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13 अगस्त 2009


        भुलाए न भूले सफ़र मुहम्मद रफ़ी के गाँव का !




हमारे भारत ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है तथा कई मिसालें क़ायम की हैं । तभी तो भारत की पवित्र माटी पर जन्मा भारतीय सपूत बड़े दावे के साथ कहता नज़र आता है कि -


‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब भी सुनोगे गीत मेरे 
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।’

इस शख्सीयत की आवाज़ की मिठास बरबस ही हमारे कानों में मधुर रस घोलती है और हम गुनगुना उठते हैं –


‘सौ बार जन्म लेंगे, सौ बार फ़ना होंगे

ऐ जाने वफ़ा फिर भी हम तुम न जुदा होंगे।’


जी हाँ, 24 दिसंबर, 1924 को अविभाजित हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत के अमृतसर जिले के मजीठा ब्लॉक के गाँव कोटला सुल्तान सिंह में जन्म हुआ था आवाज़ के धनी इस फ़नकार का जिन्हें तब लोग फीको और आज हम मुहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। जिस माटी में बालक फीको ने आँखें खोलीं और किलकारी भरी, मुझे खुशी है कि मुझे भी उस माटी के दर्शन करने का अवसर मिला। एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार। 12 अक्तूबर 2006 को मैं अपने परिवार सहित अमृतसर जिले के उस गाँव में गई थी और दूसरी बार 30 जुलाई 2008 को। यह गाँव अमृतसर शहर के बस अड्डे से 26 किलो मीटर के फासले पर है। दूसरी तरफ 26 किलोमीटर के फासले पर ही है ‘वाघा बॉर्डर' और फिर उस पार लाहौर। गाँव की सीमा में प्रवेश करते ही सबसे पहले दाँई तरफ़ नज़र आता है प्राइमरी स्कूल, जहाँ बालक फीको उर्फ़ मुहम्मद रफी़ ने शिक्षा प्राप्त की। मैंने स्कूल के भीतर जाकर स्कूल प्रबंधन से मुलाक़ात की। जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं कोलकाता से विशेष रूप से आई हूँ तो वे उत्साहित हो उठे। हमें चाय पान करवाया।

खुले आसमां के नीचे बच्चों की क्लास चल रही थीं। बच्चों से मैंने पूछा कि आपका गाँव क्यों प्रसिद्ध है तो उन्होंने जवाब दिया कि मशहूर गायक मुहम्मद रफ़ी यहीं पैदा हुए थे इसलिए। तीसरी कक्षा की छात्रा खुशप्रीत कौर ने मैं जट्ट यमला पगला दीवाना गीत गुनगुना कर सुनाया। खुशप्रीत की ख़ासियत यह रही कि उसने रफी और आशा भोंसले द्वारा गाया पंजाबी गीत खुद ही डूयेट के रूप में सुनाया। स्कूल की हेल्पर श्रीमती लखविंदर कौर ने फिल्म बैजू बावरा का गीत ओ दुनिया के रखवारे गाकर सुनाया।


ज़रा सा आगे बढ़ने पर बाँई तरफ गाँव का हाई स्कूल है, श्री दश्मेश सीनियर सेकेंडरी स्कूल। 1979 में इसकी स्थापना की गई। स्कूल का प्रवेश द्वार रफ़ी साहब को समर्पित है। हाई स्कूल के प्रिंसीपल सरदार मलूक सिंह भट्टी ने बताया कि स्कूल का कंप्यूटर कक्ष भी मुहम्मद रफ़ी को समर्पित है। मुझे इस बात पर बहुत दु:ख हुआ कि प्राईमरी के बच्चों ने जहां इतने उत्साह से रफ़ी के गीत गुनगुनाए वहीं हाई स्कूल के बच्चे एक पंक्ति तक न गुनगुना सके। बहुत ज़ोर देने पर प्लस वन मेडीकल की छात्रा मंदीप कौर गिल ने कहा कि मुहम्मद रफ़ी बहुत बढ़िया गायक थे और बहारो फूल बरसाओ गीत गुनगुनाया।


मैट्रिक पास और चौथी कक्षा तक रफ़ी के सहपाठी रहे 85 वर्षीय सरदार कुंदन सिह ने बालक रफ़ी की बहुत सी यादें हमारे साथ बांटी। दोनों पड़ोसी थे, घर पास-पास थे। बालक रफ़ी पढ़ाई में ठीक-ठाक था, शरारती भी नहीं था। फीको के पिता हाजी मुह. अली का लाहौर में व्यवसाय था। फीको चाचा के पास गाँव में ही रहता था। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक दिन उसने कुंदन सिंह से कहा कि मैं अगली जमात में दाखिला नहीं लूंगा क्योंकि मैं लाहौर जा रहा हूँ। बालक कुंदन ने कहा कि अपनी कोई निशानी तो देते जाओ। बालक रफ़ी ने घर के पास स्थित आम के बाग में एक पेड़ पर अपना नाम खोद दिय़ा – फ़ीको। ये अलग बात है कि कुछ वर्ष पूर्व बाग के मालिक ने अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए उस पेड़ को कटवा दिया। रफ़ी का पुश्तैनी घर अब बिक चुका है।




