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01 जुलाई 2010


की बोलछे, बोलछे की ? हैप्पी बर्थडे टू मी

( पार्शव गायक मुहम्मद अज़ीज़)


गायकी मेरा पेशा ही नहीं, बल्कि मैं इससे मुहब्बत करता हूँ।



कभी-कभी जब कोई मुराद अनायास ही पूरी हो जाती है तो लगता है न कि अरे भगवान से यह मांगा होता तो अच्छा होता। 30 जून, रात सवा नौ के लगभग मु. अज़ीज़ साहब का नंबर मिलाया। सोचा, दो जुलाई को उनका जन्मदिन है तो इसी सिलसिले में बात कर लेते हैं। फोन मिलाते ही मैंने पूछा - किस शहर में हैं, तो उन्होंने कहा बंबई में हूँ लेकिन कल (यानी 1 जुलाई) कलकत्ते जा रहा हूँ। मैंने जब शाम को मिलने की बात कही तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा, आ जाईएगा। पता बताया और जब मैंने कहा कि ऑफस से निकलने के बाद शाम छह के बाद ही पहुंच पाऊंगी तब भी उन्होंने बहुत सरलता से कहा, सात-साढ़े सात जब मर्जी़ आईए, मैं घर पर ही रहूंगा। और इस तरह शाम के छह बजकर बीस मिनट तक मैं उनके घर पहुंची। रास्ते में ही पता चल गया था कि बिजली गुल है। ख़ैर दस मिनटों तक बिजली भी आ गई और हमने पूरे डेढ़ घटे तक बात-चीत की। लगभग पौने आठ बजे उनसे विदा ली। और इधर तबीयत का यह आलम कि मत पूछिए। पूरे पौने नौ बजे घर पहुंची। तबीयत नासाज़ लग रहीं थी इसलिए घंटा भर आराम करने के बाद रिकॉर्ड की गई बातचीत को नोट भी करना था, बलॉग के लिए भी और 2 जुलाई की सुबह एफ. एम. के लाईव प्रोग्राम के लिए भी। इस वक्त रात के डेढ़ बज रहे हैं। ख़ैर, मैंने अपना काम ख़त्म कर लिया। पेश है मु. अज़ीज़ की कहानी उन्हीं की ज़बानी :-

