सुस्वागतम्

समवेत स्वर पर पधारने हेतु आपका तह-ए-दिल से आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु

30 अक्टूबर 2011

स्मरण - अमृता प्रीतम




     आज हर दिल महबूब शायरा और लेखिका अमृता प्रीतम जी 
           की पुण्यतिथि के मौके पर उन्हें याद करते हुए.....






(1) 

मैं तुम्हें फिर मिलूंगी !

मैं तुम्हें फिर मिलूंगी !
कहाँ, किस तरह, पता नहीं
शायद तुम्हारी कल्पना की चिंगारी बन
तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी
या शायद तुम्हारे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन कर
ख़ामोश तुम्हें तकती रहूंगी
या शायद सूरज की रोशनी बन
तुम्हारे रंगों में घुल जाऊंगी
या रंगों की बाँहों में बैठ
तुम्हारे कैनवस से लिपट जाऊंगी
पता नही किस तरह – कहाँ
पर तुम्हें ज़रूर मिलूंगी
या शायद एक चश्मा बन
और जिस तरह झरनों का पानी उड़ता
मैं पानी की बूँदे
तुम्हारे तन पर मलूंगी
और एक शीतलता सी बन
तुम्हारे सीने से लगूंगी....
मैं कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो कुछ भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा....
यह जिस्म मरता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
परंतु स्मृतियों के धागे
क़ायनाती कणों के होते हैं
मैं उन कणों को चुनुंगी
धागों से लिपटूंगी
और तुम्हें फिर मिलूंगी......

- अमृता प्रीतम

मूल पंजाबी से अनुवाद – नीलम शर्मा 'अंशु'


तोमार शाथे आबार मिलन हौबे !
(बांग्ला रूपांतर)

तोमार शाथे आबार मिलन हौबे !
कोथाए, की भाबे, जानी ना
हौय तो तोमार कौल्पनार फुल्की होए
तोमार कैनभासे नामबो बा हौय
तो तोमार कैनभासे
एकटि रौहस्योमोई रेखा होए
तोमार रौंगेर मोध्ये मिशे जाबो
बा रौंगेर कोले बोशे
तोमार कैनभास के आलिंगोन कोरबो
जानी ना की भाबे – कोथाए
किंतु तोमार शाथे अबश्यो मिलौन हौबे
हौयतो एकटि झील होए
एबोंग जे भाबे झरनार जौल ओड़े
आमी जौलेर फोटा गुलो के
तोमार गाए माखाबो
आर शीतलता होए
तोमार बूके लेगे थाकबो
आमी आर किछुई जानी ना
किंतु शुधु ऐई टुकु जानी
शौमोय जा कोरबे
एई जीबोनटी आमार शाथे चोलबे
एई शोरीरेर जौखोन मृत्यु घौटे
तखौन सब किछुई शेष होए जाए
किंतु स्रीतिर शूतो गुलो
शांशारिक कौना दिए तोईरी
आमी शेई कौना गुलो के बेछे नेबो
शुतोर आलिंगोन कोरबो
आर तोमार शाथे आबार मिलन हौबे......

- अमृता प्रीतम

मूल पंजाबी से अनुवाद – नीलम शर्मा 'अंशु'


(2) 

अमृता के लिए

इस नीड़ की उम्र है अब चालीस
तुम भी उड़ने को तत्पर हो
इस नीड़ के तिनके
सदा जैसे तुम्हारे आगमन पर
तुम्हारा स्वागत करते थे
वैसे ही तुम्हारे उड़ जाने(प्रस्थान) पर भी
इस नीड़ के तिनके
तुम्हें अलविदा कहेंगे।

- इमरोज़

मूल पंजाबी से अनुवाद – नीलम शर्मा 'अंशु'

* भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता में 2005 में आयोजित अमृता जी की शोक सभा में ये दोनों कविताएं मेरे द्वारा पढ़ी गई थीं।

25 अक्टूबर 2011




दोस्तो, आप सभी को दीपोत्सव की बहुत-बहुत शुभ कामनाएं !







11 अक्टूबर 2011

हम जहां खड़े होते हैं, लाईन वहीं से शुरू होती है…………..


हम जहां खड़े होते हैं, लाईन वहीं से शुरू होती है.........





अमिताभ और रविवार : -

  1. उनका जन्म रविवार,11 अक्तूबर 1942 को हुआ।
  2. पत्न  जया बच्चन का जन्म भी रविवार 9 अप्रैल को हुआ।
  3. उनकी शादी भी रविवार 3 जून 1973 को हुई।
  4. उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म सात हिंदुस्तानी भी रविवार 16 फरवरी 1969 को साईन की।
  5. प्रेस या मीडिया को अपनी तरफ से बैन करने के बाद पहला इंटरव्यू संडे मैग्ज़ीन को दिया।


फ़िल्मों में बोले गए कुछ स्मरणीय डॉयलॉग  : -

  1. रिश्ते में तुम्हारे बाप लगते हैं, नाम है......(शहंशाह से)।
  2. हम जहां खड़े होते हैं, लाईन वहीं से शुरू होती है (कालिया से) ।
  3. तुम्हारा नाम क्या है बसंती? (शोले से) ।
  4. बचपन से सर पे अल्लाह का हाथ, और अल्लाहरक्खा हौ अपने साथ। बाजू पे 786 का है बिल्ला, 20 नंबर की बीड़ी पीत हूँ, काम करता हूं कुली का और नाम है इकबाल। (कुली से)।
  5. आज भी मैं फैंके हुए पैसे नहीं उठाता। ( दीवार से)

Uncommon गीतकार जिन्होंने उनके लिए गीत लिखे   : -        


1.  पिताश्री हरिवंश राय बच्चन ने फ़िल्म आलाप में कोई गाता मैं सो जाता और सिलसिला में रंग बरसे।

2.  डॉ. राही मासूम रज़ा ने फ़िल्म आलाप में चांद अकेला। 
3.  रवीन्द्र जैन ने फ़िल्म सौदागर में हर हसीं चीज़ का। 
4.  जाने-माने निर्देशक प्रकाश मेहरा ने नमक हलाल में के पग घुंघरू बांध और  शराबी में मंज़िलें अपनी जगहें हैं। 
5. Established Script Writer  प्रयाग राज ने फ़िल्म तूफान में Don’t Worry  और गंगा जमुना सरस्वति में डिस्को भांगड़ा।  



गायक जिन्होंने उनके लिए सिर्फ़ एक बार गाया : -

मन्ना डे ने फ़िल्म शोले, लक्ष्मीकांत ने देश प्रेमी, अनवर ने नसीब, बप्पी लहरी ने गिरफ्तार, 
मनहर ने अभिमान में।

विविध भारती पर फौजी भाईयों के लिए प्रोग्राम पेश करते हुए अमिताभ बच्चन ने कहा था – फिल्मी  कलाकार आसमां उड़ती पतंग की तरह है, जो हवा का रुख मिल गया तो खूब उड़ती है और किसी पतंग ने काट दिया तो पता ही नहीं चलता कि कहां गई। आज आप मुझे इतना प्यार करते हैं और कल को कोई और कलाकर आ गकया तो आप मेरा नाम तक लेना नापसंद करेंगे।’ दोस्तो, ये तब की बात है जब वे सिर्फ़ अमिताभ बच्चन थे, बिग बी नहीं बने थे। आज ऐसी बात नहीं है, आज वे भारत में ही International Icon हैं।

पसंदीदा सर्वश्रेष्ठ फिल्में    : -

अनुपमा, चारूलता, गंगा जमुना, कागज़ के फूल और Gone with the wind.

Angry Young Man अमिताभ बच्चन की आनंद, चुपके चुपके, मिली, अभिमान, सिलसिला, मंज़िल, आलाप, संजोग इन 8 फ़िल्मों में ढिशुम-ढिशुम नहीं थी।

अमिताभ बच्चन के लोकप्रिय और सफल होने के बाद उनके जीवन के एक घटना ने ये साबित कर दिया कि इस देश में अमिताभ की लोकप्रियता कितने चरम पर है। शनिवार 24 जुलाई 1982 को बंगलौर में मनमोहन देसाई की फ़िल्म ‘कुली’ में एक नए खलनायक पुनीत इस्सर के साथ स्टंट सीन में वे घायल हो गए। पेट में चोट लगी थी। मुंबई से बुलाए गए उनके फैमिली डॉक्टर शाह भी एक्स रे देखने के बावजूद चोट की गंभीरता को समझ नहीं पाए। हालत ज़्यादा ख़राब होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया। रोग किसी की समझ में नहीं आ रहा था। संयोग ही कहें कि विशिष्ट यूरोलोजिस्ट डॉ. H S Bhatt बंगलौर आए हुए थे। उन्होंने पाया कि आंत फट गई थी। तीन घंटों तक ऑप्रेशन किया गया। ऑप्रेशन के बाद 24 घंटे इंतज़ार करना था। इस दौरान पूरा देश सांस रोके रहा। फिर उन्हें मुंबई लाकर ब्रीच कैंडी में दूसरा ऑप्रेशन किया गया। देश के लाखों लोगों ने मन्नतें मांगीं, उपवास रखे, प्रार्थनाएं कीं।

