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31 मई 2009

स्मृति - ( 1 ) नवेन्दु घोष रचित 'चुनिन्दा कहानियां' का लोकार्पण ।

हिन्दी फिल्म उद्योग की देवदास, सुजाता, बंदिनी, आर-पार,परिणीता, बिराज बहू, यहूदी तीसरी कसम, अभिमान तृषाग्नि जैसी फिल्मों को दर्शक भला कैसे भुला सकते हैं और इन्हीं फिल्मों से जुड़ा जाना-माना नाम है नवेन्दु घोष । इन क्लासिक फिल्मों के वे पटकथा लेखक रहे। पटना में पले-बढ़े, आजीविका के लिए बंबई में कार्यरत और पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में सिनेमा के अध्यापन के साथ-साथ उनमें साहित्यिक लेखक भी बसता था। गीतकार प्रदीप, नीरज, शैलेन्द्र की भांति वे भी विशुद्ध साहित्यिक धारा के वाहक थे। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि वे सभी काव्य जगत से थे और नवेन्दु गद्य से। वे सभी हिन्दी साहित्य के संवाहक होते हुए फिल्म जगत से जुड़े और नवेन्दु घोष ने बागंला साहित्य से हिन्दी फ़िल्म जगत में प्रवेश किया। जब वे 1951 में बंबई गए तो बिमल राय ने उन्हें बतौर पटकथा लेखक अपनी टीम में शामिल होने का आमंत्रण दिया।
यूं तो उनके साहित्य लेखन में सारे भारत के दर्शन होते हैं फिर भी उसमें राष्ट्रीय आंदोलन, बंगाल का अकाल, विभाजन पूर्व दंगे, पचास के दशक का औद्योगीकरण, साठ के दशक की राजनीतिक उथल-पुथल, सत्तर के दशक के परमाणु परीक्षण आदि का रेखांकन मिलता है। संभवत: फिल्मों में पटकथा लेखन की वजह से ही बांगला में उनकी डाक दिए जाई, फीयर्स लेन, अजोब नौगरेर काहिनी जैसी कहानियां स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रमों से भले ही अलग-थलग रहीं हों लेकिन बांगला पाठकों का उनके लेखन से नियमित जुड़ाव रहा । साथ ही फिल्म लेखन जगत में उनका अवदान अविस्मरणीय रहेगा। हां, कुछेक अनूदित कहानियां हिन्दी की धर्मयुग, कहानी, माया, हंस, राष्ट्र भारती, मनोरमा, बायस्कोप जैसी पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई। इन्हीं चुनिंदा कहानियों को संकलित कर हिन्दी में कहानी संग्रह प्रकाशन का उन्होंने सपना संजोया था, जिसे अभी हाल ही उनके निधन के बाद उनकी बेटी रत्नोतमा ने साकार किया। हाल ही में 27 मई 2009 को कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद के सहयोग से परिषद सभागार में नवेन्दु घोष के हिन्दी कहानी संग्रह ‘चुनिन्दा कहानियां’ का लोकार्पण बांग्ला के जाने-माने अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने किया । इस मौके पर उन्होंने कहा कि नवेन्दु घोष एक ऐसा नाम है जो किंबदंती बन गया है। उनकी कहानियों में आज़ादी का स्वर मुखरित हुआ। घोष के लेखन का फणीश्वर नाथ रेणु के साथ सामंजस्य बताते हुए सौमित्र चटर्जी ने कहा कि हिन्दी संकलन के माध्यम से उनका लेखन बांग्ला की सीमा से निकल अनेकों तक जा पहुंचा है। इस अवसर पर भारतीय भाषा परिषद के निदेशक विजय बहादुर सिंह ने कहा कि उनकी कहानियां हाथ पकड़कर सीधे जीवन के सम्मुख खड़ा कर देती हैं। हिन्दी की सुपरिचित लेखिका अलका सरावगी ने भी इस पहल की सराहना करते हुए नवेंदु घोष के लेखन पर संक्षिप्त रौशनी डाली।
कार्यक्रम के आरंभ में परिषद के मंत्री नंदलाल शाह ने स्वागत वक्तव्य दिया। रंगकर्मी वीना किचलू ने

