सुस्वागतम्
29 अप्रैल 2009
मेरी, उनकी, हमारी बात - 1
1. नज्में
उड़ते क़ाग़ज़ों पर
मैंने नज़्में लिखीं
कितनी तुम तक पहुंची
और कितनी नहीं.....
पता नहीं।
2 . रब्ब
जिस ने ख़ुद
को गंवा लिया
उसने
रब्ब भी गंवा दिया।
3 . आसमा/घर
धरती पर
अपने-अपने
आसमां भी होते हैं.....
फूल, तितलयों के
पेड़ पंछियों के
ख़्याल अक्षरों के
सपने ज़िंदगी के
और प्यार प्यार का
आसमां होता है।
4 . दीदार
गैरहाज़िर को नहीं
हाज़िर को ही
दीदार हो जाता है
रब्ब का भी
ख़ुद का भी।
5. मुहब्बत
पाठ भी वही
जो बिना शब्द
अपने आप
होता रहे
मुहब्बत भी वही
जो चुपचाप
फूलों की भांति
ज़िंदगी में
महकती रहे।
6. सच
बादशाह भी
सच से डरता है
औरंगज़ेब से पूछ कर देख लें
परंतु सच
किसी से नहीं डरता
सरमद को सुन कर देख लें।
7 . शुक्रिया
जब तुम आ जाती हो
मन ही मन
मैं नाचता रहता हूं
तुम्हारे अस्तित्व के साथ....
जब तुम चली जाती हो
मेरे वज़ूद में
खुद-ब-खुद
तुम्हारे अस्तित्व का शुक्रिया
अदा होता रहता है........
8 . कविता
ज्यों-ज्यों
साहित्य में
कवि बढ़ते जा रहे हैं
जीवन से
कविता घटती जा रही है.......
साभार - पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'हुण'
(पंजाबी से रूपांतर - नीलम शर्मा 'अंशु' 30 - 04 - 2009)
24 अप्रैल 2009
सरोकार - यूं भी होती है ईश्वर की उपासना ! फ्लैश बैक - ( 3) जनसत्ता/कोलकाता, 28 नवंबर 1995
‘अड्डा!’ यानी कुछ लोगों का जमावड़ा । ख़ास तौर पर बंगाल में ‘अड्डा’ का प्रचलन बहुत है। यूं तो मनुष्य ऐसा प्राणी है जो हमेशा मिलजुल कर एक साथ रहना और वक्त गुज़ारना चाहता है । छोटे-बड़े, वृद्ध, सबका अपनी-अपनी उम्र के हिसाब से एक सर्कल होता है, जहां वे एक साथ मिलकर अपना खाली समय गुज़ारते हैं। इसके लिए तरह-तरह के पार्क या क्लबों की व्यवस्था भी होती है।
० सेवानिवृत्ति के बाद समय गुज़ारने के लिए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है, आपने इसे ही क्यों चुना ?
= भगवान ने जन्म दिया है। 84 लाख योनियां भुगतने के बाद मानव जन्म मिलता है जो बड़ा ही दुर्लभ है। इतने दिन तो खाने-पीने गृहस्थी की ज़रूरतों को पूरा करने में गुज़ार दिए। अब थोड़ा सा समय धर्म-कर्म को अर्पित करता हू। मेरा मानना है कि चौबीस घंटों में अगर मैं मैं दो घंटे रोज़ाना धर्म को समर्पित करता हूँ तो यही मेरे जीवन की सार्थकता है। पुत्र का कर्तव्य है कि वृद्धावस्था में माता-पिता को धर्म ग्रंथों का पाठ सुनाए। मैं अपने जीवन में मात-पिता के प्रति इस कर्तव्य को निभा नहीं पाया। अब मैं इन श्रोताओं को ही अपने माता- पिता मान उस कर्तव्य का निर्वाह कर रहा हूं जो पहले नहीं कर पाया। भगवान ने मुझे इतनी सामर्थ्य नहीं दी कि मैं आर्थिक रूप से किसी की सहायता कर सकूं। तो इस तरह हरिनाम की कथा सुनाकर उनका कुछ उपकार कर सकूं, तो मुझे आत्मिक संतुष्टि होगी.
कुछ लोगों ने अपने घरों में जगह की पेशकश की थी परंतु यहां हम उन्मुक्त भाव से बैठ पाते हैं। किसी के घर जाकर बैठने से बंधन सा महसूस होता है। यहां लोग अपनेपन से खिंचे चले आते हैं उन्मुक्त भाव से। दूसरी जगह जाने पर उन्हें विशेष रूप से जाना पड़ेगा। श्रोताओं में कई ऐसे भी हैं जो ट्रेन(लोकल) की प्रतीक्षा करते-करते हमारी इस सभा में शामिल हो जाते हैं और ट्रेन आते ही उसमें चढ़कर अपने गंतव्य को चले जाते हैं। ट्रेन की प्रतीक्षा में उनके समय का भी सदुपयोग हो जाता है।
0 आज सारी दुनिया में अशांति का बोलबाला है, ऐसे में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है आपके विचार में ?