अमिताभ को पहली बार महसूस हुआ कि वे लोगों के कितने चहेते हैं। ‘जंजीर’ की सफलता जहां उन्हें रोमांचित करती है वहीं ‘कुली’ की घटना याद आते ही उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वे कहते हैं उस घटना को याद करता हूं तो मुझे डर लगने लगता है। जिन लोगों ने मेरे लिए प्रार्थना की, दुआएं मांगी, मैं उन सबका कर्ज़दार हूं और ये कर्ज़ मैं कभी अदा नहीं कर सकता। इस अहसास को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। 

अमिताभ यानी हिन्दी सिनेमा की महानायक। फ़िल्मी पर्दे पर ही छोटे पर्दे पर भी। दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली ये इमेज एक दिन में नहीं बनी। इस सफ़र में उजाले के बाद अंधेरे भी आए पर नायक रुका नहीं, ठहरा नहीं। हर काम के प्रति उनका समर्पण उन्हें महानायक बनाता गया। उन्होंने अपनी एंग्री यंगमैन की छवि से हिन्दी सिनेमा के परंपरागत नायकों के फ्रेम को तोड़ा था, वैसे ही क़रीब चार दशकों के बाद वे फिर से छवियों के सारे मानकों को तोड़ रहे हैं। वे हीरो भी है, पिता भी है। दोनों भूमकाओं में सर्वश्रेष्ठ। पर्दे पर ही नहीं पर्दे के बाहर भी। घर में ही नहीं, घर से दूर छोटे पर्दे के सेट पर भी। अमिताभ आज मह़ज़ एक नाम नहीं बल्कि एक विचार, एक परिघटना में तब्दील हो चुके हैं। हर बुरे वक्त में खुद को साबित कर देने की खूबी ने ही अमिताभ बच्चन को विश्वसनीयता का एक पर्याय बना दिया है।

क्या कहते हैं सह - कलाकार : - 

अनुपम खेर - अमिताभ बच्चन तो मेरे ख़याल से एक अजूबा हैं, वे एक फेनोमेना हैं। अपने जीवनकाल में ही लेजेंड बन चुके वे हिन्दी फ़िल्मों के अल्टीमेट स्टार है। बच्चन साहब के लिए ये विशेषण थोड़े कम पड़ जाते हैं। डिक्शनरी से कुछ और विशेषण खोज निकालने होंगे कहते हैं अनुपम खेऱ। अमित जी में ग़ज़ब की गर्मजोशी है। वे सिर्फ़ कद से ही लंबे नहीं हैं। हुनर और पर्सनैलिटी से भी लंबे हैं। उनके आगे हर आदमी बौना महसूस करता है। उनकी इमेज लार्जर दैन लाइफ है। उन्हें ऐसी फ़िल्में मिली और ऐसे करेक्टर मिले कि उनका व्यक्तित्व लार्जर दैन लाइफ हो गया।  वे पर्दे पर आएं या जीवन में, आपका ध्यान खींचते हैं। हज़ारों, लाखों की भीड़ में भी वे केंद्र बन जाते हैं और वहां मौजूद सारे लोग उनकी तरफ आकर्षित हो जाए हैं। दर्शकों को लगता है कि अमिताभ उनके बीच के व्यक्ति हैं। किसी भी कलाकार के लिए ये बड़ी उपलब्धि होती है।


आर. बाल्की : -  फ़िल्म पा के निर्देशक आर. बाल्की की। वे कहते हैं कि मैं चाहता था कि पा का औरो का किरदार अमित जी निभाए लेकिन उस किरदार पर किसी भी तरह से बिग बी की छवि हावी न होने पाए। एक शब्द में कहूं तो मैं अमिताभ बच्चन में से अमिताभ बच्चन को ही बाहर निकालना चाहता था। मैंने जब उनसे बात की तो वे कुछ समय के लिए चुप हो गए फिर कहा कि मुझे ऐसे रिदार से जुड़ना पसंद है, जो मेरे स्टारडम को संतुष्टि न देकर एक्टर के रूप में मुझे चुनौती दे। इस मुकाम पर भी उनमें नवोदित कलाकार की तरह अभिनय के प्रति जुनून और जज्बा बरक़रार है। उन्होंने किरदार को पूरी तरह से समझा और मुझे विश्वास दिलाया कि औरो में कहीं से भी अमिताभ बच्चन की छवि नज़र नहीं आएगी। अगले दिन उन्होंने मेक-अप किया, कुछ सीन शूट किए। तभी सेट पर अभिषेक आए। अमित जी सामने ही थे लेकिन अभिषेक उन्हें पहचान नहीं पाए। थो़डी देर बाद उन्होंने पूछा, पापा कहां है। जब हमने बताया कि एक बच्चे की तरह ऩज़र आ रहा शख्स कोई और नहीं बल्कि अमित जी ही है तो सुनकर अभिषेक के आश्चर्य और अमित जी की खुशी का ठिकाना न रहा। अमित जी पूरी तरह से डायरेक्टेड ऐक्टर नहीं बल्कि एक इंटेलीजेंट एक्टर हैं।   

 शर्मिला टैगोर अमित के साथ काम करना मुझे हमेशा ही अच्छा लगा है। कहती हैं शर्मिला टैगोर। लगभग 27 साल बाद हम दोनों ने एक साथ काम किया विरुद्ध में। अमित में मैंने कोई बदलाव नहीं देखा सिवाए इसके कि अब वे सफेद दाढ़ी रखते हैं। अनुशासन को मैं अमित के ऐसे गुणों में मानती हूं जिसने उनको शिखर पर पहुंचाया। मैंने बहुत बड़े-बड़े कलाकारों के साथ काम किया है लेकिन मैं कह सकती हूं कि अमित जैसा अनुशासित कलाकार बहुत कम हैं। हिन्दी फ़िल्मों में सफलता का इतना लंबा दौर देखने वाले अमित को उनकी मेहनत का फल मिला है और वे इसके हकदार रहे हैं।

वहीदा रहमान -  अमित को मैं आज भी कभी देखती हूं तो मुझे उस दिन की याद आ जाती है जब रेशमा और शेरा के सिलसिले में मुझे सुनील दत्त में पहली बार एक दुबले-पतले नौजवान से मिलवाया था। मुझे बताया गया था कि वो फ़िल्म में गूंगे का कैरेक्टर करेगा। मैंने जब उस लड़के की आवाज़ सुनी तो सुनील दत्त से कहा कि इसकी आवाज़ बहुत अच्छी है। वे मेरी बात से सहमत थे लेकिन कैरेक्टर की मांग के अनुसार उन्हें रोल दिया गया था।  

अमित को मैं गरिमामय कलाकारों में मानती हूं और उनका सबसे बड़ा गुण मानती हूं फ़िल्मों की नई पीढ़ी के साथ उन्होंने बहुत अच्छा ताल-मेल बिठाया है। दूसरे लोगों की तरह उनके जीवन में भी उतार-चढ़ाव रहे हैं लेकिन उन्होंने संघर्ष किया और situations पर विजय पाई। यही उनके अमिताभ बच्चन होने का मतलब है जिसे हम सबसे बड़े सितारे के तौर पर जानते हैं। कहती हैं वहीदा रहमान।

अभिषेक बच्चन 
अपनी उपलब्धियों का श्रेय उन्हें देते हैं। वे कहते हैं मैं आज जो कुछ भी हूं पापा की वजह से हूं। मेरी इस कामयाबी में उनका योगदान है।  वे साफ़ कहते हैं कि मेरे पिता पॉपुलर स्टार हैं। अगर लोगों को लगता है कि उनकी वजह से मुझे फायदा हुआ है तो ये मेरे लिए गर्व की बात है. अभिषेख हमेशा कहते रहे हैं कि पापा की व्यवहार दोस्तों जैसा रहा है। मेरे काम को उन्होंने बारीकी से जांचा है। कमियां बताकर सुधार की सलाह दी है तो कई बार तारीफ भी की। 



उनकी सहधर्मिणी जया बच्चन कहती हैं कि  मेरे नज़र में वे एक असाधारण अभिनेता और कलाकार हैं। उनकी किस्मत ने उन्हें सुपरस्टार बनाया। मुझे लगता है कि उनकी जो अभिनय क्षमता है किसी ने भी उसका अभी परिपूर्णरूप से इस्तेमाल नहीं किया। उनका श्रेष्ठतम अभिनय तभी सामने आएगा जब उनके जैसा ही कोई निर्देशक उनके साथ काम करेगा। साथ ही वे ये भी कहती हैं कि अमित जी को सरप्राइज देना बहुत पसंद है। 


अमिताभ यानी हिन्दी सिनेमा की महानायक। फ़िल्मी पर्दे पर ही छोटे पर्दे पर भी। दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली ये इमेज एक दिन में नहीं बनी। इस सफ़र में उजाले के बाद अंधेरे भी आए पर नायक रुका नहीं, ठहरा नहीं। हर काम के प्रति उनका समर्पण उन्हें महानायक बनाता गया। उन्होंने अपनी एंग्री यंगमैन की छवि से हिन्दी सिनेमा के परंपरागत नायकों के फ्रेम को तोड़ा था, वैसे ही क़रीब चार दशकों के बाद वे फिर से छवियों के सारे मानकों को तोड़ रहे हैं। घर से दूर छोटे पर्दे के सेट पर भी। अमिताभ आज मह़ज़ एक नाम नहीं बल्कि एक विचार, एक परिघटना में तब्दील हो चुके हैं। हर बुरे वक्त में खुद को साबित कर देने की खूबी ने ही अमिताभ बच्चन को विश्वसनीयता का एक पर्याय बना दिया है। 

