घर से दूर बहुत है मस्ज़िद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
कितनी ख़ूबसूरत सोच है शायर की लेकिन जनाब जब कोई ज़बरदस्ती आपको रुलाने पर तुला हुआ हो तो आप क्या करें ......
14 नवंबर (2010) की शाम पांच बजे की फ्लाइट से दिल्ली से कोलकाता की रवानगी तय थी मेरी । चंडीगढ़ से सुबह की कालका शताब्दी ट्रेन पकड़ी नई दिल्ली के लिए। चंडीगढ़ से फ्लाइट द्वारा आने पर दिल्ली से क्नेक्टिंग फ्लाइट के मिस हो जाने का ख़तरा था, इसलिए नई दिल्ली तक ट्रेन से सफ़र किया। कालका शताब्दी ने पौने ग्यारह बजे तक दिल्ली पहुंचा दिया। फ्लाइट के लिए तीन बजे तक एयरपोर्ट पहुंचना था। यानी ग्यारह से एक बजे तक दो घंटों का समय था अपने पास। तो स्टेशन के क्लॉक रूम में सामान जमा कर सामने पहाड़गंज वाले इलाके के पुराने बाज़ार की ज़रा सी सैर कर ली। जैसे ही सवा एक बजे नई दिल्ली स्टेशन की तरफ वापसी और सामान लेने के लिए रुख किया कि एयर लाइन्स वालों का फोन आ गया कि आज फ्लाइट तीन नंबर टर्मिनल से छूटेगी। लगे हाथों उन्हीं से पूछ लिया कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कैसे आना बेहतर होगा। दो ऑप्शन बताए गए। दोनों ऑप्शन सीधे एयरपोर्ट नहीं पहुंचाते थे, बीच में चेंज करना पड़ रहा था। कोलकाता से जाते वक्त छह तारीख को डोमेस्टिक एयर पोर्ट पर ही फ्लाइट ने उतारा था। मुझे लगा कि तीन नंबर टर्मिनल भी उसी परिसर में कहीं आस-पास होगा। ऊपर से ऑटो चालक ने भी थोड़ा सा कन्फयूज कर दिया। मैंने कहा कि इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर जाना है लेकिन चालक ने कहा कि डोमेस्टिक फ्लाइट तो पालम से छूटती है। मैंने फिर से एयरलाइन्स के जिस नंबर से फोन आया था, उस पर फोन से कन्फर्मशन लेकर उससे कहा कि तीन नंबर टर्मिनल चलो। ख़ैर उस टर्मिनल पर एक दायरे के बाद ऑटो आगे नहीं जा सकते। वहाँ से एयरलाइन की बस पिक अप करती है। फिऱ भी 3.33 तक ऑटो ने वहां पहुंचा दिया था। आगे उनकी बस ने पिक अप किया और पूरे पैसेंजर भर जाने के बाद लगभग पौने चार बजे गंतव्य पर छोड़ा। चूँकि इस टर्मिनल पर पहली बार जाना हुआ था सो पूछते-पुछाते ऊपर चेक-इन कांउटर तक पहुँचते-पहुँचते चार बज गए थे। कांउटर की कतार तो टस से मस नहीं हो रही थी। अंतत: कतार बदल कर दूसरे कांउटर पर लगाई। वहाँ बार-बार नेट वर्क और सर्वर की समस्या आ रही थी। डिलिंग असिस्टेंट महोदय मुस्कराते हुए कभी एक कंप्यूटर पर बैठते तो कभी दूसरे पर। सर्वर की प्रॉब्लम के कारण उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आ रही थी। ख़ैर मैंने इस दौरान तीन बार सामने जाकर कहा कि मेरी फ्लाइट पाँच बजे की है ज़रा जल्दी कर दीजिए। लेकिन कोई सुनवाई नहीं। तिस पर इस बीच बार-बार जालंधर और चंजीगढ़ से फोन आते जा रहे थे लेकिन बोर्डिग पास के चक्कर में उन सबसे बात करने की फुर्सत नहीं थी।
जब क़तार के अनुसार अंतत: मेरी बारी आई तो 5.03 मिनट हो चुके थे। महोदय ने बोर्डिग पास देने से मना कर दिया कि आपकी फ्लाइट तो गई, मैं नहीं दे सकता टिकट। मैं कुछ नहीं कर सकता।
