सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

22 जनवरी 2010

1) क़दम - क़दम बढ़ाए जा.......

23 जनवरी ! आज सारा राष्ट्र नेताजी सुभाष को श्रद्धा अर्पित कर रहा है। हम भी हमारे देश के उस महान नायक, सेनानी और जांबाज सपूत को नमन करते हैं, सलाम करते हैं।


‘तुम मुझे खून दो मैं, तुम्हें आज़ादी दूंगा ।’


ज़रा सोचिए कहने वाले को जज़्बातों के विषय में और उल लोगों के विषय में जो नेताजी की इस पुकार पर दौड़े चले गए उनके साथ क़दम से क़दम ताल करते हुए।
धन्य है वह जज़्बा, धन्य है वह व्यक्तित्व, धन्य है वह देश ! इन सब पर हमें नाज़ है।

= = =

2) फ़िल्म निर्देशक-निर्माता रमेश सिप्पी - हैप्पी बर्थडे टू यू .......

आज ही के दिन भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के जाने-माने निर्देशक, निर्माता रमेश सिप्पी का यानी 23 जनवरी 1947 को अविभाजित हिंदुस्तान के करांची में जन्म हुआ था। फ़िल्मी माहौल उन्हें बचपन से ही मिला। मात्र छह वर्ष की उम्र से ही वे पिता जी.पी. सिप्पी की फ़िल्मों से सेटस् पर जाने लगे थे और इतना ही नहीं नौ वर्ष की उम्र में पिता द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘शहंशाह’ में उन्होंने अचला सचदेव के पुत्र की भूमिका निभाई।
पिता द्वारा निर्मित फ़िल्मों ‘जौहर महमूद इन गोया’ और ‘मेरे सनम’ के वे निर्माण और निर्देशन दोनों पहलुओं से जुड़े थे। व्यक्तिगत रूप से उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म थी 1969 में ‘अंदाज़’। इससे पहले वे सात सालों तक सहायक के रूप में काम करते रहे। अंदाज़ उनकी पहली moderate success थी लेकिन 1972 में आई उनकी दूसरी फ़िल्म ‘सीता और गीता ’ highly successful रही।


1975 में रमेश सिप्पी उर्फ रमेश गोपालदास सिपाहीमालानी ने ’शोले’ का निर्देशन किया जो कि बॉलीवुड के इतिहास में ब्लॉक बस्टर रही और आज भी मानी जाती है। लिजेंडरी खलनायक के किरदार में स्व। अमज़द खान की परफॉर्मेन्स यानी गब्बर सिंह आज भी हमारे ज़ेहन में ज्यों के त्यों बसे हुए हैं। गब्बर का यह कैरेक्टर हक़ीकत की ज़मीन से बावस्ता था। शोले में जहां फ़िल्मी गब्बर ने सिर्फ़ ठाकुर बलदेव सिंह के कुलदीपकों को बुझाया था लेकिन चंबल के कुख्यात ने दो दर्जन परिवारों के कुल दीपकों को बुझा कर निर्ममता की हदें पार कीं। फिल्म का गब्बर मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड का रहने वाला था और उसने 1957 में 22 बच्चों को एक क़तार में खड़े कर गोलियों से भून डाला था। ऐसा उसने एक तांत्रिक के यह कहने पर किया था कि अगर वह 116 बच्चों की बलि दे तो उसके पराक्रम में वृद्धि होगी। 13 नवंबर 1959 को मध्य प्रदेश पुलिस के तत्कालीन आई।पी।एस. आर. पी. मोदी ने ‘गम का पुरा’ नामक गांव में एक मुठभेड़ में ढेर कर दिया था। गब्बर को ढेर किए जाने का यह समाचार तत्कालीन आई. जी. के. ऐफ. रुस्तम जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री प.
जवाहर लाल नेहरू को खुद उनके जन्म दिन पर उपहारस्वरूप सुनाया था।

