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12 जनवरी 2010

पंजाबी कविता कवि – आस्सी


परिचय
पंजाबी काव्य जगत में एक अलग क़िस्म के कवि के रूप में परिचित। प्रकाशित काव्य संग्रह – पुट्ठा घूकदा चरखा, उखड़ी अज़ान दी भूमिका, सहजे-सहजे कह।
उखड़ी अज़ान दी भूमिका काव्य संग्रह को गुरु नानक विश्वविद्यालय(अमृतसर) द्वारा 1993 का ‘मोहन सिंह माहिर’ कविता पुरस्कार प्राप्त।
विशेष - उनके निधन के पश्चचात् मुझे पता चला कि वे शारीरिक रूप से विकलांग थे और व्हील चेयर के माध्यम से पंजाब के शहरों में अपने साहित्यिक मित्रों से मिलने जा पहुंचते थे। उनका शारीरिक वज़न मात्र 18 किलोग्राम था। उनसे पत्राचार तो हुआ परंतु दूरभाष पर कभी बात का सौभाग्य नहीं हुआ।


1)


हर साल


हर साल
मिलते हैं हम
किसी महफिल
बेगानी धूप
या अपनी खामोशी में
रेंग-रेंग कर मिलते हैं हम
हर साल
मिलते हैं हम
पतझड़ के दिनों
मुरझाए पत्तों की भांति
हर साल
एक दूसरे की स्मृति में
बोते हैं अपना-अपना नाम
हर साल
भेजते हैं बधाई पत्र
और चाहते हैं
दुखना
एक दूसरे का ज़ख्म बनकर
हर साल
चाहते हैं हम
लड़ना
हंसना
रूठना
परंतु
कुछ भी नहीं बदलता
बदलता है दीवार का कैलेंडर
उसी कील
उसी निशान के हाशिए पर।


2)

हाशिए

ढल रही थी शाम
और चल रहे थे
साथ-साथ
या भ्रम था
साथ-साथ चलने का
उंगलियों का साथ दे देती रही
पत्तों की नज़ाकत
परंतु गरम रेत पर
कुछ बूंदों ने
खुद को न्योछावर किया
पता नहीं मुहब्बत का कैसा दौर था
कि वह डकैतों की भांति कहने लगी :

- तुम्हारे पास जो कुछ भी है मुझे दे दो
मैंने कहा कि मेरे पास कुछ दुःख हैं
और एक तांबे की अंगूठी....
उसने तांबे की अंगूठी ले ली
और फिर
हमारे रास्ते बदल गए
अब मेरे पास बहुत से दुःख हैं
उस तांबे की अंगूठी के दुःख सहित।

3)


दूर कहीं


मेरे पास कुछ टुकड़े हैं -
सपनों के टुकड़े
और टुकड़ों से कितना मोह है मुझे
क्योंकि-
तमाम रास्ते बांद हैं
क्या यही अंत है इस यात्रा का ?
पता नहीं क्यों होता है
ऐसे आगाज़ का
ऐसा अंजाम
तलियों कि रेखाएं
यूं उलझती हैं – एक दूसरे में
कि कोई भी कहीं नहीं पहुंचती
और धीरे-धीरे
डालियों से फूल झर जाते हैं।
अंतिम से पहली मुलाक़ात के समय
उसने मुझे कहा -
जहां ‘कुछ’ न हो
वहां ‘खालीपन’ होता है
जहां ‘खालीपन’ न हो
वहां खुदा होता है।
परंतु मैं यूं ही पूछ बैठा -
जहां खुदा भी न हो
वहां क्या होता है ?

और उस दिन के बाद
मेरी दृष्टि में दरार पड़ गई
अब मुझे नज़र आते हैं
रेत के टीले
और एक फकीर की
कांपती हुई दाढ़ी।


4)

मुसाफिर

हर किसी को
कहीं न कहीं पहुचाती
पर खुद
कहीं भी न पहुंचती सड़क
कोई दनदनाते हुए
कोई दबे पांव
कोई चहल-कदमी करते हुए
सब गुज़र जाते
सफेद दुपट्टे
कुहासे
चिलचिलाती धूप
किनमिनाती बारिश की कनियां
हर मौसम में निरंतर
पाजेबें
जनाजें
और सड़क ख़ामोश रहती है
वृक्ष की मानिंद
सड़क उस औरत की मानिद
जो इतिहास के पन्नों पर
स्व-शिनाख्त की जामिन
फिर भी कभी-कभार
सड़क बहुत बुरी लगती है
बहुत ही बुरी।



रूपांतर – नीलम शर्मा ‘अंशु’

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