जयंती पर विशेष
भुलाए न बने सफ़र रफ़ी के गाँव का
* नीलम शर्मा ‘अंशु’
हमारे भारत ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान
बनाई है तथा कई मिसालें क़ायम की हैं। तभी तो भारत की पवित्र माटी पर जन्मा भारतीय
सपूत बड़े दावे के साथ कहता नज़र आता है कि -
‘ हाँ तुम मुझे यूं भुला न
पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीत
मेरे
संग-संग तुम भी
गुनगुनाओगे।’
इस शख्सीयत की आवाज़ की मिठास बरबस ही हमारे कानों में मधुर रस घोलती है और हम गुनगुना उठते हैं –
‘सौ बार जन्म लेंगे,
सौ बार फ़ना होंगे
ऐ जाने वफ़ा! फिर भी हम तुम न
जुदा होंगे।’
जी हाँ, 24 दिसंबर, 1924 को अविभाजित हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत के अमृतसर जिले के मजीठा ब्लॉक के गाँव कोटला सुल्तान सिंह में जन्म हुआ था आवाज़ के धनी इस फ़नकार का जिन्हें तब लोग फीको और आज हम मुहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। जिस माटी में बालक फीको ने आँखें खोलीं और किलकारी भरी, मुझे खुशी है कि मुझे भी उस माटी के दर्शन करने का अवसर मिला। एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार। 12 अक्तूबर 2006 को मैं अपने परिवार सहित अमृतसर जिले के उस गाँव में गई थी और दूसरी बार 30 जुलाई 2008 को। यह गाँव अमृतसर शहर के बस अड्डे से 26 किलो मीटर के फासले पर है। दूसरी तरफ 26 किलोमीटर के फासले पर ही है ‘वाघा बॉर्डर’ और फिर उस पार लाहौर। गाँव कोटला सुल्तान सिंह की सीमा में प्रवेश करते ही सबसे पहले दाईं तरफ़ नज़र आता है प्राइमरी स्कूल, जहाँ बालक फीको उर्फ़ मुहम्मद रफी़ ने शिक्षा प्राप्त की। मैंने स्कूल के भीतर जाकर स्कूल प्रबंधन से मुलाक़ात की। जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं कोलकाता से विशेष रूप से आई हूँ तो वे उत्साहित हो उठे। हमें चाय –नाश्ता भी करवाया गया।
खुले आसमां के नीचे बच्चों की क्लास चल रही थीं। बच्चों से मैंने पूछा कि आपका गाँव क्यों प्रसिद्ध है तो उन्होंने जवाब दिया कि मशहूर गायक मुहम्मद रफ़ी यहीं पैदा हुए थे इसलिए। तीसरी कक्षा की छात्रा खुशप्रीत कौर ने ‘मैं जट्ट यमला पगला दीवाना’ गीत गुनगुना कर सुनाया। खुशप्रीत की ख़ासियत यह रही कि उसने रफी और आशा भोंसले द्वारा गाया पंजाबी गीत ‘मैं पींघ ते तू परछावां, तेरे नाल हुलारे खावां भैड़ा पोस्ती’ खुद ही डूयेट रूप में सुनाया। स्कूल की हेल्पर श्रीमती लखविंदर कौर ने फिल्म ‘बैजू बावरा’ का गीत ‘ओ दुनिया के रखवारे’ गाकर सुनाया।
ज़रा सा आगे बढ़ने पर बाँई तरफ गाँव का
हाई स्कूल है,
श्री दश्मेश सीनियर सेकेंडरी स्कूल। 1979 में इसकी स्थापना की गई।
स्कूल का प्रवेश द्वार रफ़ी साहब को समर्पित है। हाई स्कूल के ततकालीन प्रिंसीपल सरदार मलूक सिंह भट्टी ने बताया कि
स्कूल का कंप्यूटर कक्ष भी मुहम्मद रफ़ी को समर्पित है। मुझे इस बात पर बहुत दु:ख हुआ कि प्राईमरी के
बच्चों ने जहाँ इतने उत्साह से रफ़ी के गीत गुनगुनाए वहीं हाई स्कूल के बच्चे एक
पंक्ति तक न गुनगुना सके। बहुत ज़ोर देने
पर प्लस वन मेडिकल की छात्रा मंदीप कौर गिल ने कहा कि मुहम्मद रफ़ी बहुत बढ़िया