पत्रकार तरुण कुमार भादुड़ी लिखित पुस्तक ‘अभिशप्त चंबल’ में भी गब्बर का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि तंबाकू चबाने और ‘कितने आदमी थे….’ डॉयलॉग इसी पुस्तक से आधारित माने जाते हैं। जब अमज़द खान को इस रोल के लिए चुना गया तो उन्होंने यह पुस्तक ख़ास तौर से मंगवाई और शूटिंग के दौरान अपने साथ रखते थे। शायद तभी गब्बर का क़िरदार इतना जीवंत हो पाया। फ़िल्म शोले के लिए रमेश सिप्पी को लिजेंडरी फ़िल्म फेयर के Best Film of 50 years award से नवाज़ा गया।
रमेश सिप्पी निर्देशित अन्य फिल्में शान (1980), शक्ति (1982), सागर(1985) moderately successful रहीं।
उन्होंने 1987 में देश विभाजन पर आधारित TV serial ‘बुनियाद’ का निर्देशन किया जो कि दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। इस धारावाहिक की सफलता और लोकप्रियता से आप भलीभांति परिचित हैं। इसके बाद उन्होंने भ्रष्टाचार(1989), अकेला (1991), ज़माना दीवाना (1995) निर्देशित कीं लेकिन ये बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई। इसके बाद उन्होंने निर्देशन से हाथ खींच लिया लेकिन बतौर निर्माता वे आज भी सक्रिय हैं।
अपने पुत्र रोहण सिप्पी निर्देशित कुछ न कहो (2003), ब्लफ मास्टर(2005) प्रोड्यूस कीं। 2006 में मिलन लुथरिया निर्देशित टैक्सी नंबर 9211, 2008 में कुणाल राय कपूर निर्देशित The President is coming और निखिल आडवानी निर्देशित ‘चांदनी चौंक टू चायना’ को भी प्रोड्यूस किया।

आज रमेश सिप्पी के जन्मदिन पर उन्हें ढेरों शुभकामनाएं, बधाईयां।


- नीलम शर्मा ‘अंशु’

15 जनवरी 2010

गोधूलि गीत

आज भी आकाश में पूरब की लाली छाने को व्यग्र है। उस दिन और आज के दिन में कितना अंतर है ? उस दिन जिसके हाथों पिच कर चला आया था, आज वह व्यक्ति चिर निद्रा में सो रहा है। शमीक ने धीरे-धीरे अरुण गांगुली के चेहरे की तरफ देका। ख़ामोश पीड़ा का दस्तावेज था मानो वह चेहरा। शमीक ज़्यादा देर तक और नहीं देख पाया। भीतर से बार-बार रुलाई फूट रही थी। दरअसल, शमीक बहुत ही कृतज्ञ है। एक दिन की कोई किसी व्यक्ति का सही परिचय नहीं हो सकती, इस बात को उसके सिवा कौन समझ सकता है ?

उम्मीद के मुताबिक बासंती समयानुसार बंबई के खार के फोर्टिंथ एवन्यु के फ्लैट पर पहुंचीं। बदन पर सफेद साड़ी और सफेद ब्लाउज था। शिथिल क़दमों से पलंग की तरफ बढ़ते हुए मानो पांव जम से गए। कौन कहेगा अरुण नहीं रहे ? मानो सो रहे हों। ज़रा सा पुकारने पर ही उठ बैठेंगे। बासंती विभोर होकर अरुण का चेहरा देखने लगीं। पता नहीं कौन उनके कानों में शांत स्वर में कहा रहा था – ‘माफ़ कीजिएगा, आपके पास कोई स्पेयर टिकट होगा ?’ उनके साथ अरुण का यही प्रथम वार्तालाप था।

