सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

24 अगस्त 2009

आओ, फिर मिल बैठें - Lets Meet Again !

दोस्तो, आजकल हमारा दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि हम हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में विचरण करते हैं। ऐसे में कई नए दोस्त, नए रिश्ते बनते हैं और कई बार न चाहते हुए भी परिस्थितियोंवश पुराने संपर्क छूट से जाते हैं। तो ऐसे में मन में ख़याल आया कि आज तो इंटरनेट के माध्यम से यह विशाल जगत बहुत ही सिमट गया है तो क्यों न यह कोशिश की जाए कि " आओ, फिर मिल बैठें (Lets Meet Again) " के बहाने अगर फिर उन्हीं बिछड़े साथियों से मिलने का संयोग बन जाए। तो आप सभी के लिए खुला मंच है यह कॉलम, स्वागत है आप सबका इस मंच पर। क्या पता किसे कौन बिछड़ा मिल जाए इस बहाने। आप अपने आलेख fmrjneelamanshu@gmail.com के ज़रिए मुझ तक भेज सकते हैं।

तो शुरुआत खुद से ही करू ....

होश संभलने तक मेरा स्कूली शिक्षा का समय दिसंबर 1980 तक पश्चिम बंगाल के दुआर्स अंचल के रेलवे शहर अलीपुरद्वार जंशन में गुज़रा। यह मेरा जन्म स्थान है। फिर 1980 दिसंबर से अगस्त 1986 तक पंजाब के दोआबा अंचल के नवांशहर में कॉलेज शिक्षा तक, 1986 सितंबर से 1989 मार्च तक पुन: अलीपुरद्वार जंशन मे, और मार्च 1989 से अब कर्मस्थल महानगर कोलकाता है।
बचपन के स्कूली दोस्तों के साथ पंजाब में पत्राचार से संपर्क रहा, परंतु पंजाब से वापस आने पर उनके परिवार कहीं और शिफ्ट हो चुके थे। हम लोग निर्मला गर्लस् हाई स्कूल में पढ़ते थे। उसके पहले प्राईमरी में शिवबाड़ी स्कूल में। राधा दास (पिता श्री रघुनी दास) और आरती राय (पिता स्व. कमलकांत राय, टी.टी.ई थे) प्राइमरी के दिनों की दोस्त थीं। और राधा की शादी हो गई थी और वह गुवाहाटी में थी, वहां उसके पति बैंक में कार्यरत थे। एक बार वह मिलने आई थी फिर बाद की कोई ख़बर नहीं। आरती के पिता का देहांत हो गया था तो परिवार वापिस बनारस चला गया( बौलिया बाग)। बाद में उसके बड़े भाई आलोक राय उर्फ़ बबलू को पिता के स्थान पर Compassionate ground पर टी.टी.ई. पद पर नियुक्ति मिली तो वह अलीपुरद्वार में दादी के साथ रहने आया था। फिर बनारस ट्रांसफर करवा लिया था। पंजाब से लौटने पर सूचना मिली थी तो मैं उन लोगों से 1986 में मिली थी। तभी पता चला था कि आरती की भी शादी हो गई है और वह डॉक्टर है। उसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं। फिर आज तक किसी की कोई ख़बर नहीं। हाँ, जब कभी ट्रेन बनारस स्टेशन पर रुकती है तो उन दिनों की याद हो आती है। बचपन या स्कूली दिनों की दोस्ती कितनी निश्छल हुआ करती है, इसका अहसास इस उम्र में बखूबी हो रहा है। 1994 के बाद 2005 में अलीपुरद्वार जाना हुआ था। 2005 के बाद अब तक तो नहीं। हां, पुराने लोगों को ढूँढ निकालने का मेरा अभी भी मोहभंग नहीं हुआ है लेकिन उसके बाद भी (वे) लोग संपर्क-सूत्र बनाए रखने में असफल रहते हैं। यह अलग बात है कि सभी लोग नेट इस्तेमाल नहीं करते, नहीं भी जानते।
पंजाब की दोस्तों सतवंत कौर और दिनेश कौर(बेबी) से 1986 के बाद कभी मुलाक़ात नहीं हुई, कॉलेज का हमारा काफ़ी यादगार साथ रहा। दिनेश शादी के बाद कैनेडा चली गई, उसने कभी मेरा संपर्क सूत्र खोजने की ज़रूरत महसूस नहीं की, यही कहूंगी क्योंकि पंजाब से अभी भी हमारा संपर्क है। और सतवंत लंदन में है। मैं जब भी पंजाब जाती हूं, सतवंत के घर जाकर उसकी मम्मी व भाई से ज़रूर मिलती हूँ। ऐसा लगता है मानो उसीसे मुलाक़ात हो गई। वह भी जब पंजाब जाती है तो यह जानते हुए भी कि नीलम वहां नहीं है वह हमारे मुहल्ले में ज़रूर जाती है क्या पता मेरे दादा जी दिख जाएं तो उनसे हाल-चाल पूछ ले। हां, हम कभी- कभी फोन पर बात कर लेते हैं। अभी तो उसने ईमेल करना सीख लिया है महीनों बाद कभी-कभी अवश्य मेल कर देती है।
सतवंत के भाई की भी शादी हो चुकी थी। उनके मुहल्ले में कई नए-नए मकान बन गए थे. कई साल पहले उनके घर में प्रवेश किया तो भाभी कपड़े धो रही थीं। जब मैंने पूछा कि मोहन सिंह का ही घर है न यह। और आगे बढ़कर देखा आंटी जी चारपाई पर बैठी कुछ काम कर रही थीं। इससे पहले कि मैं आंटी को संबोधन करूं पीछे से भाभी ने कहा, आप नीलम दीदी हैं न। मैंने पूछा, आपको कैसे पता, हम तो कभी मिले भी नहीं। जवाब में उन्होंने कहा, दीदी जब आती हैं तो आपकी इतनी बातें करती हैं कि मैं देखते ही आपको पहचान गई। उनकी बच्चियां भी अपनी बुआ की सहेली से कितनी गर्मजोशी से घुल-मिल गई थीं। फिर बाद में सतवंत ने फोन पर सूचित किया कि एक सड़क हादसे में उस भाभी का निधन हो गया। बेटियों और माँ के साथ सवार गाड़ी में सिर्फ़ उनकी मौत हो गई। यानी तीन पीढ़ियां एक साथ थी और बीच की पीढ़ी साथ छोड़ गई।