कुंदन सिंह जी क्षोभ से कहते हैं कि सरकार ज़रा सी भी जागृत होती तो उस घर को खरीद कर संग्रहालय का रूप दे सकती थी। गांव में कभी-कभार जन्म दिन के मौक़े पर रफ़ी यादगारी मेले का आयोजन किया जाता है। कुंदन सिंह कहते हैं कि रफ़ी से संपर्क करने पर रफ़ी ने बहुत बार कहा कि आप गाँव में जो कुछ भी बनाना चाहते हैं, बनाईए, मैं साथ देने को तैयार हूँ परंतु पहल तो आप लोगों को ही करनी होगी। परंतु गांव के तत्कालीन सरपंच या सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई। वे इस उदासीनता के लिए रफ़ी को भी कसूरवार ठहराते हैं कि रफ़ी ने गाँव छोड़ने के बाद या यूं कहें कि रफ़ी बनने के बाद गाँव से कोई संपर्क ही नहीं रखा जबकि वे देश विभा-जन के पश्चात् भी भारत में ही रहे। 1970 तक तो उनका मकान भी मौजूद था। अब किसी और ने उसे खरीद कर ढहा कर नया बना लिया है। वहाँ मवेशी बंधे रहते हैं।


मुहम्मद रफ़ी के पिता हाजी मुहम्मद अली बेहतरीन कुक थे। तरह-तरह के पकवान बनाने में माहिर थे। कुंदन सिंह बताते हैं कि वे एक ही देग में सात रंगों का पुलाव बना डालते थे। कुंदन सिंह जी ने रफ़ी को परफार्म करते हुए 1971 में कलकत्ते में सुना। लोगों ने मु. रफ़ी से अपनी पसंद का कोई भी गीत सुनवाने का आग्रह किया तो रफ़ी साहब ने कहा कि अपनी पसंद से मैं एक पंजाबी गीत सुनाना चाहूंगा और वह गीत था –दंद च लगा के मेखां, मौज बंजारा लै गिया। और एक बार रफ़ी 1956 में अमृतसर के एलेकजेंडर ग्रांउड में भी परफॉर्म करने आए थे तो गाँव वालों सहित कुंदन सिंह भी उनसे मिलने गए। तीन रातों तक लगातार शो चलता रहा।
उन्होंने बताया कि 1945 में कोटला सुल्तान सिंह में ही चाचा की बेटी बशीरा से रफ़ी की शादी हुई थी। बारात लाहौर से आई थी। बाद में उनसे रफी साहब का अलगाव हो गया। फिर दूसरी शादी हुई। उन्होंने बताया कि लाहौर के समीप किला गुज्जर सिंह में नाई की दुकान थी। अमृतसर से जाने के बाद बालक रफ़ी उसी दुकान पर नाखून काटने का काम करता था और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनका स्वभाव था।


ऐसे में एक दिन पंचोली आर्ट पिक्चर के कर्ता-धर्ता तथा ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर के निदेशक वहां हजामत करवाने आए तो उन्होंने रफ़ी को एक कविता लिख कर दी और कहा कि अमुक प्रोग्राम में सुनानी है। बस इसी तरह सफ़र चल निकला और एक दिन रेडियो लाहौर के मार्फत् रफ़ी की आवाज़ घर-घर तक पहुंची। और वे छा गए। फिर कालांतर में उनके बंबई फिल्म इंडस्ट्री की पारी के विषय में तो सारी दुनिया परिचित है। कुंदन सिंह कहते हैं कि मैं जब पाकिस्तान दौरे पर गया था तो वहां उनके भाईयों से भी मिला। उन्हें अफसोस इस बात का है कि मेरी आँखें मुंद जाने के बाद इस गाँव में रफ़ी के बारे में बताने वाला कोई भी न होगा।






अब गाँव में मुहम्मद रफ़ी चैरीटेबल ट्रस्ट बनाया गया है। हाई स्कूल के विपरीत पंचायत ने एक किल्ला ज़मीन उपलब्ध करवाई है, जहां मुहम्मद रफ़ी की स्मृति में एक पुस्तकालय भवन बनाया जा रहा था(जो कि अक्तूबर 2006 और जुलाई 2008 में मेरे दूसरे दौरे तक निर्माणाधीन था, शायद अब बन कर तैयार हो गया हो)। वर्तमान सरपंच स। कुलदीप सिंह ने बताया कि कांग्रेस सरकार ने पाँच लाख का अनुदान दिया था जिससे पुस्तकालय भवन का सिर्फ़ ढाँचा ही तैयार हो पाया था। इतनी ही राशि की और आवश्यकता है तथा उन्हें ग्रांट का इंतज़ार है।
कुंदन सिंह चाहते हैं कि रफ़ी के नाम अस्पताल बनाया जाना बेहतर होता इससे जन-कल्याण का काम हो पाता। वे कहते हैं कि अफसोस है कि लता मंगेशकर के रहते ही उनके नाम पर इतना कुछ हो परंतु रफ़ी के गुज़र जाने के बाद भी कुछ ख़ास नहीं हो पाया उनकी स्मृति में। 





