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07 सितंबर 2010

तसलीमा नसरीन - मेरे विरोधी तलवार लेकर चलते हैं और मैं क़लम लेकर ।



बात 1993-94 की है। मैं उन दिनों मध्यमग्राम (कोलकाता का निकटवर्ती एक उपनगर) में रहा करती थी। कोलकाता में हर जगह उन दिनों तसलीमा नसरीन का ज़िक्र सुनने को मिलता था। यहां तक कि उपनगरीय बनगांव लोकल के महिला कूपे में यह नाम अकसर सुनने को मिलता था। फिर धीरे-धीरे तसलीमा के विषय में विस्तार से जानने का मौका मिला। मैंनें उन्हें पत्र लिख कर ‘लज्जा’ के हिन्दी अनुवाद की अनुमति चाही थी । अचानक नौ महीनों बाद मुझे उनका पत्र मिला जिसके द्वारा सूचित किया गया था कि मेरा कॉपी राईट अमुक प्रकाशक के पास है, आप उनसे संपर्क करें। ढाका में भूमिगत रहने के कारण पत्रोतर में विलंब के लिए क्षमा याचना की थी। जब मैं उनके बांग्ला प्रकाशक से मिली तो पता चला कि हिन्दी अनुवाद हेतु किसी अन्य को अनुमति दी जा चुकी है। ख़ैर ! क्या किया जा सकता था।

........... ऐसे में सालों बाद एक दिना अचानक पता चला कि तसलीमा शहर में हैं और पीयरलेस इन में ठहरी हैं, दो सप्ताह रहेंगी। रोज़ नियमित रूप से सुबह - शाम  पब्लिक बूथ के सिक्के वाले फोन से उन्हें फोन करती। पता नहीं कितने सिक्के खर्च किए। उनका एक ही जवाब होता, अच्छा आप अमुक समय फोन कीजिएगा। उन दिनों मेरे एकाध अनूदित आलेख छपने शुरू हुए थे जनसत्ता में । कोई विशेष पहचान भी नहीं थी मेरी शहर में । मैं सिर्फ एक बार उस महिला को साक्षात़् देखना चाहती थी, जिसने सारी दुनिया में हलचल मचा रखी थी, जिसका नाम सबकी जुबां पर था। मेरे भी धैर्य का जवाब नहीं। मैं रोज धैर्य सहित उन्हें फोन करती। अंतत: जिस दिन वे कलकत्ते से जाने वाली थीं, उस दिन सबह नौ बजे की मुलाक़ात का समय उन्होंने दे ही दिया। (सोचा होगा कि यह कन्या इतने दिनों से डटी है मोर्चे पर तो मिल ही लिया जाए।) साधारण सी उभरती हुई अनुवादक थी, कोई स्थापित पत्रकार तो थी नहीं। ख़ैर निर्धारित समयानुसार अपनी एक दोस्त (मेरी वजह से उसे भी तसलीमा नसरीन को देखने का सुअवसर मिल गया) को साथ ले मैं पीयरलेस इन पहुंची। रिसेप्शन से फोन लगाया तो उन्होंने ऊपर आने के लिए कहा। ऊपर पहुंचने पर लोगों का इतना जमघट देख मैंने अपनी उस दोस्त से कहा, चलो वापस चलते हैं, मुझे नहीं मिलना। उस ने पलट कर कहा, बेवकूफ हो, रोज फोन करती रही, और अब मौका आया है तो वापस जाने की बात करती हो। तब तक कमरे से निकलती तसलीमा दिखीं, आते ही उन्होंने भीड़ की तरफ मुख़ातिब हो कहा, आप में से नीलम शर्मा कौन है, जिन्होंने फोन किया था। और हमें साथ ले कमरे में चली गई। भीतर जाते ही उन्होंने कहा, आज तो आमी चोले जाबो, आमी आमीर जिनिश गुलो गोछाते-गोछाते तोमार सौंगे कौथा बोले निच्छी केमोन ? यानी आज तो मैं वापिस जा रही हूं, मैं अपना सामान सहेज लूं, साथ-साथ हम बातें भी कर लेते हैं।