‘बचपन से ही बड़ा शौक था, गायकी का, इसी कारण पढ़ाई-लिखाई में भी दिल नहीं लगता था। और, वे मुहम्मद रफ़ी साहब का बचपन से ही बहुत दीवाना रहा हूँ, फैन रहा हूँ । उनके गाने गुनगुनाता था, गाता था। स्कूल के फंक्शनों में हिस्सा लेता था और काफ़ी प्राइज़ जीते। स्कूल में मैं गायकी की वजह से पॉपूलर था, पढ़ाई की वजह से नहीं।’ यह कहना है, जाने-माने पार्श्व गायक, मुहम्मद अज़ीज़ का। 2 जुलाई 1954 को कोलकाता के खिदिरपुर अंचल के शाह अमान लेन स्थित पुश्तैनी घर में जन्म हुआ, हर दिल अज़ीज़ - मुहम्मद अज़ीज़ का। खिदिरपुर मुस्लिम जूनियर हाई स्कूल और सी.एम. ओ. हाई स्कूल से उनकी स्कूलिंग हुई। इसके बाद उमेश चन्द्र कॉलेज में बी. कॉम के लिए दाखिला लिया और सेकेंड ईयर के बाद पढ़ाई छोड़ दी। तब तक मैं गायकी में काफी नाम कमा चुका था। अक्सर रातों को प्रोग्राम होते थे, रात भर जगने के कारण सुबह कॉलेज समय पर नहीं पहुंच पाता था। नियमित नहीं जा पाता था। घर वाले चाहते थे कि मैं पढ़ू, लेकिन वे भी भली भांति जानते थे कि मेरी आवाज़ कैसी है। मुझे गॉड गिफ्टेड म्युज़िकल सेंस काफ़ी था, बचपन से ही। साधारणत: लोग तालीम लेकर जितनी समझ हासिल कर पाते हैं उतनी मुझे बचपन से ही हासिल थी, जो कि कुदरती थी। बहुत कठिन-कठिन गीत गाता था मैं रफ़ी साहब के। बचपन में झांकते हुए बताते हैं मु. अज़ीज़। फिर छोटे-मोटे आर्केस्टरा में गाने लगे। आर्थिक दिक्कतें होने के कारण और परिवार के बड़े बेटे के तौर पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए कलकत्ते को होटलों में भी गाना पड़ा। ब्ल्यु फॉक्स में गाया, जो कि पार्क स्ट्रीट में था। उन दिनो होटलों का माहौल भी बहुत अच्छा होता था। आज की तरह नहीं, काफ़ी चीप है आज। कुछ वेजेटेरियन होटलों में भी गाने की व्यवस्था होती थी। मैंने विनीत में गाया, इलियट रोड के ग़ालिब में गाया। फिर स्टेज प्रोग्रामों में काफ़ी शोहरत हासिल की, अपना ऑर्केस्टरा ग्रुप भी बनाया। इस तरह गायकी की शुरूआत तो हुई लेकिन वे बहुत एंबिशियस थे, इसलिए गायकों और साज़िन्दों की भीड़ वाली ज़मात में वे खुद को अकेला महूसस करते । उन्हें ऐसा लगता था कि अपना वक्त ज़ाया कर रहे हैं, ग़लत जगह पर ग़लत लोगों के साथ काम कर रहा हूँ। 'लक्ष्य तो ले देकर बंबई फिल्म इंडस्ट्री था। उन दिनों रफी़ साहब सक्रिय थे। मुझे उनकी क्वालिटी का अंदाज़ा था। मैं उन्हीं के गाने गाया करता था। इसलिए हिम्मत भी नहीं कर पाया जाने की। तिसपर घर की ज़िम्मेदारियां थी, माता-पिता थे, सात भाई-बहनों में पाँच मुझसे छोटे थे। फिर 1980 में रफ़ी साहब गुज़र गए तो लगा कि मैं अब क्या गाऊँ, किसके गीत गाऊं ? पुराने गाने लोग कितने दिन सुनेगें, मुझे कुछ करना चाहिए। फिर बहुत मुश्किल से हिम्मत जुटाई और बंबई जा पहुंचा फरवरी 1982 में। दस महीने वहाँ रहा कुछ नहीं बना। फिर डेढ़-दो महीनों के लिए वापस आया तो दोस्त बड़ा मज़ाक उड़ाते थे। कहते- आ जाओ वापस यहाँ, होटल और स्टेज में गाना गाओ। इसमें मुझे बहुत हत्तक और बेईज्ज़ती महसूस होती थी। ऐसे में मैंने दोस्तों से चैलेंज कर लिया कि अब मैं आऊंगा तो कामयाब होकर वर्ना मेरी लाश आएगी वहाँ से। इस बार जो गया तो काफ़ी सीरियसली कोशिश की। दो-चार छोटी-छोटी फिल्मों में गाया।' एक फ़िल्म थी अंबर और उसका बंगला वर्शन था ज्योति। दोनों ही वर्शन में बनी आशीष राय निर्देशित यह फ़िल्म बतौर हीरो प्रसेनजीत और बतौर गायक मुहम्मद अज़ीज़ की यह डेब्यू फ़िल्म थी। यह थी शुरूआत। बताते हैं अज़ीज़। मान-मर्यादा, सस्ती दुल्हन मंहगा दूल्हा जैसी कई छोटी-छोटी फिल्में आईं पर उनसे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। इसके बाद आई मनमोहन देसाई निर्देशित अमिताभ बच्चन की मर्द इस फिल्म के गानों ( हम तो तंबू में बंबू और मैं हूं मर्द टांगे वाला) से मैं क्लिक हो गया कहते हैं मु. अज़ीज़। यह रहा उनका पहला ब्रेक। उन दिनों एक ही ग्रुप के साजिन्दे कई जगहों पर बजाया करते थे। उन्होंने अलग-अलग जगहों पर जाकर कहा, कलकत्ते से एक लड़का आया है, क्या कमाल गाया है उसने। इस तरह माउथ पब्लिसिटी मिलने लगी और वे बिज़ी होते चले गए। फिर आई गिरफ़्तार। इसमें उन्होंने पहली बार आशा जी के साथ डुयेट गाया। किशोर दा के साथ भी इसमें एक डूयेट गाया। बाप्पी दा के संगीत निर्देशन में बहुत बड़ी पिक्चर थी यह, कहते हैं मु. अज़ीज़। जे. ओम प्रकाश जी की फ़िल्म थी – आख़िर क्यों - एक अंधेरा लाख सितारे गीत था उसमें मेरा। यूं एक के बाद एक फ़िल्में आती गईं। बस फिर क्या था कभी राजेश रौशन तो कभी बाप्पी दा तो कभी आर. डी. बर्मन के साथ काम कर रहा होता।


