यत्र-तत्र बिखरी कुछ पंक्तियां फिर से शेयर कर रही हूँ :-
हर निशानी अब ख़त्म है, वो कहानी अब ख़त्म है
रोज का मातम नहीं अब, जिंदगानी ही ख़त्म है,
लो तुम्हें आवाज़ देकर आखिरी मैं जा रहा हूँ ,
जो बसाई थी कभी वो राजधानी ही ख़त्म है,
लौट आना, किसलिए अब, बुलबुलों से पूछ लेना,
चाँदनी में झिलमिलाती चिलमनों से पूछ लेना ,
किस कदर होने लगीं थीं सनसनाहट तन-बदन में,
हो सके तो इन गरजती, बिजलियों से पूछ लेना ।
रोज का मातम नहीं अब, जिंदगानी ही ख़त्म है,
लो तुम्हें आवाज़ देकर आखिरी मैं जा रहा हूँ ,
जो बसाई थी कभी वो राजधानी ही ख़त्म है,
लौट आना, किसलिए अब, बुलबुलों से पूछ लेना,
चाँदनी में झिलमिलाती चिलमनों से पूछ लेना ,
किस कदर होने लगीं थीं सनसनाहट तन-बदन में,
हो सके तो इन गरजती, बिजलियों से पूछ लेना ।
- तुषार देवेन्द्र चौधरी ।
नहीं मिल पाएंगे उन राहों पर,
जहां कदमों के निशां और रिशतों की वफ़ा है
लेकिन मिलते रहेंगे आप से, सितारों के रास्ते, हवाओं के रास्ते।
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तुम गए ग़म नहीं, आँख ये नम नहीं
दर्द होगा दवा, अब कोई हमदम नहीं
गुलिस्तां दे दिए तूने इन ख़ारों को
मेरे हिस्से में तो एक शबनम नहीं।
तुमसे शिकवा करें यार हम किस तरह ?
तुम तो तुम ही रहे, हम मगर हम नहीं
कौन है दुनिया में जिसको सब कुछ मिला
मुझको सब कुछ मिला बस मिले तुम नहीं
(फिल्म – ज़िंदगी खूबसूरत है।)
दर्द होगा दवा, अब कोई हमदम नहीं
गुलिस्तां दे दिए तूने इन ख़ारों को
मेरे हिस्से में तो एक शबनम नहीं।
तुमसे शिकवा करें यार हम किस तरह ?
तुम तो तुम ही रहे, हम मगर हम नहीं
कौन है दुनिया में जिसको सब कुछ मिला
मुझको सब कुछ मिला बस मिले तुम नहीं
(फिल्म – ज़िंदगी खूबसूरत है।)
चेहरे पर मुस्कान सजा कर, चश्मा लगा लेते हैं
आज कल लोग सहज ही पहचान छुपा लेते हैं ।
काँटों की फ़ितरत है हर दम चुभन देते रहना
फूलों की फ़ितरत है हँस कर साथ निभा लेते हैं।
(मूल पंजाबी – गुरदीप भाटिया ‘दीप’ )
आज कल लोग सहज ही पहचान छुपा लेते हैं ।
काँटों की फ़ितरत है हर दम चुभन देते रहना
फूलों की फ़ितरत है हँस कर साथ निभा लेते हैं।
(मूल पंजाबी – गुरदीप भाटिया ‘दीप’ )
सच्चा दोस्त एक आईने की तरह होता है, सच कहना उसकी मजबूरी है,चेहरे में यदि दाग है, तो दिखाना ज़रुरी है । यदि सच्चाई आँखों को पसंद न आए, तो इसमें कसूर आईने का नहीं है ।
- प्रतिभा मांकड़
धर्म के रिश्ते खून के रिश्तों के मुकाबले कहीं अधिक वज़नदार
हो जाते हैं। अपना बनाने के लिए अपना न होना कितना
आवश्यक होता है। जो अपने होते हैं वे कितनी आसानी से
अपने नहीं रहते और जो अपने नहीं होते, बिना किसी स्वार्थ के किसी को अपना लेते हैं।
- मलबे की मालकिन से ( - तेजेन्द्र शर्मा )
- मलबे की मालकिन से ( - तेजेन्द्र शर्मा )
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