फ़ातिमा का क़िस्सा' कहानी का भावपूर्ण पाठ किया। श्रद्दांजलि के तौर पर शुभंकर घोष निर्देशित वृ्त्त चित्र ‘मुकुल’ प्रदर्शित किया गया तथा नवेन्दु घोष निर्देशित फ़िल्म ‘तृषाग्नि’ भी दिखाई गई। आशा है नवेंदु घोष लिखित क्लासिक फ़िल्मों की भांति रोशनाई प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘चुनिंदा कहानियां’ का उनके प्रशंसकों तथा हिन्दी पाठकों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वागत किया जाएगा ।
- नीलम शर्मा ‘अंशु’
31-5-2009

तसलीमा नसरीन - मेरे विरोधी तलवार लेकर चलते हैं और मैं क़लम लेकर ।





बात 1993-94 की है। मैं उन दिनों मध्यमग्राम (कोलकाता का निकटवर्ती एक उपनगर) में रहा करती थी। कोलकाता में हर जगह उन दिनों तसलीमा नसरीन का ज़िक्र सुनने को मिलता था। यहां तक कि उपनगरीय बनगांव लोकल के महिला कूपे में यह नाम अकसर सुनने को मिलता था। फिर धीरे-धीरे तसलीमा के विषय में विस्तार से जानने का मौका मिला। मैंनें उन्हें पत्र लिख कर ‘लज्जा’ के हिन्दी अनुवाद की अनुमति चाही थी । अचानक नौ महीनों बाद मुझे उनका पत्र मिला जिसके द्वारा सूचित किया गया था कि मेरा कॉपी राईट अमुक प्रकाशक के पास है, आप उनसे संपर्क करें। ढाका में भूमिगत रहने के कारण पत्रोतर में विलंब के लिए क्षमा याचना की थी। जब मैं उनके बांग्ला प्रकाशक से मिली तो पता चला कि हिन्दी अनुवाद हेतु किसी अन्य को अनुमति दी जा चुकी है। ख़ैर ! क्या किया जा सकता था।

........... ऐसे में सालों बाद एक दिना अचानक पता चला कि तसलीमा शहर में हैं और पीयरलेस इन में ठहरी हैं, दो सप्ताह रहेंगी। रोज़ नियमित रूप से सुबह - शाम  पब्लिक बूथ के सिक्के वाले फोन से उन्हें फोन करती। पता नहीं कितने सिक्के खर्च किए। उनका एक ही जवाब होता, अच्छा आप अमुक समय फोन कीजिएगा। उन दिनों मेरे एकाध अनूदित आलेख छपने शुरू हुए थे जनसत्ता में । कोई विशेष पहचान भी नहीं थी मेरी शहर में । मैं सिर्फ एक बार उस महिला को साक्षात़् देखना चाहती थी, जिसने सारी दुनिया में हलचल मचा रखी थी, जिसका नाम सबकी जुबां पर था। मेरे भी धैर्य का जवाब नहीं। मैं रोज धैर्य सहित उन्हें फोन करती। अंतत: जिस दिन वे कलकत्ते से जाने वाली थीं, उस दिन सबह नौ बजे की मुलाक़ात का समय उन्होंने दे ही दिया। (सोचा होगा कि यह कन्या इतने दिनों से डटी है मोर्चे पर तो मिल ही लिया जाए।) साधारण सी उभरती हुई अनुवादक थी, कोई स्थापित पत्रकार तो थी नहीं। ख़ैर निर्धारित समयानुसार अपनी एक दोस्त (मेरी वजह से उसे भी तसलीमा नसरीन को देखने का सुअवसर मिल गया) को साथ ले मैं पीयरलेस इन पहुंची। रिसेप्शन से फोन लगाया तो उन्होंने ऊपर आने के लिए कहा। ऊपर पहुंचने पर लोगों का इतना जमघट देख मैंने अपनी उस दोस्त से कहा, चलो वापस चलते हैं, मुझे नहीं मिलना। उस ने पलट कर कहा, बेवकूफ हो, रोज फोन करती रही, और अब मौका आया है तो वापस जाने की बात करती हो। तब तक कमरे से निकलती तसलीमा दिखीं, आते ही उन्होंने भीड़ की तरफ मुख़ातिब हो कहा, आप में से नीलम शर्मा कौन है, जिन्होंने फोन किया था। और हमें साथ ले कमरे में चली गई। भीतर जाते ही उन्होंने कहा, आज तो आमी चोले जाबो, आमी आमीर जिनिश गुलो गोछाते-गोछाते तोमार सौंगे कौथा बोले निच्छी केमोन ? यानी आज तो मैं वापिस जा रही हूं, मैं अपना सामान सहेज लूं, साथ-साथ हम बातें भी कर लेते हैं।