मैंने अठारह भाषाओं में 12 हज़ार से ज़्यादा गाने गाए हैं, कहते हैं अज़ीज़। हिन्दी फिल्में मेरी हैं साढ़े चार सौ के क़रीब। उन दिनों एक फिल्म में चार-पाँच गाने होते थे जो मैं गाता था। आज मीडिया का दौर है। उन दिनों मीडिया नहीं था इसलिए मुझे मीडिया का सपोर्ट नहीं मिला। आजकल फेस वैल्यू है – एक बार टीवी पर आ गए तो लोग पहचान गए। लेकिन मुझे लोगों को बताना पड़ा कि वो रामलखन का गाना मैंने गाया, खुदा गवाह मैंने गाया, क्योंकि लोग फेस से मुझे नहीं जानते थे। खु़दगर्ज़, नगीना, निगाहें, आख़िरी रास्ता, अमृत, नाम, कर्मा जैसी एक से बढ़कर एक फिल्मों में गाने का मौका मिला। कुल मिलाकर काफ़ी लोकप्रिय और बढ़िया गीत मेरे हिस्से में आए। नदीम श्रवण तक संगीत का वो एक खूबसूरत पीरियड था।

मुझे इस बात की खुशी है कि मैने लता जी, आशा जी से लेकर, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान तक के साथ गाया। किशोर दा से लेकर सोनू निगम तक के साथ तथा नौशाद साहब से लेकर संजीव दर्शन तक के संगीत निर्देशन में गाया। दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक के लिए गाया। यानी तीन-तीन चार-चार पीढ़ियों के लिए मैंने गाया मुझे इस बात की खुशी है। मजरूह साहब से लेकर आज के शब्बीर अहमद तथा समीर के लिखे गीत गाए। लक्ष्मीकांत साहब का मैं फैवरिट रहा। रफ़ी साहब, मैं जिनका फैन रहा हूं, जिनको अपना गुरू मानता हूँ, आदर्श मानता हूँ, जिनके गाए हुए गाने गाकर मैं गायक बना, एक समय ऐसा आया कि मैंने श्रद्धांजलि के तौर पर उनके लिए गाया। श्रद्धांजलि स्वरूप जो गीत लिखा गया उनके लिए उसे गाने का मौक़ा मुझे मिला।(न फ़नकार तुझसा तेरे बाद आया, मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया)। उड़ीसा में बहुत पॉपूलर हैं वे। पांच हज़ार से ज़्यादा गीत गाए हैं उन्होंने ओड़िया में। ओड़िया गीतों में 60% गीतों के वे गायक रहे हैं।

उन्होंने हर मज़हब के डिवोशनल गीत गाए हैं, जिनमें सांई बाबा, गुरुबाणी, शिवजी, कृष्ण, दुर्गा माँ के भजन शामिल हैं। मुस्लिम डिवोशनल्स में कव्वालियों-मनक़बत(सूफ़ी गीत) सौ से ज़्यादा एलबम हैं। ग़ज़लों के एलबम भी हैं जिनमें खुशबु और क़शिश काफ़ी लोकप्रिय रहीं।

गोविन्दा का पहला म्युज़िकल हिट मय से न, मीना से न, साक़ी से दिल बहलता है मेरा आपके आ जाने से भी मेरा ही गाया हुआ है। अनिल कपूर का सबसे हिट गाना, जिस गाने से स्टेज पर उन्हें इन्ट्रोड्यूस किया जाता है, वन टू का फोर फोर टू का वन भी मेरा ही गाया हुआ है।