जून 2000 में वे पहले ऐसे एशियन बने जिसे लंदन के Prestigious मैडम तुषाद वैक्स म्युज़ियम में मोम के statue के रूप में Immortalise किय़ा गया। 2009 में दूसरे statue New York और Hong Kong में भी स्थापित किए गए। ये म्यु़ज़ियम दो सौ साल पुराना है। अब तक वहां विशव की लगभग पांच सौ से अधिक नामी-गिरामी Personalities के मोम के स्टेच्यु बनाए गए हैं। हर साल 15 नई हस्तियां जुड़ जाती हैं। महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव के बाद अमिताभ इस म्युज़ियम में पहुंचे पांचवें भारतीय हैं। अमिताभ बच्चन के अनुरोध पर 2001 में ये स्टैच्यु भारत लाया गया था ताकि उनके माता-पिता भी देख सकें। इसके बाद ऐशवर्या, रितिक रौशन, सलमान खान, शाहरुख खान, सचिन तेंदुलकर जैसे नाम भी शामिल किए गए।

वे हमेशा अपने बाबूजी को कोट करते हैं कि बाबूजी के जीवन-दर्शन ने मुझे ज़िंदगी का फलसफ़ा सिखाया। वे कहते थे कि मन का हो तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा। या फिर ये कि बीत गई सो बात गई। वे कहते हैं कि ज़िंदगी के पर पथ पर बाबूजी की सीख काम आती है। ख़ासतौर से सहनशीलता और आत्मबल रखना उन्हीं से सीखा है। बेरोजगारी की स्थिति में जब नौकरी नही मिल रही थी तो दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने तय किया कि इस सब में हमारे माता पिता का ही दोष है। एक दिन उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि आपने मुझे जन्म ही क्यों दिया। उस वक्त तो पिता चुप रह गए। अगले दिन सुबह मार्निंग वॉक पर जाते वक्त एक पुर्जा थमा दिया कि जिसका जिस्ट यही था कि बेटा, मेरे पिताजी ने भी मुझसे पूछ कर मुझे जन्म नहीं दिया था और न ही उनके पिताजी ने उनसे पूछ कर। तो तुम ऐसा करना कि जो ग़लती हम सबने की, वो तुम मत करना, तुम अपने बेटे को उससे पूछ कर ही जन्म देना... ये सुनने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मैं ग़लत बात के लिए बाबूजी को दोष दे रहा था। कहते हैं अमिताभ।  

आज वे अपना 69वां जन्मदिन मना रहे हैं यानी जीवन के 69 पायदानों का सफ़र पूरा कर 70वें में पदार्पण करेंगें।  उन्हें जन्मदिन की ढेरों शुभ कामनाएं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वो उन्हें दीर्घायु करें स्वास्थ्य और कुशल रखें ताकि वे अपने प्रशंसकों को और भी खश रख सकेंष


संयोजन व  प्रस्तुति - नीलम अंशु

20 सितंबर 2011

आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है


                                                


21 सितंबर 1926 को लाहौर से लगभग 40 कि. मी. दूर कसूर कस्बे के एक नाचने- गाने वाले परिवार में एक खूबसूरत सी बच्ची का जन्म हुआ। नाम रखा गया अल्लाह रख्खी। बच्ची को खुदा ने जितनी बेमिसाल खूबसूरती बख्शी थी, उतनी ही पुरकशिश आवाज़ भी। पांच साल की उम्र में जब अधिकांश बच्चे तुतला रहे होते हैं, उस वक्त अल्लाह रख्खी ने तत्कालीन गायकों की शैली में गाना भी शुरू कर दिया था।

मात्र 8 वर्ष की नन्हीं उम्र में कलकत्ते की एक फ़िल्म कंपनी ने उसे प्ले बैक का मौका दिया। निर्माता निर्देशक अभिनेता बिट्ठलदास पांचोटिया के अनुसार 1935 में उन्होंने सबसे पहले मादन थियेटर कलकत्ता द्वारा निर्मित फ़िल्म गैबी गोलामें पहली बार अल्लाह रख्खी को बाल कलाकार यानी बेबी नूरजहां के रूप में पेश किया। परंतु संगीतकार गुलाम हैदर के निर्देशन में 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने पंजाबी फ़िल्म गुल-बकावली में पहली बार गाया।

 शुरूआती दौर में नूरजहां ने बहुत सी पंजाबी और हिन्दी फ़िल्मों में काम किया लेकिन जिस फ़िल्म से उन्होंने बतौर नायिका और गायिका पहली बार अपार शोहरत हासिल की, वो थी 1942 में रिलीज़ हुई फ़िल्म खानदान। इस फ़िल्म के गीतों ने तो धूम ही मचा दी थी। फ़िल्म में उनके नायक थे प्राण।

फ़िल्म खानदान की असाधारण सफलता नूरजहां को उड़ा कर बंबई ले गई।  बंबई फ़िल्म नगरी में वे अकेली नहीं गईं साथ वे अपनी शोख पंजाबीयत भी ले गईं। वहाँ 1943 में सआदत हसन मंटो की कहानी पर शौकत रिज़वी की फ़िल्म नौकर में काम किया जिसमें शोभना समर्थ और चंद्रमोहन ने भी मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं।

1943 में जिया सरहदी द्वारा निर्देशित फ़िल्म नादान प्रदर्शित हुई, जिसमें संगीतकार के. दत्ता के निर्देशन में उन्होंने पहली बार कई गीत गाए। फिर शौकत रिज़वी ने दोस्त का निर्देशन किया, फ़िल्म तो चली नहीं पर सज्जाद हुसैन के गीत काफ़ी हिट रहे। 1945 में नूरजहां अभिनीत चार फ़िल्में रिलीज़ हुई, उनमें ज़ीनत ने बहुत धूम मचाई और फ़िल्म के गीत भी बहुत पसंद किए गए। गीत हैं- नाचो सितारो नाचो/ बुलबुलो मत रो यहां / आंधियां ग़म की और क़व्वाली आहें न भरी शिकवे न किए। संगीतकार श्याम सुंदर ने फ़िल्म विलेज गर्ल में नूरजहां से पहली बार कई खूबसूरत गीत गवाए, जिनमें,  बैठी हूं तेरी याद का लेकर सहारा/ किस तरह भूलेगा दिल/ ये कौन हंसा/ और सजन परदेसी प्रमुख हैं।

 फिर आई महबूब निर्देशित और संगीतकार नौशाद अली के संगीत से सजी सुपरहिट फ़िल्म अनमोल घड़ी, जो कि प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी। 1946 में प्रदर्शित ये एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें नूरजहां की अदाकारी और गीतों ने उनके रुतबे को आसमां तक पहुंचा दिया। इस फ़िल्म का गीत, आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है हमेशा-हमेशा के लिए नूरजहां की पहचान बन गया। इसमें नूरजहां के साथ सुरेन्द्र और सुरैय्या ने भी अभिनय किया था। इस फ़िल्म में नूरजहां ने जवां है मुहब्बत/ आ जा मेरी बर्बाद मुहब्बत के सहारे/ मेरे बचपन के साथी/ क्या मिल गया भगवानजैसे कई solo song भी गाए।

दरअसल अनमोल घड़ी का संगीत, कहानी का अनूठापन, इसकी कास्ट, महबूब खान का निर्देशन, कुछ ऐसी बातें थीं जो नूरजहां को फ़िल्म Art के field में काफ़ी आगे तक ले गईं। 1946 में नूरजहां की दो फ़िल्में और आईं। एक थी दिल और दूसरी हमजोली। परंतु इन फ़िल्मों के गीत ज़्यादा पॉपुलर नहीं हो सके। इसी साल रिलीज नूरजहां – त्रिलोक कपूर अभिनीत फ़िल्ममिर्ज़ा साहिबा के गीत भी बेहद हिट हुए थे। कुछ गीतों की धुनें हुस्न लाल भगत राम ने बनाई थीं तो कुछ की अमरनाथ ने।

1947 में शौकत रिज़वी के निर्देशन में आई फ़िल्म जुगनु जिसमें दिलीप कुमार नायक थे। फ़िरोज़ निज़ामी द्वारा संगीतबद्ध इस फ़िल्म के गीतों ने अपार शोहरत हासिल की। सर्वाधिक हिट डूयेट था – यहां बदला वफ़ा का सिवाए बेवफ़ाई के क्या है। नूरजहां का साथ दिया था मु. रफ़ी साहब ने।  ये तो आप जानते ही हैं कि रफ़ी साहब का नूरजहां के साथ गाया यह इकलौता गीत है। टोरांटोवासी रफ़ी साहब के बड़े भाई हमीद साहब के अनुसार रफ़ी उस दिन बहुत नर्वस थे। नूरजहाँ जी ने खुद अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया और हौंसला बढ़ाया।