जबकि मेरे मन में अंदेशा था कि जब इनके शेड्यूल में परिवर्तन हुआ है तो फ्लाइट अवश्य विलंब से जाएगी और मुझे लिए बिना नहीं जाएगी। लेकिन किसी प्रकार की घोषणा भी नहीं सुनाई दी। उस डीलिंग असिस्टेंट ने तो हाथ खड़े कर दिए कि मैं आपकी टिकट नहीं बना सकता। आप अमुक कांउटर पर वो मि. मित्तल से बात करें। उस कांउटर वाले सज्जन भी कुछ सुनने को तैयार नहीं। ऊपर से कहा कि आप देर से आई हैं। जब मैंने बताया कि उस कांउटर पर पूछिए बाकी लोगों से कि कब से खड़े थे हम और सर्वर की क्या स्थिति थी। तो जनाब ने कहा कि आपको आठ बजे की फ्लाइट से भेज देते हैं। मेरे यह कहने पर कि आठ की फ्लाइट दस बजे कलकत्ते पहुँचेगी और फिर वहांँ से घर जाते-जाते बारह बजेंगे। इतनी रात को मैं घर कैसे जा पाउँगी। मुझे पाँच बजे वाली फ्लाइट का ही बोर्डिंद पास दें। जनाब ने तेवर दिखाते हुए कहा, जाइए कोई ज़रूरत नहीं जाने की, कल जाइएगा। फिर बड़ी मुश्किल से उन्होंने लिखा कि मे बी एक्सेपटेड और कहा जी-12 नंबर कांउटर पर चली जाइए। साथ में एक स्टाफ को भेजा जो कि उस कांउटर पर कागज़ पकड़ा कर लौट आया। और उस कांउटर वाले ने बाद में जवाब दिया कि मेरे पास पहले ही इतनी लंबी सूची है। मैं नहीं बना सकता। फिर एक अन्य कांउटर पर जाने को कहा, वहाँ भी सुनवाई नहीं हुई। तो मैंने पास के एक अन्य कांउटर पर बैठे सज्जन से गुज़ारिश की तो उन्होंने कहा, मैडम मैं तो कैशियर हूं, मैं कोई मदद नहीं कर सकता। आप वो उस कांउटर पर जाकर उन सज्जन से बात करें जो उस दूसरी तरफ मुँह
किए खड़े हैं, मि. चोपड़ा। वे हमारे चीफ़ हैं। मैंने कहा उसी कांउटर से तो यह लिख कर दिया गया है और मि. मित्तल ने लिखा था, अब वहाँ कोई और बैठा नज़र आ रहा है। उन्होंने मि. चोपड़ा की तरफ ही इशारा करते हुए कहा कि वही कुछ कर सकते हैं, उनके पास जाईए। मुझे तो इस कांउटर से उस कांउटर पर भटकते हुए रोना आ रहा था यह सोच कर कि अब रात यहीं रुकना पड़ेगा, परंतु मुश्किल से मैंने अपने को नियंत्रित कर रखा था। (डर इसलिए भी था कि सेमीनार में हमारे दो साथियों की फ्लाइट मिस हो गई थी और उस रात दिल्ली रुक कर अगले दिन शाम की फ्लाइट से वे चंडीगढ़ पहुँच पाए थे।) आखिर मि. चोपड़ा को बोर्डिंग पास देने के लिए कहा तो उन्होंने भी डाँट कर कहा कि आप देर से आई हैं, आप झूठ बोल रही हैं कि आप चार बजे से क़तार में है, ऐसा हो ही नहीं सकता। इसी बीच वे मेरी ही फ्लाइट के एक पेसेंजर को चार बोर्डिंग पास इश्यु कर रहे थे, तो मैंने फ्लाइट का नंबर सुनकर कहा कि आप इन्हें भी तो दे रहे हैं, मेरा तो एक ही है, मुझे भी इसी में एडजस्ट कर दीजिए। तो पूछा गया कि क्या बैगेज भी है ? हां कहने पर उन्होंने फिर से सुना दिया कि बैगेज बुक नहीं हो सकता, पहुँचेगा कि नहीं कह नहीं सकते। दो दिनों तक आप रोती फिरेंगी कि बैगेज नहीं मिला। (लोग महिलाओं से बात करते वक्त भाषा का भी ध्यान नहीं रखते) 170 पैसेंजर फ्लाइट का इंतज़ार कर रहे हैं। बैगेज बुक नहीं हो सकता। मैंने तपाक से कहा कि बैगेज मैं साथ ले लूंगी। वे बोर्डिग देने को राज़ी हो गए।
