दोस्तो, आजकल हमारा दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि हम हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में विचरण करते हैं। ऐसे में कई नए दोस्त, नए रिश्ते बनते हैं और कई बार न चाहते हुए भी परिस्थितियोंवश पुराने संपर्क छूट से जाते हैं। तो ऐसे में मन में ख़याल आया कि आज तो इंटरनेट के माध्यम से यह विशाल जगत बहुत ही सिमट गया है तो क्यों न यह कोशिश की जाए कि " आओ, फिर मिल बैठें (Lets Meet Again) " के बहाने अगर फिर उन्हीं बिछड़े साथियों से मिलने का संयोग बन जाए। तो आप सभी के लिए खुला मंच है यह कॉलम, स्वागत है आप सबका इस मंच पर। क्या पता किसे कौन बिछड़ा मिल जाए इस बहाने। आप अपने आलेख fmrjneelamanshu@gmail.com के ज़रिए मुझ तक भेज सकते हैं।
तो शुरुआत खुद से ही करू ....
होश संभलने तक मेरा स्कूली शिक्षा का समय दिसंबर 1980 तक पश्चिम बंगाल के दुआर्स अंचल के रेलवे शहर अलीपुरद्वार जंशन में गुज़रा। यह मेरा जन्म स्थान है। फिर 1980 दिसंबर से अगस्त 1986 तक पंजाब के दोआबा अंचल के नवांशहर में कॉलेज शिक्षा तक, 1986 सितंबर से 1989 मार्च तक पुन: अलीपुरद्वार जंशन मे, और मार्च 1989 से अब कर्मस्थल महानगर कोलकाता है।
बचपन के स्कूली दोस्तों के साथ पंजाब में पत्राचार से संपर्क रहा, परंतु पंजाब से वापस आने पर उनके परिवार कहीं और शिफ्ट हो चुके थे। हम लोग निर्मला गर्लस् हाई स्कूल में पढ़ते थे। उसके पहले प्राईमरी में शिवबाड़ी स्कूल में। राधा दास (पिता श्री रघुनी दास) और आरती राय (पिता स्व. कमलकांत राय, टी.टी.ई थे) प्राइमरी के दिनों की दोस्त थीं। और राधा की शादी हो गई थी और वह गुवाहाटी में थी, वहां उसके पति बैंक में कार्यरत थे। एक बार वह मिलने आई थी फिर बाद की कोई ख़बर नहीं। आरती के पिता का देहांत हो गया था तो परिवार वापिस बनारस चला गया( बौलिया बाग)। बाद में उसके बड़े भाई आलोक राय उर्फ़ बबलू को पिता के स्थान पर Compassionate ground पर टी.टी.ई. पद पर नियुक्ति मिली तो वह अलीपुरद्वार में दादी के साथ रहने आया था। फिर बनारस ट्रांसफर करवा लिया था। पंजाब से लौटने पर सूचना मिली थी तो मैं उन लोगों से 1986 में मिली थी। तभी पता चला था कि आरती की भी शादी हो गई है और वह डॉक्टर है। उसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं। फिर आज तक किसी की कोई ख़बर नहीं। हाँ, जब कभी ट्रेन बनारस स्टेशन पर रुकती है तो उन दिनों की याद हो आती है। बचपन या स्कूली दिनों की दोस्ती कितनी निश्छल हुआ करती है, इसका अहसास इस उम्र में बखूबी हो रहा है। 1994 के बाद 2005 में अलीपुरद्वार जाना हुआ था। 2005 के बाद अब तक तो नहीं। हां, पुराने लोगों को ढूँढ निकालने का मेरा अभी भी मोहभंग नहीं हुआ है लेकिन उसके बाद भी (वे) लोग संपर्क-सूत्र बनाए रखने में असफल रहते हैं। यह अलग बात है कि सभी लोग नेट इस्तेमाल नहीं करते, नहीं भी जानते।
पंजाब की दोस्तों सतवंत कौर और दिनेश कौर(बेबी) से 1986 के बाद कभी मुलाक़ात नहीं हुई, कॉलेज का हमारा काफ़ी यादगार साथ रहा। दिनेश शादी के बाद कैनेडा चली गई, उसने कभी मेरा संपर्क सूत्र खोजने की ज़रूरत महसूस नहीं की, यही कहूंगी क्योंकि पंजाब से अभी भी हमारा संपर्क है। और सतवंत लंदन में है। मैं जब भी पंजाब जाती हूं, सतवंत के घर जाकर उसकी मम्मी व भाई से ज़रूर मिलती हूँ। ऐसा लगता है मानो उसीसे मुलाक़ात हो गई। वह भी जब पंजाब जाती है तो यह जानते हुए भी कि नीलम वहां नहीं है वह हमारे मुहल्ले में ज़रूर जाती है क्या पता मेरे दादा जी दिख जाएं तो उनसे हाल-चाल पूछ ले। हां, हम कभी- कभी फोन पर बात कर लेते हैं। अभी तो उसने ईमेल करना सीख लिया है महीनों बाद कभी-कभी अवश्य मेल कर देती है।