  अविभाजित हिन्दुस्तान में जुगनु उनकी अंतिम फ़िल्म थी। देश विभाजन के बाद नूरजहां लाहौर वापिस चली गईँ। जहां कोई गायक या गायिका वहाँ शौकत हसन के साथ मिलकर सटुडियो खोला – शाहनूर। 1951 में शाहनूर के बैनर तले उन्होंने शौकत रिजवी निर्मित पंजाबी फ़िल्म चन्न वे का निर्देशन किया और वे पाकिस्तान की पहली महिला फ़िल्म निर्देशक बन गईं।

1953 में उनकी दो फ़िल्में रिलीज हुईं ‘दुपट्टा’ और ‘गुलनार’। दुपट्टा का संगीत दिया था फिरोज़ निज़ामी ने। मशहूर गीत रहे – जिगर की आग से इस दिल को जलता देखते जाओ चांदनी रातें तुम ज़िंदगी को ग़म का फ़साना बना गए  मैं बन पतंग उड़ जाऊँ।
गुलनार के संगीतकार थे गुलाम हैदर। पॉपुलर गीत थे – बचपन की यादगारों मैं तुमको ढूंढती हूं /लो चल दिए हमको तसल्ली दिए बगैर/ सखी री नहीं आए सजनवा मोर वगैरह वगैरह।

नूरजहां के समकालीनों में अमीरबाई कर्नाटकी, ज़ोहराबाई अंबालावाली जैसी गायिकाएं और नायिका गायिका खुर्शीद रहीं। अगर वो युग शमशाद बेगम, सुरैया, राजकुमारी, पारुल घोष, काननबाला, जूथिका राय जैसी दिग्गज गायिकाओं का था तो इन सब में नूरजहां ने अपनी अलग पहचान बनाई। भले ही कुंदनलाल सहगल, पहाड़ी सान्याल, सुरेन्दर, जी.एम. दुर्रानी, जगमोहन, के. सी. डे जैसे गायकों का जादू भी लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, फिर भी इन सब में नूरजहां की गायकी की कशिश अलग ही थी।

बकौल सुरेन्दर – नूरजहां की आवाज़ में तिलिस्म ही था, उनके साथ गाते-गाते न जाने कितनी बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी लाईन ही भूल जाता, उनकी आवाज़ में खोया रहता।

1951 से 1960 तक उन्होंने 13 फ़िल्मों में काम किया पाकिस्तान में उन दिनों उर्दू के मुकाबले पंजाबी फ़िल्में ज़्यादा बनती थीं। नूरजहां ने उर्दू, पंजाबी, पश्तो, सिंधी भाषा में बनी फ़िल्मों में प्लेबैक का रिकॉर्ड बनाया। उनके इस रिकॉर्ड को कोई अन्य पाकिस्तानी गायिका नहीं तोड़ पाई है।
नूरजहां की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लता मंगेशकर भी उनकी प्रशंसक हैं। वे जब पहली बार संगीतकार गुलाम हैदर के पास ऑडिशन देने गई थीं तो उन्होंने फ़िल्म ज़ीनत में नूरजहां जी का गाया गीत - ‘बुलबुलो मत रो यहां आंसू बहाना हैं मना’ गाकर सुनाया था। इसे सुनकर गुलाम हैदर ने उन्हें फ़िल्म ‘मजबूर’ में गाने का मौका दिया था।

 अपनी अदाकारी और गायकी से बहुत शोहरत हासिल कर चुकीं नूरजहां कोतमगाए-इम्तियाज़ और Pride of Performance जैसे सम्मानों औरमल्लिका-ए-तरन्नुम के ख़िताब से नवाज़ा गया। लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ बंबई Film Industry नूरजहां से करवा या गवा सकी उसका एक चौथाई भी लाहौर Film Industry उनसे हासिल न कर सकी। इस विषय पर संगीतकार एस. मोहिन्दर का कहना था कि लाहौर के संगीत निर्देशक कम अनुभवी नहीं थे परंतु उस फ़िल्म इंडस्ट्री के पास न तो बंबई के level  की तकनीक थी और न ही नए तजुर्बे करने का हौंसला और न ही दिव्य दृष्टि कि वे किसी कलाकार से उसकी निपुणता के अनुसार काम करवा सकती। इसलिए इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि नूरजहां वहां की फ़िल्मों में कला और संगीत की दृष्टि से अपने बंबई के दौर से आगे न जा सकीं। 

एक किस्सा शेयर करना चाहूंगी। टोरांटो वासी मेरे दोस्त इकबाल माहल वहां म्युज़िकल शोज़ का आयोजन करते हैं। जगजीत सिंह उनके यहां ठहरे हुए थे। ऐसे में एक बार उन्हें मैडम नूरजहां ने फोन करके जगजीत सिंह का प्रोग्राम सुनने की ख्वाहिश जताई। सोचिए मंच पर जगजीत और दर्शकों में सामने बैठ मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां उनके गायन का लुत्फ़ उठा रही थीं। नूरजहां का एक प्रशंसक उनके घुटनों के पास आ बैठा। जोश में आकर वह उनके घुटने दबाने लगता। वे अपने घुटने इधर-उधर करके प्रशंसक के उत्साह से बचने की कोशिश कर रही थीं। आखिर नूरजहां जी ने इकबाल जीक के कान में कहा, इस आदमी से पीछा छुड़ाओ।

 इकबाल जी ने उस प्रशंसक से कहा, भाई साहब तारीफ़ ज़बान से ही काफ़ी होती है, हाथों से करनी ज़रूरी नहीं । वह झेंप गया। थोड़ी देर बाद नूरजहां जी ने कोई बात कही तो उस आदमी के जोश में उबाल आ गया और फिर से घुटने पकड़ बैठा। इस बार इकबाल जी ने तैश में आकर कहा कि भाई साहब, अगर अपने घुटने नहीं तुड़वाने तो अपने हाथों को संभाल कर रखिए। महफ़िल ख़त्म होने पर वही प्रशंसक लापरवाही से सड़क पार करते समय एक गाड़ी की चपेट में आ गया। उसकी दोनों टांगे कट गईँ। इकबाल जी को पछतावा हो रहा था कि मैंने ऐसी बात मुंह से क्यों निकाली। 

23 दिसंबर, 2000 को नूरजहां इस नूरानी जहां को अलविदा कह गईं। करांची में वे अपनी बेटी और दामाद के हसन सरदार के पास थीं, जो कि मशहूर खिलाड़ी थे। दोपहर बाद तबीयत ज़्यादा ख़राब होने पर अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में उन्होंने तम तोड़ दिया।  उनकी पोती  ने भी नौशाद के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ताजमहल The Eternal Love Story में acting की थी, लेकिन फ़िल्म कुछ ख़ास चल नहीं पाई।

नूरजहां जी को इस बात का फ़ख्र रहा है कि हिन्दी फ़िल्मों में सलवार-कमीज़  पोशाक का चलन उन्हीं से शुरू हुआ। पंजाबी संगीत प्रेमियों के लिए ये गर्व की बात रही कि उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों के लिए सर्वाधिक प्ले बैक किया। 

                                                                         प्रस्तुति - नीलम अंशु

14 अगस्त 2011

आसां है जाना महफ़िल से, कैसे जाओगे मगर हमारे दिल से......


ये दुनिया एक रंगमंच है, और इस रंगमंच पर हम अपने पूर्व निर्धारित शेडयूल के मुताबिक अपनी भूमिका निभाते हैं और रंगमंच से विदा लेते हैं।




सुबह 9-10 वाला प्रोग्राम चल रहा था AIR FM Rainbow पर। अचानक 9.40 पर स्टुडियो का इंटरकॉम बज उठा। दूसरी तरफ से Duty Officer ने सूचित किया -  अभी-अभी खबर आई है कि शम्मी कपूर नहीं रहे। अपने प्रोग्राम में यह सूचना प्रसारित कर दीजिए। उस वक्त गीत बज रहा था फ़िल्म 'अगर तुम न होते' से रेखा और शैलेन्द्र सिंह की आवाज़ों में - कल संडे की छुट्टी है..... गीत बीच में रोक कर शम्मी कपूर साहब के निधन की सूचना दी और श्रद्धांजलि स्वरूप  फ़िल्म जंगली का गीत  लता मंगेशकर और रफ़ी साहब की आवाज़ में प्ले किया : -


                               'दिन सारा गुज़ारा तेरे अंगना, अब जाने दे मुझे मोरे सजना
मेरे यार शब बखैर, मेरे यार शब बखैर...
                      आसां है जाना महफ़िल से, कैसे जाओगे मगर मेरे दिल से
   मेरे यार शब बखैर, मेरे यार शब बखैर...'


