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22 नवंबर 2013

लोग इतना कुछ याद कैसे रख लेते हैं………..।

लोग इतना कुछ याद कैसे रख लेते हैं………..


मुझे बहुत हैरानी होती है कि लोग इतना कुछ याद कैसे रख लेते हैं। मुझे तो याद नहीं रहता। किसी नए व्यक्ति से अगर लगातार मुलाकातें न होती रहें तो मैं तो भूल ही जाती हूँ। आज शाम मेरे ऑफिस के कैंपस में अचानक किसी ने पीछे से आवाज़ दी (बांगला में) मैडम कैसी हैं ? लिहाज़ा ज़रा सी चाल धीमी हो गई, पीछे मुड़कर देखा और पलट कर पूछा -  आप कैसे हैं ?
उन्होंने कहा, आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया। मैंने कहा, बहुत अच्छी हूँ। फिर उन्होंने पूछा, पहचाना?

मैंने यूं ही रस्मी तौर पर पूछ लिया कि आप आजकल किस ऑफिस में हैं। जवाब में उन्होंने  कहा - आजकल हल्दिया में हूँ । (दफ्तर का नाम मुझे भूल भी गया।) मैंने कहा, ट्रांसफर हो गया क्या दरअसल मैंने उन्हें हमारे लेखा नियंत्रक कार्यालय का स्टाफ समझ लिया था इसलिए मन ही मन सोचा कि वहाँ भी दफ्तर की शाखा है क्या फिर उन्होंने पूछा, आप आजकल मध्यमग्राम में ( समीपवर्ती एक उपनगर, तब कोलकाता के उत्तर 24 परगना जिले में पड़ता था, अब कोलकाता ही कहलाता है।) ही रहती हैं अभी भी। मध्यमग्राम का नाम सुनकर लगा कि ये तो कोई बहुत ही पुराने परिचित हैं। फिर उन्होंने कहा, याद है वो भारतीय भाषा परिषद में मुलाकात हुई थी। अब भी जाती होंगी आप। उनके मुँह से भारतीय भाषा परिषद का नाम सुनकर तो उनका चेहरा बिलकुल भी परिचित सा नहीं लगा बल्कि यह स्पष्ट हो गया कि ये हमारे लेखा नियंत्रक कार्यालय से नहीं हैं। फिर उन्होंने पूछा, लिखना-लिखाना कैसा चल रहा है। मैंने रस्मी तौर पर ही जवाब दिया कि बस ठीक-ठाक। फिर सोच कर मैंने कहा कि मुझे बिलकुल याद नहीं आ रहा, आप अपना नाम बताईए। नाम बताया तो नाम भी जाना-पहचाना नहीं लगा फिर भी मैंने पूछा - कहीं आप वे ही तो नहीं, जो मेरे पास हिन्दी की कविताएँ ऐडिंटिंग के लिए लाया करते थे। वे बांगलाभाषी होकर हिन्दी में कविताएं लिखा करते थे उन दिनों। हालांकि कविताएं लिखने का शौक तब मुझे नहीं था, उनकी कविताओं की वर्तनी वगैरह मैं सुधार दिया करती थी जब भी दो-तीन हफ्तों बाद या महीने भर बाद वे मेरे पास लेकर आते।  फिर अचानक उनका आना बंद हो गया। हो सकता है उसी दौरान उन्होंने हल्दिया में ज्वॉयन कर लिया हो। जब उन्होंने कहा कि हाँ वही हूँ, तो मैंने कहा, अगर आपके पास वक्त हो तो चलिए सीट पर चलकर बैठ कर बात-चीत की जाए। उसी क्रम में उन्होंने बताया कि आपने मुझे गुलज़ार साहब का गीत क़तरा-क़तरा मिलती है बांगला में अनुवाद करके दिया था। यानी ये 1994-95 की बातें थीं। तब मैं नौकरी के साथ जनसत्ता के लिए फ्रीलांसिग किया करती थी और अपनी एम. ए. की पढ़ाई और पंजाबी पुस्तकों के लिए भाषा परिषद के पुस्तकालय में जाया करती थी। यानी जनाब से मुलाकात लगभग 17-18 बरसों बाद हो रही थी। बात-चीत में उन्होंने बताया कि आजकल डोंगरी टू दुबई पुस्तक पढ़ रहा हूँ, इसके बांगला अनुवाद के लिए सोच रहा हूँ। आप हिन्दी में करेंगी (उन्हें मेरे अनुवाद कार्य की जानकारी नहीं थी)। मैंने कहा, आजकल अभी इतना वक्त नहीं है, पहले वाला काम पूरा करना है, उसी के लिए समय नहीं मिल रहा है।  फिर कहा, अब भी तरह-तरह की पत्रिकाएं खरीदता रहता हूँ। फिर उन्होंने याद दिलाया कि उन दिनों आप संजय दत्त का इंटरव्यु करने वाली थीं। फिर कहा मुझे गुलज़ार बहुत पसंद हैं, उनकी कविताएं, शायरी, गीत। मैंने कहा कि मैंने उनका भी इंटरव्यु किया था। फिर मैंने बताया कि आपने क़तरा-क़तरा की बात कही कि मैंने आपको उसका बांगला में अनुवाद करके समझाया था और आजकल मैं श्रोताओं को गीत भी सुनवाती हूं एफ. एम. पर। इतने सालों के बाद मुलाक़ात और बात-चीत के बाद उन्होंने कहा, आपने बहुत प्रगति कर ली है काम के सिलसिले में। मैंने कहा, कि आपने नॉक किया मैं तो पहचान ही नहीं पाती, हाँ कभी-कभार सोचा करती थी कि कविताएं लेकर आऩे वाले उस शख्स ने अचानक आना क्यों छोड़ दिया। उन दिनों फोन और मोबाइल भी नहीं हुआ करते थे। आज वे हमारे कैंपस में विदेश व्यापार के कार्यालय में अपने दफ्तर के काम से आए थे और उधर से मुझे गुज़रते देख आवाज़ दी थी। उन्होंने कहा, आपका व्यक्तित्व ही याद रखने वाला है। फिलहाल बरसों बाद इस तरह अचानक ज़िंदगी की कैसेट रिवांइड हो गई। फोन नंबरों का आदान-प्रदान हुआ और उन्होंने कहा कि कोलकाता आने पर समय मिला तो मुलाकात हुआ करेगी। मेरी अनूदित किताबें देख उन्हें हैरानी हुई और कहा बहुत अच्छा लग रहा है देखकर। मैं आपको एक किताब के अनुवाद के लिए कह रहा था, आपने तो पहले से ही कई कर रखी हैं।  हाल ही दैनिक जागरण के दीपावली विशेषांक की मेरी कहानी देख उन्होंने कहा, इसे मैं ले जा रहा हूँ, पढूंगा और इसका मैं बांगला में अनुवाद भी करूंगा। तो इस तरह एक अनुवादक को अनुवादक भी मिल गया।

