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और दफ्तर, उसी ट्राम डिपो के सामने। यह परीक्षा दी थी, कूचबिहार सेंटर में। करियर की यही पहली परीक्षा थी वही सफल हो गई। इसके बाद बहुत परीक्षाएं दीं कलकत्ते से निकलने के लिए ताकि होम टाउन में वापसी हो सके लेकिन ईश्वर को शायद महानगर में रखना ही मंजूर था। चलो मेरे कारण हर रिश्तेदार ने कलकत्ता भी देख लिया। डैडी जो परीक्षा दिलवाने के लिए बड़े बेटे से कहते थे कि इस उम्र में कहाँ कलकत्ते में धक्के खाते हुए इसे लेकर फिरूंगा, तू साथ चला जा। बाद में हमारे यहाँ सेटल होने पर छुट्टियों में उन्हें भी यहाँ आना पड़ता। पाँच सालों तक तो हर बार दुर्गा पूजा में अलीपुरद्वार जाना ही मेरी प्राथमिकता में शामिल रहता था क्योंकि वहाँ एक हर पंडाल में किसी दोस्तों, परिचितों से मुलाकात होती, कलकत्ते में कौन, कोई नहीं। फिर 1995 से जाना छूट गया। 1995 के बाद 2005 में जाना हुआ था सहेली की शादी में। फिर 2009 में इन्कम टैक्स विभाग में तैनाती के दौरान सरकारी काम से जलपाईगुड़ी जाना हुआ तो अलीपुर द्वार भी गई थी। यानी पाँच साल हो गए। अलीपुरद्वार वापसी हो जाती तो बस शायद नौकरी के लायक ही रहती कोलकाता आकर जो इतने नए आयाम मिले क़तई न मिल पाते वहाँ तो तब आज का अख़बार तक अगले दिन पहुंचा करता था। अलीपुरद्वार वालों को थोड़े ही पता है कि जनसत्ता में 90 के दशक में छपने वाला नाम नीलम शर्मा अंशु वहीं का है। 2005 में जब गई थी तो भईया के दोस्त उमा जी ने कहा भी था कि मैं तो यहाँ तुम्हारा प्रोग्राम रेडियो पर हरदम सुनता हूँ पर मुझे थोड़े ही पता था कि यह नीलम शर्मा, प्रदीप शर्मा की वही बहन है (पता नहीं वे किस सिस्टम से सुना करते थे) । मज़े की बात यह है कि नीलम शर्मा को जानने वाले नीलम शर्मा अंशु को नहीं जानते और अंशु को जानने वाले नीलम शर्मा को नहीं जानते। जब कभी एफ. एम. वाला प्रोग्राम बहुत अच्छा होता था तो हमारे पेक्स पोद्दार साहब पूछा करते, नीलम जी आपके दोस्तों ने क्या कहा प्रो. सुनकर। मैं कहती, सर मेरे ज़्यादातर दोस्त साहित्यिक क्षेत्र के हैं और वे एफ. एम. नहीं सुनते। बेचारे सर इतने जोश से पूछते और मेरा जवाब उन्हें मायूस कर देता। एफ. एम. पर नीलम शर्मा को सुनते हैं वे नीलम शर्मा अंशु को नहीं जानते और नहीं पढ़ते। दोनों क्षेत्रों की अलग-अलग धाराएं हैं।
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2002 में जब काबुलीवाले की बंगाली बीवी पुस्तक प्रकाशित हुई थी, तो एक दिन पुस्तक मेले के दौरान मैं पुस्तक मेले में थी और एफ. एम. पर अपनी साथी प्रेजेंटर का प्रोग्राम सुन रही थी एक स्टॉल पर बैठ कर कि अचानक किसी श्रोता को उनसे फोन पर इस पुस्तक का ज़िक्र करते पाया। उसने कहा भी कि मैं अमुक-अमुक स्टॉल पर गया था वहाँ ये-ये नई पुस्तकें देखीं और उसने काबुलीवाले..... का ज़िक्र करते हुए कहा कि हिन्दी में यह किताब खूब बिक रही है और बतौर अनुवादक मेरे नाम का ज़िक्र भी किया लेकिन उस श्रोता के थोड़े ही पता था कि ये अनुवादक और प्रेजेंटर नीलम शर्मा दोनों एक ही हैं। जब मेरे साथी-प्रेजेंटर को ही नहीं पता था तो श्रोता को कैसे पता हो सकता है। मैंने बाद में साथी प्रेजेंटर को फोन करके पूछा कि किसी श्रोता ने कुछ हिन्दी किताबों का जिक्र किया था, मैं उसका नाम नहीं सुन पाई ज़रा बताओ तो। तो उसने मुझे श्रोता का नाम बताया और पूछा - अच्छा नीलम जी, वो नीलम शर्मा अंशु कहीं आप ही तो नहीं।
ईश्वर ने भारत सरकार का एक नियुक्ति पत्र देकर इस शहर में भेजा था, और इस शहर ने तो मेरी झोली ही भर दी। नीलम शर्मा और अंशु से अपार स्नेह रखने वाले एफ. एम. श्रोताओं और साहित्यिक दोस्तों एवम् लेखनी को रवानगी व प्रोत्साहित करते हुए प्रकाशन का अवसर प्रदान करने वाले संपादकों व पत्र-पत्रिकाओँ व प्रकाशकों जिन्होंने मेरी पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाया, उन सबके प्रति तह-ए-दिल से आभारी हूँ।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'
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