फिर पहले से चल  रहे प्रोग्राम को 10 बजे तक कंपलीट किया। और सवा दस बजे से 100.2  AIR FM Gold पर प्रसारित होने वाले 'सुनहरे दिन' प्रोग्राम के लिए दूसरे स्टुडियो की तरफ कूच किया। उस  सट्डियो में जाते ही फिर दूसरे Duty Officer का फोन आया कि इस प्रोग्राम में भी दो-तीन गीत शम्मी कपूर के बजा दीजिएगा। मैंने कहा, आप निश्चिंत रहें मुझे अगर कंप्यूटर पर Sufficient गीत मिल जाते हैं तो मैं पूरा प्रोग्राम ही शम्मी जी पर कर दूंगी। और फिर उन्हें पुन: श्रद्धा्ंजलि स्वरूप 11 बजे तक पूरा प्रोग्राम पेश किया और ज़्य़ादातर रफ़ी साहब के गाए गीत ही बजे।  इस दौरान  Duty Officer ने स्टूडियो में आकर कहा कि बहुत अच्छा प्रोग्राम जा रहा है। 


याद आ रहा है कि शम्मी जी को आख़िरी बार 31 जुलाई 2011 को रफ़ी साहब की पुण्यतिथि के अवसर पर टी.वी. प्रोग्राम में बोलते हुए देखा था। 7 अगस्त को उन्हें ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती किया गया, सात दिनों तक वेंटीलेशन पर रहने के बाद आज उनका शरीर साथ छोड़ गया। 

इसी तरह पहले भी ़एक बार लाइव परफॉर्म करते हुए अचानक 9.55 मिनट पर अंतिम गीत के वक्त ड्यूटी अफसर ने संगीतकार ओ. पी. नैय्यर के निधन की सूचना दी थी।

सही कहा है शायर ने कि 'आसां है जाना महफ़िल से, कैसे जाओगे मगर मेरे दिल से'। जी हां, कलाकार तो कभी भी हमसे जुदा नहीं होते, वे हमेशा अपने फ़न के माध्यम से हमारे बीच बने रहते हैं।

                                                                        शम्मी जी को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि।


                                                                                 प्रस्तुति - नीलम अंशु
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11 अगस्त 2011

मित्रता दिवस के नाम।




मैम,  क्या आप मेरा ब्लॉग पढ़ते हो ? (16-2-2011)

फ्लैशबैक - 1

संभवत: नवंबर की 28 तारीख थी उस दिन। अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से वक्त निकाल कर उसने सोचा कि ज़रा नेट पर अपनी मेल और फेसबुक पर एक नज़र डाल ले। अभी पांच मिनट भी न हुए होंगे कि एक दोस्त चैट पर हाजिर था। हां, दोस्त ही तो था, क्योंकि फ्रेंड लिस्ट में नाम तो था ही।

हलो मैम ! कैसे हो आप ?’

थोड़ी सी रस्मी बात-चीत के बाद पूनम ने उससे फिर कभी बात करने की बात कह विदा ली। बस, फिर शायद दो हफ्ते बाद एक बार फिर वह चैट पर हाज़िर था। उसने इस बार हलो की बजाए नमस्ते की। बात-चीत शुरू करते ही आपसी परिचय का आदान-प्रदान हुआ। पूनम से उसने पूछा – ‘मैम आप क्या करते हो?’  पूनम को थोड़ा अजीब भी लगा कि जब आप किसी से चैट कर रहे हैं तो आपको अगले की प्रोफाइल से उपलब्ध जानकारी तो पढ़ लेनी चाहिए न। फिर उसने कहा, फैमिली के बारे बताईए। ख़ैर, जवाब में पूनम ने भी उससे विस्तार से जानना चाहा कि वह क्या करता है वगैरह-वगैरह। अपनी जानकारी में उसने बताया कि परिवार में मम्मी-डैडी है और दीदी की शादी हो गई है। मैं एम. बी. ए. कर रहा हूँ। पूनम का आर. जे. होना उसे काफ़ी अच्छा लगा। फिर अगली बार उसने नमस्ते या हलो न कहकर पैरीपैनाकहा। पूनम को उसका पैरीपैना कहना अच्छा लगा कि चलो आज की पीढ़ी का यह बच्चा संस्कारी है। फिर अचानक उसने पूछा – ‘मैम, क्या आप मेरा ब्लॉग पढ़ते हो ?’

जवाब में पूनम ने कहा अभी तक तो नहीं पढ़ा। तो गौरव ने कहा मैम, आप ज़रूर पढ़ना और सुधार के लिए अपने सुझाव देना। पूनम ने वादा किया। उसी की तर्ज़ पर अचानक पूनम पूछ बैठी आप कहाँ के रहने वाले हैं, शायद पंजाब, हरियाणा या हिमाचल के।
जवाब में गौरव ने कहा कि कुल्लु और पंचकूला।
- मतलब ?
- कुल्लु में घर है और पंचकूला में पढाई कर रहा हूँ।
तो पूनम ने छूटते ही कहा कि मैंने सही गेस किया था न ?
-  आपको कैसे पता चला उसने पूछा।
- तुम्हारी हिन्दी से।
- मुझे अच्छी हिन्दी नहीं आती। उस ने कहा।
पूनम अब उसे तुमकह रही थी। वैसे वह सहजता से किसी को तुम नहीं कह पाती। खैर, गौरव उससे काफ़ी छोटा जो था। पूरे बीस साल छोटा। अब वह हमेशा पैरीपैना कह कर अभिवादन करता। पूनम ने उसे कह भी दिया था कि तुम मुझसे बहुत छोटे हो, इसलिए तुम्हारा पैरीपैना स्वीकार कर रही हूँ। बातचीत के क्रम में पूनम ने जानना चाहा कि वह हॉस्टल में रहता है या पी. जी में।
उसने कहा रूम लेकर।
- खाना मेस में खाते हो या खुद बनाते हो ?
- खुद ही बनाता हूं।
- तुम्हारी ममा और तुम में से कौन बेस्ट कुक है ?
- नि:संदेह मम्मी। उन्हीं से तो सीखा हूँ।
पूनम को हंसी आ गई। अचानक कह बैठी अरे, बीच में यह बिहारी स्टाइल की हिन्दी कहां से आ गई ?
...............
कुछ न कहकर अब उसने चैट पर रोमन हिन्दी में लिखना शुरू किया।
- अरे भई, अच्छा खासा तो हिन्दी में लिख रहे थे, अब रोमन में क्यों लिखने लगे ?
- आपने मुझे बिहारी कहा.....
- अरे, तुम्हें बिहारी नहीं कहा। तुम्हारी हिन्दी के स्टाइल को कहा।
तुम्हें कहना चाहिए था कि उन्हीं से तो सीखा है।
- मुझे शु्द्ध हिन्दी नहीं आती।
- शु्द्ध नहीं, सही कहो। शुद्ध हिन्दी कौन बोलता है, मैं भी नहीं बोलती।
ख़ैर, अब वह फिर से देवनागरी में लिख रहा था। बताओ आप, मैं किस भाषा में बात करूं हिन्दी, पहाड़ी, पंजाबी, हरियाणवी, नेपाली, हिमाचली और पता नहीं कितनी भाषाओं के नाम लिखे थे उसने।
..........   
- क्या हुआ, अब ख़ामोश क्यों हो गए आप ?
- होना क्या है। तुम्हारी लंबी चौड़ी लिस्ट की गिनती कर रही थी, उसका उत्साह बढ़ाते हुए पूनम ने कहा।
फिर पूनम ने उससे कहा कि अरे तुमसे पहले बात हुई होती तो अच्छा होता न। मैं तुम्हारे शहर होकर आई हूँ। सेमीनार में गई थी, एक हफ्ता रही तुम्हारे शहर में।
उसने कहा, हमें भी मेजबानी का मौका दिया होता।
अरे, तब तुमसे इतना परिचय थोड़े ही था। खैर पूनम को बहुत अफसोस हुआ कि परिचय का यह सिलसिला पहले बना होता तो मिला जा सकता था।

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इस बार थोड़ी देर तक रस्मी बात करने के बाद पूनम ने बातचीत को विराम देने के इरादे से कहा कि अच्छा चलें, खाना खा लिया जाए।
तो उसने कहा -  रुकिए, मैं भी अपना खाना ले आऊँ।
पूनम ने कहा कि तुम अपना लंच करो मुझे तो अभी किचन में जाकर लंच तैयार करना है। छुट्टी के दिन ऐसा ही होता है सुबह का नाश्ता ग्यारह बजे तो लंच चार बजे। बाकी दिनों की तुलना दिनचर्या काफ़ी व्यस्तता भरी जो होती है। बाकी लोग तो खा चुके, मैं सोचती हूं जाकर कि चपाती बनाई जाए या फिर चावल।