यूं तो सर्जक को अपनी सर्जना का हर पहलू अज़ीज़ होता है लेकिन फिर भी बात अगर अपने गाए गीतों की हो तो मुहम्मद अज़ीज़ साहब को फ़िल्म अमृत का, दुनिया में कितना गम है और आख़िर क्यूं का एक अंधेरा लाखों सितारे बेहद पसंद हैं।

ज़िंदगी के हसीन लम्हे के बारे में पूछे जाने पर वे कहते हैं, अक्सर मैग्जीन में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याण जी आनंद जी, आर. डी. बर्मन की तस्वीरें देखता था मैंने उनके साथ काम किया, उनका फेवरिट बना, ये सब हसीन लम्हे ही तो हैं। यादगार है, कभी भुला नहीं सकता। एक हो तो बताऊं, बेइंतिहा हैं। एक ज़माना था लता जी, आशा जी के गाने सुनता था और सोचता था क्या पता इनको कभी देख भी पाऊंगा या नहीं, बाद में मैंने उनके साथ खड़े होकर गाने गाए और उनसे वाह-वाह भी मिली। उनके साथ वर्लड टुअर किए।


कलकत्ते के शाह अमान लेन स्थित पुश्तैनी मकान 145 बरस पुराना है। उनके परदादा दिल्ली से यहाँ तशरीफ़ लाए थे। मकान के सामने हज़रत शाह सूफ़ी मुहम्मद अमान अली साहब का मज़ार भी है जो कि उनके परदादा थे। बहुत बड़े वली थे। दादा भी अरबी-फ़ारसी के आलिम थे और 24 परगना के सबसे बड़े काज़ी(मैरिज रजिस्ट्रार) थे। बेहद सीधी-सादी फैमिल रही है हमारी। हलांकि मैंने मज़बूरी में बार में भी गाना गाया। म्युज़िक लाईन में रहा। बहुत बड़े-बड़े ऐय्याश लोगों की सोहबत में रहा लेकिन मैंने आजतक एक बूंद शराब की नहीं चखी कहते हैं मु. अज़ीज़।

अज़ीज़ साहब अपनी बेगम के बारे में ज़ोश-ओ-ख़रोश से बात करते हुए बताते हैं कि वो कलकत्ते की ही हैं, मेरे मुहल्ले की ही। मुझसे बहुत छोटी है, मैंने अपने सामने उन्हें क़दम-दर-क़दम बड़ी होते देखा है। मुझे बेहद पसंद थीं, मैंने उनके घरवालों को प्रपोजल दिया, और शादी हो गई। दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं, एक बेटी और बेटा। बेटी बड़ी है, बहुत सुरीली है, बहुत अच्छा गाती है, बहुत अच्छा कंपोज़ करती है। मुझे उम्मीद है कि कभी मौक़ा मिला तो काफ़ी बुलंदियों तक जाएगी। बेटा बहुत छोटा है, चौथी का छात्र है। कभी कहता है कि संगीत के फील्ड में जाऊंगा तो कभी कहता है क्रिकेट में। धोनी का वह ज़बरदस्त फैन है। बताते-बताते मु. अज़ीज़ कहते हैं कि ‘धोनी अगर सुन रहे हों तो बता दूं कि मेरा बेटा हिंदुस्तान में शायद सबसे बड़ा आपका फैन है। जब भी आप खेलते हैं तो वे टीवी के सामने चिल्लाता है, भाई तेरा जवाब नहीं भाई।’ वह उन्हें भाई बोलता है। जब हम उसे चिढ़ाने के लिए धोनी की बुराई करते हैं तो बहुत गुस्सा जाता है, रोने लगता है। जब हम कहते हैं कि सचिन के सामने धोनी बच्चा है तो भी वह गुस्सा हो जाता है।

परफ़ॉरमेंस के सिलसिले में अलग-अलग देशों में घूम चुके मु. अज़ीज़, पसंदीदा जगह के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं, सौ फीसदी हिंदुस्तान। यहां की अलग-अलग आबोहवा, अलग-अलग वैरायटी है, कल्चर अलग, ज़बान अलग होते हुए भी सबके सब संगीत प्रेमी है। हिंदुस्तान की हर जगह से मुझे इतना प्यार मिला हैं कि क्या बताऊं। मुझे परफार्म करते वक्त गाने चुनने की ज़रूरत नहीं पड़ती पब्लिक सामने से बोलती जाती है, यह गाईए। मैं गानों की लिस्ट तैयार नहीं करता, पब्लिक ही यह काम करती है।

