Father's Day
अब बड़े होने पर लगता है कि डैडी मतलब, बेवजह का आतंक।
आज (20 जून) अपना बतौर आर जे रेडियो एफ एम से जुड़ने का दिन है और संयोग से इस बार Father's Day भी आज ही है। मम्मी से सुना है कि हम बच्चों की पैदाइश से पहले डैडी जी को फिल्में देखने और रेडियो का बहुत शौक था।
1. पर हमें रेडियो, फिल्मों और कोर्स से इतर किताबें पढ़ने की स नि न एनख़्त मनाही थी कि सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। घर में पहला रेडियो भईया ने लाकर दिया कॉलेज के दिनों में नवांशहर में और भईया ने ही नवांशहर के सतलुज सिनेमा में पहली फिल्म दिखाई थी "मुकद्दर का सिकंदर"। फिर फगवाड़ा में फुफेरी बहन के इसरार पर पहली पंजाबी फिल्म दिखाई थी "चन्न परदेसी"। (फिर संयोग से एक के बाद एक दोस्ताना, कालिया वगैरह - वगैरह सतलुज में अमित जी की ही फिल्में देखीं।)
2. बचपन में एक दिन दोपहर को भईया के सहपाठी रतन भंसाली भईया फिल्म देखने जाने के लिए बुलाने आए। डैडी लंच के बाद घर पर आराम कर रहे थे। भईया ने धीमे स्वर में रतन भईया को मना करते हुए कहा, आज नहीं, पिताजी घर पर हैं। बस रतन भईया के जाने की देर भर थी कि डैडी उठे, छड़ी उठाई और भईया की पिटाई शुरू - "पिताजी घर पर हैं, फिल्म देखने नहीं जाना है। आ तुझे मैं फिल्म दिखाता हूं।" उनको पिटते देख अपना तो रोना शुरू। बोले - तुझे क्या कहा, तू क्यों रोती है? लगाऊं तेरे भी एक।
3. अब लगता है संडे बड़ी जल्दी गुज़र जाता है, कल फिर ऑफिस जाना पड़ेगा। लेकिन स्कूल के दिनों में लगता था कि संडे आता ही क्यों है? हालांकि मैंने तो डैडी से कभी डांट भी नहीं खाई, पिटना तो दूर की बात है। घर पर उनकी उपस्थिति मात्र ही दहशत में रखती थी। रविवार होता तो मां कहती, आज डैडी से अंग्रेजी और गणित पढ़ लो। बस, आ गई शामत। जो कुछ आता था, डर के मारे सब भूल जाता। कोशिश होती कि रात को उनके घर लौटने से पहले ही सो जाओ, भले ही झूठ - मूठ आंखें बंद करके पड़े रहो। वे कहते भी कि बंगालियों के घर के सामने से गुजरी तो पता चलता है कि पढ़ाई हो रही है ( बच्चे जोर - जोर से बोल कर पढ़ा करते हैं) अपने घर में तो पता ही नहीं चलता कि पढ़ते कब हैं। ये आठवीं तक की बातें हैं।
4. अब समझ में आता है कि सख्ती का वह आवरण ओढ़ा हुआ था हमारे भले के लिए। (मां भी हमेशा डरा कर रखतीं, आने दो डैडी को बताऊंगी।) बड़े होने के बाद उन्हें वैसा नहीं पाया। अखबारें, पत्रिकाएं और किताबें लातीं तो पहले वे ही पढ़ते। आंखों की सर्जरी के बाद उन्हें ट्यूब लाइट के बिलकुल नीचे बैठकर पढ़ते देखा मानो इम्तहान की तैयारी हो। तब सब कुछ छुपा कर रखना पड़ता बच्चों की तरह ताकि पढ़ने से आंखों पर ज़ोर न पड़े।
5. उन्होंने जनसत्ता में मेरे लेख और थोड़े बहुत अनुवाद छपते देखे। दुग्गल जी लिखित "फूलों का साथ" के अनुवाद पर काम करते देखा। कुछ शब्दों के अर्थ पूछती तो कहते, तुम्हें कैसे पता होंगे, ये तो हमारे ज़माने के अरबी - फारसी के कठिन - कठिन शब्द हैं। किताब प्रकाशित होते नहीं देखी उन्होंने।
सरकारी नौकरी के अलावा अन्य सारी छोटी - छोटी उपलब्धियां उनके जाने के बाद की हैं।
बचपन में जिन चीजों रेडियो, किताबों, फिल्मों की मनाही थी, अनायास ही वे चीजें बड़े होने पर काम/शौक़ का हिस्सा बन गईं।
6. हमारे डैडी फिल्म दंगल के पिता की भांति नहीं थे, फिर भी ये फिल्म मुझे बहुत पसंद है और वो गाना - " बापू तू तो" भी। डैडी होते तो ये गाना उन्हें ज़रूर सुनवाती।
तब सहगल साहब के गीत सुन कर मैं नाक सिकोड़ती तो वे कहते, तुम लोग क्या जानो सहगल को, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद? ( FM से जुड़ने पर सहगल भी अच्छे लगने लगे)। अल्ताफ राजा की एल्बम "तुम तो ठहरे परदेसी" एकमात्र ऐसी रही जो हम भाई बहनों के संग - संग उन्हें भी पसंद थी।
7. रवींद्र नाथ बंगाल वालों के जीवन का अटूट हिस्सा रहें हैं, पिता का निधन रवींद्र जयंती के दिन ही हुआ। इस तरह रवींद्र नाथ और भी शिद्दत से मेरे जीवन में शामिल हो गए। अब तो डैडी का ज़िक्र होने पर ही आंखें नम हो आती हैं, पर निधन वाले दिन भगवान ने पता नहीं मुझे कहां से इतनी ऊर्जावान और मजबूत बना दिया था कि मैंने सबको अच्छी तरह संभाला। बात - बात पर नम होने वाली आंखें इतने बरसों में मां के समक्ष पिता के लिए कभी नम नहीं हुई। भले ही वे सोचती हों कि बेटी कभी उन्हें याद नहीं करती।
8. उन्हीं दिनों F M programme के शुरुआती दिनों में मैंने बचपन पर एक prog किया, तब पिता को गुज़रे चंद महीने ही हुए थे। Prog में क्रिस्टोफर रोड की एक श्रोता कॉलर मिसेज चक्रबर्ती जो कि खुद भी वयस्क बच्चों की मां थी, अपने पिता और बचपन के दिनों को याद कर फूट - फूट कर तो पड़ीं। मैंने उन्हें ऑन एयर अच्छी तरह हैंडल किया, ढांढस बढ़ाया। अगले दिन दफ्तर जाने पर मेरी एक कलीग ने बताया कि कल prog सुनते वक्त मेरी जान पर बनी हुई थी कि अब नीलम भी अपने पिता को याद कर इस श्रोता के साथ फूट - फूट कर रो पड़ेगी, या इस का स्वर नम हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने कहा कि भगवान की कृपा से उस वक्त अपने पिता की तरफ मेरा ध्यान बिलकुल नहीं गया, मेरा ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाइव prog पर केंद्रित था। हां, उस वक्त उनसे बात करते समय ज़रूर मैं रो पड़ी थी।
(20-06-2021)