक्षित किया गया। आकाशवाणी के पूरे गौरवशाली इतिहास को 52 एपिसोडों में सहेजा गया है।  इसके लिए केन्द्रीय अभिलेखागार बनाया गया और आकाशवाणी के तत्कालीन प्रोड्यूसर प्रदीप कुमार मित्रा (अब अपर महानिदेशक) ने लगभग 7250 अभिलेखों को संरक्षित किया। ज्योति बसु, महाश्वेता देवी, शैलेन मन्ना जैसे विशिष्ट और प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों पर तीन-तीन घंटों की रिकॉर्डिंग उपलब्ध है। लोगों की मांग को देखते हुए आंचलिक संगीत पर ज़ोर देते हुए ड्रामा, लोक नाट्य और साहित्य से संबंधित प्रोजेक्ट तैयार किए गए हैं। बंगाल के लोकगीत, भक्ति संगीत, देश भक्ति गीत के साथ-साथ विभिन्न भाषाओं की सर्व भारतीय श्रेष्ठ कहानियों के चिरंतन कौथा शीर्षक से 26 एपिसोड तैयार किए गए हैं। लोक कला की श्रृंखला के तहत् विभिन्न थीमों पर सात ऑडियो जात्राओं को संरक्षित किया गया है।  लोक नाट्य की श्रृंखला पर आधारित 11 एपीसोड, साहित्य पर 75 तथा बंगाल के साहित्यकारों पर 75 और साहित्यकारों की पुस्तकों के चुनिंदा अंशों पर आधारित चिरंतन शीर्षक से 5 मिनटों के 534 धारावाहिकों का निर्माण किया गया है। विज्ञान से संबंधित कार्यक्रमों की श्रृंखला में बंगाल के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों पर आधारित लिंटन टू लेजर नामक 5 एपिसोड उपलब्ध हैं। नई पीढ़ी को अपनी समृद्ध विरासत से परिचित करवाने के लिए आंचलिक अभिलेखों को संरक्षित कर रिलीज करने में प्रयासरत है आकाशवाणी। इसके तहत् रवीन्द्र संगीत की दो सी डी जारी की गई ।

हिन्दी प्रसारण :-   1954 में आकाशवाणी कोलकाता से हिन्दी सेवा का प्रसारण आरंभ हुआ और 1980 में उर्दू सेवा का। हिन्दी प्रसारण से जुड़े कार्यक्रम निष्पादकों में रहे दीप नारायण मिठौलिया, आशीष सेन, ए. आर. खान, श्री श्रीप्रकाश, श्री श्रीनिवास शर्मा। इनमें दीप नारायण मिठौलिया का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, इनका कार्यकाल सभवतसबसे लंबा रहा, 1945 से 1979 तक। इनका सफ़र बतौर स्टुडियो आर्टिस्ट शुरू हुआ और कार्यक्रम निष्पादक के रूप में वे सेवानिवृत्त हुए।  इन्होंने कार्यक्रमों के माध्यम से श्रोताओं को हिन्दी से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज भी आकाशवाणी मीडियम वेव पर श्रोताओं के लिए सांस्कृतिक पत्रिका, कविता  कहानी पाठ, कवि सम्मेलनों, रेडियो नाटकों, विभिन्न वार्ता कार्यक्रमों  के साथ-साथ नगमें आप जो चाहें और कचनार के ज़रिए अपने श्रोताओं का भरपूर व सफल मनोरंजन कर रही है।

एफ. एम. सेवा भी 1980 से शुरू हुई जिसकी समय-सीमा थी सुबह बजे से 11  बजे तक। 1995 में इस समय-सीमा को बढ़ाकर 24 घंटे कर दिया गया। एफ. एम. प्रसारण में बांगला के साथ-साथ हिन्दी और वेस्टर्रन प्रसारण भी शामिल हैं। नि:संदेह एफ. एम. प्रसारण ने आकाशवाणी या यूं कहें कि रेडियो को नया स्वरूप प्रदान किया।

हिन्दी एफ. एम :- एफ. एम. की हिन्दी सेवा (107 मेगाहर्टज् पर) जून 1998 से शुरू हुई। इसके तहत् हिन्दी फिल्मी गीतों का कार्यक्रम सिर्फ़ शाम को प्रसारित किया जाता था। 18 अगस्त 1998 से यह कार्यक्रम सुबह भी प्रसारित किया जाने लगा। सितंबर 1998 में इसका नामकरण किया गया  छायालोक। वर्तमान में इस कार्यक्रम के माध्यम से सुबह एक घंटे और शाम को दो घंटों की प्रस्तुतियां दी जाती हैं। दोपहर को एक घंटे का कार्यक्रम बुधवार से शनिवार तक प्रसारित होता है गुलदस्ता। प्रस्तोताओं के कुछ उल्लेखनीय एवं लोकप्रिय नामों में हैं (स्व) मदन सूदन, प्रीतम खन्ना, अनिल कुमार, कुशेश्वर, वसुमति डागा, मिताली दत्ता, नीलम शर्मा, संजीव देव चौधरी, नुसरत, रजविंदर, सीमा।