= आज ही नहीं, अशांति तो संसार में सदा से ही रही है। इतिहास में काफ़ी उदाहरण मिलते हैं। अशांति न होती तो कुरुक्षेत्र का युद्ध क्यों होता ? हां, धर्म शांति-दूत का काम कर सकता है, हमारा पथ-प्रदर्शक है बशर्तें हम शांति की आकांक्षा रखते हों।
0 आज का युवा वर्ग तो फ़िल्मों, टीवी, केबल टीवी, इंटरनेट की सतरंगी दुनिया में रमा हुआ है, धर्म के प्रति उसमें रुचि के क्या कोई आसार दिखते हैं ?
दूसरी बात यह कि जीवन की चार अवस्थाएं है। युवा वर्ग वृद्धावस्था में जब कदम रखेगा, तब अपनी जिम्मेदारियों से स्वयं को मुक्त समझेगा तो उसका मन स्वत: ही धर्म की ओर उन्मुख होगा। यूं यह तो कलियुग है। कलियुग अपना प्रभाव तो दिखाएगा ही। जब समय आता है तो भगवान खुद ही मन में लगन उत्पन्न कर देता है।
वि. द्र. - यह आलेख व बातचीत नवंबर 1995 की है। 28 नवंबर को प्रकाशित होने के बाद उस ग्रुप ने बकायदा अपनी सभा में एक दिन मुझे आमंत्रित कर यह कहते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया कि बेटा ! आपने हम पर लिखने की पहल की वह भी हिन्दी के अखबार ने, आज तक बांग्ला के किसी पत्रकार ने हम बूढ़ों की सुध लेने की ज़रूरत नहीं समझी। मैंने अकतूबर 1997 में मध्यमग्राम छोड़ दिया था, अब पता नहीं आज वह सभा ज्यों की त्यों जारी है या नहीं -अंशु (26 - 4 - 2009)
23 अप्रैल 2009
‘एडस्’ पर पहली हिन्दी फीचर फिल्म - - फ्लैश बैक - (1) जनसत्ता/कोलकाता/09-2-1996
मुलाक़ात ( 1 ) - मैं सब कुछ मिलकर गुलज़ार हूँ !
अंशु - आपने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबी पारी खेली है और यह अभी बदस्तूर जारी है। गीतकार, पटकथा लेखन, निर्देशन, दूरदर्शन के लिए धारावाहिकों का निर्माण हर क्षेत्र में आपने कदम रखा । फिल्म निर्देशन के माध्यम से आपने खा़स-खा़स विषयों को लिया। ज्वलंत मुद्दों पर माचिस जैसी फिल्म बनाई। भविष्य में ऐसे किस मुद्दे या समस्या पर आप फिल्म बनाना चाहेंगे जो आपको उद्वेलित करते हों ?
गुलज़ार - माचिस तो काफ़ी पीछे छूट गई, 1995 की बात है। उसके बाद हु-तु-तु बनाई। आज़ादी के 50 सालों की कहानी है कि किस तरह एक मासूम टीचर को आहिस्ता-आहिस्ता सत्ता का नशा लगता है और वह चीफ मिनिस्टर बन जाता है। एक आम शहरी की नज़र से हमने इस सत्ता को बदलते देखा है और कहां तक पहुंचे हैं, इसकी दास्तां थी हु-तु-तु। एक छोटा सा मसला है पीने के पानी का, जो हम आज भी मुहैया नहीं करवा पाए। वो आज भी ज्यों का त्यों है। फिर हमारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं जगह-जगह। अपनी मुफलिसी की वजह से बच्चों की खरीद-फ़रोख्त कर रहे हैं। तो मुंशी प्रेमचंद की धनिया और होरी याद आए। पंजाब की हालत आप देख लीजिए या आंध्रप्रदेश की। कावेरी के पानी और सतलुज-जमुना लिंक नहर को लेकर हडकंप मचा हुआ है। किसान बेचारे को कोई नहीं पूछता। सियासी झगड़े चलते रहते हैं। हर साल सूखा भी पड़ता है और बाढ़ भी आती है। तो आदमी तो रिएक्ट करता ही है लेखक के तौर पर और फिल्म मेकर के तौर पर। मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में इन मसलों पर उँगली रखी थी, गोदान जैसा उपन्यास लिखा था, ठाकुर का कुआँ लिखा था, कफ़न जैसी कहानी लिखी थी, 70 बरस गुज़र गए वो तमाम मसले वैसे के वैसे बने रहे। मैंने मुंशी प्रेमचंद के काम को 13 घंटों में फिल्माया है, जो आजकल दूरदर्शन पर चल रहा है।
अंशु - आप के भीतर तो बहुत सी चीजें समाई हुई हैं – गीतकार गुलज़ार है, स्क्रिप्ट लेखक गुलज़ार, बच्चों के लिए गीत लिखने वाले गुलज़ार, बोस्की का पंचतंत्र, पुखराज और रावी पार जैसी साहित्यिक कृतियों के लेखक गुलज़ार। इनमें संपूर्ण सिंह उर्फ़ गुलजा़र मूल रूप से खुद को क्या मानते हैं ?