और मैं सोच रही थी कि कि लोग इतना कुछ याद कैसे रख लेते हैं………..

(बंगाल में बंगालियों के बीच गैरबांगलाभाषी, और तिस पर पंजाबी होने का फायदा बचपन से ही मिलता रहा है। लोगों का आकर्षण बना रहता है अरे, ये तो पंजाबी हैं।  एक तो लोग आसानी से याद रखते हैं, नाम भी। उत्तर भारत में तो नीलम नाम बेहद कॉमन है, पर बंगाल में नहीं। इसका भी फायदा मिलता है। अभी पिछले महीने जब कश्मीर जाना हुआ तो दिल्ली में हमलोग करोलबाग से लौट कर अपने होटल जा रहे थे तो किसी ने पीछे से नीलौम कह कर आवाज़ दी। नीलम कहा होता तो शायद पलट कर नहीं देखती क्योंकि वहाँ नीलम नाम तो किसी और का भी हो सकता था पर नीलौम उच्चारण तो किसी बांगलाभाषी का ही हो सकता था इसलिए स्वभाविकरूप से पलट कर देखा तो अपने ही सहकर्मियों को सपरिवार वहाँ पाया जो कि कश्मीर से लौट रहे थे और हम जाने वाले थे। जिन्होंने आवाज़ दी थी, उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हारी शक्ल नहीं देखी थी बस पीछे से ही देखकर आवाज़ दे दी थी। मैंने भी कहा कि उम्मीद नहीं थी कि ऑफिस के लोग यहाँ मिल जाएँगे सिर्फ अपने नाम का बांगला उच्चारण सुनकर ही पीछे मुड़कर देखा था कि हां यह आवाज़ मेरे लिए ही है।)  

– नीलम शर्मा अंशु

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्‍दा, संजय दत्‍त का इंटरव्यू नहीं हुआ, तरककी अच्‍छी है उन साहब की भी जो इतने साल बाद भी पहचान गए

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