अगली बार चैट के दौरान पूनम ने उससे कहा, तुम चाहो तो अपना कॉन्टैक्ट नंबर दे सकते हो। उसने अपना नंबर दे दिया। पूनम ने तुरंत उस नंबर पर कॉल की। उसने फोन उठाय़ा - हलो, जी आप कौन उसका स्वर घबराया हुआ सा था।
- वही, जिससे तुम अभी बात कर रहे थे।
- ओह, आप !
- इतने घबराए हुए क्यों लग रहे हो ?
- पहली बार बात हो रही है न।
- पहली बार कहां, इतनी बार चैट के मार्फत बात कर चुके हो।
- चैट और फोन में फर्क भी तो है न जी। किसी से फोन पर पहली बार बात करने में हेजिटेशन तो होती है न। गौरव ने जवाब दिया।
- अरे शोनामोनी, इसमें घबराने की क्या बात है हाँपूनम उसे शोनामोनी कह कर पुकारती थी। उसे भी यह संबोधन पसंद था।गौरव को यह नाम बहुत पसंद था। (बंगाल में बच्चों को शोना, शोनामोनी, मौना, शोनाई, बाबू आदि संबोधनों से पुकारने का चलन है। कभी-कभी पंजाबी स्टाइल में काका तथा पुत्तर भी कहती। खैर हिन्दी फिल्मों की बदौलत आंचलिक शब्दावली से लोग अछूते नहीं रहे।)  गौरव ने कहा कि आप मुझे बताओ, मैं आपको क्या कह कर पुकारूं। बांगला में बताओ। पूनम ने कहा कि संबोधन तुम तय करो, मैं बांगला का शब्द बता दूंगी। गौरव ने दबी ज़बान से कहा- बेबे कहूं। (पंजाबी में पुरानी पीढ़ी के लोग माँ को बेबे कहते हैं।) पूनम ने उससे कहा कि तुम्हारी प्रोफाइल में तुम्हारी डेट ऑफ बर्थ देखी। अरे शोना, अगर ग्रेजुएशन करते ही बाकी सहेलियों की तरह मेरी भी तुरंत शादी हो गई होती तो मेरा तुम्हारी उम्र का बेटा होता। बेटे सा ही लगाव हो गया था। एक अजीब संयोग यह भी था कि उसकी मम्मी पूनम की हमनाम थी। इसलिए भी आत्मीयता का प्रगाढ़ होना स्वभाविक था।

उसने शोनामोनी से कह रखा था कि जब भी तुम्हारा बात करने का मन हो तुम मुझे मिस कॉल दे दिया करो। मैं तुम्हें कॉल कर लिया करूंगी। हां, मैं तुम्हें अपनी तरफ से डिस्टर्ब नहीं करूंगी, पता नहीं कब तुम्हारी पढ़ाई या क्लास का वक्त हो।

तिस पर भी एक बात पूनम ने आज़मा कर देखी कि उसका शोनामोनी से बात करने को बहुत जी चाहने पर जब कभी अपनी तरफ से फोन  किया फोन बजता ही रहता। ऐसा बहुत कम हुआ कि फोन रिसीव हुआ हो। वह घंटों बाद जवाब देता। एक बार पूनम ने कह भी दिया कि शोना तू तो फोर टवेंटी है। तेरी दोस्ती भी अजीब है। तुझसे बात तेरी शर्तों पर होती है। जब तेरा जी चाहे तो बात हो। भले ही लाख हमारा जी चाहे बात करने को, तू तो फोन ही नहीं उठाता।

उसने हंस कर कहा, इसमें कौन सी नई बात है, मेरे मम्मी-डैडी भी ऐसा ही कहते हैं।
- क्या कहते हैं ?
- यही कि तू फोर टवेंटी है।
- तुम इतना तंग क्यों करते हो मुझे। अजीब दादागिरी है तुम्हारी।
उसने कहा कि मेरा जब बात करने का मन होगा मैं आपको रात के दो बजे भी फोन करूंगा और आपको मुझसे बात करनी होगी। खैर, ये अलग बात है कि  ऐसा कभी नहीं हुआ।

एक दिन ज़िद करने लगा आप मुझे बांग्ला गाना सुनाओ। पूनम ने लाख कहा कि मुझे गाना-वाना नहीं आता।
- मुझे कुछ नहीं पता, जैसा आता है आप प्लीज़ गाकर सुनाओ। आपको नहीं पता मैं बहुत ज़िद्दी हूं। वह नहीं माना और पूनम को जैस-तैसे गुनगुना कर पिंड छुड़ाना पड़ा।

एक वाक्या और याद आता है। उसने बताया जब मोबाइल नहीं था तब हमारे लैंडलाइन पर मेरी गर्ल फ्रेंडस् के फोन आते तो मेरे घर पर न होने के कारण डैडी ही बात कर लेते बाद में बताते कि तुम्हारे लिए अमुक का फोन आया था। पिता-पुत्र दोनों की आवाज़ें बहुत ही मिलती-जुलती थी। पूनम ने उसकी बात काट कर पूछा था -  शोनामोनी तुम्हारी कितनी गर्ल फ्रेंडस् हैं ?
- बहुत सी।
- गलत बात है शोना। तुम हरेक को गर्ल फ्रेंड क्यों कहते हो। दोस्त क्यों नहीं कहते। गर्ल फ्रेंड तो कोई खास एक ही हो सकती है, है न। समझे, आगे से बाकियों को दोस्त कहा करो।

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उसे याद आता है जब उसने पूछा था, आपका बर्थडे कब है ?
- मेरी प्रोफाइल में देख लो।
- उहूं, आप ही बता दीजिए।

फिर उसने बच्चों की तरह मचल कर कहा, मैं चाहता हूं कि उस दिन रात बारह बजे आपको सबसे पहले मैं ही विश करूं। पूनम ने यह बात अपने दोस्तों को बताई थी। दोस्तों ने भी उसके उस अजनबी शोनामोनी की इच्छा का मान रखते हुए कहा था, ठीक हम सब आपको बाद में सुबह विश कर लेंगे। इतना ही नहीं शोनामोनी ने यह भी कहा था कि जन्मदिन वाले दिन सुबह नहा-धो कर पूजा करते वक्त मेरे कुलदेवता का स्मरण कर अपनी मन्नत माँग लेना।  मन्नत पूरी होने पर आपको मेरे गाँव आना पड़ेगा माथा टेकने के लिए। मैं भी आपके लिए दुआ करूंगा कि वे आपकी इच्छा पूरी करें।

कैसे वह सुबह देर से जगने वाला लड़का पूनम के एफ. एम प्रोग्राम वाले दिन जल्दी जग कर फोन करता कि मुझे आपको परफॉर्म करते हुए सुनना है, मुझे फोन करना प्लीज़। एस. टी. डी. कॉल की परवाह न करते हुए पूनम ने कई बार उसे अपने प्रोग्राम लाइव सुनवाए थे। वह बहुत अच्छी मिमिक्री कर लेता है, पूनम ने उसे भी कहा था, तुम भी आर. जे. क्यों नहीं बन जाते ?

दोनों की सोच काफ़ी मिलती-जुलती थी। बात पूनम के दिल में होती और उधर अगले ही पल शोनामोनी की ज़बान पर आ जाती। पूनम ने कहा, मैं आपना काम-धाम छोड़ कर दूसरों से इतनी बातें नहीं करती लेकिन पता नहीं क्यों तुम्हें हमेशा अटेंड कर लेती हूँ। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है ?
- तुरंत शोना ने कहा –  पिछले जन्म का रिश्ता है।

एक बार यही कोई रात के आठ बजे होंगे। मोबाइल बजा। देखा शोनामोनी का नंबर था। पूनम ने कॉल बैक किया। जान-बूझकर गुड मॉर्निंग कहना चाहा पर उससे पहले ही उधर से शोनामोनी ने पैरीपैना न कह कर कहा गुड मॉर्निंग जी।  भला यह कैसी ट्यूनिंग या वेव लेंथ थी ?

हां, दो चीज़ें अलग भी थीं। पूनम को गुस्सा जल्दी आता और उधर वह कूल-कूल। पूनम वेजेटेरियन थी और वह नॉनवेज भी। कहता, ऑमलेट बना रहा हूँ। या फिर कहता, मटन बना रहा हूं, चिकेन बना रहा हूँ वगैरह-वगैरह। पूनम कहती अरे शोना, ऑमलेट बनाते-बनाते अगर तवे पर चूज़ा बन गया तो...... और वह मासूम सी हंसी हंस देता।

कभी कुछ कहता और फिर तुरंत कहता, आपने सच मान लिया क्या? मैं तो मज़ाक कर रहा था। पूनम को समझ न आता कि कौन सी बात मज़ाक है और कौन सी सच। वह कहती, मैं तो जो भी तुम कहो उस पर विश्वास कर लेती हूं। सच मान लेती हूं। आगे की तुम जानो।

कभी कहता, खाते जा रहा हूं, खाते जा रहा हूँ। भूख ही नहीं मिटती।
- सोहबत का असर है।
- वह क्या होती है ? अंग्रेजी में इसे क्या कहते हैं ?
- कंपनी यानी संगत यानी सोहबत। उर्दू का शब्द है।
- आपने मुझे एक नया शब्द सिखा दिया।
- अच्छा बताओ तो सोहबत किसकी ?
- आपकी पता है मेरे मम्मी-डैडी या सिस्टर को आप देखोगे न तो यही कहोगे कि तुझे खाना नहीं मिलता, सारा वे ही खा जाते हैं क्या ?   ओह सारे तां सेहतां वाले ने, खांदे-पींदे घर दे।
- मैं भी तो मोटी हूँ।
- कौन कहता है ? आप मोटी थोड़े ही हैं, तुसी वी खांदे-पींदे घर दे हो। उसका पंजाबी में बात करना पूनम को अच्छा लगता।


