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29 अप्रैल 2017

52वां ज्ञानपीठ पुरस्कार।


बंगला कवि शंख घोष को राष्ट्रपति ने दिया 52 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार।


महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुख़र्जी ने 27 अप्रैल वृहस्पति वार की शाम नई दिल्ली में  बांगला के मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं शिक्षाविद् प्रोफसर शंख घोष को 52वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। संसद भवन के बालयोगी सभागार में आयोजित एक गरिमापूर्ण समारोह में मुख़र्जी ने प्रोफेसर घोष (85) को वर्ष 2016 के लिए यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान में 11 लाख रुपए का चेक, वाग्देवी की एक कांस्य प्रतिमा, प्रशस्ति पत्र और शाल तथा श्रीफल शामिल हैं। मुख़र्जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि उन्हें प्रोफेसर घोष को सम्मानित करते हुए इसलिए भी प्रसन्नता हो रही है कि वे उस भाषा में लिखते है जो मेरी मातृभाषा है। ताराशंकर बंदोपाध्याय, आशापूर्ण देवी, विष्णु दे, महाश्वेता देवी एवं सुभाष मुखोपाध्याय के बाद वे बंगला के छठे ऐसे लेखक हैं, जिन्हें यह सम्मान मिल रहा है। वह मूर्धन्य कवि और आलोचक होने के साथ -साथ प्रतिष्ठित शिक्षक और यह सम्मान पाने वाले सबसे योग्य लेखक हैं। 

शंख घोष ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि, मुझसे भी ज़्यादा योग्य व्यक्ति हैं जो इस सम्मान के हक़दार हैं। रबींद्र साहित्य के मर्मज्ञ शंख घोष को नरसिंह दास पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, रबींद्र पुरस्कार, देसिकोट्टम, सुनील गंगोपाध्याय स्मृति पुरस्कार और  पद्मभूषण  से भी सम्मानित किया जा चुका है।

आदिम लता, गलमोमॉय, मुर्खो बारो, सामाजिक नौय, बाबोरेर प्रार्थना, दिलगुली रातगुली, निहिता पातालछाया आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। 

इस अवसर पर प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ. नामवर सिंह ने कहा कि यह ऐतिहासिक अवसर है कि कवि श्री शंख घोष को विभूषित किया जा रहा है, मैं उन्हें  हार्दिक बधाई देता हूँ । उनकी कविताएं लयबद्धता की सीमाएं तोड़कर पाठकों के अपना कथ्य प्रेषित करती हैं। 

कार्यक्रम के आरंभ में आकाशवाणी दिल्ली के कलाकारों ने राष्ट्रीय गान और सरस्वति वंदना प्रस्तुत की।

स्वागत संबोधन किया भारतीय ज्ञानपीठ के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति विजेंद्र जैन ने और अंत में धन्यवाद ज्ञापन किया भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन ने।

पूरे कार्यक्रम का कुशल संचालन किया आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम अधिशासी जैनेन्द्र ने। 

 अपने संबोधन के दौरान ़डॉ. नामवर सिंह ने शंख घोष की निम्न पंक्तियां भी उद्धृत की : -

लिखना ही पड़ेगा कि मैं भी हूँ
मैं भी हूँ तुम्हारे साथ
हाथ मिलाने के लिए
और जिसे लिखूंगा
उसे भी शायद आना होगा
उस ने कह दिया है
स्वप्न में
खुलने लगे हैं
रास्तों में बने तोरण !

                                               




















प्रस्तुति - राजेश शुक्ला



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28 अप्रैल 2017

मैं आपसे मुखातिब हूँ....

मैं आपसे मुखातिब हूँ....