1996 में सरकारी क्वार्टर में टालीगंज में रहा करते थे हम। उन दिनों हमारे पड़ोस में रहने आए थे हमारे सिस्टर कन्सर्न के मिस्टर प्रकाश वंजारी। उनसे हमारे बहुत ही अच्छे संबंध बन गए थे। वे सपरिवार तीन महीनों तक उस क्वार्टर में थे, फिर उनका पुणे तबादला हो गया था। शोभा भाभी की मेरे मम्मी से इतनी आत्मीयता हो गई थी कि कभी चलो आंटी, दूध लाने चलते हैं, बाज़ार से सब्जी ले आते हैं, लॉन्ड्री से कपड़े लाने हैं। वे हरदम मेरी मम्मी के साथ इस तरह नज़र आती कि लोग मुझे कम उन्हें ही ज़्यादा जानते थे। मम्मी से पूछा करते - तो ये हैं आपकी बेटी। और बेटी को कोई जानता ही नहीं क्योंकि मैं तो दिन भर ऑफिस में रहती थी। उनकी एक नन्हीं से बिटिया थी - परावदा। ढाई-तीन साल की रही होगी। भाई साहब मराठी भाषी और शोभा भाभी हिन्दी भाषी। परावदा मां से हिन्दी में और पापा से मराठी में बात करती और हम वहीं बैठे होते तो हमारे साथ भी हिन्दी में। इनती छोटी सी बच्ची कितनी आसानी से तुरंत एक भाषा से दूसरी भाषा में खुद कन्वर्ट कर लिया करती थी। और उसकी एक बात मुझे बहुत मज़ेदार लगती थी, मुझे कहती - आंटी तुम बंगाली ? मेरे हां कहने पर कहती- नहीं, मुझे मालूम है मेरे पापा मराठी, मेरी मम्मी हिन्दी और आप पंजाबी। ख़ैर कोलकाता छोड़ने के बाद उन्होंने कभी संपर्क नहीं किया। आदत के अनुसार मैंने ही एक बार उन्हें पुणे के ऑफिस का फोन नंबर तलाश कर फोन किया। अपना नंबर भी दिया पर जनाब के पास वह सुरक्षित नहीं रह पाया क्योंकि फिर उनकी तरफ से कोई संपर्क नहीं किया गया। अप्रैल-मई 2009 में मैंने नेट पर यूं ही अपने उस विभाग की वेबसाइट खोली तो सिस्टर कन्सर्न होने के नाते फिर से मिस्टर प्रकाश वंजारी जी का नाम दिख गया और पाया कि वे आजकल पुणे की बजाय मुंबई में है। मैंने विभागीय ईमेल आईडी पर जून-जुलाई में उनका ट्रांसफर पुन: कोलकाता हो गया। जुलाई में उन्होंने मेल देखा और मेरे वर्तमान ऑफिस के एक ट्रेनिंग सेंटर का नेट से फोन नंबर पाकर वहां फोन किया। वहां से नंबर लेकर उन्होंने मेरे दफ्तर का फोन मिलाया तो मुझे आउट ऑफ स्टेशन पाया। मुझसे मोबाइल पर बड़ी गर्मजोशी से बात हुई। उनकी व्यग्रता को देख, मैं जिस दिन कोलकाता लौटी उसी शाम उन्हें घर पर आमंत्रित किया। तो पिछले बारह वर्षों की बातें हुई। भाभी कह रही थी - आंटी आपको पता नहीं, मैं आपको वहां कितना मिस करती थी, आप नहीं जानती मैं आपको बहुत प्यार करती हूं। मैंने चुटकी लेते हुए कहा, तभी तो इतने साल लग गए संपर्क सूत्र बनाने में। ख़ैर, उस नन्हीं परावदा ने अब कोलकाता के कॉलेज में प्रवेश लिया है। अब बहुत खूबसूरत और गोलमटोल सी हो गई है। कोलकाता आकर पापा के साथ मिलकर नेट पर नीलम शर्मा को ढूंढकर जितनी जगह फोन लगाया, रॉन्ग नंबर ही लगा।
एक दोस्त और है जो हौज ख़ास दिल्ली में रहती है मीनाक्षी सहगल। जब भी दिल्ली जाती हूं तो मिलने का वक्त भले ही न मिले लेकिन मैं फोन पर उससे बात ज़रूर कर लेती हूं। पिछले महीने दिल्ली गई तो इस बार फोन पर बात भी न हो सकी शायद उसका नंबर बदल गया हो। ख़ैर ये तो रही दूसरे शहरों और विदेशों में रहने वाले दोस्तों की बात। कलकत्ते की दोस्त भी संपर्क बनाए रखने में आलसी है। फोन तक नहीं कर पातीं। व्यस्तता का बहाना। मैं तो कहती हूं कि काम करने का कोई बहाना नहीं, काम न करने के सैंकड़ों बहाने। रूमा दी और मैत्री दी इन्हीं में शामिल हैं। एक बार अपनी एक पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर 2003 में मैत्री को मैंने उसकी बड़ा बाजा़र की ब्रांच से ढूंढ निकाला(यू.बी.आई में)। उसने पूछा - तूने मेरा पता कैसे लगाया। मैंने कहा, पत्रकार हूँ न, तो क्या मुश्किल है, बस पता होना चाहिए काम कैसे हो सकता है। ख़ैर वह प्रोग्राम में आई भी नहीं और अब कोई संपर्क भी नहीं रहा। फिर मैं सोचती हूं कि कुछ भी इकतरफा बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। क्या मैंने ही ठेका ले रखा है सबसे संपर्क सूत्र बनाए रखने का। लेकिन भगवान ने दिल ही ऐसा दिया है कि मानता ही नहीं, पता है आज के ज़माने में जज़बातों की कोई कद्र नहीं हम लोग इस ज़माने में मिसफिट हैं। लेकिन कल अचानक फिर से याद हो आई तो सोचा क्यों नहीं ऐसे मंच को ज़रिया बनाए जाए ताकि मेरे जैसे दूसरे लोग भी अपने बिछड़े साथियों को तलाश सकें। देखें यह कोशिश कितनी सार्थक होती है जबकि लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि व्यस्तता इतनी है कि समय ही नहीं मिलता। लेकिन मुझसे रहा नहीं जाता फिर भी कभी-कभी पुराने परिचितों को नंबर मिलाकर क्लास ले ही लेती हूं, यह जानते हुए कि लोग चिकने घड़े हैं उन्हें कुछ फर्क ही नहीं पड़ता। इस वक्त अगर मैं यह सब लिखने बैठी हूं तो पता नहीं कितने दूसरे कामों से वक्त चुराकर इसमें लगा रही हूं। कुछ लोगों के नज़रिये से यह समय की बर्बादी भी हो सकती है। लेकिन लोग आजकल कितने संकुचित हो गए हैं, पहले जैसी गरमाहट रही ही नहीं रिश्तों की। मुझे याद है छोटे शहरों में कितनी आत्मीयता हुआ करती थी, सभी सबको जानते हैं। जब मुझे नौकरी मिली थी तो सारे शहर को ख़बर हो गई थी। उस वक्त वहां के कुछ साथियों ने कहा भी था, कलकत्ते जा रही हो वहां, यहां जैसा अपनापन नहीं मिलेगा। सोचती हूं आज लोग किसी से बात करते वक्त भी हिसाब-किताब ही करते हैं कि इससे मुझे कितना फ़ायदा हो सकता है। छोटा सा उदाहरण दूं - मेट्रो की ट्रेन हर छह मिनट के अंतराल में आती है। कभी कोई परिचित मिल जाए तो मैं उससे बात-चीत करने के लिए वह ट्रेन छोड़ देती हूं चलों अगली से चली जाऊंगी लेकिन लोग इतना भी नहीं करते। पता नहीं उन्हें ज़िंदगी की किस दौड़ में पीछे रह जाने का डर बना रहता है। अरे रोज तो आप उसी निर्धारित और निश्चित समय पर जाते हो, एक दिन दस मिनट लेट हो गए तो क्या हुआ।
-नीलम शर्मा 'अंशु'
(29-08-2009)