छूटते ही मैंने उन पर सवाल दागा, अच्छा बताईए तो बांग्ला में 'शुए आछे' का अर्थ क्या है ( मुझे अच्छी तरह बांग्ला आती है, लेकिन उनकी पुस्तक ‘लज्जा’ के हिन्दी अनुवाद के पहले वाक्य का तरजुमा ही ग़लत था, यह बात अनुवादक स्व मुनमुन सरकार से मैंने कभी नहीं कही जो कि मुझसे ज़्यादा अनुभवी रही हैं और उनकी तो मातृभाषा भी बांग्ला थी जबकि मेरी नहीं। अब मौक़ा था तो सीधे लेखिका से मैंने सवाल किया। तसलीमा ने कहा, इसका अर्थ है लेटना। मैंने कहा - बिलकुल सही कहा आपने। लेटा हुआ व्यक्ति सोच-विचार में तल्लीन हो सकता है, सोया हुआ व्यकित क़तई नहीं। उन्होंने कहा, मैं सहमत हूं तुमसे। मैंने कहा आपके अनुवादक ने तो सुरंजन को सुला दिया जबकि वह लेटा हुआ था और अंग्रेजी अनुवाद में भी यही लिखा है Suranjan was sleeping. उन्होने कहा कि हां वह हिन्दी से अंग्रेजी में अनूदित हुआ है, इसलिए वही ग़लती उसमें रिपीट हो गई है। (मुझे नहीं पता इसके बाद हिन्दी और अंग्रेजी वर्जनस् में इस ग़लती को सुधारा गया या नहीं या अब तक इसी तरह प्रकाशित किया जा रहा है।) इस दौरान मैंने देखा कि काम और बातें करते हुए उन्होंने एक के बाद एक कई सिगरेट सुलगाए। (कहां मुझे स्मोक से एलर्जी और कहां चेन स्मोकर तसलीमा। ) यानी यह थी एक आम पाठक  की हैसियत से(चूँकि उन दिनों मैंने पत्रकारिता शुरु नहीं की थी) इतनी चर्चित हस्ती से बगैर किसी बिचौलिए के पहली मुलाक़ात ।

दूसरी मुलाकात हुई, मार्च 2000 को होटल ताज बंगाल में, बकायदा prior appointment लेकर। छह वर्ष पूर्व (1994) में कोलकाता के पीयरलेस इन होटल के कक्ष में जिस तसलीमा नसरीन से मुलाक़ात की थी, आज की तसलीमा उससे कहीं अलग, कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास से परिपूर्ण दिखीं। मैंने उनका इंटरव्यू लिया जिसे पंजाब केसरी ने प्रकाशित किया था। इस इंटरव्यू के लिए मुझे देश के कई हिस्सों से पत्र प्राप्त हुए थे। कुछ तो उर्दू में थे । कुछ पत्र तसलीमा नसरीन के लिए मिले जो मैंने तीसरी मुलाक़ात के दौरान उन्हें सौंप दिए थे । यहां तक कि लंदन के ‘अमरदीप वीकली’ ने भी वह इंटरव्यू प्रकाशित किया, जिसके विषय में मुझे लंदन से हिन्दी के जाने-माने लेखक तेजेन्द्र जी ने बताया कि भई वाह, आप तो लंदन में भी छपने लगीं और उसकी कटिंग भी भेजी।

तीसरी मुलाक़ात तो और भी मज़ेदार रही। इस बार वे ग्रेट ईस्टर्न होटल में थीं।  यह मुलाक़ात संभवत: साल भर बाद हुई। हुआ यूं कि मेरे पत्रकार भाई को ‘प्रभात ख़बर’ के लिए उनका साक्षात्कार चाहिए था। संपादक साहब का हुक्म था कि चाहे जैसे भी आपको उनका interview लेना ही है हर क़ीमत पर। भाई ने कई बार ग्रेट ईस्टर्न होटल जहां उन दिनों वे ठहरी हुई थीं फोन लगाया पर बात नहीं बनी। भाई ने मुझसे कहा दीदी, आप बात करके appointment दिलवाईए, आपको तो वे जानती हैं। अंतत: मैंने फोन लगा कर कहा, दीदी मुझे आपसे मिलना है । उन्होंने अगले दिन का समय दे दिया । प्रभात खबर जैसे बड़े और राष्ट्रीय स्तर के अख़बार के पत्रकार को मैंने appointment लेकर दिया । आज वही भाई प्रभात खबर - अमर उजाला से रिपोर्टर का सफ़र तय करते हुए दैनिक भास्कर में चीफ न्यूज़ एडीटर के पद पर आसीन है। अब तो तसलीमा नसरीन कई बार कोलकाता आईं, लेकिन उनसे मिलना अब नामुमकिन सा है । अब तो खुद तसलीमा नसरीन को ही नहीं पता होता कि उन्हें कहां ठहराया गया है । आज की तारीख़ में नीलम शर्मा नाम उनके ज़ेहन में है भी या नहीं, पता नहीं। 

प्रस्तुत है फ्लैश बैक में लौटते हुए पंजाब केसरी में प्रकाशित उस साक्षात्कार के कुछ चुनिंदा अंश
(इस पोस्ट को 31-05-2009  को मैंने लगाया था, कुछ दोस्तों के आग्रह पर  इसे पुन:  लगा रही हूँ।) :-


पांच सितारा होटल ताज बंगाल में दो मार्च 2000 की शाम साढ़े छह बजे उनसे बातचीत का सिलसिला कुछ यूं शुरू हुआ –

0 आज आपका इतना नाम है, लोकप्रियता है, लोग आपसे स्नेह करते हैं। आपके प्रति लोगों में एक अलग सा आकर्षण है, यह सब देखकर कैसी अनुभूति होती है ?