मैंने उस सहयात्री से बांग्ला में रिक्वेस्ट की कि प्लीज़ थोड़ा सा रुक लीजिए मुझे भी साथ ले लीजिए, मैं अमुक कांउटर से अपना सामान उठा लाऊं। फिर उनकी मिसेज ने मेरा छोटा बैग पकड़ लिया और वो साहब, उनके दो बच्चे पीछे मैं और मेरे पीछे उनकी मिसेज, हम भागने लगे फलाइट की ओर। इतना वक्त भी नहीं था कि बोर्ड फॉलो कर सकें कि किस गेट की तरफ जाना है। इतना विशाल परिसर। ख़ैर दौड़ा-दौड़ी में साँस फूल रही थी, हिम्म्त जवाब दे रही थी। उनकी मिसेज तो मुझसे भी थोड़ी ज़्यादा हेल्दी थी, उनसे भी दौड़ा नहीं जा रहा था। सामान की चेकिंग के बाद दोनों बैग मेरे कंधे पर थे। आगे जाकर उन सज्जन ने मुझसे मेरा बड़ा बैग ले लिया। ख़ैर वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती। जैसे ही हम दौड़ते-हाँफते निर्धारित गेट पर पहुँचे तो कांउटर पर खड़े स्टाफ ने कहा, आराम से बैठिए, अभी देर है, सभी लोग यहाँ लांउज में ही बैठे हैं तो राहत की साँस ली। सहयात्री ने कहा कि हमारे तो सामान का भी पता नहीं, क्या बनेगा। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया कि आप लोग मेरे लिए नहीं रुकते तो मैं तो आज सचमुच ढूंढ ही नहीं पाती दौड़-भाग में। जवाब में उन्होंने कहा, मैडम यह तो हमारी ड्यूटी थी। ज़रा सोचिए जिनकी वास्तव में ड्यूटी थी उन लोगों ने कैसे रियेक्ट किया और किस लहज़े में बात की। मानो कसूरवार मैं ही होऊं। आधे घंटे बाद बताया गया कि फ्लाइट साढ़े सात बजे टेक ऑफ करेगी। वजह क्या थी ? क्रू मेम्बर्स की कमी। तो हमें क्यों इस तरह काँउटर पर परेशान किया गया। अगर मैने उस परिवार के लिए बोर्डिंग पास इश्यु करते हुए न देखा होता तो तय था कि वे मुझे अगले दिन की फ्लाइट के लिए टरका देते। साढ़े सात बजे बताया गया कि फ्लाइट साढ़े आठ बजे टेक ऑफ करेगी, तब तक आप लोग नीचे दिल्ली स्ट्रीट नामक रेस्टरां में डिनर कर सकते हैं। सब लोग उस दिशा में बढ़ने लगे। वहाँ पहुँचने पर बताया गया कि हम आठ बजे से पहले खाना सर्व कर ही नहीं सकते। वजह पूछने पर बताया गया कि हेड का आदेश नहीं है। हैड कहाँ हैं? अमुक कांउटर पर हैं। जब हैड से यात्रियों ने कहा तो हैड ने जवाब दिया फूड ऑन दे वे है तो मैं कहाँ से सर्व करूं। जबकि आठ बजे वहीं कंटेनर्स में पड़ा फूड ही सर्व किया गया, जो कि पहले भी दिया जा सकता था। यात्रियों ने यहाँ तक भी कहा कि क्या हम भिखारी हैं, जो आप लोग इस तरह बर्ताव कर रहे हैं। उस वक्त एक साथ दो फ्लाइटों के यात्रियों को खाना सर्व किया जाना था। हमारे बाद साढ़े छह बजे की बंबई की फ्लाइट भी डिलेड थी। खैर, डिनर के नाम पर जो परोसा गया उसकी बात छोड़िए। कइयों ने तो खाया ही नहीं। फिर बताया गया कि अभी कलकत्ते से जो फ्लाइट आएगी, उसी के क्रू को हमारी फ्लाइट में भेजा जाएगा। पायलट तो मौजूद है, मगर अन्य क्रू मेंबर्स की कमी है। ख़ैर,
नौ बजे बताया गया कि गेट नंबर 30 से टेकऑफ होगा ।