23 अगस्त 2009

अगस्त के एक ही हफ्ते में कोलकाता में
रेलवे के दो महत्वपूर्ण कदम

(क) हेरिटेज स्पेशल :
16 अगस्त को कोलकाता की जनता को सुखद आश्चर्य की अनुभूति हुई । 155 वर्ष पूर्व 15 अगस्त 1854 को हावड़ा से हुगली (क़रीब 24 मील) तक स्टीम इंजन से चलने वाली रेल चलाई गई थी । पूर्व रेलवे की 155 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर उसी स्टीम इंजन से हेरिटेज स्पेशल ट्रेन (17 बोगियों वाली) हावड़ा से बंडेल के लिए चलाई गई । उपस्थित सभी ने रेल मंत्री की इस पहल की सराहना की । यह भी घोषणा की गई कि विशेष अवसरों पर इस हेरिटेज ट्रेन को चलाया जाएगा । यह इंजन सुबह के 11 बजकर 50 मिनट पर हावड़ा स्टेशन के न्यू कॉम्पलेक्स के 22 नंबर प्लेटफार्म से रवाना हुआ तथा 27 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से इसने ढाई घंटों में बंडेल का सफ़र तय किया । विभिन्न मंत्रियो, अतिथियों एवं पत्रकारों समेत 500 से अधिक यात्रियों ने इस ट्रेन का लुत्फ उठाया। रवानगी के वक्त आर. पी. एफ. बैंड भी बजाया गया । रवानगी से पूर्व उद्घाटन समारोह में केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री गुरुदास कामत, केन्द्रीय रेलवे राज्य मंत्री ई. अहमद, केन्द्रीय जहाजरानी राज्य मंत्री मुकुल राय ने लोगों को संबोधित किया । इस मौके पर रेलवे के महाप्रबंधक दीपक कृष्ण, हावड़ा के डी. आर. एम. मु. जमशेद, रेलवे बोर्ड के सचिव ए. मित्तल सहित अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे । इस मौके़ पर स्टेशन परिसर में पूर्व रेलवे के विरासत सहायक द्वारा रेलवे संबंधी डाक टिकटों की प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया । रेलवे की विभिन्न उपलब्धियों का ज़िक्र करते हुए श्री अहमद ने हावड़ा मुंबई, दिल्ली, चेन्नई सहित चार रेलवे स्टेशन भवनों पर आधारित डाक टिकटों का भी लोकार्पण किया । श्री गुरुदास कामत ने रेलवे से संबंधित डाक टिकटों पर आधारित पुस्तक का लोकार्पण भी किया । इस दौरान आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में डॉ. पल्लव कीर्तनिया ने अपने गायन से सबका मन मोह लिया।