छूटते ही मैंने उन पर सवाल दागा, अच्छा बताईए तो बांग्ला में 'शुए आछे' का अर्थ क्या है ( मुझे अच्छी तरह बांग्ला आती है, लेकिन उनकी पुस्तक ‘लज्जा’ के हिन्दी अनुवाद के पहले वाक्य का तरजुमा ही ग़लत था, यह बात अनुवादक स्व मुनमुन सरकार से मैंने कभी नहीं कही जो कि मुझसे ज़्यादा अनुभवी रही हैं और उनकी तो मातृभाषा भी बांग्ला थी जबकि मेरी नहीं। अब मौक़ा था तो सीधे लेखिका से मैंने सवाल किया। तसलीमा ने कहा, इसका अर्थ है लेटना। मैंने कहा - बिलकुल सही कहा आपने। लेटा हुआ व्यक्ति सोच-विचार में तल्लीन हो सकता है, सोया हुआ व्यकित क़तई नहीं। उन्होंने कहा, मैं सहमत हूं तुमसे। मैंने कहा आपके अनुवादक ने तो सुरंजन को सुला दिया जबकि वह लेटा हुआ था और अंग्रेजी अनुवाद में भी यही लिखा है Suranjan was sleeping. उन्होने कहा कि हां वह हिन्दी से अंग्रेजी में अनूदित हुआ है, इसलिए वही ग़लती उसमें रिपीट हो गई है। (मुझे नहीं पता इसके बाद हिन्दी और अंग्रेजी वर्जनस् में इस ग़लती को सुधारा गया या नहीं या अब तक इसी तरह प्रकाशित किया जा रहा है।) इस दौरान मैंने देखा कि काम और बातें करते हुए उन्होंने एक के बाद एक कई सिगरेट सुलगाए। (कहां मुझे स्मोक से एलर्जी और कहां चेन स्मोकर तसलीमा। ) यानी यह थी एक आम पाठक  की हैसियत से(चूँकि उन दिनों मैंने पत्रकारिता शुरु नहीं की थी) इतनी चर्चित हस्ती से बगैर किसी बिचौलिए के पहली मुलाक़ात ।




दूसरी मुलाकात हुई, मार्च 2000 को होटल ताज बंगाल में, बकायदा prior appointment लेकर। छह वर्ष पूर्व (1994) में कोलकाता के पीयरलेस इन होटल के कक्ष में जिस तसलीमा नसरीन से मुलाक़ात की थी, आज की तसलीमा उससे कहीं अलग, कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास से परिपूर्ण दिखीं। मैंने उनका इंटरव्यू लिया जिसे पंजाब केसरी ने प्रकाशित किया था। इस इंटरव्यू के लिए मुझे देश के कई हिस्सों से पत्र प्राप्त हुए थे। कुछ तो उर्दू में थे । कुछ पत्र तसलीमा नसरीन के लिए मिले जो मैंने तीसरी मुलाक़ात के दौरान उन्हें सौंप दिए थे । यहां तक कि लंदन के ‘अमरदीप वीकली’ ने भी वह इंटरव्यू प्रकाशित किया, जिसके विषय में मुझे लंदन से हिन्दी के जाने-माने लेखक तेजेन्द्र जी ने बताया कि भई वाह, आप तो लंदन में भी छपने लगीं और उसकी कटिंग भी भेजी।