गायक थे और ‘बहारो
फूल बरसाओ”
गीत गुनगुनाया।
मैट्रिक पास और चौथी कक्षा तक रफ़ी के सहपाठी रहे 85 वर्षीय सरदार कुंदन सिह जी ने बालक रफ़ी की बहुत सी यादें हमारे साथ बांटी। दोनों पड़ोसी थे, घर पास-पास थे। बालक रफ़ी पढ़ाई में ठीक-ठाक था, शरारती भी नहीं था। फीको के पिता हाजी मुह. अली का लाहौर में व्यवसाय था। फीको चाचा के पास गाँव में ही रहता था।गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक दिन उसने कुंदन सिंह से कहा कि मैं अगली जमात में दाखिला नहीं लूंगा क्योंकि मैं लाहौर जा रहा हूँ। बालक कुंदन ने कहा कि अपनी कोई निशानी तो देते जाओ। बालक रफ़ी ने घर के पास स्थित आम के बाग में एक पेड़ पर अपना नाम खोद दिय़ा – ‘फ़ीको’ । यह अलग बात है कि कुछ वर्ष पूर्व बाग के मालिक ने अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए उस पेड़ को कटवा दिया। रफ़ी साहब का पुश्तैनी घर भी बरसों पहले बिक चुका है।
कुंदन सिंह जी क्षोभ से कहते हैं कि
सरकार ज़रा सी भी जागृत होती तो उस घर को खरीद कर संग्रहालय का रूप दे सकती थी। गाँव
में कभी-कभार जन्म दिन के मौक़े पर रफ़ी यादगारी मेले का आयोजन किया जाता है। कुंदन
सिंह कहते हैं कि रफ़ी से संपर्क करने पर रफ़ी ने बहुत बार कहा कि आप गाँव में जो
कुछ भी बनाना चाहते हैं बनाइए, मैं साथ देने को तैयार हूँ पर पहल तो आप लोगों
को ही करनी होगी परंतु गाँव के तत्कालीन सरपंच या सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की
गई। वे इस उदासीनता के लिए रफ़ी को भी कसूरवार ठहराते हैं कि रफ़ी ने गाँव छोड़ने
के बाद या यूं कहें कि ‘रफ़ी’ बनने के बाद गाँव से
कोई संपर्क ही नहीं रखा जबकि वे देश विभाजन के पश्चात् भी भारत में ही रहे। 1970
तक तो उनका मकान भी मौजूद था। अब किसी और ने उसे खरीद कर ढहा कर नया बना लिया है।
वहाँ मवेशी बंधे रहते हैं।
मुहम्मद रफ़ी के पिता हाजी मुहम्मद अली बेहतरीन कुक थे। तरह-तरह के पकवान बनाने में माहिर थे। कुंदन सिंह बताते हैं कि वे एक ही देग में सात रंगों का पुलाव बना डालते थे। कुंदन सिंह जी ने रफ़ी को परफॉर्म करते हुए 1971 में कलकत्ते में सुना। लोगों ने मु. रफ़ी से अपनी पसंद का कोई भी गीत सुनवाने का आग्रह किया तो रफ़ी साहब ने कहा कि अपनी पसंद से मैं एक पंजाबी गीत सुनाना चाहूंगा और वह गीत था – ‘दंद च लगा के मेखां, मौज बंजारा लै गिया।’ और एक बार रफ़ी 1956 में अमृतसर के अलेकजेंडर ग्रांउड में भी परफॉर्म करने आए थे तो गाँव वालों सहित कुंदन सिंह भी उनसे मिलने गए। तीन रातों तक लगातार शो चलता रहा।
उन्होंने बताया कि 1945 में कोटला सुल्तान सिंह में ही चाचा की बेटी बशीरा से रफ़ी की शादी हुई थी। बारात लाहौर से आई थी। बाद में उनसे रफी साहब का अलगाव हो गया। फिर दूसरी शादी हुई। उन्होंने बताया कि लाहौर के समीप किला गुज्जर सिंह में नाई की दुकान थी। कोटला सुल्तान सिंह से जाने के बाद बालक रफ़ी उसी दुकान पर नाखून काटने का काम करता था और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनका स्वभाव था।
ऐसे में एक दिन