गुलज़ार – ये तो मुश्किल सवाल किया है आपने । मैं एक बेटी का बाप हूं, एक पत्नी का पति हूं, मां का बेटा हूं, भाई का भाई हूं, बहन का भाई हूं, तो आप मूल किसे मानेंगी ? मैं सब मिलकर गुलज़ार हूं।
अंशु - पुराने नगमें आज भी दिलों पर छाप छोड़ते हैं, लोग आज भी गुनगुनाना पसंद करते हैं जबकि आज के गीत दो-तीन महीनों बाद गायब हो जाते हैं, क्या आप ऐसा महसूस करते हैं ?
गुलज़ार - गीतकार को अलग से नहीं देख सकता मैं। क्या फिल्में आपको तसल्लीबख्श लगती हैं। अगर फिल्में तसल्लीबख्श नहीं है तो गानों या गीतकार का क्या कसूर ? क्या म्युज़िक तसल्लीबख्श लगता है आपको ?
अंशु – एक चीज़ और जो इन दिनों देखने में आ रही है, पुराने हिट और पॉपुलर गानों को नए अंदाज़ में बतौर रिमिक्स पेश किया जा रहा है, क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि हमारी नई जेनरेशन को देने के लिए हमारे पास नया कुछ नहीं है, हम पुराने को ही नए रूप में परोस रहे हैं, इसे किस रूप में लेना चाहिए ?
गुलज़ार - कह नहीं सकता । हर दौर में क्रिएटिविटी तो होती है। ये भी नहीं कि आज की जेनरेशन के पास कुछ नहीं है। उसके पास भी बहुत कुछ है कहने के लिए, लेकिन जो कह पाते हैं वो कह रहे हैं। जैसे रहमान साहब हैं, बहुत खूबसूरत काम कर रहे हैं। विशाल भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। जिनके पास कुछ नहीं है वे दूसरों का परोसा हुआ पेश कर रहे हैं। है वो सरासर नाइंसाफ़ी क्योंकि जब भी पुराने शहरों की इतिहास खुदाई होती है, तो वहां उस दौर के मटके- मटकियां. सिक्के, दीवारों या चट्टानों पर अभिलेख आदि से उस सभ्यता का अंदाज़ा लगाया जाता है कि वो सभ्यता कैसी थी। उसमें मिश्रण करे दें या तोड़-मरोड़ दें या मिलावट कर दे तो वह इतिहास नहीं रह जाएगा। ये जो जुल्म हो रहा है जिसे आप रिमिक्स कहती हैं, ये इतिहास के साथ खिलवाड़ है। अगर रवीन्द्र संगीत में आज के इलैक्ट्रॉनिक्स डाल दें तो उस दौर की रिकॉर्डिंग तो खराब हो गई, वह तो गायब हो गया, पॉल्यूट हो गया। मुझे तो ये गुनाह लगता है।
अंशु – इसीसे जुड़ी एक बात और। आजकल डिजीटल तकनीक से ब्लैक एडं व्हाईट फिल्मों जैसे मुगल-ए-आज़म, नया दौर, मधुमति को रंगीन बनाया जा रहा है, इसे आप किस रूप में लेते हैं ?
गुलज़ार - उसकी क्या ज़रूरत थी ? हमें अपनी पुरानी गुफाओं में जो पेंटिंग्स मिलती हैं, अब अगर उन्हें रीपेंट कर दें तो, ओरिजिनैलिटी तो क्या, पूरे इतिहास का सत्यानाश कर दिया, है न ? पूरी तहज़ीब, पूरी सभ्यता को गर्क़ कर दिया आपने। यही हो रहा है। ब्लैक एंड व्हाईट का अपना दौर था, बड़ा रंगीन दौर था। ये फिल्में इसका प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें बिलकुल छेड़ने की ज़रूरत नहीं थी।
अंशु - गीतकार, शायर गुलज़ार हमारे कोलकाता के प्रशंसकों के लिए कौन सी पंक्तियां गुनगुनाना चाहेंगे ?
गुलज़ार - बेसुरा हूं, वर्ना गाकर बताता। साथिया का ‘चोरी चोरी नंगे पाँव जाना, अच्छा लगता है,’ पता नहीं आपको कैसे लगता है। दूसरा गीत ‘चुपके से’ तो बड़ा अच्छा लगता है।