तीसरी मुलाक़ात तो और भी मज़ेदार रही। इस बार वे ग्रेट ईस्टर्न होटल में थीं।  यह मुलाक़ात संभवत: साल भर बाद हुई। हुआ यूं कि मेरे पत्रकार भाई को ‘प्रभात ख़बर’ के लिए उनका साक्षात्कार चाहिए था। संपादक साहब का हुक्म था कि चाहे जैसे भी आपको उनका interview लेना ही है हर क़ीमत पर। भाई ने कई बार ग्रेट ईस्टर्न होटल जहां उन दिनों वे ठहरी हुई थीं फोन लगाया पर बात नहीं बनी। भाई ने मुझसे कहा दीदी, आप बात करके appointment दिलवाईए, आपको तो वे जानती हैं। अंतत: मैंने फोन लगा कर कहा, दीदी मुझे आपसे मिलना है । उन्होंने अगले दिन का समय दे दिया । प्रभात खबर जैसे बड़े और राष्ट्रीय स्तर के अख़बार के पत्रकार को मैंने appointment लेकर दिया । आज वही भाई प्रभात खबर - अमर उजाला से रिपोर्टर का सफ़र तय करते हुए दैनिक भास्कर में चीफ न्यूज़ एडीटर के पद पर आसीन है। अब तो तसलीमा नसरीन कई बार कोलकाता आईं, लेकिन उनसे मिलना अब नामुमकिन सा है । अब तो खुद तसलीमा नसरीन को ही नहीं पता होता कि उन्हें कहां ठहराया गया है । आज की तारीख़ में नीलम शर्मा नाम उनके ज़ेहन में है भी या नहीं, पता नहीं। 

प्रस्तुत है फ्लैश बैक में लौटते हुए पंजाब केसरी में प्रकाशित उस साक्षात्कार के कुछ चुनिंदा अंश :


पांच सितारा होटल ताज बंगाल में दो मार्च 2000 की शाम साढ़े छह बजे उनसे बातचीत का सिलसिला कुछ यूं शुरू हुआ –



0 आज आपका इतना नाम है, लोकप्रियता है, लोग आपसे स्नेह करते हैं। आपके प्रति लोगों में एक अलग सा आकर्षण है, यह सब देखकर कैसी अनुभूति होती है ?


= अच्छा लगता है। लोगों का स्नेह पाकर यही लगता है कि मुझे लिखते रहना है। अगर मैं हाथ पर हाथ धरे बैठी रहूं तो यह उनका अपमान होगा। यूरोप में रहकर बांग्ला में लिखती हूं, बांग्लादेश के बाद पश्चिम बंगाल में आकर जब इतनी संख्या में अपने पाठकों को देखती हूं तो बहुत प्रेरणा मिलती है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से कटकर, प्रेरणा न पाकर बहुत दिनों तक तो लिख ही नहीं पाई। अब यहां के लोगों के स्नेह को संजोकर साथ ले जाऊंगी और खूब लिखूंगी।



0 अपने लेखन के प्रति अपने देश के लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर आप क्या अनुभव करती है ?

= सभी तो नहीं, कुछ लोग उसके विरद्ध आवाज़ उठा रहे हैं। आंदोलन कर रहे हैं। एक न एक दिन बदलाव आएगा। जब वे शिक्षित हो जाएंगे और इस बात को महसूस करेंगे कि एक स्वस्थ्य समाज के लिए एक लेखक की ‘वाक स्वाधीनता’ बेहद ज़रूरी है।



0 क्या कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ या अफ़सोस नहीं हुआ कि यदि मैं इस देश में पैदा न होकर किसी दूसरे देश में जन्मी होती दो ज़्यादा सहयोग मिलता, ज़्यादा बेहतर होता ?


= इस बात को लेकर मुझे कोई क्षोभ नहीं। जन्म स्थान तय करना तो इंसान के हाथ में नहीं होता। यदि मैं इस देश में पैदा न होकर कहीं और पैदा होती तो शायद मैं लेखिका ही न बन पाती, यह बोध ही न पैदा होता शायद। लोग तो मुझसे भी बदतर स्थिति में रहकर या कारावास में रहकर भी मास्टरपीस लिख गए हैं। हम लोग आज भी मध्य युग में जी रहे हैं, तभी तो हमारे लेखकों को गिरफ्तार किया जाता है, कारावास दिया जाता है। लेखकों पर तो स्वस्थ समाज निर्माण का दायित्व होता है। सभी तरह की सुख-सुविधाएं पाकर शायद मैं यह सब न लिख पाती। मैं इस दायित्व को समझती हूं और लिख रही हूं, इसे लेकर मुझे कोई क्षोभ नहीं। मेरे लेखन के लिए कठमुल्लावादियों ने जो मुझे मार डालने का फतवा जारी किया है, वह सिर्फ़ इसलिए कि वे मेरे लेखन से डर गए हैं, आतंकित हो गए हैं। वे तलवार लेकर चल रहे हैं तो मैं कलम लेकर। वे मेरी कलम से आतंकित हैं, वर्ना मैं देश में रहूं या न रहूं, कुछ भी क्यों न लिखूं, किसी को क्या फ़र्क पड़ता है।

0 या फिर आप महिला लेखक हैं, इसलिए ऐसा ज़्यादा हो रहा है ?