ख) मेट्रो रेलवे का विस्तार :
रेलमंत्री सुश्री ममता बंद्योपाध्याय ने 22 अगस्त शनिवार को टालीगंज ( बांग्ला फिल्मों के नायक के नाम पर अब नया नाम महानायक उत्तम कुमार) स्टेशन से गड़िया (कवि नजरूल) स्टेशन तक मेट्रो रेल सेवा के विस्तार का शुभारंभ किया । वर्ष 1999 में तत्कालीन रेल मंत्री सुश्री बंद्योपाध्याय ने ही आठ किलोमीटर के विस्तार परियोजना की घोषणा की थी । रेलमंत्री, राज्यपाल डॉ. गोपाल कृष्ण गांधी, व वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संयुक्त रूप से हजारों लोगों और विभिन्न कलाकारों तथा गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में हरी झंडी दिखाकर ट्रेन को गड़िया के लिए रवाना किया । लोगों ने नि:शुल्क सवारी का लुत्फ़ उठाया । इस मौके पर दक्षिणेश्वर, बजबज, बैरकपुर, डायमंड हार्बर, राजारहाट आदि तक मेट्रो के विस्तार संबंधी प्रस्ताव की जानकारी भी दी गई ।
उल्लेखनीय है कि मात्र आठ किलोमीटर के विस्तार कार्य को अमली जामा पहनाने में नौ वर्ष का समय लग गया । कोलकाता मेट्रो लगभग 25 साल पुरानी है । 29 दिसंबर 1972 को प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने 16.74 कि. मी. के विस्तार की आधारशिला रखी थी तथा वास्तविक रूप से संरचना कार्य 1978 में शुरू हुआ । मेट्रो की प्रथम सेवा एसप्लानेड से भवानीपुर(अब नेताजी भवन) के बीच(तीन कि.मी.) 1984 में आरंभ हुई । फिर इसका विस्तार टालीगंज तक हुआ और टालीगंज से दमदम (यानी उत्तरी कोलकाता और दक्षिणी कोलकाता के बीच) 1995 में शुरू हुई । मेट्रो की अधिकतम गति 55 कि. मी. प्रति घंटा तथा न्यूनतम गति 30 कि.मी. प्रति घंटा है । प्रत्येक कोच में 48 यात्रियों के बैठने और 278 यात्रियों के खड़े होने की व्यवस्था है । पूरी ट्रेन की वहन क्षमता लगभग 2356 यात्री हैं । आज से यह दमदम से कवि नजरूल स्टेशन की 22.45 कि. मी. की दूरी 41 मिनटों में तय करेगी । दिल्ली में इसके काफ़ी बाद मट्रो कार्य शुरू हुआ और विस्तार तथा विकास की गति सराहनीय है । दिल्ली मेट्रो की सवारी करके सचमुच अहसास होता है कि आप किसी विदेशी शहर में घूम रहे हैं । महानायक उत्तम कुमार का निधन 1980 में हुआ और मेट्रो उसके पांच-छह वर्ष बाद शुरू हुई परंतु उनके नाम पर स्टेशन का नामकरण करने में इतने बरस लग गए । विस्तार सेवा के नए स्टेशनों के नाम क्रमश: मास्टर दा सूर्य सेन, काजी नजरूल इस्लाम, गीतांजलि, नेताजी सुभाष जैसी हस्तियों के नाम पर रखे गए हैं । अब बात करें किराए की, तो पांच किलोमीटर तक चार रुपए, पांच से दस कि.मी. के लिए छह रुपए, दस से पंद्रह कि.मी. के लिए आठ रुपए और पंद्रह से बीस कि.मी. के लिए बारह रुपए निर्धारित किए गए हैं । ख़ैर, बसों, टैक्सियों के मुकाबले मेट्रो की सवारी की मज़ा ही अलग है । समय की बचत बहुत होती है । आप किसी को दिए गए समयानुसार गंतव्य पर पहुंच सकते हैं । हाँ, इन दिनों मेट्रो में खुदकुशी की प्रवणता भी काफ़ी बढ़ी है क्योंकि जब तक चालक को अहसास हो पाता है और वह ब्रेक लगाए तब तक कई बोगियां शरीर के ऊपर से गुज़र चुकी होती हैं । खुदकुशी की इन घटनाओं पर अंकुश लगना आवश्यक है । आदमी खुद तो चलता बनता है, अपने घर-परिवार के बारे में भूल कर वह अपनी व्यक्तिगत तकलीफ़ को इतना महत्वपूर्ण समझ लेता है कि सब कुछ ताक पर रखकर जान दे देने को आतुर हो जाता है और ऐसा भयानक कदम उठा लेता है । इन घटनाओं के चलते लगभग घंटे भर तक तो यातायात सामान्य नहीं हो पाता । ऐसी ही एक घटना के मौके़ पर मेट्रो सेवा ठप्प थी और मुझे आकाशवाणी एफ. एम. पर लाईव शो पेश करने पहुंचना था तो किसी तरह गिरते-प़ड़ते टैक्सी पकड़ जाम की समस्या से जूझते हुए शो शुरू होने से सात-आठ मिनट पहले पहुंच पाई । मेट्रो के जहां इतने फ़ायदे हैं वहीं यह उसका दुखद पहलू है । इस दिशा में मेट्रो प्रशासन को दुरुस्त क़दम उठाने होंगे ।
प्रस्तुति – नीलम शर्मा ‘अंशु’( 23-08-2009)

13 अगस्त 2009


        भुलाए न भूले सफ़र मुहम्मद रफ़ी के गाँव का !




हमारे भारत ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है तथा कई मिसालें क़ायम की हैं । तभी तो भारत की पवित्र माटी पर जन्मा भारतीय सपूत बड़े दावे के साथ कहता नज़र आता है कि -


‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब भी सुनोगे गीत मेरे 
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।’

इस शख्सीयत की आवाज़ की मिठास बरबस ही हमारे कानों में मधुर रस घोलती है और हम गुनगुना उठते हैं –


‘सौ बार जन्म लेंगे, सौ बार फ़ना होंगे

ऐ जाने वफ़ा फिर भी हम तुम न जुदा होंगे।’


जी हाँ, 24 दिसंबर, 1924 को अविभाजित हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत के अमृतसर जिले के मजीठा ब्लॉक के गाँव कोटला सुल्तान सिंह में जन्म हुआ था आवाज़ के धनी इस फ़नकार का जिन्हें तब लोग फीको और आज हम मुहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। जिस माटी में बालक फीको ने आँखें खोलीं और किलकारी भरी, मुझे खुशी है कि मुझे भी उस माटी के दर्शन करने का अवसर मिला। एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार। 12 अक्तूबर 2006 को मैं अपने परिवार सहित अमृतसर जिले के उस गाँव में गई थी और दूसरी बार 30 जुलाई 2008 को। यह गाँव अमृतसर शहर के बस अड्डे से 26 किलो मीटर के फासले पर है। दूसरी तरफ 26 किलोमीटर के फासले पर ही है ‘वाघा बॉर्डर' और फिर उस पार लाहौर। गाँव की सीमा में प्रवेश करते ही सबसे पहले दाँई तरफ़ नज़र आता है प्राइमरी स्कूल, जहाँ बालक फीको उर्फ़ मुहम्मद रफी़ ने शिक्षा प्राप्त की। मैंने स्कूल के भीतर जाकर स्कूल प्रबंधन से मुलाक़ात की। जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं कोलकाता से विशेष रूप से आई हूँ तो वे उत्साहित हो उठे। हमें चाय पान करवाया।

खुले आसमां के नीचे बच्चों की क्लास चल रही थीं। बच्चों से मैंने पूछा कि आपका गाँव क्यों प्रसिद्ध है तो उन्होंने जवाब दिया कि मशहूर गायक मुहम्मद रफ़ी यहीं पैदा हुए थे इसलिए। तीसरी कक्षा की छात्रा खुशप्रीत कौर ने मैं जट्ट यमला पगला दीवाना गीत गुनगुना कर सुनाया। खुशप्रीत की ख़ासियत यह रही कि उसने रफी और आशा भोंसले द्वारा गाया पंजाबी गीत खुद ही डूयेट के रूप में सुनाया। स्कूल की हेल्पर श्रीमती लखविंदर कौर ने फिल्म बैजू बावरा का गीत ओ दुनिया के रखवारे गाकर सुनाया।


