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21 सितंबर 1926 को लाहौर से लगभग 40 कि. मी. दूर कसूर कस्बे के एक नाचने- गाने वाले परिवार में एक खूबसूरत सी बच्ची का जन्म हुआ। नाम रखा गया अल्लाह रख्खी। बच्ची को खुदा ने जितनी बेमिसाल खूबसूरती बख्शी थी, उतनी ही पुरकशिश आवाज़ भी। पांच साल की उम्र में जब अधिकांश बच्चे तुतला रहे होते हैं, उस वक्त अल्लाह रख्खी ने तत्कालीन गायकों की शैली में गाना भी शुरू कर दिया था।
मात्र 8 वर्ष की नन्हीं उम्र में कलकत्ते की एक फ़िल्म कंपनी ने उसे प्ले बैक का मौका दिया। निर्माता निर्देशक अभिनेता बिट्ठलदास पांचोटिया के अनुसार 1935 में उन्होंने सबसे पहले मादन थियेटर कलकत्ता द्वारा निर्मित फ़िल्म गैबी गोलामें पहली बार अल्लाह रख्खी को बाल कलाकार यानी बेबी नूरजहां के रूप में पेश किया। परंतु संगीतकार गुलाम हैदर के निर्देशन में 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने पंजाबी फ़िल्म गुल-बकावली में पहली बार गाया।
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फ़िल्म खानदान की असाधारण सफलता नूरजहां को उड़ा कर बंबई ले गई। बंबई फ़िल्म नगरी में वे अकेली नहीं गईं साथ वे अपनी शोख पंजाबीयत भी ले गईं। वहाँ 1943 में सआदत हसन मंटो की कहानी पर शौकत रिज़वी की फ़िल्म नौकर में काम किया जिसमें शोभना समर्थ और चंद्रमोहन ने भी मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं।
1943 में जिया सरहदी द्वारा निर्देशित फ़िल्म नादान प्रदर्शित हुई, जिसमें संगीतकार के. दत्ता के निर्देशन में उन्होंने पहली बार कई गीत गाए। फिर शौकत रिज़वी ने दोस्त का निर्देशन किया, फ़िल्म तो चली नहीं पर सज्जाद हुसैन के गीत काफ़ी हिट रहे। 1945 में नूरजहां अभिनीत चार फ़िल्में रिलीज़ हुई, उनमें ज़ीनत ने बहुत धूम मचाई और फ़िल्म के गीत भी बहुत पसंद किए गए। गीत हैं- नाचो सितारो नाचो/ बुलबुलो मत रो यहां / आंधियां ग़म की और क़व्वाली आहें न भरी शिकवे न किए। संगीतकार श्याम सुंदर ने फ़िल्म विलेज गर्ल में नूरजहां से पहली बार कई खूबसूरत गीत गवाए, जिनमें, बैठी हूं तेरी याद का लेकर सहारा/ किस तरह भूलेगा दिल/ ये कौन हंसा/ और सजन परदेसी प्रमुख हैं।
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दरअसल अनमोल घड़ी का संगीत, कहानी का अनूठापन, इसकी कास्ट, महबूब खान का निर्देशन, कुछ ऐसी बातें थीं जो नूरजहां को फ़िल्म Art के field में काफ़ी आगे तक ले गईं। 1946 में नूरजहां की दो फ़िल्में और आईं। एक थी दिल और दूसरी हमजोली। परंतु इन फ़िल्मों के गीत ज़्यादा पॉपुलर नहीं हो सके। इसी साल रिलीज नूरजहां – त्रिलोक कपूर अभिनीत फ़िल्ममिर्ज़ा साहिबा के गीत भी बेहद हिट हुए थे। कुछ गीतों की धुनें हुस्न लाल भगत राम ने बनाई थीं तो कुछ की अमरनाथ ने।
1947 में शौकत रिज़वी के निर्देशन में आई फ़िल्म जुगनु जिसमें दिलीप कुमार नायक थे। फ़िरोज़ निज़ामी द्वारा संगीतबद्ध इस फ़िल्म के गीतों ने अपार शोहरत हासिल की। सर्वाधिक हिट डूयेट था – यहां बदला वफ़ा का सिवाए बेवफ़ाई के क्या है। नूरजहां का साथ दिया था मु. रफ़ी साहब ने। ये तो आप जानते ही हैं कि रफ़ी साहब का नूरजहां के साथ गाया यह इकलौता गीत है। टोरांटोवासी रफ़ी साहब के बड़े भाई हमीद साहब के अनुसार रफ़ी उस दिन बहुत नर्वस थे। नूरजहाँ जी ने खुद अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया और हौंसला बढ़ाया।
अविभाजित हिन्दुस्तान में जुगनु उनकी अंतिम फ़िल्म थी। देश विभाजन के बाद नूरजहां लाहौर वापिस चली गईँ। जहां कोई गायक या गायिका वहाँ शौकत हसन के साथ मिलकर सटुडियो खोला – शाहनूर। 1951 में शाहनूर के बैनर तले उन्होंने शौकत रिजवी निर्मित पंजाबी फ़िल्म चन्न वे का निर्देशन किया और वे पाकिस्तान की पहली महिला फ़िल्म निर्देशक बन गईं।