= हां, महिलाओं के मुंह से ऐसी बातें सुनने के तो वे लोग अभ्यस्त नहीं हैं । जो कुछ भी कहा जाता है, सिर्फ़ पुरुषों द्वारा ही । महिला लेखक के मुंह से यह सब सुनकर लोगों को बहुत ‘शॉक’ लगा है । इसलिए वे लोग ज़्यादा आक्रमण कर रहे हैं।


0 कभी-कभी तो लगता है कि अपने पड़ोसी देशों की तुलना में हमारे देश में महिलाओं की स्थिति ज़्यादा अच्छी है । आप क्या सोचती है ?

= एक जैसी ही है । ज़्यादा फ़र्क नहीं है परंतु यह सोचकर खुश होने जैसी कोई बात नहीं है । आप पड़ोसी देशों से तुलना क्यों करते हैं ? अन्य उन्नत देशों के साथ तुलना करें । यह सोचें कि क्या भारतीय महिलाओं की दशा स्वीडन या नार्वे की महिलाओं से बेहतर है ? अत: अपने से बड़े देशों की तरफ देखना चाहिए।


0 ये जो आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है, आपके विचार में इसकी कितनी महत्ता है ?

= महिलाओं के लिए मात्र एक दिन और पुरुषों के लिए 364 दिन । इससे तो महिलाओं की उन्नति नहीं होगी । ज़्यादातर महिलाएं तो यह जानती ही नहीं कि आठ मार्च क्या है ? 8 मार्च को जिन महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, चालान होता है, कईयों को भगा दिया जाता है, कईयों का क़त्ल होता है, क्या वे जानती हैं कि आज 8 मार्च है ? यह सब जो घट रहा है, यह स्वभाविक है । आज भी तृतीय विश्व में जहां महिलाओं की कोई स्वाधीनता नहीं, वहां तो यह अर्थहीन है ।


0 आपने पहली बार कब महसूस किया कि आपके भीतर एक लेखक है, उसे बाहर आना चाहिए ?


= काफ़ी छोटी थी, तब से ही लिखने की इच्छा होती थी । स्कूल के दिनों से ही पहले लघु पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया । कई लोग बहुत बातूनी होते हैं, पर मैं मितभाषी थी, मन की बातें लिखा करती थी। यह अभिव्यक्ति का एक माध्यम था । बहुत किताबें पढ़ा करती थी।


0 आप तो मेडिकल डॉक्टर हैं, इतनी चेन स्मोकिंग क्यों करती हैं ?

= जानती हो, डॉक्टर बहुत बुरे मरीज़ होते हैं।  स्मोक करती हूं और लोगों को न करने का उपदेश देती हूं । वैसे यह एक बुरी आदत है, बस छोड़ नहीं पा रही हूं। दार्शनिकता जैसी कोई बात नहीं है ।


0 आप तो काफ़ी अर्से से विदेश में रह रही हैं । हमारे पूरबी पुरुषों और पश्चिमी पुरुषों की मानसिकता में क्या अंतर या समानताएं हैं ?


= लगभग सब जगह के पुरुष एक जैसे ही हैं । उनके वहां तो बहुत दिनों से समानाधिकार चल रहे हैं ।


0 हमारे यहां साहित्यिक पुस्तकों पर अनेक फ़िल्में बनी हैं और बनती हैं । यह कहां तक सही है या उपयोगी है । एक लेखक के तौर पर आप क्या सोचती हैं ?

= यह बेहद ज़रूरी है ।

0 यदि आपकी आत्मकथा पर यहां कोई फ़िल्म बनाना चाहे तो ?


= वह प्रामाणिक होनी चाहिए।







साभारपंजाब केसरी (मार्च 2000) तथा


अमरदीप हिन्दी वीकली, लंदन (12-4-2000)


साक्षात्कार - नीलम शर्मा 'अंशु '