ज़रा सा आगे बढ़ने पर बाँई तरफ गाँव का हाई स्कूल है, श्री दश्मेश सीनियर सेकेंडरी स्कूल। 1979 में इसकी स्थापना की गई। स्कूल का प्रवेश द्वार रफ़ी साहब को समर्पित है। हाई स्कूल के प्रिंसीपल सरदार मलूक सिंह भट्टी ने बताया कि स्कूल का कंप्यूटर कक्ष भी मुहम्मद रफ़ी को समर्पित है। मुझे इस बात पर बहुत दु:ख हुआ कि प्राईमरी के बच्चों ने जहां इतने उत्साह से रफ़ी के गीत गुनगुनाए वहीं हाई स्कूल के बच्चे एक पंक्ति तक न गुनगुना सके। बहुत ज़ोर देने पर प्लस वन मेडीकल की छात्रा मंदीप कौर गिल ने कहा कि मुहम्मद रफ़ी बहुत बढ़िया गायक थे और बहारो फूल बरसाओ गीत गुनगुनाया।


मैट्रिक पास और चौथी कक्षा तक रफ़ी के सहपाठी रहे 85 वर्षीय सरदार कुंदन सिह ने बालक रफ़ी की बहुत सी यादें हमारे साथ बांटी। दोनों पड़ोसी थे, घर पास-पास थे। बालक रफ़ी पढ़ाई में ठीक-ठाक था, शरारती भी नहीं था। फीको के पिता हाजी मुह. अली का लाहौर में व्यवसाय था। फीको चाचा के पास गाँव में ही रहता था। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक दिन उसने कुंदन सिंह से कहा कि मैं अगली जमात में दाखिला नहीं लूंगा क्योंकि मैं लाहौर जा रहा हूँ। बालक कुंदन ने कहा कि अपनी कोई निशानी तो देते जाओ। बालक रफ़ी ने घर के पास स्थित आम के बाग में एक पेड़ पर अपना नाम खोद दिय़ा – फ़ीको। ये अलग बात है कि कुछ वर्ष पूर्व बाग के मालिक ने अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए उस पेड़ को कटवा दिया। रफ़ी का पुश्तैनी घर अब बिक चुका है।




कुंदन सिंह जी क्षोभ से कहते हैं कि सरकार ज़रा सी भी जागृत होती तो उस घर को खरीद कर संग्रहालय का रूप दे सकती थी। गांव में कभी-कभार जन्म दिन के मौक़े पर रफ़ी यादगारी मेले का आयोजन किया जाता है। कुंदन सिंह कहते हैं कि रफ़ी से संपर्क करने पर रफ़ी ने बहुत बार कहा कि आप गाँव में जो कुछ भी बनाना चाहते हैं, बनाईए, मैं साथ देने को तैयार हूँ परंतु पहल तो आप लोगों को ही करनी होगी। परंतु गांव के तत्कालीन सरपंच या सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई। वे इस उदासीनता के लिए रफ़ी को भी कसूरवार ठहराते हैं कि रफ़ी ने गाँव छोड़ने के बाद या यूं कहें कि रफ़ी बनने के बाद गाँव से कोई संपर्क ही नहीं रखा जबकि वे देश विभा-जन के पश्चात् भी भारत में ही रहे। 1970 तक तो उनका मकान भी मौजूद था। अब किसी और ने उसे खरीद कर ढहा कर नया बना लिया है। वहाँ मवेशी बंधे रहते हैं।


मुहम्मद रफ़ी के पिता हाजी मुहम्मद अली बेहतरीन कुक थे। तरह-तरह के पकवान बनाने में माहिर थे। कुंदन सिंह बताते हैं कि वे एक ही देग में सात रंगों का पुलाव बना डालते थे। कुंदन सिंह जी ने रफ़ी को परफार्म करते हुए 1971 में कलकत्ते में सुना। लोगों ने मु. रफ़ी से अपनी पसंद का कोई भी गीत सुनवाने का आग्रह किया तो रफ़ी साहब ने कहा कि अपनी पसंद से मैं एक पंजाबी गीत सुनाना चाहूंगा और वह गीत था –दंद च लगा के मेखां, मौज बंजारा लै गिया। और एक बार रफ़ी 1956 में अमृतसर के एलेकजेंडर ग्रांउड में भी परफॉर्म करने आए थे तो गाँव वालों सहित कुंदन सिंह भी उनसे मिलने गए। तीन रातों तक लगातार शो चलता रहा।
उन्होंने बताया कि 1945 में कोटला सुल्तान सिंह में ही चाचा की बेटी बशीरा से रफ़ी की शादी हुई थी। बारात लाहौर से आई थी। बाद में उनसे रफी साहब का अलगाव हो गया। फिर दूसरी शादी हुई। उन्होंने बताया कि लाहौर के समीप किला गुज्जर सिंह में नाई की दुकान थी। अमृतसर से जाने के बाद बालक रफ़ी उसी दुकान पर नाखून काटने का काम करता था और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनका स्वभाव था।


ऐसे में एक दिन पंचोली आर्ट पिक्चर के कर्ता-धर्ता तथा ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर के निदेशक वहां हजामत करवाने आए तो उन्होंने रफ़ी को एक कविता लिख कर दी और कहा कि अमुक प्रोग्राम में सुनानी है। बस इसी तरह सफ़र चल निकला और एक दिन रेडियो लाहौर के मार्फत् रफ़ी की आवाज़ घर-घर तक पहुंची। और वे छा गए। फिर कालांतर में उनके बंबई फिल्म इंडस्ट्री की पारी के विषय में तो सारी दुनिया परिचित है। कुंदन सिंह कहते हैं कि मैं जब पाकिस्तान दौरे पर गया था तो वहां उनके भाईयों से भी मिला। उन्हें अफसोस इस बात का है कि मेरी आँखें मुंद जाने के बाद इस गाँव में रफ़ी के बारे में बताने वाला कोई भी न होगा।