21 अप्रैल को नई दिल्ली के पोएट्री सोसायटी ऑफ इंडिया के तत्वावधान में 'मैं आपसे मुखातिब हूँश्रृंखला में लेखन जगत के वरिष्ठ रचनाकार व सशक्त हस्ताक्षर शैलेन्द्र शैल श्रोताओं से मुख़ातिब थे।  

आरंभ में उन्होंने अपने कॉलेज के सहपाठी व लोकप्रिय ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह पर रचित अपने संस्मरण का पाठ किया जो अपने आप में जगजीत साहब के जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटे था। साथ ही उन्होंने अपनी कुछ कविताएं भी श्रोताओं को सुनाई। कविताएं भी बेहद प्रभावी और सशक्त थीं जिनमें कई जगह उनके वायुसेना के अनुभवों की झलक भी देखने को मिली। पूर्वजों का गाँव कविता भी बाँधे रखने में सक्षम रही।

कार्यक्रम के आरंभ में  प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने श्री शैलेंद्र शैल के रचना कर्म पर चर्चा की तथा चंडीगढ़ में अध्ययन के दौरान की स्मृतियों को साँझा किया। 
     
इस मौक़े पर  कुसुम अंसल, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता किरण, कमल कुमार, तरन्नुम रियाज़,सुशीला श्योराण, रेखा जी, हरनेक गिल, राजेश शुक्ला आदि प्रबुद्ध श्रोता व पोएट्री सोसायटी के सदस्य, भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी अखिलेश जैन आदि उपस्थित थे।

भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. लीलाधर मंडलोई ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि जब हमारे जीवन में दिखाई देने वाली तमाम  चीज़ें  ठिठक जाती हैं, कविता वहाँ से शुरू होती हैस फ्रीज़ हो जाती हैं। यानी जहाँ  से चीज़ों के अर्थ चुक जाते हैं कविता वहाँ से शुरू होती है। कहने को हम कविता में यथार्थ की बात बहुत करते हैं जो यथार्थ है दरअसल वो एक चिपका हुए, ठहरा हुआ सच है। किसी चिपके हुए, ठहरे हुए सच से आप सपने तक नहीं जा सकते लेकिन एक सपना आपको शायरी तक ले जा सकता है। आलोचना एक जगह जाकर बिदक जाती है वे कविता के बारे में एक ही तरह से बात करते हैं लेकिन कविता इस लिए आलोचना से बड़ी है क्योंकि वह हमेशा स्थापित किए सच से आगे जाती है, अपने आप को ट्रांसफॉर्म करती है। शैल जी की कविता में भी ये बात दिखाई देती है कि जहाँ पर  दूसरे लिखने-पढ़ने वालों के लिए चीज़ें थोड़ी सी चिपक गई हैं,  वे वहाँ से शुरू करते हैं जैसे किसी कविता में फिल्म की भाषा में दृश्य को लाना बहुत मुश्किल होता है जैसे सुबह आती है, बारिश आती है, चिड़िया आती है और आपका मन होता है कि उस चिड़िया, उस बारिश को फूल को छू सकें, उस गंध को महसूस कर सकें क्योंकि आपकी इंद्रियां उतनी जागरुक नहीं हैं। एक कवि आपकी इन्द्रियों को जागृत करने का काम करता है जो कोई दूसरी विधा नहीं करती।  ज़िंदगी में जब चीज़ें छूटती सी लगें तब शायर या शायरी के साथ रहना चाहिए।

कार्यक्रम का संचालन सोसायटी की सचिव संगीता जी ने किया।  अंत में सोसायटी की तरफ से डॉ. कौल ने उपस्थित सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया।  कुल मिलाकर दिल्ली शहर की इस चिलचिलाती गर्मी में ये एक  बहुत उम्दा और सुकुनदायी शाम रही।

























           शैलेंद्र शैल जी की  एक कविता की एक बानगी देखें :-




(1)