हमारी लाईन में बहुत मैनीपुलेशन चलता है, बहुत चालाकी चलती है, सिर्फ़ अच्छा गाने से ही आदमी कामयाब नहीं होता है इंडस्ट्री में। उसे अपनी मार्केटिंग करनी चाहिए। आजकल मार्केटिंग का ज़माना है। जो मैं नहीं कर सका। शायद मुझमें ही कोई कमी होगी जो मैं अपनी मार्केटिंग नहीं कर पाता। हाँ लेकिन कभी-कभी लगता है कि मैं जिस कैलिवर का हूँ या लोग मुझे जिस स्टैडर्ड पर देखना चाहते हैं वह मुझे नहीं मिला, अगर मिला भी तो आहिस्ता-आहिस्ता वैनिश हो रहा है।

पुरानी पीढ़ी में उनके पसंदीदा कलाकार हैं दिलीप कुमार, धरम जी और अमिताभ बच्चन। आजकल के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि उस दौर जैसी बात नहीं रही। किसी फ़िल्म में किसी एक का काम अच्छा लगता है तो किसी और फ़िल्म में किसी और का। अच्छे सब्जेक्ट वाली फ़िल्में अच्छी लगती हैं, कास्टिंग ज़्यादा मायने नहीं रखती जैसे गजनी में आमिर अच्छे लग गए तो माई नेम इज़ खान में शाहरुख।

मुझे कॉमेडी बहुत पसंद है। ख़ासकर गोविंदा, मुझे लगता है कि वे फिल्म इंडस्ट्री के स्पॉनटेनियस एक्टर हैं। इतने नेचुरल और लाईवली एक्टर बहुत कम होते हैं।

अवॉर्डस के बारे में वे बताते हैं कि रामलखन, ख़ुदगर्ज़ और अमृत फिल्मों के लिए तीन बार फिल्म फेयर के अवॉर्डस के लिए नॉमीनेट होने के बावजूद चूक गए। कलकत्ते से 2008 में मदर टेरेसा इंटरनेशनल अवॉर्ड मिला। बतौर गायक ज्ञानी जैल सिंह जी से प्रेसीडेंट अवॉर्ड प्राप्त किया। जर्नलिस्ट के क्रिटिक अवॉर्ड बहुत मिले। बंबई का आशीर्वाद अवॉर्ड तीन बार मिला। बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट अवॉर्ड प्राप्त किया तीन बार। गायकी मेरा पेशा ही नहीं, बल्कि मैं इससे मुहब्बत करता हूँ। कहते हैं मुहम्मद अज़ीज़।


अंत में यासीन सय्यद साहब की पंक्तियां कोट करना चाहूँगी, जो कि अज़ीज़ साहब के कमरे में पड़ी तस्वीर पर अंकित हैं। वही तस्वीर, जो आप ऊपर आलेख में देख रहे हैं : -



' हर दिल अज़ी़ज आप हैं, और नाम है अज़ी़ज़
हर दिल में जो है नक्श, वो आवाज़ है अज़ीज़
दुनिया ने बहुत चाहा के, रख दे मिटा के नाम
वो कैसे मिटे जो के हो, मालिक को भी अज़ी़ज़।'


०००००


प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'



10 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद ज़ाकिर जी! मैं उनकी फैन तो नहीं हूँ। हाँ, कलाकारों से मिलना अच्छा लगता है। उनके फन की क़द्रदां हूँ ।
    क्रिकेटर धोनी के प्रति अज़ीज साहब के साहबज़ादे का जुनून देखकर एक वाक्या मुझे भी याद हो आया। दिसंबर में ऑफिशियल सेमिनार में नागपुर गए थे। आयकर विभाग की राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी में सेमिनार आयोजित था। सेमिनार में टी ब्रेक के दौरान टॉयलेट से निकल कर बाहर गलियारे आई तो देखा कि विपरीत दिशा के गलियारे से कुछ लोग धड़धड़ाते हुए निकले। अचानक मेरी कलीग विजयलक्ष्मी नारायण जी ने कहा, धोनी। मैंने कहा, तो क्या हुआ ? चूँकि मेरी प्रतिक्रिया अपने जैसी न देख उन्होंने फिर कहा - यार धोनी। मैंने फिर कहा, तो?
    उन्होंने फिर कहा - यार धोनी है। तब तक धोनी साहब गाड़ी में बैठ चुके थे और दरवाज़ा बंद हो चुका था। और ऐसा लग रहा था कि धोनी निकल गए काश वे उससे पहले मुखातिब हो पातीं। लेकिन मैंने कहा, धोनी है तो क्या हुआ, अमिताभ बच्चन होते तो कोई बात भी थी। शायद उन्हें धोनी के प्रति मेरी कोई प्रतिक्रिया न देख ताज्जुब हुआ होगा, लेकिन बंगाल में क्रिकेट का जुनून ज़बरद्स्त होते हुए भी मैं इससे अछूती रही हूँ।