टकटकी लगाए काफ़ी देर तक देखते रहने के बाद बासंती मानो कांपने लगीं। उनके भीतर की उठा-पटक उनके चेहरे पर भी स्पष्ट झलक रही थी। वे कैसे रुलाई रोक रही थीं, यह उन्हें देखे बिना नहीं समझा जा सकता था। थोड़ा सा रो लेने पर मन का बोझ ज़रा हल्का हो जाता, पर बासंती ने एक बूंद भी आँसू नहीं बहाया। अभिमान की पराकाष्ठा पर पहुंच उन्होंने खुद को शोक-ताप से परे करने की कोशिश की। सबकी नज़रों से बचा लेने के बावजूद शमीक से खुद को छुपाए रखना इतना आसान नहीं। एक व्यक्ति कितना असहाय और दिग्भ्रमित हो सकता है, शमीक ने यह बहुत ख़ामोशी से महसूस किया।

अरुण के माथे पर बार-बार एक मक्खी बैठ रही थी। हाथ बढ़ा कर बासंती ने एक बार फिर खींच लिया। अरुण का स्वर अभी भी मानो गूंज रहा था – ‘तुम मुझे अब कभी मत छूना, कभी नहीं।’ बासंती कैसे उन्हें स्पर्श करे ? एक व्यक्ति का बार-बार अपमान नहीं किया जा सकता। अरुण को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही व्यक्ति स्पर्श कर सकता है। बासंती ने शमीक की तरफ देख धीरे-धीरे कहा – ‘मैं चाहती हूं कि उनका अंतिम कार्य तुम ही करो। मेरे तो अब यहां रुकने की ज़रूरत नहीं, मैं चलूं.......।’
‘आप चली जाएंगी ?’
‘रुक कर क्या करूंगी ? सारे रिश्ते तो ख़त्म हो गए।’
‘फिर भी शमशान तक तो चलिए ?’
‘क्यों ज़ोर डाल रहे हो ? कोई ज़रूरत नहीं है ’ – बात न बढ़ा कर बासंती सीधे लिफ्ट की तरफ बढ़ गईं।

हैरानी का खुमार ख़त्म होने में पांच मिनट लगे। अभिरूपा ने पति की आँखों में आँखें डाल हताश स्वर में कहा – ‘बासंती देवी के बारे में धारणा ही बदल गई। भद्र महिला अभी भी बहुत मूडी हैं। मायामोह को बहुत पहले ही उन्होंने त्याग दिया है।’
शमीक ने कुछ नहीं कहा। गंभीर स्वर में कहा – ‘प्यार मर जाता है, पता नहीं था। आज यह भी पता चल गया।’

० ० ०

अगले दिन बंबई के हर मराठी और अंग्रेजी अख़बार में एक छोटी सी ख़बर छपी। पिछले दिन शमशान का काम निपटा कर लौटने में देर हो गई थी, इसलिए शमीक ज़रा देर से ही जगा। हर दिन की तरह चाय पीते-पीते अख़बार पढ़ते हुए शमीक की आँखें पथरा गईं। जो ख़बर वह पढ़ रहा था, वह थी – ‘कल जुहू बीच पर लगभग साठ-बासठ वर्षीया एक अज्ञात महिला का शव तैरता मिला। उसके बदन पर सफेद पोशाक थी। पुलिस इसे आत्महत्या मान रही है।’
पथराई निगाहों से शमीक ख़बर की तरफ देखता ही रहा।


उपन्यास अंशगोधूलि गीत

लेखक – श्री समीरण गुहा

बांग्ला से अनुवादनीलम शर्मा ‘अंशु’

प्रकाशकडॉ. सुधाकर अदीब, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान।
* भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों की अनुवाद योजना के अंतर्गत प्रकाशित।
पुस्तक मंगवाने का पता -
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 6, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ।
मूल्य
120/- रुपए
दूरभाष - 0522261447०/71