लक्ष्मी रोज़ मिलती है कॉफी हाउस के बरामदे में
ली  कारबुज़ियर के शहर के 17 सेक्टर में
कारों के पीछे से धीरे से आती है वो दबे पाँव
एक थकी और भूखी बिल्ली की तरह
अपने एक पाँव पर बैसाखी के सहारे
उसकी आँखें देखी हैं आपने?
भट्ठी में दहकते अंगारे तो देखे होंगे 
भीतर कॉफी हाउस में बहस दस्तरख्वान सी बिछी है
मृत्युबोध उसे केरल से आई बतलाता है
और कुमार विकल बंबई के किसी चाल से
वो भीख नहीं मांगती, इवनिंग न्यूज़ बेचती है
मृत्युबोध खरीदता है कभी-कभार
बलात्कार की ख़बरें पढ़ने के लिए
और चवन्नी के बदले अठन्नी 
उछालता है लक्ष्मी की ओर
पकड़ पाई तो ठीक, फ़र्श पर गिरने पर
वह नहीं उठाती
दीवार के अमिताभ की तरह
मुक्तिबोध उठाकर उसकी
हथेली पर रखता है 
चवन्नी या अठन्नी खिसियाता हुआ
उम्र पुछने पर वह सिर्फ़ हँसती है
उसके दाँतों की तुलना मैं 
अनार के दानों से नहीं करूंगा
और शादी ?
न बाबा न
मैं भूल कर बैठा था एक बार
तमिल, पंजाबी, हिन्दी और बंगला में
वो चुनिंदी गालियां दी थीं कि तौबा
दरअसल लक्ष्मी को न किसी पति की तलाश है
न पिता की, न भाई की
उसका पूरा जिस्म एक बहुत बड़ा पेट है
और भूख उसकी आँखों के ज़रिए
पहुँचती है हमारी मेज़ तक
हमें कॉफ़ी शक्कर के बावजूद
बेहद कड़वी लगती है।

प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

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19 अप्रैल 2017

दोस्तो पूरे दो साल बाद आपसे समवेत स्वर पर मुख़ातिब हूँ। बस कुछ यादों, बातों के बहाने.......


दृश्य – (1)

बी. एन. आर. गार्डेनरीच से बस पकड़ी। खिदिरपुर आते-आते धीरे-धीरे बस यात्रियों से भरने लगी। एक बुजुर्ग सी महिला मेरे साथ वाली सीट की तरफ यह कहते हुए बढ़ीं – थोड़ा सरको बेटा। मैंने खुद को खिड़की की तरफ थोड़ा सा और सरक जाने दिया। खिदिरपुर क्रॉसिंग पर बस काफ़ी देर रुकी रही। लोकल बस में किसी का इस तरह बेटा कह कर संबोधन मन को छू गया। उस वृद्धा ने अपने दाहिने तरफ वाली सीट पर बैठे युवक से कुछ कहा। युवक ने सुनकर कंडक्टर की तरफ इशारा करते हुए कुछ कहा। थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझसे पूछा – कहाँ जाओगी बेटी। मैंने अपना गतंव्य बता दिया। उन्होंने कहा – बेटा मेरा एक टिकट कटा दोगी। मैंने पूछा कहाँ तक जाना है आपको। सियालदह, उन्होंने जवाब दिया। मैंने कहा- ठीक है। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाकर दुआ सी देते हुए मेरे ठुड्डी को छू लिया। फिर उन्होंने पूछा – बेटा ये बस टाला जाएगी क्या? चूंकि मेरी उस रूट पर  नियमित आवा-जाही नहीं होती तो मुझे कुछ अंदाज़ा न होने के कारण मैंने कहा, यह तो मुझे नहीं पता। उन्होंने कहा, यह बस अगर जाए तो एक ही बार में पहुंच जाऊंगी सीधे, वर्ना सियालदह से फिर दूसरी बस लेनी होगी। मैंने मन ही मन सोचा कि सियालदह का टिकट ले दूंगी और दूसरी बस के किराए के पैसे भी उन्हें दे दूंगी। फिर  कंडक्टर से पूछने पर उसने तसदीक की, कि जाएगी। वृद्धा ने कहा, तो सियालदह के बजाय टाला का टिकट ले दो। मैंने वैसा ही किया। उन्होंने टिकट लेकर झोले में डाल लिया। फिर से आशीष देते हुए कहा, बेटा तेरे बच्चे जीएं।