पंचोली आर्ट पिक्चर के कर्ता-धर्ता तथा ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर के निदेशक वहाँ हजामत करवाने आए तो उन्होंने बालक रफ़ी को काम करते हुए गुनगुनाते देख एक कविता
लिख कर दी और कहा कि अमुक प्रोग्राम में सुनानी है। बस इसी तरह सफ़र चल निकला और
एक दिन रेडियो लाहौर के मार्फत् रफ़ी की आवाज़ घर-घर तक पहुँची और वे छा गए। कालांतर में उनके बंबई फिल्म इंडस्ट्री की
पारी के विषय में तो सारी दुनिया परिचित है।
कुंदन सिंह कहते हैं कि मैं जब पाकिस्तान दौरे पर गया था तो वहाँ उनके
भाईयों से भी मिला। कुंदन सिंह जी को अफसोस इस बात
का है कि मेरी आँखें मुंद जाने के बाद इस गाँव में रफ़ी के बारे में बताने वाला
कोई भी न होगा।
अब गाँव में मुहम्मद रफ़ी चैरीटेबल ट्रस्ट बनाया गया है। हाई स्कूल के विपरीत पंचायत ने एक किल्ला ज़मीन उपलब्ध करवाई है, जहाँ मुहम्मद रफ़ी की स्मृति में एक पुस्तकालय भवन बनाया जा रहा था (जो कि अक्तूबर 2006 और जुलाई 2008 में मेरे दूसरे दौरे तक निर्माणाधीन था, शायद अब बन कर तैयार हो गया हो)। तत्कालनी सरपंच स. कुलदीप सिंह ने बताया कि कांग्रेस सरकार ने पाँच लाख का अनुदान दिया था जिससे पुस्तकालय भवन का सिर्फ़ ढाँचा ही तैयार हो पाया था। इतनी ही राशि की और आवश्यकता है तथा उन्हें ग्रांट का इंतज़ार है। कुंदन सिंह चाहते हैं कि रफ़ी के नाम अस्पताल बनाया जाना बेहतर होता इससे जन-कल्याण का काम हो पाता। वे कहते हैं कि अफसोस है कि लता मंगेशकर के जीवनकाल में ही उनके नाम पर इतना कुछ हो गया है परंतु रफ़ी के गुज़र जाने के बाद भी कुछ ख़ास नहीं हो पाया उनकी स्मृति में।
यह दिल रफ़ी साहब के
प्रति बेहद शुक्रगुज़ार है कि उन्होंने बाकी लेखकों या कलाकारों की तरह देश-विभाजन
के वक्त पाकिस्तान का रुख नहीं किया वर्ना आज हम उन के नाम पर फख्र से सर ऊँचा
करने से वंचित रह जाते। धन्य हैं ये आँखें और पाँव जिन्हें एक बार नहीं बल्कि
दो-दो बार उस माटी के दर्शन का अवसर मिला जो रफ़ी की जन्म भूमि कहलाती है। कोलकाता के ही जाने माने गायक मुहम्मद अज़ीज़ साहब के गाए गीत से बोल उधार लेकर कहना
चाहूंगी कि -
‘न फ़नकार तुझसा तेरे
बाद आया,
मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया।’
यूं तो आकाशवाणी के एफ.एम. रेनबो पर पिछले वर्षों में कई बार ऱफी साहब पर
लाइव प्रोग्राम किए हैं। इसी सिलसिले में मुहम्मद अज़ीज़ साहब से भी फोन पर बात
हुई तो उन्होंने अपने संदेश में कहा - ‘रफ़ी साहब की जितनी तारीफ़ की जाए कम
है। वे अपने आप में एक इंस्टीट्यूट थे। प्ले बैक को उन्होंने एक नया मोड़
दिया। उनसे पहले के सिंगर लो पिच में गाया
करते थे । रफ़ी साहब के गायकी में वैरायटी
थी, वे versatile singer थे।
उनको सुनकर बहुत से लोगों ने गाना सीखा। मैं अपने आप को ख़ुशकिस्मत समझता
हूँ कि जिनके गाने बचपन में हमने सुने, सुनकर गाना सीखा, अंत में मैं उनके लिए भी
गा पाया श्रद्धांजलि के रूप में उक्त गीत गा पाया।’
* अब तो कुंदन सिंह जी भी इस दुनिया से विदा हो चुके हैं।
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