विमान में बैठकर रिश्तेदारों को सूचित किया कि बैठ तो गए हैं पता नहीं टेक ऑफ कब होगा। अब एक ही बार घर पहुँचकर फोन करूंगी। नौ बजे से बैठे-बैठे 9.59 पर फ्लाइट ने टेक ऑफ किया और 11.55 पर हमने लैंड किया। उतरने के बाद हर कोई पायलट मि. बख्शी से हैंड शेक कर सही सलामत कलकत्ते पहुँचा देने के लिए धन्यवाद दे रहा था। हैरानी की बात यह है कि डिनर के बाद विमान में सवार होते वक्त और फिर कलकत्ते लैंडिंग के बाद वह फैमिली मुझे नज़र नहीं आई। ख़ैर बारह बजे पहुँच कर वह वक्त मैंने एयर पोर्ट पर ही बैठ कर गुज़ारा क्योंकि उस वक्त टैक्सी पकड़ कर 36 किलोमीटर का सफ़र तय कर घर पहुँचना क़तई समझदारी का काम नहीं था। सुबह पाँच बजे निकल कर टैक्सी ली और सवा छह बजे तक घर पहुँची। जालंधर और चंड़ीगढ़ के रिश्तेदारों को पहुँचने की सूचना देकर मोबाइल स्विच ऑफ कर सो गई। और फिर एक ही बार नींद खुली एक बजे। ऑफिस में फोन किया कि मैं तो आज आने से रही। उसके बाद चाय नाशता किया और साढ़े तीन बजे लंच। ख़ैर इतनी बार यात्राएं कीं हैं लेकिन ऐसी दुर्गति कभी नहीं हुई। एयरलाइन्स के स्टाफ के व्यवहार से बेहद दु:ख हुआ। ऐयरपोर्ट पर बैठे-बैठे तेजेन्द्र शर्मा जी को SMS किया कि आपकी एयरलाइन वालों ने आज अभी तक एयरपोर्ट पर बिठाए रखा है। जबकि विगत बारह वर्षों से वे एयरलाइन के मुलाज़िम भी नहीं हैं। पता नहीं उन तक SMS पहुंँचा भी कि नहीं। खैर किसी पर तो भड़ास निकालनी ही थी न। ग़नीमत है कि सिविल एवियेशन के कार्यालय में तैनात अपने परिचित एक अन्य अधिकारी मित्र से शिकायत नहीं की।
सरकारी कर्मचारी होने के नाते जब किन्हीं सरकारी कर्मचारियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है तो बेहद दु:ख होता है। जबकि पब्लिक डिलिंग वाले लोगों से विनम्रता की उम्मीद की जाती है। बाद में पता चला कि दो-तीन दिन पूर्व दीदी (सुश्री ममता बैनर्जी, माननीया रेल मंत्री) के साथ भी ऐसा ही वाक्या पेश आया था। ख़ैर वी. आई. पीज़ के साथ अगर ऐसा हो सकता है तो हम तो हैं ही आम आदमी।
हम सरकारी मुलाजिमों की मजबूरी है कि हमें सरकारी एयरलाइन्स से ही यात्रा करन पड़ती है। दु:ख इस बात का नहीं कि विमान सेवा की अस्त-व्यस्तता की वजह से तकलीफ उठानी पड़ी। इस अस्त-व्यस्तता की वजह से जो तकलीफ़ हुई सो तो हुई ही, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़ कांउटर कर्मियों के रवैये से हुई। फ्लाइट कब टेक ऑफ करेगी ा, इसका कोई अता-पता नही, क्रू मेंबर्स उपलब्ध नहीं और यात्रियों के धमकाया जाता है कि फ्लाइट जा चुकी है।
अंत में फिर से यही कहना चाहूंगी कि
घर से दूर बहुत है मस्ज़िद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
यह तो बहुत बाद में याद आया कि उस दिन बाल दिवस था, ख़ैर मेरे जैसे बड़े बच्चे रोते-रोते बचे।
गृहनगर से वापसी की यात्रा बेहद मायूसी भरी रही। जालंधर से चंडीगढ़ आते हुए रास्ते में सोच रही थी कि गृहनगर जैसा अगर कोई concept है तो गृहनगर किसे कहूँ, जहाँ पूर्वजों की जड़ें हैं,जहाँ सभी रिश्तेदार रहते हैं उसे? या जहाँ पैदाइश हुई, जहाँ जन्म से रहती आई हूँ उसे। ख़ैर क्या फर्क़ पड़ता है? मैं कलकत्ते में रहते हुए भी पंजाबी गीतों के साथ-साथ, देस में निकला होगा चांद सुना करती हूँ और जालंधर-चंडीगढ़ सफ़र के दौरान भी देस में निकला होगा चाँद सुनते हुए सोच रही थी कि किसे देस समझूं, पंजाब को? या बंगाल को? पंजाब वाले हमें बंगाल के कहते हैं, बंगाल वाले पंजाब के मानते हैं। पंजाब के दोस्त मज़ाक में कहते हैं, इह तां पंजाबी बंगालन है। ख़ैर हम तो हिंदुस्तानी हैं जी, सारा हिंदुस्तान हमारा घर है।