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अचानक पूनम का एक अन्य सेमीनार में जाने का प्रोग्राम बना तो उसने तुरंत शोनामोनी को सूचित किया कि मुझे डेढ़ महीने बाद अमुक जगह सेमीनार में शिरकत करने जाना है, तुम अगर उपलब्ध रह सको तो एक दिन तुम्हारे शहर में रुक सकती हूँ। उसने कहा अभी तो कुछ नहीं कह सकता। दिन गुज़रते गए..... अचानक एक दिन पूनम ने गुस्से में उससे कहा कि जाओ मैंने अपना प्रोग्राम बदल लिया है अब मैं सीधे अपने सेमीनार में जाऊंगी मुझे नहीं मिलना तुमसे। पूनम को बड़ी हैरानी होती कि इस कूल ब्वॉय को कभी गुस्सा नहीं आता। वह कहता भी, आप हॉट टैम्परामेंट के हो और मैं कूल ब्वॉय। मुझे कभी गुस्सा नहीं आता। 

सेमीनार के लिए जाने का समय नज़दीक आने पर दस दिन पूर्व पूनम ने कहा, मुझे कुछ नहीं पता, मैं आठ को पहुंच रही हूँ, तुम मुझे नौ तारीख की सुबह नौ बजे मिल रहे हो। कहाँ मिलना है, फोन करोगे तो बता दूंगी। नहीं तो तुम्हारी मर्ज़ी।


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ख़ैर, एक तारीख को बात हुई तो उसने कहा कि मैं न ज़रा पैकिंग कर लूं कल दोस्त की शादी पर घर जा रहा हूं (कुल्लु)।
- कब लौटोगे ?
- कल जा रहा हूं, परसों के बाद क्या पड़ता है नरसों, नरसों के बाद।
यानी पांच तक। फिर उसकी तरफ से कोई फोन नहीं आया। न चाहते हुए भी पूनम ने अपनी रवानगी से एक दिन पहले और रवानगी वाले दिन उसे फोन किया। परंतु हमेशा की तरह नो रिप्लाई।
फिर उसने ट्रेन से उतरने से पहले एस.एम.एस किया - 'यू आर सो इररिस्पॉन्सिवल, स्ट्रेंज !'
जवाब में उसने लिखा – 'मी इन रोमिंग।'

पूनम सोच रही थी - इन्सान इस हद तक गैर-जिम्मेदार हो सकता है भला उसे तो देर रात पहुंचकर होटल में रुकना था और अगले दिन शोनामोनी से मिल अपने गंतव्य की ओर रवाना हो जाना था। वह तो अपने निर्धारित शेड्यूल के अनुसार उसके शहर गई भी। यह तो वही जाने कि भले ही वह शहर में हो और कह दिया हो रोमिंग में हूं। आजकल रोमिंग में इनकमिंग कॉल इतनी मंहगी भी नहीं। फोन तो हमेशा पूनम ही किया करती थी। हाँ, वह कहा भी करता था कि कभी मेरा भी कॉल रिसीव कर लिया कीजिए। लेकिन पूनम सोचती कि वह बच्चा है, अभी बेरोजगार है।

कहती जब नौकरी करोगे न तब तुम फोन किया करना। वह कहता, अभी भी मैं पार्ट टाइम ड्राइवरी करता हूँ। पूरी तरह से पापा पर डिपेंड नहीं हूँ। हाँ, पढ़ाई का खर्च पापा का, पॉकेट मनी मेरी अपनी। कभी मज़ाक में कहता - आप एक स्कॉरपियो खरीद लो और मुझे ड्राइवर रख लेना।

अगले दिन के कुछ घंटे जो उसने शोनामोनी के नाम कर रखे थे, मार्केट में घूमते हुए गुजा़रे और फिर एक बेंच पर घंटों बैठ कर आस-पास से गुज़र रहे उसकी उम्र के लड़कों को देख पहचानने की कोशिश करती कि कहीं वह इनमें से कोई हो। सोचती क्या सिर्फ़ ब्लॉग या फेस बुक पर उसकी तस्वीर भर देख कर उसे पहचान लेगी ?

और.......अब पूनम सोच रही थी कि जब इसके पहले भी एक बार वह उसके शहर से गुज़री थी तो उसकी परीक्षाएं चल रहीं थीं। पूनम ने लौट कर उसे बताया कि मैं जाते और लौटते वक्त दोनों बार तुम्हारे शहर से होकर ग़ुज़री हूँ। वहीं से ट्रेन पकडी मैंने। उसने कहा था आपने फोन क्यों नहीं किया, परीक्षा थी तो क्या हुआ शाम को वक्त निकाल कर दस मिनट के लिए तो स्टेशन पर मिल सकता था न।

और अब पहले से बता कर भी क्या हुआ........?

वह सोच रही थी आज की यंग जेनरेशन तो हमारी तुलना में बहुत स्मार्ट और समझदार है, फिर यह सब........ऐसी गैरजिम्मेदाराना हरक़त.........

कितने शौक से वह अपने शोनमोनी के लिए किताबें और उपहार लेकर गई थी। सब वापिस लेकर आना पड़ा। क्या वह सब छलावा था?  कम से मेरी तरफ से तो नहीं। सुना था कि पहाड़ के लोग मासूम और सीधे-सादे होते हैं। अनेकों सवालों ने दिमाग में कश्मकश मचा रखी थी। आखिर हुआ क्याकहाँ चूक हो गई? खैर आज के ज़माने में जहां अपना साया भी साथ छोड़ जाता हो, अपने भी साथ न देते हों, अपने जाये बच्चे तक तो अपने नहीं रहते, फिर भला बेगानों से, अजनबियों से कैसा गिला, कैसा शिकवा, कैसा हक़....... क्या सचमुच अब भी वह अजनबी ही है ?

वह सोच रही थी कि सेमीनार जिसमें उसे मानवीय संबंधों पर पर्चा पढ़ना था... उससे पहले ही यह वाक्या उसे संबंधों की परिभाषा समझा गया। रिश्ते जो कितनी मुश्किल से बनते हैं, मरते दम तक बरसों निभाए जाते हैं मात्र तिमाही में चूर-चूर हो गए।

सदा की तरह दोस्तों ने अब भी यही कहा कि तुम नहीं सुधरोगी। तुम्हें कितनी बार समझाया कि तु्म्हारी तरह दुनिया नहीं चलती। बदलो अपनी सोच और अपने आपको, अपने नज़रिए को। भावुकता से काम मत लिया करो। लोग इमोशनस से खेलते हैं।

खैर.....यही सोच कर इस दिल को समझा रही है कि कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, कोई यूं ही बेवफ़ा नहीं होता। अब तो संभल जाना चाहिए लेकिन क्यों? दूसरों की ख़ातिर वह खुद को क्यों बदले? क्यों मुखौटा लगाए,  नहीं वह तो जैसी है वैसी ही रहना चाहती है। दुनिया चाहे भावनाओं से खिलवाड़ करती रहे। और उसने गुस्से से शोना के दोनों फोन नंबर अपने मोबाइल से डिलीट कर डाले।

फिर भी कभी-कभी रह-रह कर मन में एक हूक सी उठती रहती है - आखि़र क्यों शोनाआख़िर क्यों किया तुमने ऐसा?  कहाँ ख़ामी रह गई थी मेरी तरफ से। लेकिन कहीं से भी कोई आवाज़ नहीं आती .......

सिर्फ़ ख़ामोशी और ख़ामोशी...... और वह सोचती है कि क्यों कहते हैं कि खामोशिय़ों की भी होती है जबां....... या फिर जब जबां चुप हो तो ख़ामोशियां बात करती हैं.......................

और फिर पर्दा गिर गया यानी THE END.......
क्या इतनी सहजता से हो जाता है THE END 

............................



फ्लैशबैक - 2

  फ्लैशबेक -1 वाला आलेख जब लिखकर उसने अपने बलॉग पर लगाया अभी वह ऑनलाइन ही थी कि कॉल बेल बजी और उसे बीच में ही छोड़ कर उठना पड़ा। और जब आगंतुकों से बात करके 20-25 मिनट बाद लौट तो देखा मैसेज बॉक्स में शोन के कई मैसेज थे जिनमें बार-बार सिर्फ़ सॉरी लिखा हुआ था।  और आखिरी मैसेज था आप मुझे पांच मिनट में कॉल करो, नहीं तो मैं सब कुछ ख़त्म कर दूंगा। और उसके बाद यानी वो 5 मिनट की समय सीमा गुज़र जाने के बाद स्क्रीन पर लिखा था The End. वह फेस बुक से और ईमेल अकांउट् से पूनम को हटा चुका था और मोबाइल नंबर तो पूनम खुद ही डिलीट कर चुकी थी। यानी संपर्क साधने का कोई रास्ता नहीं बचा था। पूनम को उसकी जल्दीबाजी पर बहुत दु:ख हुआ। परंतु कुछ नहीं हो सकता था।