10-12 मिनटों बाद मैंने कहा, मैं उतर रही हूं, तो उन्होंने फिर कहा – बेटा टिकट। मैंने कहा, आपने लेकर झोले में रखा न। तो उन्हें याद आया कि हाँ। फिर भी मैंने उतरते वक्त कंडक्टर से कहा कि मैंने उनका टिकट ले दिया है, शायद वे भुलक्कड़ हैं, आप दुबारा टिकट मत काट देना।

मैं मन ही मन सोच रही थी कि शायद मेरा इन पर पिछले किसी जन्म का कोई छोटा सा उधार चुकाना शेष रहा होगा जो आज इस तरह चुकता हो गया।  साथ ही साथ मन में कसक सी भी उठी कि आखिर क्यों उन्हें इस तरह किराए के लिए किसी को कहना पड़ा। पता नहीं दुनिया की इस भीड़ में कौन अपने अंदर क्या-क्या दु:ख तकलीफ़ें  लिए घूमता है, यह तो वही भुक्त-भोगी ही जाने। क्यों उसे इस उम्र में दूसरों से मामूली से किराए के लिए गुज़ारिश करनी पड़ रही है।

दृश्य – (2)

याद कीजिए दीवार का वो दृश्य – ‘मेरे पास माँ है.’

फिल्म मौसम का एक दृश्य -  शर्मिला टैगोर कहती हैं – मैं औरत बन कर जीना चाहती हूँ। मेरा माँ बनने को मन करता है। मैं माँ बनना चाहती हूँ। यानी माँ बन कर एक स्त्री  परिपूर्ण होना चाहती है वर्ना वह अधूरी ही रहती है। नि:संतान होने पर मां-बाप खुद को अभागा मानते हैं। वहीं दूसरी तरफ बड़े होकर संतान अगर नालायक निकले तब माता-पिता सोचते हैं कि क्या इसी दिन के लिए हमने इतनी दुआएं मांगी थीं,  मन्नतें मांगी थीं।

कितनी अभागी होंगी वे संतानें जो अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेती होंगी। या फिर वे संतानें जो बूढ़ी हड्डियों की गठरी को वृद्धाश्रमों में छोड़ देती होंगी। या फिर वे, जो 'लोग क्या कहेंगे' इस डर से ऐसा नहीं कर पाते, लेकिन बोझ ढोने को मजबूर हों और उठते –बैठते  यह अहसास दिलाते रहते हों कि हाँ, वे बोझ ही तो हैं।  कितनी अभागी होंगी वे संतानें जिनकी वजह से वृद्ध माता-पिता की आँखें नम होती होंगी।

दृश्य – (3)

वॉटस् ऐप पर एक संदेश मिला – जिसका निचोड़ यह था कि प्रवासी पुत्र दो बरस के बाद माँ को फोन करता है कि मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ, अब तुम हमारे साथ रहोगी। पुत्र आकर मकान बिकवा कर माँ को साथ ले एयरपोर्ट के बाहर बिठा फ्लाइट पकड़ चलते बनता है। माँ बेचारी थक-हार लौट आती है उसी घर के पास जो अब उसका न रहा था। रात भर बाहर चबूतरे पर पड़ी रहती है। सुबह मकान-मालिक देखता है और फिर उसे रहने के लिए एक कमरा दे देता है। कुछ दिन बाद वह कहता है कि इस उम्र में कब तक आप अकेली रहेंगी, किसी रिश्तेदार के पास चली जाएं। माँ कहती है, चली तो जाऊं पर मेरा बेटा अगर वापस आया तो उसका ख़याल कौन रखेगा? यानी बेटे की यह शर्मनाक हरक़त भी माँ को नागवर नहीं गुज़री। यह है माँ की ममता, महानता।


यह मैसेज शेयर किए जाने के अनुरोध के साथ मिला था। उस वक्त तो मैंने कहा कि आप लोग अगर इसे शेयर करें तो शोभा देता है लेकिन हम बेटियां अगर शेयर करें तो लगेगा कि हम बेटियां, बेटों को कमतर आँक रही हैं। जवाब आया कि हाँ यह तो आप सही कह रही हैं। 


o  नीलम शर्मा 'अशु'