12 जनवरी 2010

पंजाबी कविता कवि – आस्सी


परिचय
पंजाबी काव्य जगत में एक अलग क़िस्म के कवि के रूप में परिचित। प्रकाशित काव्य संग्रह – पुट्ठा घूकदा चरखा, उखड़ी अज़ान दी भूमिका, सहजे-सहजे कह।
उखड़ी अज़ान दी भूमिका काव्य संग्रह को गुरु नानक विश्वविद्यालय(अमृतसर) द्वारा 1993 का ‘मोहन सिंह माहिर’ कविता पुरस्कार प्राप्त।
विशेष - उनके निधन के पश्चचात् मुझे पता चला कि वे शारीरिक रूप से विकलांग थे और व्हील चेयर के माध्यम से पंजाब के शहरों में अपने साहित्यिक मित्रों से मिलने जा पहुंचते थे। उनका शारीरिक वज़न मात्र 18 किलोग्राम था। उनसे पत्राचार तो हुआ परंतु दूरभाष पर कभी बात का सौभाग्य नहीं हुआ।


1)


हर साल


हर साल
मिलते हैं हम
किसी महफिल
बेगानी धूप
या अपनी खामोशी में
रेंग-रेंग कर मिलते हैं हम
हर साल
मिलते हैं हम
पतझड़ के दिनों
मुरझाए पत्तों की भांति
हर साल
एक दूसरे की स्मृति में
बोते हैं अपना-अपना नाम
हर साल
भेजते हैं बधाई पत्र
और चाहते हैं
दुखना
एक दूसरे का ज़ख्म बनकर
हर साल
चाहते हैं हम
लड़ना
हंसना
रूठना
परंतु
कुछ भी नहीं बदलता
बदलता है दीवार का कैलेंडर
उसी कील
उसी निशान के हाशिए पर।


2)

हाशिए

ढल रही थी शाम
और चल रहे थे
साथ-साथ
या भ्रम था
साथ-साथ चलने का
उंगलियों का साथ दे देती रही
पत्तों की नज़ाकत
परंतु गरम रेत पर
कुछ बूंदों ने
खुद को न्योछावर किया
पता नहीं मुहब्बत का कैसा दौर था
कि वह डकैतों की भांति कहने लगी :

- तुम्हारे पास जो कुछ भी है मुझे दे दो
मैंने कहा कि मेरे पास कुछ दुःख हैं
और एक तांबे की अंगूठी....
उसने तांबे की अंगूठी ले ली
और फिर
हमारे रास्ते बदल गए
अब मेरे पास बहुत से दुःख हैं
उस तांबे की अंगूठी के दुःख सहित।

3)


दूर कहीं


मेरे पास कुछ टुकड़े हैं -
सपनों के टुकड़े
और टुकड़ों से कितना मोह है मुझे
क्योंकि-
तमाम रास्ते बांद हैं
क्या यही अंत है इस यात्रा का ?
पता नहीं क्यों होता है
ऐसे आगाज़ का
ऐसा अंजाम
तलियों कि रेखाएं
यूं उलझती हैं – एक दूसरे में
कि कोई भी कहीं नहीं पहुंचती
और धीरे-धीरे
डालियों से फूल झर जाते हैं।
अंतिम से पहली मुलाक़ात के समय
उसने मुझे कहा -
जहां ‘कुछ’ न हो
वहां ‘खालीपन’ होता है
जहां ‘खालीपन’ न हो
वहां खुदा होता है।
परंतु मैं यूं ही पूछ बैठा -
जहां खुदा भी न हो
वहां क्या होता है ?

और उस दिन के बाद
मेरी दृष्टि में दरार पड़ गई
अब मुझे नज़र आते हैं
रेत के टीले
और एक फकीर की
कांपती हुई दाढ़ी।


4)

मुसाफिर

हर किसी को
कहीं न कहीं पहुचाती
पर खुद
कहीं भी न पहुंचती सड़क
कोई दनदनाते हुए
कोई दबे पांव
कोई चहल-कदमी करते हुए
सब गुज़र जाते
सफेद दुपट्टे
कुहासे
चिलचिलाती धूप
किनमिनाती बारिश की कनियां
हर मौसम में निरंतर
पाजेबें
जनाजें
और सड़क ख़ामोश रहती है
वृक्ष की मानिंद
सड़क उस औरत की मानिद
जो इतिहास के पन्नों पर
स्व-शिनाख्त की जामिन
फिर भी कभी-कभार
सड़क बहुत बुरी लगती है
बहुत ही बुरी।



रूपांतर – नीलम शर्मा ‘अंशु’

नव वर्ष का Resolution या संकल्प !