1953 में उनकी दो फ़िल्में रिलीज हुईं ‘दुपट्टा’ और ‘गुलनार’। दुपट्टा का संगीत दिया था फिरोज़ निज़ामी ने। मशहूर गीत रहे – जिगर की आग से इस दिल को जलता देखते जाओ चांदनी रातें तुम ज़िंदगी को ग़म का फ़साना बना गए मैं बन पतंग उड़ जाऊँ।
गुलनार के संगीतकार थे गुलाम हैदर। पॉपुलर गीत थे – बचपन की यादगारों मैं तुमको ढूंढती हूं /लो चल दिए हमको तसल्ली दिए बगैर/ सखी री नहीं आए सजनवा मोर वगैरह वगैरह।
नूरजहां के समकालीनों में अमीरबाई कर्नाटकी, ज़ोहराबाई अंबालावाली जैसी गायिकाएं और नायिका गायिका खुर्शीद रहीं। अगर वो युग शमशाद बेगम, सुरैया, राजकुमारी, पारुल घोष, काननबाला, जूथिका राय जैसी दिग्गज गायिकाओं का था तो इन सब में नूरजहां ने अपनी अलग पहचान बनाई। भले ही कुंदनलाल सहगल, पहाड़ी सान्याल, सुरेन्दर, जी.एम. दुर्रानी, जगमोहन, के. सी. डे जैसे गायकों का जादू भी लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, फिर भी इन सब में नूरजहां की गायकी की कशिश अलग ही थी।
बकौल सुरेन्दर – नूरजहां की आवाज़ में तिलिस्म ही था, उनके साथ गाते-गाते न जाने कितनी बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी लाईन ही भूल जाता, उनकी आवाज़ में खोया रहता।
1951 से 1960 तक उन्होंने 13 फ़िल्मों में काम किया पाकिस्तान में उन दिनों उर्दू के मुकाबले पंजाबी फ़िल्में ज़्यादा बनती थीं। नूरजहां ने उर्दू, पंजाबी, पश्तो, सिंधी भाषा में बनी फ़िल्मों में प्लेबैक का रिकॉर्ड बनाया। उनके इस रिकॉर्ड को कोई अन्य पाकिस्तानी गायिका नहीं तोड़ पाई है।
नूरजहां की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लता मंगेशकर भी उनकी प्रशंसक हैं। वे जब पहली बार संगीतकार गुलाम हैदर के पास ऑडिशन देने गई थीं तो उन्होंने फ़िल्म ज़ीनत में नूरजहां जी का गाया गीत - ‘बुलबुलो मत रो यहां आंसू बहाना हैं मना’ गाकर सुनाया था। इसे सुनकर गुलाम हैदर ने उन्हें फ़िल्म ‘मजबूर’ में गाने का मौका दिया था।
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एक किस्सा शेयर करना चाहूंगी। टोरांटो वासी मेरे दोस्त इकबाल माहल वहां म्युज़िकल शोज़ का आयोजन करते हैं। जगजीत सिंह उनके यहां ठहरे हुए थे। ऐसे में एक बार उन्हें मैडम नूरजहां ने फोन करके जगजीत सिंह का प्रोग्राम सुनने की ख्वाहिश जताई। सोचिए मंच पर जगजीत और दर्शकों में सामने बैठ मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां उनके गायन का लुत्फ़ उठा रही थीं। नूरजहां का एक प्रशंसक उनके घुटनों के पास आ बैठा। जोश में आकर वह उनके घुटने दबाने लगता। वे अपने घुटने इधर-उधर करके प्रशंसक के उत्साह से बचने की कोशिश कर रही थीं। आखिर नूरजहां जी ने इकबाल जीक के कान में कहा, इस आदमी से पीछा छुड़ाओ।
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23 दिसंबर, 2000 को नूरजहां इस नूरानी जहां को अलविदा कह गईं। करांची में वे अपनी बेटी और दामाद के हसन सरदार के पास थीं, जो कि मशहूर खिलाड़ी थे। दोपहर बाद तबीयत ज़्यादा ख़राब होने पर अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में उन्होंने तम तोड़ दिया। उनकी पोती ने भी नौशाद के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ताजमहल The Eternal Love Story में acting की थी, लेकिन फ़िल्म कुछ ख़ास चल नहीं पाई।
नूरजहां जी को इस बात का फ़ख्र रहा है कि हिन्दी फ़िल्मों में सलवार-कमीज़ पोशाक का चलन उन्हीं से शुरू हुआ। पंजाबी संगीत प्रेमियों के लिए ये गर्व की बात रही कि उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों के लिए सर्वाधिक प्ले बैक किया।
प्रस्तुति - नीलम अंशु