अब गाँव में मुहम्मद रफ़ी चैरीटेबल ट्रस्ट बनाया गया है। हाई स्कूल के विपरीत पंचायत ने एक किल्ला ज़मीन उपलब्ध करवाई है, जहां मुहम्मद रफ़ी की स्मृति में एक पुस्तकालय भवन बनाया जा रहा था(जो कि अक्तूबर 2006 और जुलाई 2008 में मेरे दूसरे दौरे तक निर्माणाधीन था, शायद अब बन कर तैयार हो गया हो)। वर्तमान सरपंच स। कुलदीप सिंह ने बताया कि कांग्रेस सरकार ने पाँच लाख का अनुदान दिया था जिससे पुस्तकालय भवन का सिर्फ़ ढाँचा ही तैयार हो पाया था। इतनी ही राशि की और आवश्यकता है तथा उन्हें ग्रांट का इंतज़ार है।
कुंदन सिंह चाहते हैं कि रफ़ी के नाम अस्पताल बनाया जाना बेहतर होता इससे जन-कल्याण का काम हो पाता। वे कहते हैं कि अफसोस है कि लता मंगेशकर के रहते ही उनके नाम पर इतना कुछ हो परंतु रफ़ी के गुज़र जाने के बाद भी कुछ ख़ास नहीं हो पाया उनकी स्मृति में। 





यह दिल रफ़ी साहब के प्रति बेहद शुक्रगुज़ार है कि उन्होंने बाकी लेखकों या कलाकारों की तरह देश-विभाजन के वक्त पाकिस्तान का रुख नहीं किया वर्ना आज हम उन के नाम पर फख्र से सर ऊँचा करने से वंचित रह जाते। धन्य हैं ये आँखें और पाँव जिन्हें एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार उस माटी के दर्शन का अवसर मिला जो रफ़ी की जन्म भूमि कहलाती है। अंत में कोलकाता के ही जाने माने गायक मुहम्मद अज़ीज़ के गाए गीत से बोल उधार लेकर कहना चाहूंगी कि


‘न फ़नकार तुझसा तेरे बाद आया,

मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया।’



यूं तो आकाशवाणी के एफ.एम. रेनबो पर पिछले 12 वर्षों में कई बार ऱफी साहब पर लाइव प्रोग्राम किए हैं। अभी 31 जुलाई 2010 को उनकी पुण्यतिथि के मौके पर भी प्रोग्राम पेश किया। इस बार पहली बार उपरोक्त गीत बजाने के लिए उपलब्ध हो पाया। इसी सिलसिले में मुहम्मद अज़ीज़ साहब से भी फोन पर बात हुई तो उन्होंने अपने संदेश में कहा - ‘रफ़ी साहब की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। वे अपने आप में एक इंस्टीट्यूट थे। प्ले बैक को उन्होंने एक नया मोड़ दिया। उनसे पहले के सिंगर लो पिच में गाया करते थे । रफ़ी साहब के गायकी में वैरायटी थी, वे versatile singer थे । उनको सुनकर बहुत से लोगों ने गाना सीखा। मैं अपने आप को ख़ुशकिस्मत समझता हूँ कि जिनके गाने बचपन में हमने सुने, सुनकर गाना सीखा, अंत में मैं उनके लिए भी गा पाया।’






प्रस्तुति - नीलम शर्मा ‘अंशु

11 अगस्त 2009

रेडियो की यादें तथा कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
(26 अगस्त आकाशवाणी कोलकाता के जन्मदिन पर विशेष)

पुराने ज़माने में हमारे पास मनोरंजन के साधन न के बराबर हुआ करते थे। नानी, दादी के क़िस्सों से हम बच्चे खुश हो जाया करते। उनसे राजा-रानी, परियों की कहानियां सुनते-सुनते कब रात को नींद हमें अपने आगोश में ले लेती पता ही न चलता। और, अब वे क़िस्से कहीं पीछे छूट गए हैं क्योंकि आज बच्चों की नानी और दादी भी कहीं बहुत पीछे छूटती जा रही हैं । उन्हें अपने इस ‘छूटने’ का मलाल क़तई नहीं बल्कि (बकौल डॉ कुमार विनोद) उनकी परेशानी का आलम कुछ यूं हैं -
‘बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न आजकल राजा है न रानी है।’