पहले नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। नव वर्ष आपके जीवन में नई उमंगे लाए और नए प्रकाश का संचार करे।

रही बात नव वर्ष पर resulutions की तो यह बात मुझ पर बिलकुल लागू नहीं होती है। अगर मैं व्यक्तिगत रूप से अपनी बात कहूं तो यही कहूंगी कि ये मुझे लगता है कि इसका सीधा-सादा अर्थ है संकल्प लेना या खुद से कोई वाद करना। Ist jan. को मैं ऐसा कुछ नहीं करती।

पहली बात तो यह है कि जहां तक New Year की बात है तो यह एक अहसास है, Feeling है कि समय का चक्र एक पायदान और आगे बढ़ गया। नव वर्ष में नया क्या है होता है। सिर्फ़ कैलेंडर ही तो बदलता है और बदलती है तारीख। वही रातें होती हैं, वही दिन होते हैं, वही सूरज होता है, वही चांद-तारे होते हैं। मैं पंजाबी के कवि स्व। आस्सी के कुछ पंक्तियां कोट करना चाहूंगी -

हर साल
चाहते हैं हम
लड़ना
हंसना
रूठना
परंतु
कुछ भी नहीं बदलता
बदलता है दीवार का कैलेंडर
उसी कील,
उसी निशान के हाशिए पर।

यानी सब कुछ वही है, नया है सिर्फ़ मन का अहसास। मेरा मानना है कि काम करने का कोई बहाना नहीं, काम न करने के सौ बहाने। मैं कोई resolutions नहीं बनाती, planings नहीं करती। बस ख़ामोशी से काम करते जाती हूं। हां, जो काम जब-जब जैसे-जैसे सामने आता जाता है, priority के आधार पर उन्हें निपटाती जाती हूं। मेरे विचार में resolutions का मतलब है अपने से वादा या moral pressure डालना। मुझे लगता है कि इसकी ज़रूरत तब पड़ती है जब हम अपने कामों के प्रति या खुद के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते हैं।

कहा गया है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। मेरे विचार में resolutions कमज़ोर व्यक्तियों का सुदृढ़ हथियार हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि आप चाहकर भी किसी काम को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। इनसे कुछ हद तक हमें आज का काम कल पर टालने की कुप्रेरणा मिलती है। लेकिन, अगर कुछ लोग resolutions का सहारा लेकर काम को अंजाम दे देते हैं तो बहुत अच्छी बात है।