सतवंत के भाई की भी शादी हो चुकी थी। उनके मुहल्ले में कई नए-नए मकान बन गए थे. कई साल पहले उनके घर में प्रवेश किया तो भाभी कपड़े धो रही थीं। जब मैंने पूछा कि मोहन सिंह का ही घर है न यह। और आगे बढ़कर देखा आंटी जी चारपाई पर बैठी कुछ काम कर रही थीं। इससे पहले कि मैं आंटी को संबोधन करूं पीछे से भाभी ने कहा, आप नीलम दीदी हैं न। मैंने पूछा, आपको कैसे पता, हम तो कभी मिले भी नहीं। जवाब में उन्होंने कहा, दीदी जब आती हैं तो आपकी इतनी बातें करती हैं कि मैं देखते ही आपको पहचान गई। उनकी बच्चियां भी अपनी बुआ की सहेली से कितनी गर्मजोशी से घुल-मिल गई थीं। फिर बाद में सतवंत ने फोन पर सूचित किया कि एक सड़क हादसे में उस भाभी का निधन हो गया। बेटियों और माँ के साथ सवार गाड़ी में सिर्फ़ उनकी मौत हो गई। यानी तीन पीढ़ियां एक साथ थी और बीच की पीढ़ी साथ छोड़ गई।
1996 में सरकारी क्वार्टर में टालीगंज में रहा करते थे हम। उन दिनों हमारे पड़ोस में रहने आए थे हमारे सिस्टर कन्सर्न के मिस्टर प्रकाश वंजारी। उनसे हमारे बहुत ही अच्छे संबंध बन गए थे। वे सपरिवार तीन महीनों तक उस क्वार्टर में थे, फिर उनका पुणे तबादला हो गया था। शोभा भाभी की मेरे मम्मी से इतनी आत्मीयता हो गई थी कि कभी चलो आंटी, दूध लाने चलते हैं, बाज़ार से सब्जी ले आते हैं, लॉन्ड्री से कपड़े लाने हैं। वे हरदम मेरी मम्मी के साथ इस तरह नज़र आती कि लोग मुझे कम उन्हें ही ज़्यादा जानते थे। मम्मी से पूछा करते - तो ये हैं आपकी बेटी। और बेटी को कोई जानता ही नहीं क्योंकि मैं तो दिन भर ऑफिस में रहती थी। उनकी एक नन्हीं से बिटिया थी - परावदा। ढाई-तीन साल की रही होगी। भाई साहब मराठी भाषी और शोभा भाभी हिन्दी भाषी। परावदा मां से हिन्दी में और पापा से मराठी में बात करती और हम वहीं बैठे होते तो हमारे साथ भी हिन्दी में। इनती छोटी सी बच्ची कितनी आसानी से तुरंत एक भाषा से दूसरी भाषा में खुद कन्वर्ट कर लिया करती थी। और उसकी एक बात मुझे बहुत मज़ेदार लगती थी, मुझे कहती - आंटी तुम बंगाली ? मेरे हां कहने पर कहती- नहीं, मुझे मालूम है मेरे पापा मराठी, मेरी मम्मी हिन्दी और आप पंजाबी। ख़ैर कोलकाता छोड़ने के बाद उन्होंने कभी संपर्क नहीं किया। आदत के अनुसार मैंने ही एक बार उन्हें पुणे के ऑफिस का फोन नंबर तलाश कर फोन किया। अपना नंबर भी दिया पर जनाब के पास वह सुरक्षित नहीं रह पाया क्योंकि फिर उनकी तरफ से कोई संपर्क नहीं किया गया। अप्रैल-मई 2009 में मैंने नेट पर यूं ही अपने उस विभाग की वेबसाइट खोली तो सिस्टर कन्सर्न होने के नाते फिर से मिस्टर प्रकाश वंजारी जी का नाम दिख गया और पाया कि वे आजकल पुणे की बजाय मुंबई में है। मैंने विभागीय ईमेल आईडी पर जून-जुलाई में उनका ट्रांसफर पुन: कोलकाता हो गया। जुलाई में उन्होंने मेल देखा और मेरे वर्तमान ऑफिस के एक ट्रेनिंग सेंटर का नेट से फोन नंबर पाकर वहां फोन किया। वहां से नंबर लेकर उन्होंने मेरे दफ्तर का फोन मिलाया तो मुझे आउट ऑफ स्टेशन पाया। मुझसे मोबाइल पर बड़ी गर्मजोशी से बात हुई। उनकी व्यग्रता को देख, मैं जिस दिन कोलकाता लौटी उसी शाम उन्हें घर पर आमंत्रित किया। तो पिछले बारह वर्षों की बातें हुई। भाभी कह रही थी - आंटी आपको पता नहीं, मैं आपको वहां कितना मिस करती थी, आप नहीं जानती मैं आपको बहुत प्यार करती हूं। मैंने चुटकी लेते हुए कहा, तभी तो इतने साल लग गए संपर्क सूत्र बनाने में। ख़ैर, उस नन्हीं परावदा ने अब कोलकाता के कॉलेज में प्रवेश लिया है। अब बहुत खूबसूरत और गोलमटोल सी हो गई है। कोलकाता आकर पापा के साथ मिलकर नेट पर नीलम शर्मा को ढूंढकर जितनी जगह फोन लगाया, रॉन्ग नंबर ही लगा।
