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18 अक्तूबर 2009

कौन है वो ?

मुझे लगता है कि मुझे छोड़कर हर दूसरा व्यक्ति कविता लिखता है। मैंने कभी लिखने की कोशिश ही नहीं की। मेरा मानना है हर काम हर किसी के बस की बात नहीं। हाँ, यह अलग बात है कि दूसरों की कविताओं का संपादन मैं बढ़िया कर लेती हूँ। कई साल पहले अचानक भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के पुस्तकालय में एक पाठक से मुलाक़ात हुई। वे बांग्ला भाषी थे और हिन्दी में कविताएं लिखा करते थे। उन्होंने कहा कि मैं हिन्दी में कविताएं लिखने की कोशिश करता हूँ, आप पढ़कर अपेक्षित सुधार कर दिया करें। वे मेरे दफ्तर में आकर अपनी कविताएं दिखा जाया करते। फिर अचानक उनका आना बंद हो गया। पता नहीं वे आजकल शहर में हैं भी या नहीं और मुझे भी ठीक से उनका नाम याद नहीं। और वह आज की तरह फोन और मौबाईल का ज़माना तो था नहीं। दूसरों की कविताएं पढ़ते वक्त लगता है कि अरे यह बात तो मैं भी कह सकती थी। पर जनाब, मैंने कभी ज़हमत ही नहीं उठाई क्योंकि मुझे लगता है कि यह मेरे बस का काम नहीं। हाँ, यह अलग बात हैं कि छोटा भाई चंदन स्वप्निल जब कॉलेज में था तो ऑन द स्पॉट कविता लेखन के लिए उसे कई बार पुरस्कार मिला। जब पहली बार मिला तो उसने पिता जी को बताया। पिता जी ने विश्वास नहीं किया और कहा तूने कैसे कविता लिख ली, ज़रूर दीदी की दो-चार पंक्तियां मार ली होंगी। उसने कहा, दीदी भला कब से कविता लिखने लगी। चूँकि मेरे आलेख अखबारों में छपा करते थे तो पिता की धारणा बन गई थी कि शायद मैं कविता भी लिखती होऊंगी। उसके बाद उसने अपनी डायरी में कई कविताएं लिख रखीं थीं, परंतु सार्वजनिक रूप से उसकी कविता पहली बार 9 मई 1998 को कोलकाता विश्वमित्र के समकालीन हिन्दी कविता कॉलम में प्रकाशित हुई। किसी मित्र ने उस दिन अखबार लाकर घर पर दिखाया। उसी दिन पिताजी का निधन हुआ था और हम शमशान से आवश्यक रस्में पूरी करके लौटे थे। अपनी कविता देखते ही भाई ने कहा, 'अब पिताजी को दिखाता मैं, जो मुझे कहा करते थे कि दीदी की लाईनें चुरा ली होंगी। कविता कहीं छपी भी तो उनके निधन के बाद, मुझे इस बात का सदा अफ़सोस रहेगा।'

ख़ैर 1994-96 तक मैंने नौकरी करते हुए एम. ए . की पढ़ाई की। परीक्षा के कुछ दिनों पहले ऑफ़िस से छुट्टी लेकर घर पर पढ़ा करती। रात को नींद दबोचने लगती लेकिन पढ़ना ज़रूरी होता था। तो, थर्मस में चाय डाल कर रख लेती लेकिन नींद तंग करने पर तुली रहती। ऐसे में ही एक दिन नींद को दूर भगाने के क्रम में ज़बरदस्ती जगने की कोशिश में कुछ तुकबंदी सी की थी। वही मेरी पहली कविता थी और उन्हीं दिनों एक छोटी सी कविता और लिखी थी। वह कविता पता नहीं कहां पड़ी होगी। बस कुल मिलाकर यही दो कविताएं लिखी थीं। फ़िर कभी कोशिश नहीं की। अब अचानक पहली तुकबंदी हाथ लग गई जो कुछ इस प्रकार थी -

कौन है वो ?

बिन बुलाए मेहमान की भांति आ जाती है
हौले-हौले से आकर थप-थपा जाती है ।
बुजुर्ग परेशां हैं उसके न आने से
तो छात्र परेशां हैं उसके यूं आ जाने से ।
कभी पलक झपकते ही आ जाती है
तो कभी फुर्र से उड़ जाती है ।
गर पूछते हो कौन सी शै है वो ?
तो सुनिए जनाब !
मीठी-मीठी सलोनी सी 'नींद' है वो।
 ( 1994)


- नीलम शर्मा 'अंशु'

2 टिप्‍पणियां:

  1. अरे मेरे जैसा और भी कोई है, जिसनें मात्र दो ही कवितायें लिखी हैं आज तक. बधाईयां.

    वैसे आप अच्छा लिखती हैं मुझसे.

    दिवाली की शुभकामनायें.

    रफ़ी जी के गांव ले जाने वाली पोस्ट कहां पढने मिलेगी?

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  2. अपने मन की सच्ची बातें कवयित्री सीधे-सीधे अपने ही मुख से कह रही है और पाठक को इस तरह उन भावों के साथ तादातम्य अनुभव करने में बड़ी सुगमता होती है। भावनाएं जैसे भी निकले, वही कविता है।

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