मुझे अच्छी तरह याद है......बचपन में नानी और दादी का आँचल तो नहीं मिला, हां मां ज़रूर रात को कहानियां सुनाया करती थीं। उनमें राजा-रानी के किस्सों के साथ-साथ पौराणिक कहानियां ज्यादा होतीं। मुझसे लगभग ग्यारह वर्ष छोटा मेरा भाई जब तीन-साढ़े तीन वर्ष का था तो जब तक मां रात को रसोई के काम से फ़ारिग होकर बिस्तर पर आती, वह मुझसे कहा करता कि दीदी तब तक तुम कोई कहानी सुनाओ। मैं जैसे ही सुनाना शुरू करती - इक सी राजा....., वह तुरंत अपने तुतलाते स्वर में कहता – इक नाणी
राजा – रानी और परियों की कहानी के साथ हमारे पास मनोरंजन का एक साधन और भी मौजूद था – रेडियो ! जी हां, उस ज़माने में रेडियो ही वह सशक्त माध्यम था, जो मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाएं भी देता था। उससे भी बहुत पहले उसकी पहुंच हर किसी के वश की बात नहीं थी। जिस घर में रेडियो होता, उस घर के बाहर लोगों का मजमा इकट्ठा हो जाता। सभी एक जगह बैठकर एक साथ मिलकर सुनते। लोग हैरान होते कि उस डिब्बे में से आखि़र आवाज़ कैसे निकलती है। मेरा रेडियो से पहला परिचय शैशवावस्था में ही हुआ। मेरे पिता जिस कंस्ट्रक्शन कंपनी में कार्यरत थे उनके रसोईये को रेडियो सुनने की बहुत आदत थी। रेडियो का हैंडल पकड़े वह इधर-उधर घूमता रहता, काम भी करता। एक दिन उसी के रेडियो में दिल से संबंधित कोई गाना बज रहा था, वह गाना सुनकर मैंने मेरी मां से तुतलाती हुई आवाज़ में कहा था – 'मम्मी, मम्मी! डीडी (रेडियो) कैंहदा, दिल्ला मेरा ' (मुझे तो याद नहीं घर वाले बताते हैं)। हमारे घर में रेडियो बजाने की अनुमति नहीं थी, हां यह अलग बात है कि घर के सामने डेकोरे़टर्स की दुकानों पर दिन भर फिल्मी गीत बजा करते थे। व्यक्तिगत रूप से रेडियो से जुड़ाव कॉलेज के दिनों में हुआ। भाई साहब ने रेडियो खरीद कर लाकर दिया। तब मैं रेडियो पास रखकर ही पढ़ा करती। परीक्षा की तैयारी भी इसी तरह होती। रेडियो धीमे स्वर में बजता रहता, भले ही उसके कार्यक्रमों की तरफ ध्यान रहता हो या नहीं। कॉलेज का वक्त पंजाब में गुज़रा, उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चर्मोत्कर्ष पर था पर हमें उससे कोई मतलब नहीं था। हमारी अपनी ही दुनिया था, आवाज़ के साथियों की दुनिया। वहां ऑल रेडियो दिल्ली की उर्दू सर्विस खूब सुनी जाती थी। प्रसारण भी बहुत स्पष्ट होता था मीडियम वेव पर। तरह-तरह के फ़रमाईशी गीतों के प्रोग्राम, ख़तों के प्रोग्राम, बच्चों के प्रोग्राम, फ़िल्मों से संबंधित तरह-तरह के प्रोग्राम। हम आवाज़ के ज़रिए प्रोग्राम के आर. जे. को पहचाना करते या फिर उनकी प्रस्तुति के विशेष अंदाज़ से भी। बस यहीं से रेडियो से गंभीरता से जुड़ाव हुआ। ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस ज़िंदगी का अहम् हिस्सा बन गई थी 1980 से 86 तक। 1986 के बाद वापिस बंगाल आए तो भी दुआर्स में शॉर्ट वेव पर उसे सुन लेते परंतु 1989 में कोलकाता आने के बाद उर्दू सर्विस का साथ छूट गया क्योंकि यहां शॉर्ट वेव पर उसे ट्यून करने में बहुत मशक्त करनी पड़ती, तिस पर प्रसारण भी स्पष्ट सुनाई नहीं देता। आज भी जब-जब पंजाब जाना होता है तो हम उसे बड़ी शिद्दत से सुनते हैं। रेडियो के जुनून का सिलसला ऐसा रहा कि जब - जब मौका मिलता खाली वक्त में कोलकाता में ऑफिस में भी ड्रॉयर में रख रेडियो सुना करती। इसके बाद 1998 में आकाशवाणी कोलकाता की एफ. एम. सेवा शुरू हुई तो पता चला कि सुबह नौ बजे और शाम छह बजे तक बड़े बढ़िया हिन्दी गीत बजा करते हैं तो उसे सुनने का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। इसी दौरान रेडियो पर घोषणा सुनकर एफ. एम के आकस्मिक आर. जे. के लिए आवेदन किया और अब विगत ग्यारह वर्षों से खुद ऑल इंडियो रेडियो एफ. एम पर परफार्म कर रही हूं। बल्कि इस तरह रेडियो का वह जु़ड़ाव और मजबूत हो गया। रेडियो से जुड़ा एक क़िस्सा और शेयर करना चाहूंगी। 1990 में दिल्ली रेडियो गई तो वहां अपने क़ालेज के ज़माने में सुने आर. जे. से मुलाक़ात की। रेडियो के रिसेप्शन रजिस्टर में मैंने अपने नाम के साथ सिर्फ़ 6, एस्पलानेड ईस्ट, कोलकाता - 69 लिखा था, अपने ऑफिस का नाम नहीं लिखा था । फिर भी रजिस्टर से प्राप्त अधूरे पते पर ही रेडियो के किसी स्टाफ द्वारा भेजा गया पत्र मेरे ऑफिस में मुझ तक पहुंच गया। उन दिनों तो कोलकाता में मुझे ज़्यादा लोग जानते भी नहीं थे, शहर में आए साल भर हुआ था। रेडियो अब भी मेरे पास ऑफिस ड्रायर में रखा रहता है, यह अलग बात है कि अब सुनने की उतनी फुर्सत नहीं मिलती, ज़रूरी होने पर न्यूज़ बुलेटिन कभी-कभार अवश्य सुन लेती हूं।

रेडियो से जुड़ा यादगार वाक्या : बतौर आर. जे. दो यादगार घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगी, पहली यह कि मैंने आकाशवाणी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर छायालोक की विशेष तैयारी की थी। मेरा प्रोग्राम 6 बजे से शुरू होना था। उससे पहले लखनऊ केन्द्र से आकाशवाणी के वार्षिक पुरस्कार वितरण से संबंधित लाइव प्रोग्राम का प्रसारण चल रहा था। वह लाइव प्रोग्राम इतना लंबा चला कि मेरे प्रोग्राम का समय भी उसी में कवर हो गया और मैं स्टुडियो में माइक्रोफोन के सामने बैठी इंतज़ार ही करती रह गई। दूसरी घटना है, उन दिनों अभिनेता प्रदीप कुमार साहब अपनी अस्वस्थता के दिनों में कोलकाता में थे। मैंने उन पर पूरे एक घंटे का लाइव शो पेश किया, जिसे उन्होंने अपने आवास पर सुना। उनकी गुज़रे ज़माने की यादें ताज़ा हो गई और उन्होंने सुनकर उस प्रोग्राम को सराहा। यह मेरी विशेष उपलब्धि रही कि इतने बड़े कलाकार ने मेरी परफार्मेन्स को सुना। एफ. एम. से ज़ुड़ने के बाद रेडियो कोलकाता को जितना मैंने जाना चलिए आप को भी बता दूं।
जी हां, 15 अगस्त और 26 जनवरी इतिहास के पन्नों में क्यों दर्ज हैं इससे तो शहर का बच्चा-बच्चा परिचित होगा लेकिन 26 अगस्त के बारे में ही शायद किसी को याद हो। 26 अगस्त 1927 को आकाशवाणी के कोलकाता केन्द्र की स्थापना हुई। बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल सर स्टेनली जैक्सन ने इसकी स्थापना की थी। आरंभ में इसका कार्यालय 1 गरस्टिन प्लेस में (अब बी. बी. डी. बाग़) में था। इसके पश्चात् 15 सितंबर 1958 में इसे इडेन गार्डन के मौजूदा भवन में स्थानांतरित किया गया। 1 अप्रैल 1930 को ही रेडियो का प्रसारण सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गया था। Deptt. of Industries & Labour के अधीन इसका Indian Broadcasting Service नामकरण किया गया। 1 जनवरी 1936 को Indian State Broadcasting Service के दिल्ली केन्द्र की स्थापना की गई। 8 जून 1936 को इसक नामकरण किया गया – All India Radio. पुन: 1938 में इसका नामकरण किया गया - ‘आकाशवाणी’। रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित कविता ‘आकाशवाणी’ के आधार पर यह नामकरण किया गया। 1935 तक रेडियो से दो समाचार बुलेटिन प्रसारित होते थे, एक अंग्रेजी में और दूसरा भारतीय भाषा में। 1947 तक आते-आते इनकी संख्या बढकर 74 हो गई। इसके बाद रेडियो की अपनी पत्रिका भी प्रकाशित की जाने लगी, अंग्रेजी में ‘ All India Times’ और बांग्ला में ‘बेतार जगत’। 20 अक्तूबर 1941 को आकाशवाणी को सूचना मंत्रालय में शामिल किया गया। आकाशवाणी से प्रसारित सर्वश्रेष्ठ नाटक, फीचर तथा संगीतप्रधान नाटकों के लिए 1974 से आकाशवाणी के वार्षिक पुरस्कार शुरू किए गए।