एक दोस्त और है जो हौज ख़ास दिल्ली में रहती है मीनाक्षी सहगल। जब भी दिल्ली जाती हूं तो मिलने का वक्त भले ही न मिले लेकिन मैं फोन पर उससे बात ज़रूर कर लेती हूं। पिछले महीने दिल्ली गई तो इस बार फोन पर बात भी न हो सकी शायद उसका नंबर बदल गया हो। ख़ैर ये तो रही दूसरे शहरों और विदेशों में रहने वाले दोस्तों की बात। कलकत्ते की दोस्त भी संपर्क बनाए रखने में आलसी है। फोन तक नहीं कर पातीं। व्यस्तता का बहाना। मैं तो कहती हूं कि काम करने का कोई बहाना नहीं, काम न करने के सैंकड़ों बहाने। रूमा दी और मैत्री दी इन्हीं में शामिल हैं। एक बार अपनी एक पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर 2003 में मैत्री को मैंने उसकी बड़ा बाजा़र की ब्रांच से ढूंढ निकाला(यू.बी.आई में)। उसने पूछा - तूने मेरा पता कैसे लगाया। मैंने कहा, पत्रकार हूँ न, तो क्या मुश्किल है, बस पता होना चाहिए काम कैसे हो सकता है। ख़ैर वह प्रोग्राम में आई भी नहीं और अब कोई संपर्क भी नहीं रहा। फिर मैं सोचती हूं कि कुछ भी इकतरफा बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। क्या मैंने ही ठेका ले रखा है सबसे संपर्क सूत्र बनाए रखने का। लेकिन भगवान ने दिल ही ऐसा दिया है कि मानता ही नहीं, पता है आज के ज़माने में जज़बातों की कोई कद्र नहीं हम लोग इस ज़माने में मिसफिट हैं। लेकिन कल अचानक फिर से याद हो आई तो सोचा क्यों नहीं ऐसे मंच को ज़रिया बनाए जाए ताकि मेरे जैसे दूसरे लोग भी अपने बिछड़े साथियों को तलाश सकें। देखें यह कोशिश कितनी सार्थक होती है जबकि लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि व्यस्तता इतनी है कि समय ही नहीं मिलता। लेकिन मुझसे रहा नहीं जाता फिर भी कभी-कभी पुराने परिचितों को नंबर मिलाकर क्लास ले ही लेती हूं, यह जानते हुए कि लोग चिकने घड़े हैं उन्हें कुछ फर्क ही नहीं पड़ता। इस वक्त अगर मैं यह सब लिखने बैठी हूं तो पता नहीं कितने दूसरे कामों से वक्त चुराकर इसमें लगा रही हूं। कुछ लोगों के नज़रिये से यह समय की बर्बादी भी हो सकती है। लेकिन लोग आजकल कितने संकुचित हो गए हैं, पहले जैसी गरमाहट रही ही नहीं रिश्तों की। मुझे याद है छोटे शहरों में कितनी आत्मीयता हुआ करती थी, सभी सबको जानते हैं। जब मुझे नौकरी मिली थी तो सारे शहर को ख़बर हो गई थी। उस वक्त वहां के कुछ साथियों ने कहा भी था, कलकत्ते जा रही हो वहां, यहां जैसा अपनापन नहीं मिलेगा। सोचती हूं आज लोग किसी से बात करते वक्त भी हिसाब-किताब ही करते हैं कि इससे मुझे कितना फ़ायदा हो सकता है। छोटा सा उदाहरण दूं - मेट्रो की ट्रेन हर छह मिनट के अंतराल में आती है। कभी कोई परिचित मिल जाए तो मैं उससे बात-चीत करने के लिए वह ट्रेन छोड़ देती हूं चलों अगली से चली जाऊंगी लेकिन लोग इतना भी नहीं करते। पता नहीं उन्हें ज़िंदगी की किस दौड़ में पीछे रह जाने का डर बना रहता है। अरे रोज तो आप उसी निर्धारित और निश्चित समय पर जाते हो, एक दिन दस मिनट लेट हो गए तो क्या हुआ।
-नीलम शर्मा 'अंशु'
(29-08-2009)
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