यह दिल रफ़ी साहब के प्रति बेहद शुक्रगुज़ार है कि उन्होंने बाकी लेखकों या कलाकारों की तरह देश-विभाजन के वक्त पाकिस्तान का रुख नहीं किया वर्ना आज हम उन के नाम पर फख्र से सर ऊँचा करने से वंचित रह जाते। धन्य हैं ये आँखें और पाँव जिन्हें एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार उस माटी के दर्शन का अवसर मिला जो रफ़ी की जन्म भूमि कहलाती है। अंत में कोलकाता के ही जाने माने गायक मुहम्मद अज़ीज़ के गाए गीत से बोल उधार लेकर कहना चाहूंगी कि


‘न फ़नकार तुझसा तेरे बाद आया,

मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया।’



यूं तो आकाशवाणी के एफ.एम. रेनबो पर पिछले 12 वर्षों में कई बार ऱफी साहब पर लाइव प्रोग्राम किए हैं। अभी 31 जुलाई 2010 को उनकी पुण्यतिथि के मौके पर भी प्रोग्राम पेश किया। इस बार पहली बार उपरोक्त गीत बजाने के लिए उपलब्ध हो पाया। इसी सिलसिले में मुहम्मद अज़ीज़ साहब से भी फोन पर बात हुई तो उन्होंने अपने संदेश में कहा - ‘रफ़ी साहब की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। वे अपने आप में एक इंस्टीट्यूट थे। प्ले बैक को उन्होंने एक नया मोड़ दिया। उनसे पहले के सिंगर लो पिच में गाया करते थे । रफ़ी साहब के गायकी में वैरायटी थी, वे versatile singer थे । उनको सुनकर बहुत से लोगों ने गाना सीखा। मैं अपने आप को ख़ुशकिस्मत समझता हूँ कि जिनके गाने बचपन में हमने सुने, सुनकर गाना सीखा, अंत में मैं उनके लिए भी गा पाया।’






प्रस्तुति - नीलम शर्मा ‘अंशु

3 टिप्‍पणियां:

  1. नीलमजी, साधुवाद. रफी साहब के बारे में कई नई जानकारियां मिलीं। आप बेहद संवेदनशील हैं, यह आफकी लेखनी से स्पष्ट ज्ञात होता है। दुर्भाग्य है कि हर दिल अजीज़ गायक रफी साहब के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया गया।
    आपके इस आलेख को पढ़ते हुए मुझे कोलकाता में रफी साहब के एक प्रशंसक की याद आ गयी। बऊबाजार में गोयनका कॉलेज के मुख्य द्वार के पास एक छोटी सी दुकान है, जिसका मालिक रफी साहब का गजब प्रशंसक है। उन्होंने अपनी गहनों की दुकान में आभूषणों के साथ -साथ रफी साहब के कई बड़े-बड़े चित्र लगा रक्खे हैं। रपी साहब के जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर वह बाकायदा उनके चित्रों पर विशेष श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
    पुनः धन्यवाद

    प्रकाश चण्डालिया
    सम्पादक- राष्ट्रीय महानगर
    कोलकाता

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  2. उत्साहवर्धन हेतु दिल से आभार प्रकाश जी। यह आलेख 29 जुलाई, 2012 के प्रभात वार्ता में प्रकाशित हुआ है। रफ़ी साहब के एक और प्रशंसक भी है जो कि कभी बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में कार्यरत थे। नगर निगम कार्यालय के पास एलिट सिनेमा की तरफ से न्यु मार्केट जाते वक्त बाँई तरफ उनकी पान की दुकान है। उन्होंने भी उसे रफ़ी साहब की बड़ी-बड़ी तस्वीरों से सजा रखा है। उन्होंने ही पहली बार मुझे रफ़ी साहब के बी.बी.सी. द्वारा किए गए इंटरव्यु के कुछ अंश सुनवाए थे। इतनी विनम्रता भरी आवाज़ लगता ही नहीं कि यह आवाज़ और गायकी वाली आवाज़ एक ही शख्सीयत की है। पुन: आभार। - नीलम शर्मा 'अंशु'

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  3. Bahot dilchasp aur dil ko chhoo lene wali post hai .. Mohd Rafi saheb jis paaye ke singer aur insaan the unke samman mein sarkar ne wo kuchh nahi kya.. jo unka haq tha ..Neelam Anshu ji aapne jis chahat se Rafi saheb ke baare mein ye post likhi hai ... Main bataur Rafi saheb ke ek fan ke aapka dil se shukar guzar rahunga .. God Bless ..

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