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  2. फैन तो मैं भी नहीं हूँ मगर आपकी ही दूसरी पोस्ट में जिस गीत "एक अन्धेरा.." का ज़िक्र है वह हम लोग पिछले हफ्ते सुन रहे थे. जब गायक का नाम पढ़ा तो आश्चर्य हुआ क्योंकि हम अनजाने ही उसे अनवर का गाया हुआ गीत समझते थे. इन दो पोस्ट्स में उनके बारे में काफी कुछ जानने को मिला. कुल मिलाकर अच्छी लगी यह प्रस्तुति.

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  3. बहुत पसंद आया, इसलिए दुबारा टिपण्णी कर रहा हूँ. नयी जानकारियां मिलीं. 'एक अँधेरा लाख सितारे' और 'दुनिया में कितना गम है' मेरे पसंदीदा गीत हैं और अजीज़ साहब के स्वर ने इन्हें अमर बना दिया है.

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  4. यह जानकारी भी मेरे लिए बिलकुल नयी थी कि अज़ीज़ साहब ने अपना पहला फ़िल्मी गीत बंगला में गाया.

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  5. रत्नेश जी, आपकी एक टिप्पणी और मिली है जो पता नहीं क्यों नहीं लग पाई, मैँ उसे कॉपी करके लगा दे रही हूँ।

    नीलम जी,
    अज़ीज़ साहब से सम्बंधित लेख बहुत पसंद आया. कुछ टिप्पणी और भी की थी. शायद वह लुप्त हो गयी. मुझे इस लेख से अज़ीज़ साहब के बारे में कई नयी जानकारियां मिली. 'दुनिया में कितना गम है' और 'एक अँधेरा लाख सितारे' मेरे पसंदीदा गीतों में हैं और अज़ीज़ साहब ने तो कमाल का गया है. इसमें कोई शक नहीं कि उनका स्वर मो.रफी कि याद दिला देता है. एक समय अनवर भी रफी कि तरह गाते सुने जाते थे. अब वे कहाँ हैं, कुछ पता नहीं. बहरहाल इस पठनीय लेख के लिए बधाई. काश ऍफ़.एम्. पर हम भी सुन पाते, अज़ीज़ साहब के साथ आपके मीठी आवाज को ................... रत्नेश

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  6. रत्नेश जी आपकी टिप्पणियों के जवाब -

    1)पहली टिप्पणी - तार माने आमार परिश्रौम सार्थोक होलो, ताई तो। औनेक औनेक धोन्योबाद।
    3) पहली फिल्म हिन्दी और बांगला दोनों वर्शन में आई थी। अंबर व ज्योति।
    4)कभी अनवर जी को भी खोज निकालेंगे। वैसे DTH के ज़रिए अब हर रेडियो या एफ.एम हर शहर से सुना जा सकता है, हमारे पास कई बार फोन और पत्र तो अक्सर बहुत दूर से भी आते हैं जबकि एफ.एम की फ्रीक्वेन्सी साठ कि.मी. की परिधि तक बताई जाती है। श्रोता सुन पाते होंगे तभी तो पंजाब से भी फरमाईशी पत्र हमें कोलकाता में भी मिलते हैं।

    कभी आपके शहर आई तो गेस्ट आर्टिस्ट के तौर पर चंडीगढ़ रेनबो या गोल्ड पर प्रोग्राम रख लेंगे शहरवासियों के लिए, लेकिन उसके लिए संभवत: अग्रिम सूचना देनी पड़ती है।

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