कविगुरु रवीन्द्ननाथ की कविता जिस के आधार पर ऑल इंडिया रेडियो
का नामकरण
‘आकाशवाणी’ हुआ :

आकाशवाणी

धौरार आंगिना होईते एई शोनो
उठिलो आकाशवाणी।
अमोर लोकेर मोहिमा दिलो जे मर्तोलोकेरे आनि।
शरोशोतीर आशोन पातिलो
नील गगोनेर माझे
आलोक बीनार शौभा मौंडले
मानूषेर बीना बाजे।
शूरेर प्रबाहो धारा शुरोलोके
दूर के शे नैय चिनि
कोवी कौल्पोना बोहियो चोलिलो
औलोख शौदामिनि
भाषारौश धाए पूर्बे-पोश्चिमे
सूर्जोरौशेर शाथी
उधाऊ रोइलो मानोब चित्तो
शौर्गेर शीमानाते। ( रवीन्द्र नाथ ठाकुर )

हिन्दी प्रसारण : 1954 में आकाशवाणी कोलकाता से हिन्दी सेवा का प्रसारण आरंभ हुआ और 1980 में उर्दू सेवा का। एफ. एम.सेवा भी 1980 से शुरू हुई जिसकी समय-सीमा थी सुबह 7 बजे से 11 बजे तक। 1995 में इस समय-सीमा को बढ़ाकर 24 घंटे कर दिया गया।

हिन्दी एफ. एम : एफ. एम. की हिन्दी सेवा (107 मेगाहर्टज् पर) जून 1998 से शुरू हुई। इसके तहत् फिल्मी गीतों का कार्यक्रम सिर्फ़ शाम को प्रसारित किया जाता था। 18 अगस्त 1998 से यह कार्यक्रम सुबह भी प्रसारित किया जाने लगा। सितंबर 1998 में इसका नामकरण किया गया – ‘छायालोक’ ।


चैनलों का नया नामकरण
: 1 सितंबर 2001 को एफ. एम के द्वितीय चैनल (100.2 मेगा.) का प्रसारण शुरू हुआ। अप्रैल 2002 में एफ. एम. के इन दोनों चैनलों का नया नामकरण
किया गया क्रमश: रेनबो और गोल्ड। ट्रैफिक संबंधी जानकारी का प्रसारण 16 फरवरी 2002 से हुआ।

रेडियो पर प्रथम : विश्व के प्रथम अनांउसर थे, हंगरी के वुडापेस्ट शहर के एडे शर्टसई। 1901 में उन्होंने प्रथम बार माइक्रोफोन का सामना किया था। वहीं आकाशवाणी कोलकाता की प्रथम महिला एनांउसर थीं - श्रीमती इंदिरा देवी। महिला महल कार्यक्रम की प्रथम संचालिका थी श्रीमती बेला दे।

अभिलेखागार : आकाशवाणी कोलकाता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर महत्वपूर्ण अभिलेखों को संरक्षित किया गया। आकाशवाणी के पूरे गौरवशाली इतिहास को 52 एपिसोडों में सहेजा गया है। इसके लिए केन्द्रीय अभिलेखागार बनाया गया और आकाशवाणी के प्रोड्यूसर प्रदीप कुमार मित्रा ने लगभग 7250 अभिलेखों को संरक्षित किया। ज्योति बसु, महाश्वेता देवी, शैलेन मन्ना जैसे विशिष्ट और प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों पर तीन-तीन घंटों की रिकॉर्डिंग उपलब्ध है। लोगों की मांग को देखते हुए आंचलिक संगीत पर ज़ोर देते हुए ड्रामा, लोक नाट्य और साहित्य से संबंधित प्रोजेक्ट तैयार किए गए हैं। बंगाल के लोकगीत, भक्ति संगीत, देश भक्ति गीत के साथ-साथ विभिन्न भाषाओं की सर्व भारतीय श्रेष्ठ कहानियों के ‘चिरंतन कौथा’ शीर्षक से 26 एपिसोड तैयार किए गए हैं। लोक कला की श्रृंखला के तहत् विभिन्न थीमों पर सात ऑडियो जात्राओं को संरक्षित किया गया है। लोक नाट्य की श्रृंखला पर आधारित 11 एपीसोड, साहित्य पर 75 तथा बंगाल के साहित्यकारों पर 75 और साहित्यकारों की पुस्तकों के चुनिंदा अंशों पर आधारित ‘चिरंतन’ शीर्षक से 5 मिनटों के 534 धारावाहिकों का निर्माण किया गया है। विज्ञान से संबंधित कार्यक्रमों की श्रृंखला में बंगाल के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों पर आधारित ‘लिंटन टू लेजर’ नामक 5 एपिसोड उपलब्ध हैं। नई पीढ़ी को अपनी समृद्ध विरासत से परिचित करवाने के लिए आंचलिक अभिलेखों को संरक्षित कर रिलीज करने में प्रयासरत है आकाशवाणी। इसके तहत् रवीन्द्र संगीत की दो सी डी जारी की गई हैँ।

वर्तमान में आकाशवाणी के एफ. एम. चैनलों सहित पाँच चैनल प्रतिदिन 91 घंटों का प्रसारण प्रस्तुत करते हैं तथा फोन इन कार्यक्रमों के माध्यम से 31 घंटे का।
रेडियों का महत्व इस बात में भी है कि कई कलाकारों ने रेडियो पर दिग्गज कलाकारों के गाने को अपना प्रेरणा-स्त्रोत माना। पार्शव गायक सुदेश भोंसले ने कभी अपने साक्षात्कार में इस लेखिका से कहा था कि रेडियो पर रफ़ी और किशोर साहब के गीत सुन-सनुकर ही मैंने गाना सीखा।

- नीलम शर्मा ‘अंशु’ (11-8-2009)