महीने भर बाद पूनम को कहीं किसी राइटिंग पैड पर शोनामोनी के नंबर मिल गए। उसने कई बार उसे फोन किया लेकिन या तो नो रिप्लाई होता या आवाज़ पहचानने के बाद काट दिया जाता।  ख़ैर, इसी बीच उसका जन्म दिन भी आया। पूनम ने  पूरी कोशिश करके खुद को रोका और चाहते हुए भी उसे फोन नहीं किया। यह तय था कि उस दिन सुबह ऑफ़िस जाते वक्त वह मंदिर होते हुए जाएगी। सुबह मौसम ख़राब था, उसने सीधे ऑफ़िस जाने का फैसला किया कि शाम को वापसी में मंदिर ज़रूर जाएगी। शाम को लौटते वक्त ज़ेहन से बात निकल गई और मंदिर रास्ते में पीछे छूट गया। जहां उसे याद आया वहीं से फिर वापसी का रुख किया मंदिर की तरफ। वो काफ़ी पुराना (लगभग तीन सौ साल) मंदिर है माँ काली का उसके इलाके में। वहाँ उसने अपने शोना के नाम से कुछ राशि गल्ले में डाली और माँ से उसके सफल और सुखमय भविष्य की दुआ की। साथ ही प्रार्थना की कि माँ मेरे शोना को सुबुद्धि देना कि वो मुझसे बात करे। यह तो वही जानती है कि उसके दिल पर क्या गु़ज़र रही थी। रह-रह कर आँखें भर आतीं उसकी। जो बच्चा अक्सर उससे बात किए बिना न रहता हो वह अब कैसे रह रहा है। ख़ैर कोई और होता तो पूनम के मन में भी ईगो प्रॉब्लम आती कि जब उसे परवाह नहीं तो मुझे ही क्यों पड़ी है लेकिन दूसरी तरफ दिल के कोने से आवाज़ आती कि वह तो बच्चा है, नादान है तो तुम्हारे बड़े होने का क्या फ़ायदा ? यही सोच कर दो-तीन हफ्तों बाद उसे एस.एम.एस. कर डाला - "अगर तुम्हें मुझसे ज़रा सा भी स्नेह, दुलार, अपनापन मिला हो तो एक बार बात कर लो। तुमसे बड़ी होने के नाते एक मौक़ा दे रही हूँ। तुम तो कूल ब्वॉय हो न ग़लतफ़हमी दूर कर लो वर्ना तुम्हारे इष्ट देव से प्रार्थना करूंगी कि मेरे दिमाग की हार्ड डिस्क से तुम्हारा नाम भी डिलीट कर दें। होप योर फाइनल एग्जैम्स आर ओवर।" तुरंत शोनामोनी का फोन आया - ड्राइविंग में हूँ, बाद में बात करता हूँ। लेकिन, अगले दस दिनों तक कोई रिस्पांस नहीं। ग्यारहवें दिन पूनम ने उसे फिर फोन किया तो उसने कहा, थोड़ी देर में मैं कॉल करता हूँ आपको। पूनम ने कहा, इसे मेरा आख़िरी कॉल समझना, अब अगर तुम्हारा फोन नहीं आया तो मैं तुम्हें कभी भूलकर भी फोन नहीं करूंगी। अब तुम्हारा जी चाहे तो कॉल करना वर्ना मैं अब अपनी तरफ से कोई एफर्ट नहीं करूंगी। एक घंटे बाद उसने कॉल की। पूनम ने उसकी कॉल रिसीव की और आदतन कहा, मैं डायल करती हूँ। यही कोई आधा घंटा बात हुई होगी। शोना ने बिलकुल नॉर्मल अंदाज़ में बात की और कहा, 'जो हुआ सो हुआ, जो बीत गई सो बीत गई।' पूरे 139 दिनों बाद दोनों की ख़ामोशी टूटी। ज़िद तो ऐसी देखिए कि उसने अपना फेसबुक अकांउट तक निष्क्रिय कर डाला था।

पूनम को सकुन है कि फिर सब कुछ पहले सा है। उसे अपने पर पूरा भरोसा था कि मेरा चयन ग़लत नहीं हो सकता। ख़ैर इसी बीच एक एफ. बी. पत्रकार दोस्त से फोन पर भी बात होती। बात-चीत के दौरान उन्होंने कहा कि आपके शहर में मेरे कई मित्र और परिचित हैं। पूनम को उन्होंने जो नाम गिनाए, पूनम सबसे परिचित थी। उन्होंने कहा, अरे आप तो बिलकुल अजनबी नहीं लगती, आप हमारे सारे परिचितों को जानती हैं, आप तो घर की लगती हैं। पूनम ने कहा, भले ही महानगर हो लेकिन साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े लोग तो गिनती भर के ही हैं न, इसलिए सभी सबको जानते हैं।  बात-चीत के दौरान उस दोस्त ने कहा कि आजकल लोग इमोशन्स की क़द्र नहीं करते। उन्होंने अपने किसी दोस्त का हवाला दिया। पूनम ने कहा कि मैं ऐसा नहीं मानती और उसने बातों-बातों में उन्हें शोनामोनी का वाक्या बताया। उन्होंने कहा कि छोड़िए, आजकल की युवा पीढ़ी के लड़के ऐसे ही होते हैं। टाईम पास करते हैं, चार सौ बीसी करते हैं। पूनम ने कहा कि हमारा रिश्ता टाईम पास वाला क़तई नहीं था। खैर, हद तो तब हो गई जब उस दोस्त ने एक दिन एस. एम. एस. किया किया 'गुड नाइट मैम, आय वॉज़ दैट यंग परसन।' मैसेज देखते ही पूनम का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया कि इसी आदमी ने उसके शोनामोनी को टाईमपास और चार सौ बीस कहा था और आज कह रहा है कि समझ लीजिए मैं वही यंग परसन हूं यानी खुद को.......  पूनम ने तुरंत उन्हें अनफ्रेंड कर दिया और मोबाइल में भी ब्लैक लिस्टेड कर दिया। आदमी की इतनी बड़ी हिम्मत कि मेरे शोनामोनी को ऐसा कहे।  और फिर पूनम ने उस दिन शोनामोनी को यह वाक्य़ा बताया और पूछा कि बताओ शोना क्या मैंने गलत बंदे का चयन किया है? शोना ने कहा, आपका दिल क्या कहता है? पूनम ने कहा, मेरा दिल कहता है कि मेरा चयन क़तई ग़लत नहीं हो सकता, मेरा शोना कभी ग़लत नहीं हो सकता। जवाब में उसने कहा, आपका दिल ठीक कहता है। 

और उस दिन पूनम ने उससे कहा था कि शोना तू एक बार मेरे सामने आ तुझे मैं तीन थप्पड़ लगाऊंगी, तुमने मुझे इतना तंग क्यों किया। उसने मज़ाक में कहा, आप मीडिया से जुड़ी है, प्लीज़ मीडिया के सामने मत लगाना, मीडिया वाले मेरा कचूमर निकाल देंगे।

इस दौरान फिर कई बार बात हुई। पिछले हफ्ते अचानक उसका फोन आया। काफ़ी देर बात हुई। फिर अचानक उसने कहा, एक गाना सुनाओ। पूनम ने कहा, तुम फिर शुरू हो गए। मुझे कुछ नहीं पता, गाना सुनाओ। पूनम के मुँह से अनजाने में ही निकल गया, झापड़ खाओगे तुम। उसने कहा, तीन थप्पड़ तो आपके पहले से ही ड्यू हैं अब एक झापड़ भी। अच्छा, आप बताओ थप्पड़ और झापड़ में क्य़ा फर्क़ होता है? पूनम ने कहा मुझे नहीं मालूम। उसने कहा, थप्पड़ सीधा पड़ता है जिधर हाथ की रेखाएं होती हैं और झापड़ उलटा पड़ता है। झापड़ थप्पड़ से ज्यादा तगड़ा और तीखा होता है। पूनम ने कहा, लगता है काफ़ी Experience है तुम्हें। बहुत खाए हैं क्याअजी खाए नहीं, खिलाए हैं, आपको पता है न मैं कूल-कूल ब्वॉय हूं लेकिन जब गुस्सा आता है न.... जब मुझसे मिलोगे न तब देखना.....। पूनम ने बीच में ही बात काट कर कहा, जब मिलेंगे तब?... वाक्य अधूरा छोड़ दिय़ा (वह कहना चाहती थी कि जब मिलने का वक्त आया था तब तो तुम मिलने पहुँचे नहीं।) शोना ने तुरंत कहा, कह डालो आप जो कहना चाहती थीं, कह डालो, मन में नहीं रखते। पूनम ने कहा, चलो छोड़ो, जाने दो।

पूनम सोच रही थी कि हाँ, सचमुच कुछ रिश्ते पिछले जन्मों या जन्म-जन्मांतरों के होते हैं तभी तो वह चाहकर भी अपने शोना की बचकानी हरकतों पर नाराज़ नहीं हो पाई। शायद कोई हमउम्र दोस्त होते तो परिस्थिति कुछ और होती। दोनों तरफ से ईगो प्रॉब्लम होती कि मैं क्यों पहल करूं। ख़ैर, पूनम ने इस बात को सही साबित किया कि नारी का काम रिश्तों को तोड़ना नहीं वरन् जोड़ना होता है और उसे खुशी थी कि शोनमानी ने भी उसकी भावनाओं को समझा। उसे अपने चयन और फेस बुक से मिले इस दोस्त पर नाज़ है।


मेरा अपना फेस बुक का सफ़र 26 अगस्त 2010 से शुरू हुआ था और अपने फेस बुक के सफ़र की वर्ष गाँठ के मौके पर मैं सोच रही हूं कि चलो पूनम जैसा भी कोई तो ऐसा दोस्त है जिसे फेस बुक से मिली दोस्ती पर नाज़ है, जो फेस बुक के प्रति कृतज्ञ है।

                                                                                                     प्रस्तुति - नीलम शर्मा  'अंशु'


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