मैं अपने द्वारा creat किए गए प्रेशर में काम करती हूं। उसकी मुख्य वजह है कि मेरी सक्रियता विभिन्न क्षेत्रों में हैं। हर क्षेत्र की मांग के अनुसार मुझे उस काम को समय देना पड़ता है। ऐसे में समय-सीमा को देखते हुए काम की importance को देखते हुए मैं priority आधार पर उसे पूरा करने की कोशिश करती हूं। जैसे कि मैं अपनी पसंद से एक बांग्ला पुस्तक के अनुवाद का काम कर रही थी लेकिन बीच में प्रकाशक की तरफ से किसी दूसरी पंजाबी पुस्तक के अनुवाद का assignment आ गया तो उसकी priority को देखते हुए मुझे पहली पुस्तक के काम को रोक कर पंजाबी पुस्तक का काम पूरा करना पड़ा। सोचा था सितंबर में पूरा हो जाएगा परंतु चाह कर भी पूरा न हो सका। ऑफिस की व्यस्तताएं भी बहुत थीं। ख़ैर तीन C/L और एक R/H शेष थी यानी 24 दिसंबर की R/H, 25 को क्रिसमस की छुट्टी 26-27 को शनिवार, इतवार 28 को मुहर्रम की छुट्टी थी। 29, 30, 31 की C/L ली और 1 जनवरी को पुनः R/H और 2, 3 जनवरी को शनिवार, इतवार यानी कुल मिलाकर 12 छुट्टियां। उसके बाद फिर वही रोज़ की आपा-धापी। तो 23 दिसंबर से अनुवाद काम में लगकर उसे पूरा करने का निश्चय किया और अंततः तीन जनवरी की रात 2 बजे सारे पेज पूरे कर डाले, जो इतने महीनों से आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहे थे। उस वक्त मुझे लग रहा था जैसे मैंने सचमुच कुछ अचीव कर लिया है। मुझे खुशी है कि मैंने इयर एंडिंग की छुट्टियों में सारा-सारा दिन कंप्यूटर पर बैठक कर उस काम को ख़त्म कर लिया जबकि मैंने इसके लिए कोई resolution नहीं बनाया था। मैंने इस काम को अगले साल पर नहीं टाला। समय निकालकर उसे पूरा किया।

कुछ हद तक मुझे लगता है कि हमें अपनी इच्छा शक्ति पर विजय पानी चाहिए, उसे कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहिए ताकि resolution का सहारा न लेना पड़े। बगैर resolution के ही हमें कामों को अंजाम देने की आदत डालनी चाहिए, योजनाबद्ध तरीके से अपनी प्राथमिकताएं तय कर लेनी चाहिएं ताकि किसी तरह मन को यह कहकर दिलासा न देना पड़े कि
रुक जाना नहीं तू कहीं हार के,

कांटो पे चल के मिलेंगे साए बहार के।

Resolutions तो बनाए ही इसलिए जाते हैं कि उन्हें तोड़ा जा सके, थोड़ी सी छूट का बहाना और मिल सके। कुल मिलाकर यही कहूंगी कि

वादे तो टूट जाते हैं, कोशिशें कामयाब होती हैं।


- नीलम शर्मा ‘अंशु’

01 जनवरी 2010

शुभ नव वर्ष 2010

आप सबको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !

20 OCT KE BAAD AAJ MUKHATIB HOON। DAR ASAL TAB SE COMP ME KUCHCH DIKKATEN THI. MAJBOORI ME AAJ HINGLISH ME LIKHNA PAD RAHA HAI. AAP DEKH HAIRAN BHI HONGE KI BLOG KA NAAM BADAL GAYA. JI HAAN MAINE ISE 'SAMVET SWARR' BANA DIYA KYUNKE SAMSKRITI SAROKAA R KE NAAM SE AB EK ALAG BLOG BANA DIYA HAMNE. 'SAMSKRITI SAROKAAR' HAMARA EK AUR ALAG SAMVET PRAYAS HAI. MUNASIB SAMAY PAR USKE MADHYAM SE BHI RU-B-RU HONGE.


- NEELAM SHARMA 'ANSHU'

20 अक्तूबर के बाद आज मुखातिब हूं। दरअसल तब से कंप्यूटर में कुछ दिक्कतें थीं। मजबूरी में एक जनवरी को हिंगलिश में लिखना पड़ा। आप देखकर हैरान होंगे कि ब्लॉग का नाम ही बदल गया। जी हां, मैंने इसे 'समवेत स्वर' बना दिया क्योंकि Sअम्स्कृति Sarokaar के नाम से एक अलग ब्लॉग शुरू किया है। 'संस्कृति सरोकार' हमारा एक अलग समवेत प्रयास है। मुनासिब वक्त पर आपसे उसके माध्यम से भी रू-ब-रू होते रहेंगे।

- नीलम शर्मा 'अंशु '