विगत वर्ष वर्तमान कार्यक्रम निष्पादक दीपक चंद्र पोद्दार की पहल पर पहली बार छठ पर्व पर छायालोक में तीन घंटों का विशेष लाइव एपीसोड चार प्रस्तोताओं द्वारा एक साथ प्रस्तुत किया गया और देश के विभिन्न हिस्सों में पर्व के आयोजन संबंधी लाइव फीड ली गई। इस प्रस्तुति को श्रोताओं ने खूब सराहा। रेनबो यानी इंद्रधनुष। विगत एक वर्ष से डी. सी. पोद्दार के निर्देशन में छायालोक के स्वरूप में काफ़ी निखार आया है। इंद्रधनुष के सात रंगों की भांति छायालोक में सप्ताह के सातों दिन सुबह शाम अलग-अलग कार्यक्रम पेश किए जाते हैं जैसे सुबह मस्त मंडे, गपशप, ज़िंदगी खूबसूरत है, बनी रहे जोड़ी, सिलसिला बातों का, करियर, फ़िल्मी फंडा और शाम को आज की शख्सीयत, रेनबो क्विज़, मोबाइल मस्ती, चिट्ठी आई है, कुछ यादें कुछ बातें, वीकेंड फरमाईश और शाम-ए-ग़ज़ल।

चैनलों का नया नामकरण :- 1 सितंबर 2001 को एफ. एम के द्वितीय चैनल (100.2 मेगा.) का प्रसारण शुरू हुआ।  अप्रैल 2002 में एफ. एम. के इन दोनों चैनलों का नया नामकरण किया गया क्रमश: रेनबो (107 मेगा.) और गोल्ड (100.2 मेगा)। कार्यक्रम के दौरान शहर की ट्रैफिक संबंधी जानकारी का प्रसारण 16 फरवरी 2002 से आरंभ हुआ। वर्तमान में सुबह और शाम पैंतालीस मिनटों के हिंदी गीतों के दो कार्यक्रम सुनहरे दिन और आज के गीत प्रसारित किए जाते हैं।

      वर्तमान में आकाशवाणी के एफ. एम. चैनलों सहित पाँच चैनल प्रतिदिन 91 घंटों का प्रसारण प्रस्तुत करते हैं तथा फोन इन कार्यक्रमों के माध्यम से 31 घंटे का।

लोग कह देते हैं कि अरे, छोड़ो रेडियो सुनता कौन है। आज भी ऐसे श्रोता हैं जो बड़ी शिद्दत से रेडियो सुनना पसंद करते हैं। श्रोताओं के बगैर भला प्रस्तोताओं का क्या अस्तित्वकभी-कभी तो मुझे लगता है कि हम प्रस्तोताओं के मुकाबले तो श्रोता ज़्यादा मशहूर हैं जो इतनी शिद्दत और मेहनत से सुबह-शाम फोन मिलाते हैं और हर विषय में गंभीरता से शिरकत करते हैं। अब तो फोन और ख़तों के साथ-साथ ईमेल भी सशक्त माध्यम साबित हो रहा है श्रोताओं के लिए। जो लोग यह कहते हैं कि हमें तो लाईन ही नहीं मिलती उनके लिए ईमेल बढ़िया विकल्प है। श्रोताओं के जोश को देख कर कह सकते हैं कि एफ. एम. के आगमन ने रेडियो को नवजीवन प्रदान किया। अब तो शहर में कई प्राइवेट चैनल भी हैं लेकिन आकाशवाणी का अपना अलग ही श्रोता वर्ग है। आकाशवाणी ने अब भी अपनी प्रसारण गरिमा को बनाए रखा है। एफ. एम. के ज़रिए श्रोता बड़ी आसानी से हिन्दी से जुड़ रहे हैं। बांगलाभाषी श्रोताओं की हिन्दी में काफ़ी सुधार आया है। जो श्रोता आकर कहते हैं कि हिन्दी में नहीं बोल पाऊंगा एकटु बांगलाए बोलछी। उन्हें हम प्रोत्साहित करते हैं कि नहीं, आप बहुत अच्छी हिन्दी बोल रहे हैं, हिन्दी में ही बोलिए। बांगला भाषी श्रोता बड़ी मेहनत से हिन्दी पहेलियों वाले प्रोग्राम में शिरकत करके हिन्दी पहेलियों को बूझते हैं और सही जवाब देने की कोशिश करते हैं। उनका ये जज़्बा सराहनीय है।  जल्दी ही हिन्दी रेनबो और गोल्ड दोनों चैनल एक बार फिर से रिलॉन्च हो रहे हैं यानी नए स्वरूप और नए कलेवर में। बस इंतज़ार की घड़ियां ख़त्म ही होने वाली हैं। आज आकाशवाणी कोलकाता के स्थापना दिवस पर हम तो यही कहेंगे कि तुम जीयो हज़ारों साल। आवाज़ और मनोरंजन की ये दुनिया और सिलिसिला यूं ही चलता रहे। कोलकाता की ये शान बनी रहे। आमीन्!

बेतार जगत पत्रिका हेतु कविगुरु रवीन्द्ननाथ के पद्यात्मक आशीर्वचन स्वरूप लिखी गई कविता - 

धौरार आंगिना होईते एई शोनो
उठिलो आकाशवाणी।
अमोर लोकेर मोहिमा दिलो जे मर्तोलोकेरे आनि।
शरोशोतीर आशोन पातिलो
नील गगोनेर माझे
आलोक बीनार शौभा मौंडले
मानूषेर बीना बाजे।
शूरेर प्रबाहो धारा शुरोलोके
दूर के शे नैय चिनि
कोवी कौल्पोना बोहिया चोलिलो
औलोख शौदामिनि
भाषारौथ धाए पूर्बे-पोश्चिमे
सूर्जोरौथेर शाथी
उधाऊ रोइलो मानोब चित्तो
                                                                   शौर्गेर शीमानाते।